अजय चन्द्रवंशी
अतीत से भारतीय समाज मे कई प्रजाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोग आकर घुलते-मिलते रहे हैं. इनमे से कइयों की पहचान आज बाकी नही है; कइयों की आंशिक है, तो कुछ अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखे हैं. इन सभी ने भारतीय समाज को प्रभावित किया और इनसे प्रभावित हुए, इसलिए जिसे आज हम भारतीयता कहते हैं, कई सांस्कृतिक इकाइयों की समग्र पहचान है. इस्लाम भी एक ऐसा धर्म है जिसने काफी लंबे समय से भारतीय समाज को प्रभावित किया और उससे प्रभावित हुआ. काफी समय तक यह शासक वर्ग का भी धर्म रहा है, इसलिए यह अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी भी रहा.इस्लाम के एकेश्वरवाद और समानता के सिद्धांत ने लोगों को प्रभावित किया, खासकर दलित वर्ग को.हिन्दू समाज मे व्याप्त अश्पृश्यता से त्रस्त इस वर्ग के लोगों ने इस्लाम को तेजी से ग्रहण किया, बावजूद इसके बल प्रयोग से भी धर्मांतरण के उदाहरण मिलते हैं.
वर्गीय स्तरीकरण हर समाज मे रहा है, जिसमे पेशागत शुचिता-अशुचिता भी शामिल है. अक्सर 'अशुद्ध' कहे जाने वाले व्यवसाय में लगें लोगों को समाज मे उचित सम्मान नही मिलता, और वे आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर रहते हैं. इस दृष्टि से भारतीय समाज मे व्याप्त जातिप्रथा में विशिष्टता के साथ कुछ सामान्य तत्व भी हैं जो कमोवेश दुनिया के हर समाज मे हैं. इसलिए जब इस्लाम का भारतीय समाज मे प्रवेश हुआ तो, लंबे अन्तःक्रिया से जातिप्रथा ने उसे भी प्रभावित किया और निम्न कहे जाने वाले पेशे में लगे लोगों को वहां भी नीचा स्थान प्राप्त हुआ.
इसके साथ इस्लाम के अनुयायियों के अपने विवाद भी रहे हैं; जैसे शिया-सुन्नी विवाद, सुन्नी के अंदर भी अलग-अलग मान्यताओं के कारण देवबन्दी(बहाबी) और बरेलवी विवाद, सैयद-कुरैशी स्तरीकरण. यहां भी देवबन्दी और कुरैशियों को निम्न समझा जाता है और उनके साथ रोटी-बेटी के सम्बंध से बचा जाता है.
भारतीय मुसलमानों के साथ एक दूसरी समस्या ,जो वैश्विक स्तर से अलग नही है, नब्बे के दशक में उभरे नव साम्राज्यवाद, धार्मिक पुनरुत्थानवाद से जुड़ी हुई है. जिसकी चरम परिणीति ग्यारह सितम्बर दो हजार एक के घटना के बाद हुई. यह सच है कि इस्लाम के नाम पर भी कुछ तत्वों द्वारा आतंकवाद को बढ़ावा दिया गया मगर इसकी कीमत उन निर्दोष मुसलमानों को चुकानी पड़ी जो इनसे दूर रोजी-रोटी के लिये संघर्ष करते हुए आम नागरिक की तरह जीवन जी रहे थें. हमारे देश मे ही बाबरी मस्जिद विद्ध्वंश, मुम्बई ब्लास्ट से लेकर गुजरात दंगे तक, और उसके बाद भी एक ऐसा वातावरण बन गया जहां परस्पर अविश्वास, अफ़वाह हावी हो गया. मुसलमानों की निष्ठा को शक से देखा जाने लगा, अप्रत्यक्ष रूप से उनसे देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगा जाने लगा, उनके कुछ सांस्कृतिक भिन्नता को 'निकृष्टता' से जोड़े जाने लगा. जाहिर है समाज का ध्रुवीकरण बढ़ा .जो जहां अल्पसंख्यक है खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा और अपने समुदाय तक सिकुड़ने लगा.
इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ना ही था. कुछ मुस्लिम युवक साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़ गए. कुछ जो धार्मिक कर्मकांडो से दूर रहते थे, उसकी तरफ आकर्षित हुए, यह एक प्रकार से प्रति-संस्कृतिकरण है, जो अपनी पहचान की संकट के सोच से पैदा होता है. ये सारी घटनाएं सहज नही हुई है; साम्प्रदायिक संगठन इसको हवा देते रहे हैं, जिसका सीधा सम्बन्ध राजनीति से है. राजनीति यह काम पहले भी करती रही है, किसकी जड़ें गहरी है,चौरासी के सिक्ख विरोधी दंगे की तरफ लेखक ने ठीक ही इशारा किया है.
वर्गीय स्तरीकरण हर समाज मे रहा है, जिसमे पेशागत शुचिता-अशुचिता भी शामिल है. अक्सर 'अशुद्ध' कहे जाने वाले व्यवसाय में लगें लोगों को समाज मे उचित सम्मान नही मिलता, और वे आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर रहते हैं. इस दृष्टि से भारतीय समाज मे व्याप्त जातिप्रथा में विशिष्टता के साथ कुछ सामान्य तत्व भी हैं जो कमोवेश दुनिया के हर समाज मे हैं. इसलिए जब इस्लाम का भारतीय समाज मे प्रवेश हुआ तो, लंबे अन्तःक्रिया से जातिप्रथा ने उसे भी प्रभावित किया और निम्न कहे जाने वाले पेशे में लगे लोगों को वहां भी नीचा स्थान प्राप्त हुआ.
इसके साथ इस्लाम के अनुयायियों के अपने विवाद भी रहे हैं; जैसे शिया-सुन्नी विवाद, सुन्नी के अंदर भी अलग-अलग मान्यताओं के कारण देवबन्दी(बहाबी) और बरेलवी विवाद, सैयद-कुरैशी स्तरीकरण. यहां भी देवबन्दी और कुरैशियों को निम्न समझा जाता है और उनके साथ रोटी-बेटी के सम्बंध से बचा जाता है.
भारतीय मुसलमानों के साथ एक दूसरी समस्या ,जो वैश्विक स्तर से अलग नही है, नब्बे के दशक में उभरे नव साम्राज्यवाद, धार्मिक पुनरुत्थानवाद से जुड़ी हुई है. जिसकी चरम परिणीति ग्यारह सितम्बर दो हजार एक के घटना के बाद हुई. यह सच है कि इस्लाम के नाम पर भी कुछ तत्वों द्वारा आतंकवाद को बढ़ावा दिया गया मगर इसकी कीमत उन निर्दोष मुसलमानों को चुकानी पड़ी जो इनसे दूर रोजी-रोटी के लिये संघर्ष करते हुए आम नागरिक की तरह जीवन जी रहे थें. हमारे देश मे ही बाबरी मस्जिद विद्ध्वंश, मुम्बई ब्लास्ट से लेकर गुजरात दंगे तक, और उसके बाद भी एक ऐसा वातावरण बन गया जहां परस्पर अविश्वास, अफ़वाह हावी हो गया. मुसलमानों की निष्ठा को शक से देखा जाने लगा, अप्रत्यक्ष रूप से उनसे देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगा जाने लगा, उनके कुछ सांस्कृतिक भिन्नता को 'निकृष्टता' से जोड़े जाने लगा. जाहिर है समाज का ध्रुवीकरण बढ़ा .जो जहां अल्पसंख्यक है खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा और अपने समुदाय तक सिकुड़ने लगा.
इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ना ही था. कुछ मुस्लिम युवक साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़ गए. कुछ जो धार्मिक कर्मकांडो से दूर रहते थे, उसकी तरफ आकर्षित हुए, यह एक प्रकार से प्रति-संस्कृतिकरण है, जो अपनी पहचान की संकट के सोच से पैदा होता है. ये सारी घटनाएं सहज नही हुई है; साम्प्रदायिक संगठन इसको हवा देते रहे हैं, जिसका सीधा सम्बन्ध राजनीति से है. राजनीति यह काम पहले भी करती रही है, किसकी जड़ें गहरी है,चौरासी के सिक्ख विरोधी दंगे की तरफ लेखक ने ठीक ही इशारा किया है.
अनवर सुहैल जी की कहानी संग्रह 'गहरी जड़ें' की कहानियाँ मुख्यतः ऊपर उल्लेखित दोनों समस्याओं पर केंद्रित है. संग्रह में ग्यारह कहानियाँ हैं जो भारतीय मुस्लिम समाज पर केंद्रित है, लेखक ने इसे उल्लेखित भी किया है.यहां भी किसी भी अन्य समाज की तरह वे समस्याएं है जिनसे आदमी दो-चार होता है. अंधविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, गंडा-ताबीज़, फूँक-झाड़ यहां भी है.पहली ही कहानी 'नीला हाथी' में 'कल्लू' का चरित्र हो या 'पीरू हज्जाम उर्फ हज़रत जी' में 'हजरत जी' का चरित्र दोनों इसका फायदा उठाते हैं. हजरत जी हज़ामत के धंधे से 'जिंदा वली' तक का सफ़र सफलता से तय करते हैं. कल्लू का चरित्र जरूर थोड़ा अलग है, वह हुनरमंद है, मूर्तियां बनाने में दक्ष है मगर धार्मिक पाबंदी और पाखंड के कारण उसके हुनर का सम्मान नहीं होता, और एक तरह से मजबूरी में रोजी-रोटी के लिये 'बाबा' बनता है.
संग्रह में स्त्री पात्र पर केंद्रित कहानियां भी हैं. यहां भी स्त्री की समस्याएं लगभग वही हैं जो हर जगह हैं, पुरुषवाद, पुत्रमोह, सम्पत्ति से बेदखल, स्त्री को द्वितीयक समझना आदि. 'नसीबन' को कोई कमी नही होने पर भी पुरुष के कमियों की सजा मिलती है. 'चहल्लुम' में बेटे-बहुओं द्वारा माता-पिता की उपेक्षा, सम्पत्ति का लालच, माँ के दुख तक को अपनी सुविधा में खलल मानना, जैसी समस्याओं को उकेरा गया है. यहां स्पष्ट है कि स्वार्थ के लिए एक स्त्री भी दूसरे स्त्री का शोषण करती है.आखिर में अम्मी का घर से बाहर निकलना नयी चेतना का संकेत है. 'पुरानी रस्सी' जनजातीय-ग्रामीण महिला की कहानी है जो अपेक्षाकृत स्वतंत्र होती है, जिंदादिली से जीवन जीती है, मगर आर्थिक समस्या उसकी अल्हड़ता को छीन लेती है.'पीरू हज्जाम उर्फ हज़रत जी' मे कुसुम भी आर्थिक समस्या से त्रस्त होकर 'कुलसुम' बनती है. मगर उसके अपने स्वार्थ भी जागृत होते हैं, जिसे कई तरीकों से साधती है.
'फत्ते भाई' में फत्ते भाई आम मुस्लिम है जो हिन्दू समाज के साथ घुल-मिलकर रहता आया है, इसलिए वह हर चीज को धार्मिक दृष्टि से नही देखता और' इलाज 'के लिए बजरंग बली का प्रसाद ग्रहण कर लेता है. मगर समाज का एक वर्ग इसे स्वीकार नही करता और धर्म विपरीत कार्य मानता है, यह समाज के टूटते साम्प्रदायिक सौहार्द को बताता है. 'कुंजड़ कसाई' में अहमद लतीफ़ इसलिए निम्न है क्योंकि वह कुरैशी है सैयद नही; यह जातिवाद का परिणाम है.
'ग्यारह सितम्बर के बाद', 'गहरी जड़ें', 'दहशत गर्द', ग्यारह सितम्बर दो हजार एक कि घटना के बाद उभरे साम्प्रदायिक माहौल में आम मुस्लिम के साथ किये जाने वाले व्यवहार, उसके द्वंद्व, तनाव, प्रतिक्रिया, असुरक्षा की भावना, अपमान, खीझता, विचलन को चित्रित करती कहानियाँ हैं. समाज मे हर कोई उनसे वफ़ादारी का सबूत चाहने लगा, उन पर व्यंग्य किया जाने लगा. जाहिर है इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी हुई और कुछ लोग 'दहशतगर्द' भी हो गयें. मगर आम मुसलमान का जीवन दूभर हो गया. हालांकि इस समस्या की जड़ें गहरी हैं, जो इतिहास के ज़मीन तक धंसी हैं.
कथाकार के कहन का ढंग 'सरल' है, बातें स्पष्ट है, जिसे सामान्य पाठक भी आसानी से समझ लेगा.कथाकार उस समाज का हिस्सा है जिसकी कहानी वह कह रहा है, इसलिए उसकी संपृक्ति स्वाभाविक है. कई बार हम जिसको करीब से नही जानते उसके बारे में कई कल्पित चित्र बना लेते हैं, जो यथार्थ से दूर होता है.इन कहानियों को पढ़कर इस बात का अहसास बराबर होता है. कुल मिलाकर यह संग्रह हमारी सम्वेदना को झकझोरती है; और संवेदना ही हमे मानवीयता के तरफ ले जाती है.
अजय चंन्द्रवंशी,
राजा फ़ुलवारी के सामने, कवर्धा
छ. ग. 491995
मो - 9893728320
राजा फ़ुलवारी के सामने, कवर्धा
छ. ग. 491995
मो - 9893728320
पुस्तक-गहरी जड़ें (कहानी संग्रह)
लेखक- अनवर सुहैल
लेखक- अनवर सुहैल