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Tuesday, August 23, 2016

अनवर सुहैल : हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं.....

अनवर सुहैल : हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं.....: k Ravindra चोटें ज़रूरी नहीं किसी धारदार हथियार की हों किसी लाठी या गोली की हों किसी नामज़द या गुमनाम दुश्मन ने घात लगाया हो इससे कोई ...

हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं.....

k Ravindra

चोटें ज़रूरी नहीं
किसी धारदार हथियार की हों
किसी लाठी या गोली की हों
किसी नामज़द या गुमनाम दुश्मन ने घात लगाया हो
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता दोस्त 
समय भर देता है बड़े से बड़ा ज़ख्म
कि जीने की विकट लालसा फिर-फिर सजा देती है
उजड़ी-बिखरी घर-गृहस्थी
जिस्म के ज़ख्मों को भूल जाता है इंसान
लेकिन तुम्हारी बातों की मार से बार-बार
हो जाता तन-मन बीमार, हताश और लाचार
तुम हो कि बाज़ नहीं आते
और बातों की गोलियां और लानतों के बम
आये दिन जख्मी कर जाते हमारे वजूद को
हम छुपा नहीं सकते खुद को
तुम्हीं बताओ कि छुपकर कब तक जिया जा सकता है
भेष बदलकर जी लेते हैं कुछ लोग
लेकिन जब पकड़ाते हैं तो पकड़ा ही जाते हैं
और जिन्होनें ने नहीं बदला भेष
उन्हें झेलनी पडती कदम-कदम पर ज़िल्लत...
हमें मालूम है भाई कि हम कितने गैर-जरूरी हैं
फिर भी हमारा वजूद तुम्हारे लिए एक मजबूरी है
जिल्द वाली किताबें हमें ताकत देती हैं
लेकिन क़ानून तो तोड़ने के लिए ही बनाये जाते हैं
न्यायाधीश के तराजू पकड़े हाथ कांपते रहते हैं
हम चीख-चीख कर कहते हैं क़ानून पर हमें भरोसा है
और तुम हंसते हो...
इस हंसी की खनक में हजार गोलियों से ज्यादा मार होती है
इसे हम ही महसूस कर सकते हैं
हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं......

Saturday, June 11, 2016

संकल्प

अभी तो मुझे 
दौड कर पार करनी है दूरियां 
अभी तो मुझे 
कूद कर फलांगना है पहाड़ 
अभी तो मुझे 
लपक कर तोडना है आम
अभी तो मुझे
जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य
अभी तो मुझे
दुखती लाल हुई आँख से
पढनी है सैकड़ों किताबें
अभी तो मुझे
सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से
करना है खूब-खूब प्या....र
तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त
मैं कभी संन्यास नही लूँगा...
और यूं ही जिंदगी के मोर्चे में
लड़ता रहूँगा
नई पीढ़ी के साथ
कंधे से कंधा मिलाकर....

Saturday, April 2, 2016

नफरतों से पैदा नहीं होगा इन्किलाब




















लेना-देना नहीं कुछ
नफरत का किसी इन्कलाब से
नफरत की कोख से कोई इन्कलाब 
होगा नहीं पैदा मेरे दोस्त
ताने, व्यंग्य, लानतें और गालियाँ
पत्थर, खंज़र, गोला-बारूद या कत्लो-गारत
यही तो हैं फसलें नफरत की खेती की...
तुम सोचते हो कि नफरत के कारोबार से
जो भीड़ इकट्ठी हो रही है
इससे होगी कभी प्रेम की बरसा ?
बार-बार लुटकर भी खुश रह सके
ये ताकत रहती है प्रेम के हिस्से में
नफरत तो तोडती है दिल
लूटती है अमन-चैन अवाम का...
प्रेम जिसकी दरकार सभी को है
इस प्रेम-विरोधी समय में
इस अमन-विरोधी समय में
इस अपमानजनक समय में
नफरत की बातें करके
जनांदोलन खड़ा करने का
दिवा-स्वप्न देखने वालों को
सिर्फ आगाह ही कर सकता है कवि
कि कविता जोड़ती है दिलों को
और नफरत तोड़ती है रिश्तों के अनुबंध
नफरत से भड़कती है बदले की आग
इस आग में सब कुछ जल जाना है फिर
प्रेम और अमन के पंछी उड़ नहीं पायेंगे
नफरत की लपटों और धुंए में कभी भी
ये हमारा रास्ता हो नहीं सकता
मुद्दतों की पीड़ा सहने की विरासत
अपमान, तिरस्कार और मृत्यु की विरासत
हमारी ताकत बन सकती है दोस्त
इस ताकत के बल पर
हम बदल देंगे दृश्य एक दिन
ज़रूर एक दिन, देखना...
(मार्च २०१६)

Tuesday, March 29, 2016

बेशक, जीतेगा उजाला ही : मनु स्वामी की कविताएँ

विचार और सम्वेदनाएँ घनीभूत होकर कविता के रूप में जितना अभिव्यक्त होती हैं उतना किसी और विधा में नहीं. शायद इसीलिए वर्तमान दौर में आहत भावनाओं की अभिव्यक्ति छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से हो रही है. ये कविता का एक ऐसा फॉर्म विकसित हुआ है जो फेसबुक की वाल के आकार की होती हैं, या ये कहें कि मोबाइल या टेब की स्क्रीन साइज़ में एडजस्ट होने वाली होती हैं. हिंदी जबसे यूनिकोड के ज़रिये बड़ी आसानी से ऑन-स्क्रीन हो गई है तब से कवि और पाठक संख्या में वृद्धि हुई है. उसी रफ्तार में लघु-पत्रिकाएं भी बढ़ीं हैं और इन पत्रिकाओं में कविता के छोटे स्वरूप को स्वीकृति मिलती जा रही है. अब लम्बी कविताएँ कम लिखी जा रही हैं. इसका मतलब ये नहीं कि लम्बी कविताओं की डिमांड नहीं है...होता ये है कि कविता के इस नए स्वरूप को पढ़ते-पढ़ते पाठकों की अभिरुचि और क्षुधा को बेशक लम्बी कविताएँ ही शांत कर सकती हैं, जिनमें विचारों और संवेदनाओं का विस्तार हो, आख्यानिक आस्वाद हो...
आज का समय इसीलिए कविता का समय है, क्योंकि आज कविता प्रतिरोध को स्वर देने का विनम्र प्रयास कर रही है. कवि महसूस कर रहा है कि विचार पर और संवेदनाओं पर पहरे डाले जा रहे हैं और कविता ही है जो एक विरोध या असहमति को सलीके से जन-मानस के समक्ष रख सकती है. सोशल साइट्स में, किताबों-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रमुखता से स्पेस कवर कर रही हैं. ये कविताएँ किसी हारमोनियम-तबले की बाट नहीं जोहतीं...किसी मजबूर के पैर में घुंघरू नहीं बंधवाती हैं. ये कविताएँ झाड-फानूस के नीचे गाव-तकिये में तोंद टिकाये खाए-अघाए लोगों का मनोरंजन करने का दावा भी नहीं करती हैं. हाँ, जब इन कविताओं में पेवस्त शब्द किसी विचार का, भावनाओं का आकार लेते हैं तो पाठक या श्रोता सहज ही इनसे खुद को जोड़ लेता है. यही कनेक्टिविटी आज की कविता की ताकत है जो पाठकों की बौद्धिक या तार्किक समझ का इम्तेहान नहीं लेती बल्कि सीधे-सीधे अपनी बात कहती है. ये सहजपन कविता की कमजोरी नहीं है...कलावादी-रूपवादी मित्र नाक-भौं सिकोडा करें भले से. इसे कविता का लोक से जुड़ाव कहा जा सकता है. कवि का अपना भावलोक होता है, अपना अनुभव-संसार होता है और प्रकृति में व्याप्त लोक-तत्व बिम्ब-प्रतीकों के रूप में अभिव्यक्ति को एक आयाम देते हैं. ये आयाम ही तो प्रथम-दृष्टया कविता को पाठक से जोड़ते हैं.
मनु स्वामी का छठवां कविता संग्रह ‘सफ़र में हूँ’ मेरे समक्ष है और इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हमारे दौर में कविता के इस फॉर्म को जन-स्वीकृति मिल रही है. मनु स्वामी निरंतर कविता लिख रहे हैं...कविता के अतिरिक्त उन्होंने लघु-कथाएं और संस्मरण लिखे हैं. गद्य-लेखन कवि को असीमित करता है, मेरे विचार से कवि जब विधाओं का अतिक्रमण करने का उपक्रम करता है तब उसकी कविताओं की अर्थवत्ता और रेंज बढती है.
मनु स्वामी लोक-धर्मी कवि हैं. उनकी कविता में लोक बोलता है और जैसे उनका मन किसी यात्रा में रहता है. शायद यही कारण है कि उनका नया कविता-संग्रह ‘सफ़र में हूँ’ कवि की चेतना को एक जगह रुकने नहीं देती और नित नये भावलोक से यात्रा को पडाव से कवि दो-चार होता रहता है.
कवि मनु स्वामी के बिम्ब प्रतीक एक नये रूप में नई आभा के साथ प्रदीप्त होते हैं...ऐसे में मैदान की ‘दूब’ संघर्षरत आम-आदमी का आकार लेकर हमारे समक्ष आती है. ‘दूब’ जिसे गुड़ाई या निराई की ज़रूरत नहीं होती, फिर भी ह्मारे लोक में दूब अजर-अमर होती है..
ये संघर्षरत आमजन की जिजीविषा है, जिसे दूब के रूप में कविता में देखा जा सकता है---
“चाहे जब रौंद / उखाड़ दी जाती हो/ हार नहीं मानती / देखते ही देखते / हो जाती हो / हरी भरी..”
‘सर्दी’ कविता में कवि सर्दी को किसी शोषक के रूप में देखता है जो किसी आतताई की तरह डराना चाहती है आमजन को लेकिन वाह रे कवि की आमजन की प्रतिरोधात्मक सहनशीलता के प्रति आस्था...
‘सर्दी/ कितना ही / पैना कर ले / नश्तर/ कोहरे में डूबे / भोपा पुल के नीचे / जमा हो गये / खेस लपेटे / मिस्त्री और मजदूर...”
पर्यावरण से छेड़छाड़ का दुष्प्रभाव है प्रदूषण जिससे नदी अब एक ऐसे नाले में तब्दील होती जा रही है कि मन खिन्न हो उठता है. ‘काली नदी’ कविता में कवि फिर भी नदी की मृतप्राय देह पर आस्था के दीप जलाए बैठा दीखता है---“वो तो / माँ- सा / मन रखती हूँ / इसीलिए / थमी हूँ..”
छोटे-छोटे वाक्य से अद्भुत चित्रात्मक कम्पोजीशन रचते है मनु स्वामी कविताई में...
मुज़फ्फरनगर के शायर मौजुद्दीन ‘बावरा’ को याद करती कविता जैसे गंगा-जमनी तहजीब की विरासत को बचाए रखने का आव्हान करती है...
“ता-उम्र सींचते रहे / कहीं भीतर जमी/ रवायती जड़ें.
ये रवायतें हैं जो कहीं बहुत गहरे से खींच लाती हैं जीवन-रस और हरा-भरा कर देती हैं सारा परिवेश. चाहे लाख जमाना दुश्मन हो...’बावरा’ जैसी शख्सियतें एक चिराग की मानिंद रौशनी फैलाती रहेंगी.. सच है—‘’रंगे महफ़िल / उदास रहता है/ बावरा जब यहाँ / नहीं होता..’’
खेत, किसान, अन्न, श्रम और निराशा को स्वर देती कविता है ‘’अन्नदाता’’
बड़ी विडम्बना है जब पकने लगती हैं बालियाँ किसान कई सवालों से दो-चार होता है—‘’शहर/ आने लगा है/ आजकल / गाँव में/ आँखों-आँखों में / न जाने क्या/ नाप-तौल/ करता रहता है/ देखकर / धक से / रह जाता है राधे/ महज़ दस बीघा है / खेत / उस पर भी/ बदनज़र...!’
और अंत में जैसे आर्तनाद---
‘’राधे की राह/ ताक रही है/ मण्डी की / गिद्ध-दृष्टि!’’
जाने कब उबर पायेगा किसान इन सदियों पुरानी बदनज़रों और गिद्ध-दृष्टियों से...इन प्रश्नों से लोकतंत्र कभी नहीं जूझता और संसद ढीठता के साथ मौन रहती है...फिर भी हर साल किसान बीज बोता है और एक नई जिंदगी के अपने देखता है...
समाज में बुजुर्गों की दयनीय दशा और युवा संतान की बेरुखी से मनु स्वामी का कवि खिन्न रहता है. वाकई बेहया हो गई है युवा पीढ़ी जिसे बुजुर्गों की तनिक भी परवाह नहीं है. ‘रघु’ कविता में मनु स्वामी खीज कर कहते हैं---
‘’शिखंडी की मुद्रा में / यदा-कदा / अकेला आता / बेटा..!’
और व्यथा-कथा का एक आम रूप देखें---
‘’बेटा / इंजीनियर है/ शोहरत है/ माया में / खेलता है/ माँ-बाप के लिए/ नहीं है / उसकी दुनिया में / कोई कोना..’’
एक और कविता जो बड़ी देर तक मन-दिमाग में खलल डाले रहती है. ‘प्रजापति’
वृद्ध दल्मीरा प्रजापति को कविता के लोक में जैसे स्थापित करते हैं मनु स्वामी...’’बूढ़े हो गये / पर देह-मन से / चुस्त-दुरुस्त हैं/ दलमीरा...’’
और यही दलमीरा प्रजापति रचते रहते हैं पात्र...जिनमें समाता है कवि का आलोक...
मनु स्वामी हमारे गाँव-गिरांव के कवि हैं जो विकट निराशा में भी लोकरंग और लोकराग से अपने अस्तित्व को जोड़े रखता है...
ये आशा है, उम्मीदें हैं जो मनु स्वामी को लोक का कवि बनाती हैं—
‘’उजाला / पौ फटने का हो / या दीये का / अँधेरे से / ताकतवर होता है...
जीतेगा / उजाला ही...’’
मनु स्वामी की पाठकों से सम्वाद करती कविताएँ ‘सफर में हूँ’ उनकी काव्य-यात्रा को एक नई ऊंचाइयां प्रदान करती हैं.

सफर में हूँ : मनु स्वामी : २०१५
सहज प्रकाशन, 113, लाल बाग़, गांधी कालोनी, मुज़फ्फरनगर उप्र २५१००१
पृष्ठ : 80 मूल्य : १२० रुपये
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Tuesday, March 1, 2016

बुरे दिनों से निजात दिलाती कविताएँ : अनवर सुहैल




कुछ कविताएँ किसी वाद या विचार की गिरफ्त से आज़ाद होती हैं और अपने परिवेश की ऐसी उपज होती हैं जहाँ पहुंचकर सिर्फ असुविधाएं, अभाव, दुःख-दर्द की इबारतें इंसान को पशुतर बनने पर मजबूर किये रहती हैं और इंसान अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करने के लिए जिस जिजीविषा का परिचय देता है उसे ही कविता मान लेता है. जीने की कला सिखाती कवितायें, संघर्ष के हुनर से पारंगत करती कविताएँ सहज ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं. इन कविताओं को अभी भी मालूम नहीं रहता कि वे वर्ग-संघर्ष के लिए लड़ रहीं हैं हैं या फिर इंसानी हुकूक की बहाली के लिए... एक बात तो तय है कि ये कविताएँ इंसानी समाज को एक बेहतर समाज का विकल्प देने का विनम्र प्रयास करती हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मेरे सामने हैं और उनकी विगत दस-बारह वर्ष की कविताएँ ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ संग्रह के रूप में इकट्ठी संवादरत हैं. इस संग्रह से पूर्व कवि का एक संग्रह आ चूका है—‘पूरा हंसता चेहरा’. रमेश प्रजापति सिर्फ कविताई ही नहीं करते, उनके पास एक सधी आलोचकीय दृष्टि है, कहानी और लघुकथाएं भी लिखते हैं. इस तरह रमेश ये साबित करना चाहते हैं कि उनके अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी है जो उन्हें विश्यनुकुल विधा चुनने को प्रेरित करती है. कविता की अपनी सीमा होती है और कई बातें लघुकथा या कहानी की शक्ल में ज्यादा मुखर रूप में पाठकों के सम्मुख आते हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मुझे इसलिए अच्छी लगती हैं कि इनमें बडबोलापन नहीं है. ये पाठकों को बरगलाती नहीं और सीधे-सीधे अपनी बात कह जाती हैं---
‘अच्छे दिनों की रोटी में
किरकिराते हैं बुरे दिन...”
या
“तू ईश्वर है...
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ?”
और इन प्रतिकूलताओं में भी गज़ब की उम्मीदें---
“फुटपाथ पर बैठा / टांग हिलाता मजदूर
बुरे दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी भर चनों-सा.”
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें सांत्वना देने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है. ‘कौन सा दिल है जिसमें दाग नहीं...? वाकई अधिकाँश आबादी के दुःख-दर्दों की सूची दिनों-दिन बढती ही जाती है. कोई संस्था नहीं, कोई व्यवस्था नहीं जो इस मर्ज़ का उपचार करने का दावा करे...संसार के सारे वाद, विचार और हथकंडे इन लोगों को दुःख-दर्दों से निजात दिलाने में नाकाम रही हैं. असहमति, नफ़रत और युद्ध ही इन व्यवस्थाओं के औज़ार हैं. अपनी बात को तार्किक साबित करने के लिए इनके पास किताबें हैं, क़ानून है, सैनिक हैं, हथियार हैं और निरंकुशता भी है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी कवि और कविता अभिशप्त इंसान को उम्मीदों के ख़्वाब दिखलाती रहती है...ये क्या कम है? पाठकों के कुंद हुए दिलो-दिमाग में सहमति की जगह सवाल पैदा करने की हिम्मत कविता ही दे रही है---
“जब बर्फ सा जम गया हो
आदमी के अन्दर डर
दुखों की चट्टान तले
दफ़न हो गई हों जीने की उमंगें
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
बडबडाने के अलावा
कुछ न कर पा रहे हों किसान
ऐसे में अंतिम हथियार साबित होती है आग
वक्त-बेवक्त ज़रूरत के वास्ते
जलने दो इसे भीतर के अलाव में..”
यही कविता है जो इंसान को संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहती है. यही कवि की ज़िम्मेदारी है कि अपने समय के सच को पाठक के समक्ष रखे और इस लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करे..वर्ना इतिहास उसे भुला देगा...अपनी बात कहने के लिए ये कविताएँ एक नया सौन्दर्य-शास्त्र खुद ही गढ़ रही हैं, क्योंकि ये कविताएँ किसी भी तरह सत्ताश्रयी या सेठाश्रयी नहीं हैं. कविताई के लिए किसी भी तरह की पारिश्रमिक या पारितोष नहीं मिलता बल्कि अभियक्ति के खतरे उठाने में पहचान लिए जाने का खतरा मंडराता ही रहता है. बहुत आसान है सत्ता या पूँजी के समर्थन में भांड बनकर वीरगाथाएं रचना. इसमें पैसा है, सम्मान है, सुख है लेकिन जब जेनुइन कवि खुद को आने वाली पीढ़ी के साथ खड़ा करता है तो उसे लगता है ये बहुत बड़ी बेईमानी होगी! थोडा पैसा, सम्मान या सुख तात्कालिक राहत तो देगा लेकिन ये समझौता उसे समय की अदालत में नकार देगा.
रमेश प्रजापति की तमाम कवितायेँ अच्छी हैं ये नहीं कहता, लेकिन ये ज़रूर है कि तमाम कविताओं में कवि अपने समय के सच को अलग-अलग एंगल से देखने का विनम्र प्रयास करता है और कविता के एक ऐसे फ़ार्म के साथ अपनी बात कहता है जो आजकल के पाठकों के लिए बहुत सहज है.
इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं बड़ी ईमानदारी से ये कह सकता हूँ कि कठिन काव्य का प्रेत बनकर पहेलियों से कविताई के दिन लद गये... ऐसी कविताएँ लिखना कि जिन्हें समझने के लिए शब्दकोष की ज़रुरत पड़े, कोई व्याख्याता या फिर टिप्पणीकार उन कविताओं के मंतव्य से पाठक को अवगत कराये..इसे मैं भाषा की ऐयाशी मानता हूँ...ये कविता का रीतिकालीन या छायायुगीन कलेवर पाठकों को कविता से विलग/विरत करता है.
इससे कविता का ही नुक्सान होता है...न मालूम किस टार्गेट पाठक के लिए लिखी जाती हैं ऐसी क्लिष्ट कविताएँ कि जिन्हें कोई विद्यार्थी कोर्स में होने के कारण ही मजबूरीवश पढ़े...कोई नया पाठक खामखाँ क्यों इन कठिन काव्य के प्रेतों से झाड-फूँक करवाएगा.
रमेश प्रजापति की चिंताओं में शामिल हैं गाँव, घर, खेत-खलिहान, किसान, मजदूर, माँ-पिता, पशु-पक्षी, धनकार, स्त्रियाँ, नदी-नाले, चाँद-सूरज-पृथ्वी-गौरैया और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक-चिन्ह...कवि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता है लेकिन इंसान के शोषण की तमाम तकनीकों से घृणा करता है. कवि के सामाजिक सरोकार उसे पाठकों के साथ जोड़े रखते हैं और उसकी कवितायें, पाठकों के लिए किसी मलहम की तरह लेप लगाती हैं और बुरे दिनों से निजात दिलाने का प्रयास करती हैं....
*शून्यकाल में बजता झुनझुना : कविता संग्रह : रमेश प्रजापति
पृष्ठ : १२० मूल्य : 100.00 संस्करण : 2015
बोधि प्रकाशन, एफ 77, सेक्टर-9 रोड नं. 11
करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६
फोन: 0141-2503989, 9829018087
bodhiprakashan@gmail.com

Saturday, February 13, 2016

यादें : एक

स्व. जाहिदा (अम्मी)

बाल्य-काल
·         कुछ भी विलक्षण नहीं है बाल-जीवन में सिवाय सृजन के स्वप्न के...
ये एक ऐसा स्वप्न है जो अब भी बेचैन किये रहता है..और यही बेचैनी कुछ नया करने को प्रेरित करती है. एकदम बच्चा था जब तब चार आने में कापी आती थी और चार आने की पेन्सिल. नानी आतीं तो वो बच्चों को अपनी आमद पर खुश होकर आठ आने दिया करतीं. भाई-बहन उन पैसों का क्या करते मुझे याद नहीं लेकिन मैं दौड़ा-दौड़ा मुल्लाजी की किताब दूकान जा पहुँचता. उनकी दुकान से एक कापी और पेन्सिल खरीद लाता...
ये मेरे अक्षर-ज्ञान से पहले के दिन थे...जब बेशक मैं छः साल का नहीं हुआ था. क्योंकि तब छः साल होने पर ही स्कूल में दाखिला मिलता था. तो उस कापी पर पेन्सिल से मैं बड़ी रवानी से गोलम-गुल्लम लिखा करता..बीच-बीच में कुछ आकृतियों को काट भी दिया करता और कुछ आकृतियों के ऊपर लाइन खींचा करता...
छोटा भाई बड़ी उत्सुकता से मेरी हरकत देखा करता और पूछता—‘का कर रहे हो भईया?’
तो मैं गर्व से बताता—‘वकीलों की तरह लिख रहा हूँ...!’
मेरा गृह-नगर तहसील था सो वहां तहसील दफ्तर के बाहर मैं कई बाबुओं को कागज़ पर कलम घिसते देखा करता था.
मुझे लगता कि संसार का सारा ज्ञान इन बाबुओं के पास होगा तभी तो सेठ-महाजन, अधिकारी और अन्य लोग इन बाबुओं के पास बैठकर बड़ी तल्लीनता से उन्हें काम करते देखा करते हैं. ये बाबू कोई सूट-बूट वाले नहीं होते थे बल्कि धोती-कुरता, पजामा-कमीज़ वाले हुआ करते थे. इनके चेहरे पर ज़माने भर की गंभीरता आसानी से दिखलाई देती थी.
फिर जब दाहिने हाथ से बांया कान पकड़ में आने लगा तब अब्बा ने कहा कि अब पहली में नाम लिख जाएगा.
मेरा दोस्त था बगल के लाज में काम करने वाले का बेटा..उसके साथ मैंने अब्बा के रेलवे प्रायमरी स्कूल में नाम लिखवा लिया और अचानक से इतना गंभीर हो गया कि जैसे किसी बड़ी क्लास में पढने वाला बच्चा हो गया हूँ. मेरे कक्षा शिक्षक मिश्रा गुरूजी सफ़ेद धोती और लम्बा कुरता पहनते थे. वे मुझे बहुत मानते थे, क्योंकि मैंने तब तक गुपचुप रूप से अपनी दीदी लोगों की संगत में अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया था. एक से सौ तक की गिनती लिखनी मुझे आती थी. हाँ, पहाडा स्कूल में जाकर रटने लगा था. मिश्रा गुरूजी कुर्सी पर बैठकर खैनी खाते फिर ऊंघने लगते और मुझे बच्चों को अक्षर-ज्ञान का काम सौंप देते थे.
उस जमाने में हम सिर्फ हिंदी भाषा ही पढ़ते थे. अंग्रेजी का औपचारिक ज्ञान हमें छठवीं कक्षा से मिला था.
स्कूल में बिना पैसे के खेल हम खेला करते. जैसे आमा-डंडी, छुपा-छुपौवल, पिट्टुल और लडकियों के खेल जैसे खो-खो, लंगड़ी-घोड़ी, धुप-छाँह आदि.
घर में तब अध्यापक अब्बा का प्रशासन बहुत कड़ा था. क्या मजाल कि उनकी मर्ज़ी के बिना परिंदा भी पर मार ले. उनकी नज़र जैसे कि ख़ुदा की नज़र हो, जिससे बचना नामुमकिन होता था. बचने को तो बचा जा सकता था लेकिन पकड़े जाने पर जहन्नुम के बारे में बयान किये जाने वाले अज़ाब (दंड) से भी जियादा का खौफ हमें मारे डालता था. जहन्नुम के अज़ाब तो मरने के बाद मिलेंगे लेकिन जीते-जी अब्बा की डांट-मार का ज़िक्र किसी धर्म-ग्रन्थ में नहीं मिल सकता है, जितना डर हम बच्चों के दिल में रहता था.
पिन-ड्राप साइलेंस का मतलब यदि जानना हो तो मेरे बचपन के दिनों में अब्बा की मौजूदगी में हमारा घर इसकी बड़ी मिसाल होगा.
अब्बा की दबंग उपस्थिति के ठीक उलट अम्मी की अंधी ममता..वे भरसक अब्बा के कोप और क्रोध से हम बच्चों को बचातीं..हमने कभी ये अलफ़ाज़ नहीं सुने उनके मुंह से—‘आने दे तुम्हारे अब्बा को, उन्हें सब कुछ बता दूंगी..!’ अब्बा की गैर-मौजूदगी में हमारी गलतियों, शरारतों और बदमाशियों को अम्मी इंज्वॉय किया करतीं...वे हमारे साथ थोड़ी-बहुत मस्ती भी कर लिया करती थीं और हमारी बड़ी राजदार थीं..ऐसी माएं अब कहाँ होती हैं...
तो बचपन में पढाई-लिखाई, खेल-कूद, शरारतें ही याद आती हैं. हाँ, हम दोनों भाई मोहल्ले के बच्चों के साथ नहीं खेलते थे क्योंकि अब्बा का ये मानना था कि मोहल्ले के लडकों के साथ मिलने-जुलने से गाली बकना और उत्पाती बनना ही हम सीखेंगे. वैसे भी मोहल्ले के लडके आये दिन कंचे खेला करते या सिक्का-जीत जैसे खेल खेलते, बीच-बीच में हल्ला करते और एक-दुसरे को गालियाँ बकते...हमारे घर में ‘अबे’ या  ‘रे’ भी गाली  के  तुल्य हुआ करता था. हम जब बहुत गुस्सा होते तो एक-दूजे को कुत्ता-कुत्ती जैसे शब्द कहके गाली बकने की क्षुधा शांत किया करते थे. दीवाली में बिकने वाले हरामी बम को हम तब घर में ‘गाली बम’ कहा करते थे.
हम दोनों भाई अपनी बहनों की सहेलियों के साथ लडकियों के खेल खेलते...इसी कारण कपड़े की तुरपाई करना, बटन-काज का काम, स्वेटर बुनने का हुनर और खाना बनाने में पारंगत हो गया था मैं..इसका लाभ ये हुआ कि आज भी कपड़े की रिपेयर खुद कर लेता हूँ. कालेज में मैं खुद ही खाना पका कर खाता था.

अम्मी को चाय पीने का शौक था और मैं उनका चायवाला बेटा था..उनकी फरमाईश पर तत्काल चूल्हे में लकड़ी सुलगा कर चाय बना लाता था. तब उस जमाने में घरों में मिटटी तेल के स्टोव भी हुआ करते थे, लेकिन हमारे घर में तीन मुंह वाला मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था. अम्मी अलस्सुबह उस चूल्हे की टूट-फूट रिपेयर करतीं, फिर छूही माटी से रसोई की लिपाई करती थीं. 

Wednesday, February 10, 2016

तुम लिखो कवि

( कवि नित्यानंद गायेन के लिए)

तुम लिखो कवि
दोस्त में छिपे दुश्मन को लतियाकर लिखो
बेख़ौफ़ होकर लिखो क़ि तुम हम सबकी जुबां हो
हमारी मरी आत्माओं का मर्सिया हैं तुम्हारी कविताएँ
क़ि बार बार बीच का रास्ता तलाशते हैं हम
और तुम करते रहते हो सचेत मित्र
कि बीच का कोई रास्ता नहीं होता
अभी अभी तो वह पूछकर गया है कवि
कि बताओ पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?
और हम बगलें झाँक रहे हैं तब से
कि हम हर बार लेते रहे हैं विजेता का पक्ष
कि हारे हुए लोग हमेशा से मिटा दिए जाते हैं इतिहास के पन्नों से
तुम लड़ रहे हो हमारे अचेतन में वाबस्ता उस युद्ध को
जिसका हम बनना चाहते रहे इक सिपाही
लेकिन हमने जीतने वालों में खुद को
शुमार कराने का जब से सीखा हुनर
लड़ाइयां तुम हारते रहे कवि
लोकगाथाओं का इतिहास,
चीख चीख कर तैयार करता रहा अपने समय के कवि को
लोकमानस गाता रहा कवि के गीत
और हमारे उच्छ्वास से, सजती रही राजाओं की महफिलें
बजते रहे घुंघरू छन छना छन
मादक सिसकारियों में खोज रहे थे
हमारे समय के आलोचक
एक नया सौंदर्यशास्त्र
कितनी चालबाजियां करते रहें हम
तुम्हारा आर्तनाद, तुम्हारी प्रेम की तड़प
और इंक़िलाब की चाहत से
पैदा होते रहेंगे सदा प्रेमी और इंकलाबी।
ये बगावत का उद्घोष है कवि
जो हमारी समझौता-परस्त आत्मा को
कुरेदती रहेगी पीढ़ियों तक।
इसलिए कवि तुम वही कहो जो तुम्हें कहना है
क्योंकि तुम हमारे कवि हो
क्योंकि तुम हमारी अनकही अभिव्यक्ति हो.....

Saturday, January 30, 2016

मेहनतकश के सीने में


कितना कम सो पाते हैं वे
यही कोई पांच-छः घंटे ही तो
यदि हुई नही बरसात
पड़ा नही कडाके का जाड़ा
तो उतने कम समय में वे
सो लेते भरपूर नींद
बरखा और शीत में ही
अधसोए गुजारते रात
उनसे पहले उठती घरवालियाँ
चूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँ
अचार या नून-मिरिच के साथ
पोटली में गठियातीं तब तक
छोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तरह
फ़टाफ़ट होते तैयार
और निकल पड़ते मुंह-अँधेरे ही
खदान की तरफ
आखिर बीस कोस साइकिल चलाना है
जुड़े रहते तार उनके इस तरह
कि पहले मोड पर मिल जाते कई संगी
एक राऊण्ड तम्बाखू-चून की चुटकी
होंठ और मसूढ़ों के बीच दबा
पिच-पिच थूकते, जो नागा किया उसके बारे में
अंट-शंट बतियाते, पैडल मारते तय करते दूरियां
उन्हें नही मालूम कि प्रधान-मंत्री सडक योजना क्या है
वर्ना इन पथरीली पगडंडियों पर आदिकाल से
यूँ ही नही चलना पड़ता उन्हें
छोटे नाले-नदी, जंगल-टीले पार करते-करते उग आता सूरज
और उन्हें तब तक दिखलाई देने लगता कोयला-खदान के चिन्ह
रात पल्ली से लौटते श्रमिक मिलते तो राम-राम हो जाती
एक तसल्ली भी मिलती कि खदान चालू है
काम मिल ही जाएगा,
बिना कामनही लौटना पड़ेगा उन्हें…
वे खदान पहुँचते हैं तो
बड़ी आसानी से कोयले के ढेर में घुल-मिल जाते हैं
ऐसे दीखते हैं जैसे हों कोयला की तराशी हुई चट्टानें
जो ये जानते ही नही कि उनमे छुपी हुई है बिकट आग
कि उनमे छुपा है बिजली बनाने का तिलस्म
कि उनमे पेवस्त है स्टील बनने का रसायन
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि इस जनम यही लिखा उनके भाग में
और भाग के लिखे को कौन मिटा सकता है…
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि भगवान जिसे चाहे देता दुःख-पीड़ा
और जिसे चाहे देता सुख-सुविधाएं अपार
लेकिन मुंह अँधेरे इन साइकिल चालकों में
एक भोले है, एक भूपत है, एक गंगा है
जिनके पास सवाल ही सवाल हैं
और बुज़ुर्ग मजदूर सुमारु उन्हें समझाता रहता
भर-रास्ता उन्हें डांटता और सबर करने को कहता
लेकिन भोले, भूपत और गंगा के सवाल
पूरब में उगते सूर्य की आभा में दमक उठते
और एक नया रास्ता सूझता उन्हें
उस रास्ते में दीखते अनगिन ठोकर, अंतहीन यातनाएं
और फिर दूर-दूर तक अँधेरा ही अँधेरा…
क्या इसका मतलब ये समझा जाए
कि खदान पहुंचते ही
उनके मन में उठे सवालात दफ़न हो गए
वे नहीं जानते कि सवाल जो उठा है मन में
ये पहली बार नही आया है
इससे पहले जाने कितनी पीढियां
खत्म हो गईं इन सवालों से टकराते-जूझते
इसी प्रयास में कि इस लड़ाई को
जल्द ही जीत लेंगे वे
और सूरज आसमान पर उगता रहा
चाँद निकलता रहा
धरती घूमती रही
पेड़-पौधे-फूल उगते-कटते रहे
और हर बार मेहनतकश के सीनों में
यूँ ही सवाल पनपते और दफ़न होते रहे….
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Thursday, January 28, 2016

पहचान की सृजन यात्रा

से उन बच्चों के अन्दर स्कूली पढाई के प्रति उदासीनता आती जाती है और एक-दो बार फ़ैल हो जाने के बाद वे पढाई छोड़ देते हैं हैं बहुधा ये आरोप लगाकर---'अरे भाई, मीम लोगों को जानबूझकर फ़ैल कर देते हैं ई मस्टरवा लोग..चाहते नहीं हैं न कि मीम के लइका लिखे-पढ़ें-तरक्की करें...!'
तो मदरसा की हिज्जेवाली अरबी-उर्दू की तालीम, प्राथमिक विद्यालय की अक्षर-ज्ञान के बाद उनके पास तीसरा विकल्प बचता है माँ-बाप के पुश्तैनी कारोबार या हुनरमंदी के गुर सीखना और विराट सामजिक ताने-बाने से कटकर एक ऐसे समाज का अपने इर्द-गिर्द बनते देखना जहां असहमति/ विरोध/ बहस की गुंजाइश एकदम नहीं रहती...
यूनुस उस समाज से खुद को अलग करेगा...ऐसा मेरा विश्वास है और यही विश्वास उपन्यास पहचान की मुख्य सोच है...
औपचारिक स्कूली शिक्षा में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या आज भी उत्साह वर्धक नहीं हैं और सीनियर सेकंडरी तक आते-आते ये संख्या काफी निराशाजनक हो जाती है. इस शिक्षा-प्रणाली की दुरुहता के कारण मुस्लिम ही नहीं आदिवासी, दलित और स्त्रियाँ भी आगे की पढाई नहीं पढ़ पाते हैं...
यूनुस को मैंने विकल्प के रूप में मज़हबी यूनुस की जगह हुनरमंद यूनुस के रूप में तरजीह देने का प्रयास किया है...

Thursday, January 21, 2016

बचपन के दिन : एक

      
डॉ लाल रत्नाकर की पेंटिंग 
           कुछ भी विलक्षण नहीं है बाल-जीवन में सिवाय सृजन के स्वप्न के...
ये एक ऐसा स्वप्न है जो अब भी बेचैन किये रहता है..और यही बेचैनी कुछ नया करने को प्रेरित करती है. एकदम बच्चा था जब तब चार आने में कापी आती थी और चार आने की पेन्सिल. नानी आतीं तो वो बच्चों को अपनी आमद पर खुश होकर आठ आने दिया करतीं. भाई-बहन उन पैसों का क्या करते मुझे याद नहीं लेकिन मैं दौड़ा-दौड़ा मुल्लाजी की किताब दूकान जा पहुँचता. उनकी दुकान से एक कापी और पेन्सिल खरीद लाता...
ये मेरे अक्षर-ज्ञान से पहले के दिन थे...जब बेशक मैं छः साल का नहीं हुआ था. क्योंकि तब छः साल होने पर ही स्कूल में दाखिला मिलता था. तो उस कापी पर पेन्सिल से मैं बड़ी रवानी से गोलम-गुल्लम लिखा करता..बीच-बीच में कुछ आकृतियों को काट भी दिया करता और कुछ आकृतियों के ऊपर लाइन खींचा करता...
छोटा भाई बड़ी उत्सुकता से मेरी हरकत देखा करता और पूछता—‘का कर रहे हो भईया?’
तो मैं गर्व से बताता—‘वकीलों की तरह लिख रहा हूँ...!’
मेरा गृह-नगर तहसील था सो वहां तहसील दफ्तर के बाहर मैं कई बाबुओं को कागज़ पर कलम घिसते देखा करता था.
मुझे लगता कि संसार का सारा ज्ञान इन बाबुओं के पास होगा तभी तो सेठ-महाजन, अधिकारी और अन्य लोग इन बाबुओं के पास बैठकर बड़ी तल्लीनता से उन्हें काम करते देखा करते हैं. ये बाबू कोई सूट-बूट वाले नहीं होते थे बल्कि धोती-कुरता, पजामा-कमीज़ वाले हुआ करते थे. इनके चेहरे पर ज़माने भर की गंभीरता आसानी से दिखलाई देती थी.
फिर जब दाहिने हाथ से बांया कान पकड़ में आने लगा तब अब्बा ने कहा कि अब पहली में नाम लिख जाएगा.
मेरा दोस्त था बगल के लाज में काम करने वाले का बेटा..उसके साथ मैंने अब्बा के रेलवे प्रायमरी स्कूल में नाम लिखवा लिया और अचानक से इतना गंभीर हो गया कि जैसे किसी बड़ी क्लास में पढने वाला बच्चा हो गया हूँ. मेरे कक्षा शिक्षक मिश्रा गुरूजी सफ़ेद धोती और लम्बा कुरता पहनते थे. वे मुझे बहुत मानते थे, क्योंकि मैंने तब तक गुपचुप रूप से अपनी दीदी लोगों की संगत में अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया था. एक से सौ तक की गिनती लिखनी मुझे आती थी. हाँ, पहाडा स्कूल में जाकर रटने लगा था. मिश्रा गुरूजी कुर्सी पर बैठकर खैनी खाते फिर ऊंघने लगते और मुझे बच्चों को अक्षर-ज्ञान का काम सौंप देते थे.
उस जमाने में हम सिर्फ हिंदी भाषा ही पढ़ते थे. अंग्रेजी का औपचारिक ज्ञान हमें छठवीं कक्षा से मिला था.
स्कूल में बिना पैसे के खेल हम खेला करते. जैसे आमा-डंडी, छुपा-छुपौवल, पिट्टुल और लडकियों के खेल जैसे खो-खो, लंगड़ी-घोड़ी, धुप-छाँह आदि.
घर में तब अध्यापक अब्बा का प्रशासन बहुत कड़ा था. क्या मजाल कि उनकी मर्ज़ी के बिना परिंदा भी पर मार ले. उनकी नज़र जैसे कि ख़ुदा की नज़र हो, जिससे बचना नामुमकिन होता था. बचने को तो बचा जा सकता था लेकिन पकड़े जाने पर जहन्नुम के बारे में बयान किये जाने वाले अज़ाब (दंड) से भी जियादा का खौफ हमें मारे डालता था. जहन्नुम के अज़ाब तो मरने के बाद मिलेंगे लेकिन जीते-जी अब्बा की डांट-मार का ज़िक्र किसी धर्म-ग्रन्थ में नहीं मिल सकता है, जितना डर हम बच्चों के दिल में रहता था.
पिन-ड्राप साइलेंस का मतलब यदि जानना हो तो मेरे बचपन के दिनों में अब्बा की मौजूदगी में हमारा घर इसकी बड़ी मिसाल होगा.
अब्बा की दबंग उपस्थिति के ठीक उलट अम्मी की अंधी ममता..वे भरसक अब्बा के कोप और क्रोध से हम बच्चों को बचातीं..हमने कभी ये अलफ़ाज़ नहीं सुने उनके मुंह से—‘आने दे तुम्हारे अब्बा को, उन्हें सब कुछ बता दूंगी..!’ अब्बा की गैर-मौजूदगी में हमारी गलतियों, शरारतों और बदमाशियों को अम्मी इंज्वॉय किया करतीं...वे हमारे साथ थोड़ी-बहुत मस्ती भी कर लिया करती थीं और हमारी बड़ी राजदार थीं..ऐसी माएं अब कहाँ होती हैं...
तो बचपन में पढाई-लिखाई, खेल-कूद, शरारतें ही याद आती हैं. हाँ, हम दोनों भाई मोहल्ले के बच्चों के साथ नहीं खेलते थे क्योंकि अब्बा का ये मानना था कि मोहल्ले के लडकों के साथ मिलने-जुलने से गाली बकना और उत्पाती बनना ही हम सीखेंगे. वैसे भी मोहल्ले के लडके आये दिन कंचे खेला करते या सिक्का-जीत जैसे खेल खेलते, बीच-बीच में हल्ला करते और एक-दुसरे को गालियाँ बकते...हमारे घर में ‘अबे’ या  ‘रे’ भी गाली  के  तुल्य हुआ करता था. हम जब बहुत गुस्सा होते तो एक-दूजे को कुत्ता-कुत्ती जैसे शब्द कहके गाली बकने की क्षुधा शांत किया करते थे. दीवाली में बिकने वाले हरामी बम को हम तब घर में ‘गाली बम’ कहा करते थे.
हम दोनों भाई अपनी बहनों की सहेलियों के साथ लडकियों के खेल खेलते...इसी कारण कपड़े की तुरपाई करना, बटन-काज का काम, स्वेटर बुनने का हुनर और खाना बनाने में पारंगत हो गया था मैं..इसका लाभ ये हुआ कि आज भी कपड़े की रिपेयर खुद कर लेता हूँ. कालेज में मैं खुद ही खाना पका कर खाता था.

अम्मी को चाय पीने का शौक था और मैं उनका चायवाला बेटा था..उनकी फरमाईश पर तत्काल चूल्हे में लकड़ी सुलगा कर चाय बना लाता था. तब उस जमाने में घरों में मिटटी तेल के स्टोव भी हुआ करते थे, लेकिन हमारे घर में तीन मुंह वाला मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था. अम्मी अलस्सुबह उस चूल्हे की टूट-फूट रिपेयर करतीं, फिर छूही माटी से रसोई की लिपाई करती थीं. 

Saturday, January 16, 2016

मेले में अकेले


वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जो खुद को कभी भी, कहीं भी नहीं करा पाते आमंत्रित 
खुद्दार इतने कि बिना निमंत्रण जाएँ न यमराज के पास भी 
ऐसा कहकर हंसते हैं कि हंसते हर हाल में हैं वे
हंसने की नामालूम वजह को जानने का कभी प्रयास भी नहीं करते
वे ये भी जानते हैं कि उनकी ये हंसी कालांतर में
गलती से भी नहीं बनेगी किसी शोध-पत्र का बीज-वाक्य
कि उनकी इस हंसी-ठिठोली को लोग लोक-हास्य कह देते हैं
जैसे किसी मजबूरी के तहत हँसते रहे हैं वे
उड़ा देते हैं अफवाह कि ये अपने ही में मस्त रहने के अभ्यस्त हैं
अपनी राजनीतिक समझ और कूटनीतिक चालों में डूबे
कोई कैसे जाने कि उनकी फक्कडपन और दीवानगी के पीछे
नहीं है किसी विपक्षी का हाथ या ये नहीं हैं वामपंथी या नक्सली
ये नहीं हैं कोई दरवेश या पीरो-मुर्शिद या कोई ऋषि-मुनि या कोई अतीन्द्रिय...

वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जिनके पहुँचने से बदल सकता था मेले का स्वरूप
क्योंकि वे जहाँ जाते हैं वहां तमाम अभावों-असुविधाओं के बीच
गूंजती है बिरहा की धुनें, कबीर की निरगुन और बुल्ले शाह के काफिये
वे पंच-तारा अस्पतालों की अट्टालिकाओं की परछाइयों के पीछे
जहां बस्तियां उग आती हैं फेंके गये मेडिकल कचरे के साथ
मगन होकर गुनगुनाते रहते हैं गीत
और अस्पतालों की मार्चरी में दिन-ब-दिन बढती जाती हैं लाशें.. खाए-पीये-अघाए लोगों की.....
ऐसे नहीं कि वे अजर-अमर हैं लेकिन एक अच्छी बात है कि
मरने से पहले नहीं चिंता होती उन्हें वसीयत की
और नहीं होता कोई षड्यंत्र उनके जीते जी या मरने के बाद
किसी संपत्ति या बैंक बैलेंस के लिए नहीं होती कोई लड़ाई...