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Sunday, February 26, 2017

वो हमें डराते हैं















इन दिनों
या कहूँ कि बीते
सैकड़ों दिनों से ना-उम्मीदी ने जैसे
डेरा डाल रक्खा है
मेरे वजूद पर 
तुमसे मिलती थी राहत पहले
देखता हूँ तुम भी इन दिनों
गुमसुम से रहते हो।

कहाँ जाएँ
किससे मिलें
कोई चारागर नहीं
मर्ज़ है कि बढ़ता जा रहा

जो लोग समय के साथ हैं
वो सभी निर्लज्जता से स्वस्थ हैं
इस समय क्या हया ही
हमारे दुक्खों का कारण है?
हम जो लिहाज करते हैं
हम जो तकल्लुफ के मारे हैं
हम जो संस्कारी हैं
हम जो खामोश रहते हैं
हम बवाल से डरते जो हैं
क्या इसी लिए वो हमें डराते हैं?

Friday, February 17, 2017

सबकुछ को बदलने की ज़िद में गैंती से खोदकर मनुष्यता की खदान से निकाली गई कविताएँ

------------------शहंशाह आलम 
मैं बेहतर ढंग से रच सकता था
प्रेम-प्रसंग तुम्हारे लिए
ज़्यादा फ़ायदा था इसमें
और ज़्यादा मज़ा भी
लेकिन मैंने तैयार किया अपने-आपको
अपने ही गान का गला घोंट देने के लिए…
# मायकोव्स्की
मायकोव्स्की को ऐसा अतिशय भावुकता में अथवा अपने विचारों को अतिशयीकरण देने के लिए क़तई नहीं लिखना पड़ा था। ना उन्हें प्रेम से घृणा थी, ना प्रेम के विरुद्ध यह उनका कोई रुदन-गान था। दरअसल मायकोव्स्की प्रेम का नर्म, मुलायम, मखमली बिस्तर छोड़कर आदमी के अच्छे दिनों के लिए पथरीली ज़मीन पर चलना चाहते थे, लड़ाइयाँ लड़ना चाहते थे, अँधेरी सुरंग को रोशनी से भरना चाहते थे। मनुष्य-जीवन को लेकर हर बेचैन कवि यही चाहता है। मायकोव्स्की यही चाहते थे। ऐसा इसलिए कि मनुष्य के जीवन की यातनाएँ नाक़ाबिले-बर्दाश्त होती हैं। आदमी को हर बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए व्यवस्था के विरुद्ध जाना ही पड़ता है। ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध जाना लाज़मी इसलिए भी होता है, जो व्यवस्था अपनी जनता की छाती पर चढ़कर सत्ता-सुख चाहती आई है। यही वजह है कि सत्ताधीशों को अपने जीवन में सुरक्षा का बड़ा घेरा चाहिए होता है और कवि को कुछ आदमियों का साथ उस घेरे को तोड़ डालने के लिए। यही वजह है कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि धूमिल ने, मुक्तिबोध ने, नागार्जुन ने अपने जीवन में सत्ताधीशों के घेरे को तोड़ने के लिए अपनी कविताओं का इस्तेमाल किया। इन और इन जैसे महान कवियों का जनता के लिए किया गया संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है। कवि-कथाकार अनवर सुहैल कवियों की इसी लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए 'और थोड़ी-सी शर्म दे मौला', 'संतो काहे की बेचैनी' के बाद अपनी कविताओं का नया संग्रह 'कुछ भी नहीं बदला' लेकर मंज़रे-आम पर आए हैं। अनवर सुहैल मध्यप्रदेश की भूमिगत कोयला खदान में काम करते रहे हैं। उन्हें बाहरी और भीतरी तहों के बारे में पता है। वे जीवन की हर लड़ाई को जीतने का हुनर रखते हैं। यही कारण है कि उनकी कविताएँ व्यापक अर्थ रखती हैं। खदान में काम करते हुए अनवर सुहैल लोगों की देह को हथियार बनाना सीख गए हैं और यही वजह है कि अनवर सुहैल सीधे-सीधे सत्ता के विरुद्ध किसी बड़े संघर्ष की कवि-परंपरा के कवि हैं। विश्व की समकालीन व्यवस्था दुनिया भर में अपने बर्बर अँधेरे का जो विकास चाह रही है, वह अब सहने से बाहर होती जा रही है। तभी विश्व में शरणार्थी शिविर बढ़ रहे हैं। दुश्मन सामने है। यह दुश्मन कुछ भी बदलने देना नहीं चाहता। दुश्मन जानता है कि दुनिया बदल गई तो उसे किसी अँधेरी सुरंग में छुपना पड़ेगा। एक सच्चाई यह भी है कि दुश्मन अब खुलकर सामने आ चुका है… दुश्मन का चेहरा नरेंद्र मोदी वाला भी है और डोनाल्ड ट्रंप वाला भी, जो पूरे विश्व में भेदभाव, नफ़रत, विष फैलाना चाहता है, अपने संकुचित और ख़तरनाक विचारों से। दिक़्क़्त यह है कि विश्व का हर कवि ऐसे दुश्मनों के विरुद्ध खुलकर सामने नहीं आ रहा। ऐसे में कोई मायकोव्स्की, कोई धूमिल-मुक्तिबोध-नागार्जुन या कोई अनवर सुहैल क्या करे? लेकिन सच यही है कि हर कवि अपनी भाषा को विकृत किए बिना अपने जीवन के पक्ष के विचारों को बचाने का कार्य कर सकता है :
उनके जीवन में दुःख ही दुःख
और हम बड़ी आसानी से कह देते
वे सब दुःख सहने के अभ्यस्त हैं
वे सुनते अभाव का महाआख्यान
वे गाते अपूरित आकांक्षाओं के गान
चुपचाप सहते जाते ज़ुल्मो-सितम
और हम बड़ी आसानी से कह देते
अपने जीवन से ये कितने संतुष्ट हैं
वे नहीं जानते कि उनकी बेहतरी के लिए
उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और उन्नति के लिए
कितनी चिंतित हैं सरकारें
दुनिया भर में हो रहा है अध्ययन
की जा रही हैं पार-देशीय यात्राएँ
हो रहे हैं सेमिनार, संगोष्ठियाँ
वे नहीं जान पाएँगे कि उन्हें
मुख्य धारा में लाने के लिए
तथाकथित तौर पर सभ्य बनाने के लिए
कर चुके हज़म हम
कितने विलियन डॉलर
ऐसे कठिन समय में
जब बाज़ार में
एक डॉलर की क़ीमत
आज साठ रुपये के आसपास है ( 'दुःख सहने के अभ्यस्त लोग', पृ. 46-47 )।
अनवर सुहैल बहुत सारे कवियों की तरह जड़ कवि नहीं हैं, डरे हुए कवि नहीं हैं, अचेत कवि भी नहीं हैं। जड़, डरे, अचेत कवि की पहचान यही है कि वे कविताओं में चमत्कार पैदा करते हैं, कुछ चौंकाने वाले शब्द डालते हैं, तोड़ी-बहुत बुद्धि का उपयोग करते हैं और फिर मैदान से ग़ायब हो जाते हैं। वहीं 'कुछ भी नहीं बदला' के कवि अनवर सुहैल की कविताएँ किसी वैचारिक हवाबाज़ी, किसी वैचारिक सौदेबाज़ी, किसी वैचारिक दग़ाबाज़ी का सहारा लिए बिना ज़मीनी हक़ीक़त से रू-ब-रू होती आई हैं और पूरी तरह जनता की कविता होकर रहना चाहती हैं। सीधे-सीधे कहें तो अनवर सुहैल प्रतिवादी-प्रतिपक्षी कवि हैं, खंडन के कवि हैं, विरोध के कवि हैं। अब कोई आदमी छह से आठ घंटे ज़मीन की सतह से कोई छह सौ फ़ीट नीचे कोयला खदान में काम करता हो और वह कवि भी हो तो वह प्रतिपक्ष का, जनता का, जीवन का कवि तो होगा ही होगा। अनवर सुहैल इसीलिए अत्यंत सचेत, अत्यंत स्वाधीन, अत्यंत वैचारिक कवि हैं :
कुछ भी नहीं बदला दोस्त…
आकाश उतना ही पुराना है
जंगल, पगडंडी, पहाड़
पुराने हैं उतने ही
फिर कैसे कहते हो तुम
कि दृश्य बदले हैं… चीज़ें बदली हैं…
बदले हैं सिर्फ़ हम-तुम
वरना पंख भी वही हैं
हवाएँ, रुत, उड़ान भी वही हैं
हवस, लालच, बदले की आग वही है
नफ़रत, लूट-खसोट
धोखा, अंधविश्वास वही है
फिर कैसे कहते हो तुम
कि ज़माना बदल गया है…
कुछ भी नहीं बदला दोस्त
हिटलर अब भी है
और अब भी गोयबल्स घूम रहा है
अब भी नौजवान हथियार उठा रहे हैं
अब भी कवि ख़ौफ़ज़दा हैं
अब भी बदतमीज़ियाँ, उद्दण्डताएँ
शंखनाद कर रही हैं…
मान भी जाओ दोस्त
कुछ भी नहीं बदला ( 'कुछ भी नहीं बदला', पृ. 24-25 )।
यह सच है कि शंखनाद कभी किसी बड़े परिवर्तन के लिए किया जाता था। अब एक ख़ास वर्ग को डराने के लिए शंख बजाया जाने लगा है मौक़े-बेमौक़े। अनवर सुहैल की कविताएँ उन नदियों की तरह हैं, जिन्हें आदमी के ख़ून से लाल की जाती रही हैं और हत्यारा अपनी जीत का जश्न मनाने उन्हीं ख़ून सनी नदियों में नहाता भी रहा है। अनवर सुहैल इसलिए भी पूरी मासूमियत से कहते हैं कि कुछ भी नहीं बदला दोस्त! अब सवाल यह भी उठता है कि कवि अपने किन दोस्तों को समझाना चाहता कि सारा कुछ वैसा-का-वैसा ही है, बिलकुल आदिम। यहाँ अनवर सुहैल के वे दोस्त नहीं हैं, जो दिन-रात उनके साथ उठ-बैठ रहे हैं बल्कि ये वे दोस्त हैं, जो इस आधुनिक, सभ्य, समझदार कहे जाने वाले समय में सत्ता के संरक्षण में बर्बरता से मार डाले जाते रहे हैं। आदमियों को मारे जाने की यह नीरसता आज हर कवि, कथाकार, संस्कृतिकर्मी को खाए जा रही है और ऐसा दुनिया भर में जब हो रहा है तो हमारा दुखी होना, निराश होना, नाउम्मीद होना ज़रूरी हो जाता है। यही अनवर सुहैल के साथ भी हो रहा है। इसलिए कि कवि विश्वदृष्टि-संपन्न है। और यहाँ यानी कविता में जो कुछ कहा गया है, वह किसी निराशावादी कवि का बयान नहीं है, एक उम्मीद से भरे कवि का बयान है, जो पूरी ताक़त से कहता है कि तुम लाख कहते रहो कि तुम मेरे लिए अच्छे दिन ला रहे हो, लेकिन तुम्हीं हो, जो हमसे हमारे अच्छे दिन लूटकर ले जा रहे हो :
दुःख है
आज भी लिख ना पाए हम
दो लाइनें
तुम्हारे लिए
आज फिर
दुखता रहा दिल
आज फिर
खीजता रहा मन
आज फिर
भन्नाता रहा दिमाग़
और इस तरह मैंने
स्थगित कर दिया
तुम पर लिखने का काम ( 'आज फिर', पृ. 79 )।
अनवर सुहैल की कविताएँ आपसदारी का माहौल बनाती रही हैं। यहाँ आपसदारी से मेरा मुराद यह है कि अनवर सुहैल दुनिया भर की जनता की शक्ति से अनभिज्ञ नहीं हैं, ना इनकी परेशानियों से, ना इनके शत्रुओं से। एक कवि की जो सीमा है और एक कवि की जो शक्ति है, इसी सीमा भर और शक्ति भर अनवर सुहैल सत्ता के ख़िलाफ़, व्यवस्था के ख़िलाफ़, नौकरशाहों के ख़िलाफ़ अपनी क़लम का उपयोग करते हैं। सत्ता, व्यवस्था, नौकरशाह आज जिस तरह से आम जन-जीवन को तड़पा-तड़पा कर मार रहा है, यह सिलसिला अनवरत चलता रहेगा, अगर विश्व का सत्ता विरोधी, व्यवस्था विरोधी, नौकरशाह विरोधी वर्ग एकजुट नहीं होगा। एक सच्चाई यह भी है कि अब प्रतिपक्ष में विघटन स्पष्ट दिखाई देता है और इसी विघटन का फ़ायदा सत्ता पक्ष उठाता चला आ रहा है। प्रतिपक्ष अपने विघटन से जब तक मुक्त नहीं होगा, नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप जैसा तानाशाह आम जन-जीवन को रौंदता रहेगा। अनवर सुहैल अपनी 'आमंत्रण', 'दबंगई इन्क़िलाब नहीन', 'गाली और गोली', 'कुढ़न', 'मैं बाबा नागार्जुन को खोज रहा हूँ', 'क्रान्ति या भ्रान्ति', 'हम नहीं सुधरेंगे', 'उम्मीद', 'अग्नि-परीक्षा', 'आभा-मण्डल', 'मतदाता', 'कैसे समझाएँ तुम्हें', 'शायद', 'असमानता', 'व्यथा', 'वर्दियाँ, हथियार और अमन-चैन', 'फिर क्यों', 'ओ तालिबान!', उसके कहने पर', 'आम-जन', 'आज्ञाकारी', 'माल्थस का भूत', 'मज़दूर दिवस : काश ऐसा न होता', 'विपरीत धारा में तैरने का मज़ा', 'भाग्य-विधाता', 'सिर्फ़ काग़ज़ का नक़्शा नहीं है देश', 'अधूरी लड़ाइयों का दौर', 'गैंती में धार', 'ख़ामोशी की चीख़', 'भरपेटों के दुःख', 'टिफ़िन में बासी होती ज़िंदगी', 'अल्पसंख्यक या स्त्री', 'बेदर्द मौसम में', 'तुम और खदान', 'पिता की सीख' आदि कविताओं के माध्यम से तानाशाहों के विरुद्ध हमें खड़ा करते हैं। कवियों का, कवि मायकोव्स्की हों, धूमिल हों, मुक्तिबोध हों, नागार्जुन हों या अनवर सुहैल हों, सत्ता, व्यवस्था और नौकरशाह से इनके विरोध का याराना बेहद पुराना है। पर ऐसा क्या है कि हर कवि इन शक्तियों के आगे कमज़ोर दिखाई देता है, अगर ऐसा नहीं है तो ऐसी शक्तियाँ दुनिया भर में मज़बूत क्यों होती जा रही हैं? मेरे विचार से इसमें दोष ना मायकोव्स्की का है, ना धूमिल-मुक्तिबोध-नागार्जुन का और ना अनवर सुहैल का। दोष उन कवियों का है, जो अनंत: सत्ता, व्यवस्था, नौकरशाह का हिस्सा बनते हैं और कवियों की दुनिया को कमज़ोर करते हैं। अनवर सुहैल में विरोध की जितनी सम्भावनाएँ हैं, ऐसी सम्भावनाओं से हर कवि को लैस होना पड़ेगा। सांकेतिक स्वर में कुछ कहने का वक़्त अब है भी नहीं। ऐसे में हमें अनवर सुहैल की कविताओं में कोई नवीनता, कोई अनूठापन, कोई गहराई ढूंढ़ने का प्रयास बेमानी है। जब आप जड़, संवेदनशील, आत्मघाती प्रवृतियों पर अपनी क़लम की धार मज़बूत करते हैं तो किसी को आपकी कविताओं में नवीनता, अनूठापन, गहराई ढूंढ़ने का हक़ है भी तो नहीं। ऐसी कविताओं में सूई चुभोने का दर्द महसूस किया जा सकता है। अनवर सुहैल की कविताओं में यह दर्द हम बख़ूबी महसूस सकते हैं :
ये हमारी फ़ितरत है
ये हमारी आदत है
बिना कोई आदेश सुने
हम खाते नहीं, पीते नहीं
सोते नहीं, जागते नहीं
हँसते नहीं… रोते नहीं…
यहाँ तक कि सोचते भी नहीं…
सदियों से ग़ुलाम है अपना तन-मन
काहे हमें सुधारना चाहते हैं श्रीमन… ( 'आदत', पृ. 22 )।
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कुछ भी नहीं बदला ( कविता-संग्रह ) / कवि : अनवर सुहैल / प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, एफ़-77, सेक्टर 9, रोड नं. 11, करतारपुरा इण्डस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-302006 / मोबाइल संपर्क : 09907978108, 09829018087 / मूल्य : ₹ 120
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शहंशाह आलम