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Thursday, December 31, 2015

खनिकर्मी

कोयला खदान की
काली अँधेरी सुरंगों में
निचुड़े तन-मन वाले खनिकर्मी के
कैप लैम्प की पीली रौशनी के घेरे से
कभी नहीं झांकेगा कोई सूरज 
नहीं दीखेगा नीला आकाश
एक अँधेरे कोने से निकलकर
दूसरे अँधेरे कोने में दुबका रहेगा ता-उम्र वह
पता नहीं किसने, कब बताया ये इलाज
कि फेफड़ों में जमते जाते कोयला धूल की परत को
काट सकती है सिर्फ दारु
और ये दारू ही है जो एक-दिन नागा कराकर
फिर ले आती है उसे
कोयला खदान की अँधेरी सुरंगों में
कभी-कभी औरतों और अफसरों को गरियाने के बाद
बड़ी गंभीर मुद्रा में बात करते हैं वे
तो बताते हैं कि ज़िन्दगी एक सर्कस है
हर दिन तीन शो और हर शो में जान की बाज़ी
यही तो खनिकर्मी का जीवन
'इत्ता रिस्क तो सीमा पर सिपाहियों को भी नहीं होता साब
जंग-लड़ाई तो कभी छिड़ती है
खनिकर्मी तो हर दिन एक जंग लड़ता है
एक जंग जीतता है जीवन की, उम्मीदों की...
(उम्मीदों का दामन थामे सभी कोयला खनिकर्मियों को नव-वर्ष की शुभकामनायें)

Saturday, December 26, 2015

फिर भी अनंत आस्थावान..

रहता है वो
बिना वेतन के भी जीवित
भले से भाग जाए ठीकेदार
लेकर छः-सात माह की पगार
उसे नहीं क़ानून बनाने का अधिकार
इसीलिए बलजबरी मांग नहीं सकता पगार
लेकिन फिर-फिर काम पाने के लिए
खोज लेता एक नया ठीकेदार
और बिकट आस्था के साथ जुटे रहता
हर दिन एक नई टूटन के लिए
हर दिन अंतहीन थकान की लिए
हर दिन एक नई उम्मीद के साथ.
रहता है वो
बिना वेतन के जीवित
मुंह अँधेरे बाँध कर बासी भात-चटनी
साइकिल पर आंधर-झांवर पैडल मार
पहुँच आता ठीहे पर
कितना खुश-खुश, कितना उर्जावान
जैस-जैसे बढ़ती धूप और ताप
वैसे-वैसे गर्माता जाता उसका मिजाज़
और सूरज के ढलने के साथ
बढती थकान, गूंजता थकान का गान
एक बार फिर गाँव-घर तब
थके-तन, खाली हाथ लौटने का ईनाम
फिर भी अनंत आस्थावान..
रहता है वो
बिना वेतन की जीवित
वह नहीं जानना चाहता
कि इस हाड़तोड़ मेहनत और पगार में
हैं कितनी विसंगतियां
कि इसी काम के लिए सरकारी सेवक
पाते हैं दस गुना ज्यादा वेतन
बिना नागा, हर माह, निश्चित तिथि में
वह दूसरों के सुख से दुखी नहीं होता
इसीलिए तो रात भरपूर नींद है सोता...
अपने लिए कतई नहीं चाहिए उसे
एक नया सूरज
एक नई धरती, एक नया आकाश
बस थोड़ी सी जगह में सिकुड़कर-सिमटकर
संकोच और अपार सब्र के साथ
सबके लिए बचा देता है पर्याप्त स्पेस
ताकि बची रहे आसपास
ढेर सारी आस्था और विश्वास.....

Tuesday, December 8, 2015

विद्रोही जी की स्मृति में :


और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीत गई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग रहा हूँ? सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं हैं वे ही व्यवस्था के संचालक हो सकते हैं...
क्या नित्यानंद गायेन की सूचना ने मुझमें पागलपन के लक्षण डाल दिए हैं? नित्यानंद गायेन ने तो सिर्फ इतनी बात कही कि विद्रोही जी नहीं रहे....कैसी खबर थी ये जिसे नित्यानंद ने मुझे सुनाना ज़रूरी समझा और ये विद्रोही जी ऐसी कौन सी शख्सियत थे कि जिनके लिए व्यथित हुआ जाए. फिर हमरंग के संपादक हनीफ मदार का फोन आया कि विद्रोही जी के बारे में पोस्ट डालनी है, फ़िल्मकार इमरान का पता या फोन नम्बर खोजा जाए जिसने विद्रोही पर डाक्यूमेंट्री बनाई है. मैंने देखा कि फेसबुक में स्वतः स्फूर्त लोगों ने विद्रोही के निधन पर पोस्ट लगानी शुरू कर दी हैं...और सबसे आश्चर्य तब हुआ जब बारहवीं की गणित की तैयारी करती बिटिया सबा मेरे साथ विद्रोही को यू-ट्यूब पर सुनने लगी...क्या था उस कवि विद्रोही की वाणी में कि आदेल के अंग्रेजी गाने सुनने वाली बिटिया भी मन्त्र-मुग्ध होकर विद्रोही को सुनने लगी...
“और ईश्वर मर गया 
फिर राजा भी मर गया 
राजा मरा लड़ाई में 
रानी मरी कढ़ाई में 
और बेटा मरा पढाई में...” 
जबकि देश के आइआइटीयन तो कुमार विश्वास को ही हिंदी का कवि समझते हैं, चेतन भगत को उपन्यासकार फिर ये विद्रोही ऐसा कौन सा कवि हुआ जिसके न रहने से लोगों को इतनी व्यथा हो रही है, कि जिसके रहने से कोई विचलित नहीं होता था..वो न सम्मानित कवि थे कि उनके पास सम्मान लौटाने का विकल्प होता...वे न सत्ता से प्रताड़ित कवि थे कि कभी पक्षधर सरकार बनती तो उनका सम्मान होता...फिर क्यों लोग रमाशंकर यादव उर्फ़ कवि विद्रोही जी के निधन पर इतने दुखी हैं....लेकिन एक बात तो है पार्टनर कि भले से हमें कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना या केदारनाथ सिंह की कविता-पंक्ति याद हों या न हों लेकिन विद्रोही की पंक्तियाँ अवचेतन में जगह क्यों बना लेती हैं और बार-बार उद्धृत होने को बेचैन करती हैं जैसे ग़ालिब के अशआर हों या कोई चिर-परिचित मुहावरे...
"अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है"
या 
"मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को 
एक ही साथ औरतों की अदालत में तलब कर दूंगा "
या 
" मेरी नानी की देह ,देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी"
वही विद्रोही कहते हैं तो लगता है कि ये पागल व्यक्ति का कथन नहीं हो सकता लेकिन सभ्य समाज ऐसे व्यक्ति को पागल ही कहता है जो ये कहे---“मैं ऐसी कवितायेँ लिखता हूँ कि मुझे पुरूस्कार मिले या फिर सज़ा मिले...लेकिन देखो ये कैसी व्यवस्था है जो मुझे न पुरस्कार देती है न सज़ा...अब मैं क्या करूँ...जबकि मैंने लिखा ये सोचकर कि मुझे सज़ा मिलेगी---
“मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें.”
मैं जानता हूँ कि ये किसी नेता की मृत्यु का मामला नहीं है, और नहीं है किसी ओहदेदार या संत की मृत्यु कि जिसे चाह कर भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है. आप भले से इन मृत्युओं को भूल जाएँ, लेकिन राष्ट्रीय शोक की घोषणाएं और शासकीय अवकाश भरसक आपको मृत्यु के उत्सव की तरफ घसीट ले जाएँगी. सत्ता-नियोजित भव्य शोभा-यात्रायें मौत को भी एक इवेंट की तरह सेलेब्रेट करती हैं.. ऐसी मौतों से मैं क्या कोई भी व्यथित नहीं होता...भले से मौत स्वाभाविक न होकर हत्या ही क्यों न हो! उस मौत का हत्यारा सज़ा पाए या न पाए लेकिन उस हत्या के बाद होने वाले नरसंहार के हत्यारे कभी सज़ा नहीं पाते...कई पीढियां मुक़दमे लडती जाती हैं...मौत का मुआवजा मिल जाना ही जैसे अभीष्ट होता है और सदियों तक मरने से बच गये लोग हर रात स्वप्न में डरते हुए कत्ल होते हैं...विद्रोही जी की मृत्यु ऐसी मृत्यु नहीं है कि इवेंट की तरह मैनेज हो...भले से कवि को अपने होने और न होने के बारे में जानकारी थी, तभी तो कितनी बुलंदी से वे कह गये---
"कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा...."
उनके लेखन पर, लेखनी पर, जीवनी पर और भी लोग बेशक लिक्खेंगे लेकिन मैं जो उनसे कभी नहीं मिला, मैं जो जेएनयू में नहीं पढ़ा...मैं जो खुद को एक चेतना संपन्न जागरूक नागरिक होने का दम्भ जीता हूँ आज बहुत व्यथित हूँ कि हम विद्रोही के लिए एक मुहाफ़िज़ क्यों नहीं बन पाए...क्या हम पागल नहीं थे..?
हममे पागलपन है लेकिन हम उसे छुपाते हैं और विद्रोही जी पागलपन को शान से जीते थे...