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Sunday, December 20, 2009

स्मरण नमन

केपी उर्फ़ कुंवरपाल  सिंह 


वह  एक  सजग  बागवान  था  
अच्छी  नस्ल  के  पौधों  की 
देखभाल  तो  सभी  किया  करते  हैं 
वह  सींचता  था  कमज़ोर  पौधों  को 
वह  पौधों  के  अनुकूल  करता  था  वातावरण  तैयार 
वह  पौधों  को  'शेप'   देता  था 


वह  एक  सजग  बागवान  था 
वह  जनता  था  की 
फूल  उसके  किसी  काम  के  नहीं 
फल  से  उसे  मतलब  न  था 
फिर  भी वह  निस्वार्थ 
देखता  था  पौधों  को 
ऐसी  नज़र  से 
जैसे  देखती  हो  माँ 
अपने  बच्चों  को 
                               अनवर सुहैल

Sunday, November 29, 2009

चावल का दाना

अनवर सुहैल की कविता %


चावल का दाना

बचपन से इस्तेमाल करते रहने के बावजूद
सचमुच] तुम्हारी तरह 
मैं भी नहीं जानता था 
कि बनता है कैसे चावल का एक दाना


ऐसा नहीं कि हम करोडपति के बेटे हैं
ऐसा नहीं कि हम महानगरों में पले बढे हैं
लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार में 
हाथ पहुंच सुविधाओं के बीच 
जन्म लेने के कारण
नहा नहीं पाए हम किसी नदी में 
आउटडोर संडास में लोटा लेकर गए नहीं
ढिबरी की रोशनी में पढे नहीं कभी
बारिश में टपकती छप्पर के नीचे रहे नहीं कभी 
शायद इसीलिए जाने नहीं खेत खलिहान की हक़ीक़त
किसानों के दुख दर्द
और जान नहीं पाए] कैसे बनता है चावल का एक दाना---


तुम्हारी तरह] मैं यही जानता था 
कि हर महीने के पहले सप्ताह
पिता पाते पगार
हो जाते थे उदार
और फ़िर भर जाते घर के 
तमाम डब्बे कनस्तर] राशन पानी से
स्कूल फ़ीस का समय से होता था भुगतान
फटने से पहले मिल जाते थे नए वस्त्र
तीज त्योहार विधि विधान से मनते थे
और हमें क्या चाहिए था 
जो रहें परेशान कि चावल कैसे है बनता\


खेतों को देखा था हमने सफ़र के दौरान 
ट्रेन या बस की खिडकी से  
या बम्बइया सिनेमा के 
गांव] गाय] गंवार और गोरी प्रसंग
या प्रेमचंद साहित्य के 
किसान महाजन] खेत खलिहान
कीचड कांदो और अंधेरे के साम्राज्य 
इतना ही तो था 
गांव और खेतों से परिचय हमारा


हम नहीं जानते थे 
कि सदियों से 
साहूकारों] ज़मीन्दारों] वर्दीधारियों 
और नेताओं से जूझता आ रहा किसान 
नहीं हुआ आज तक
उनकी समस्या का कोई समाधान

चावल का एक दाना बनना
एक कठिन प्रक्रिया है दोस्त
श्रम साध्य] उबाऊ] एक बेहद लम्बी साधना है 
इसे मैंने जाना
खदान में काम पर जाने के दौरान
खेतों के बीच से गुज़रते हुए
लगभग छ% माह की 
हाड तोड इबादत का फ़ल है 
चावल का एक दाना


किसानों की उम्मीदों के धूप-छांव का
किसानों के पसीने के छिडकाव का
मेहनतकश गीतों की आरती का
होता है प्रतिफल चावल का एक दाना


जब हम गर्मियों में 
ठंडक खोजने जाते पहाडों में]
ठीक उसी समय 
कितनी शिद्दत से देखता किसान 
आग उगलते सूने आसमान में
खोजता बादलों के निशान
निहारता खेत की मिट्टी
जो उसकी एडियों की तरह
दीखती कटी फटी


ऐसे समय में  
जब आप देख रहे होते ख्वाब 
रियल स्टेट में इन्वेस्टमेंट का
किसान देखता स्वप्न 
पानी से भरे झूमते बादलों का
जब आप को होती चिन्ता 
सेंसेक्स में गिरावट की
किसान खेत जुताई के लिए रहता परेशान
उसे होती चिन्ता
बीज और खाद का कैसे होगा जुगाड
बरसे नहीं भगवान तो फिर
बिटिया के गौने का कैसे होगा इंतेज़ाम
कैसे पटेगा साहूकार का कर्ज़ श्रीमान

भारत किसानों का देश है
यहां चंद लोग इंडिया में रहते हैं
जो नहीं जानते कि
चावल किसी कारखाने का उत्पाद नहीं
बल्कि खेत में पैदा किया जाता है


वे जानना भी नहीं चाहते 
कि चावल उगाया जाता है कैसे
कैसे बोया जाता है बीज
कैसे धान की बालियों में आता है दूध 
कैसे पकती हैं धान की बालियां
कैसे लीप-पोत कर किया जाता तैयार खलिहान
जैसे धान हो किसान के मेहमान
अन्नपूर्णा देवी का वरदान---


इसीलिए मैने चाहा] बता दूं तुम्हें दोस्त 
कि चावल के एक दाना
बनता कितनी मुश्किलों से है---

Monday, August 31, 2009

paakhi me prakashit pahchan ki samiksha ki pratrikriya

pehchan novel in hindi published by rajkamal prakashan delhi, page 150 price 200/- ---

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था---

                                                 अनवर सुहैल   
            
अपने उपन्यास का ज़िक्र पाखी में देख लगा कि पहचान के जिस संकट से 
मेरा नायक यूनुस जूझ रहा है उसे अभी जाने कब तक यूं ही जूझना होगा। 
देश के लोगों की मानसिक स्थिति अभी वैसी की वैसी है। 
मेरी इस धारणा को बल मिला धर्मव्रत चौधरी की आलोचना पद्धति देख कर। 
उनकी भी वही धारणा है कि उनके भारत देश में मियां लोग चार शादियां करते हैं. ढेर सारे 
बच्चे पैदा करते हैं. लाइल्मी के दौर से गुज़रते हैं.  मलेच्छ की तरह रहते हैं.  मांस खाते हैं सो 
स्वभाव से तामसिक होते हैं, गौवध करते हैं, बडे झगडालू होते हैं, हिन्दुओं को काफ़िर कहते 
हैं, अपनी दुनिया में खोए रहते हैं, जेहादी होते हैं, आतंकवादी होते हैं, रहते भारत में और गाते
पाकिस्तान की हैं। पाकिस्तान ले लेने के बाद भी भारत माता का का खून चूस रहे हैं ये मुसल्ले---
लगता है कि आलोचक धर्मव्रत चौधरी ने उपन्यास पढना ही इसी नीयत से शुरु किया 
है कि अनवर सुहैल एक सांप्रदायिक सोच का लेखक है और उसका नज़रिया संकीर्ण है। अनवर 
सुहैल कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुटिकरण नीति का समर्थक है।
पहचान उपन्यास की आलोचना के अंत तक आते आते धर्मवीर चौधरी ने यह समझाईश 
तक दे डाली है कि
‍'' यह समझना और समझाना कठिन है कि वन्दे मातरम के  गाने से अल्लाताला का 
सिंहासन डोल जाएगा। दूसरी तरफ़ संघ यह सिध्द कर सकता है कि देश के सभी हिन्दू वन्दे मातरम
गाते हैं। इस देश में ऎसे करोडों हिन्दू मिल जाएंगे जिन्होनें वन्दे मातरम सुना तक नहीं होगा। इस 
तरह के अतिवादी मानसिकता वाले लोगों यह समझना चाहिए बिना वन्दे मातरम  गाए भी देश भक्त 
हुआ जा सकता है। और मुसलमानों को वन्दे मातरम के शब्दार्थ के बजाए संदर्भ पर ध्यान देना 
चाहिए। और इसे एक बार गाकर देखना चाहिए कि इसे गाने से इस्लाम पर कौन सा पहाड टूट पडता 
है।''
मैं एक कवि हूं, कथाकार हूं। उपन्यास लिखने का जोखिम क्यों उठाता भला। वह भला हो
यूनुस का और सलीम का, साथ ही भाई नरेन्द्र मोदी का जिन्होने मिल जुल कर मुझसे एक नावेल फंदवा
लिया। मैं कथा में ऎसा डूबा कि बातें खुलती गईं और नावेल तैयार हो गया। 
मेरा उपन्यास लिखने का सबसे बडा कारण ये है कि मैं मुस्लिम समाज के लोगों को खास
कर युवकों को ये संदेश देना चाहता हूं कि वे हिन्दुस्तान में रहने वाली नई पीढी में शामिल हैं। वह
ज़माना और था जब बंटवारा हुआ था और इंसानों के बीच ऎसी खाई खोद दी गई थी कि उसे पाटने
में कई दशक गुज़र गए। अब दुनिया वैसी नहीं रह गई है कि शुतुर्मुर्ग की तरह जिया जाए। अब समय 
आ गया है कि प्रत्येक भारतीय को धर्म की व्याख्या स्वयं करना चाहिए और इस उपभोक्तावादी समय
की ज़रुरतों को ध्यान में रखकर कर्मकाण्ड और अंध विश्वास से बचना चाहिए। यह दौर टेक्नालाजी का
है और मुस्लिम युवकों को हुनरमंद होना चाहिए। स्वालंबी होकर देश की मुख्य धारा में आ जाना 
चाहिए। मुख्य धारा यानी विहिप का हिन्दत्व में नहीं बल्कि सेक्यूलर, स्वतंत्र भारत का जागरुक
नागरिक बने।
यही कारण है कि उपन्यास का नायक इधर उधर भटकते भटकते अंत में इतनी सलाहियत पैदा 
कर लेता कि अपनी रोज़ी रोटी स्वयं कमाने के योग्य बन जाता है। यही तो चाहती हैं सरकारें हमारी और 
यही तो हम भी चाहते हैं। हम कहां बोल रहे हैं कि हमारे पात्र सिमी का सदस्य बनें, अल कायदा में शामिल हों, 
या उग्रवादी संगठनों का हिस्सा बनें।
हां, भाई धर्मव्रत जी, मैं दुर्भाग्यवश मुस्लिम परिवेश की पैदाईश हूं। अब आप ही बताएं कि
अपने परिवेश का सफल प्रवक्ता मेरे अलावा और कौन हो सकता है? आप कहते हैं कि मुझे कश्मीरी विस्थापितों 
का दर्द दिखलाई नहीं देता? तो ये डिफ़रेन्सेज आपकी डिक्शनरी में मौजूद हैं, मैंने तो बडी ईमानदारी से अपनी 
बात कहने के लिए उस समाज से पात्र चयन किए हैं जिन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं।
आपके हिसाब से यदि इस मुल्क में मुसलमान किराएदार की हैसियत से रह रहे हैं तो मुझे इससे
इत्तेफ़ाक नहीं है। ये मुल्क जितना आपका है उतना हमारा भी है...

Monday, August 10, 2009

कवि कथाकार

प्रकाशन

कहानी संग्रह
कुन्जड कसाई
ग्यारह सितंबर के बाद
चहल्लुम
उपन्यास
पहचान
दो पाटन के बीच

संपादन
संकेत