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Saturday, June 29, 2019

बित्ता भर का पौधा झूमता है

संदर्भ : अनवर सुहैल की किताब #उम्मीद_बाक़ी_है_अभी
■ शहंशाह आलम
Image may contain: Shahanshah Alam, standing, shoes and beard

आज जब हमारी साझा संस्कृति दम तोड़ रही है। भाषा की जो मर्यादा होती है, वह ख़त्म होने-होने को है। व्यवस्था का जो अपना वचन होता है, वह ध्वस्त है। विचारों का जो आशय हुआ करता था, वह अपना आशय खो चुका है। राजनीतिक संगठनों की अपनी जो विशेषता हुआ करती थी, वह अब किसी पार्टी में दिखाई नहीं देती। खबरिया चैनल भी अब सत्ता के ग़ुलाम प्रवक्ता बने दिखाई देते हैं। थोड़ा-बहुत ठीक-ठाक कुछ बचा हुआ दिखाई देता है, तो वह साहित्य में ही दिखाई देता है। यहाँ भी सत्ता की ग़ुलामी ने अपना ख़ूनी पंजा मारना शुरू कर दिया है, मगर ख़ूनी पंजा यहाँ से हारकर वापस अपने आका के यहाँ लौट जाता रहा है। उसके लौटने की असल वजह यही है कि कवियों की, लेखकों की, कलाकारों की चेतावनी से यह ख़ूनी पंजा हमेशा डरता आया है। इतना-सा सच साहित्य में इसलिए हो रहा है कि यहाँ ईमानदारी पूरी तरह बची हुई है। साहित्य हर ज़माने में देशकाल के प्रति अपनी सक्रिय भूमिका और अपने शत्रुओं को पहचानने दृष्टि खुली जो रखता आया है। जहाँ तक सत्ता की बात है, सत्ता का वर्तमान अर्थ, जो कमज़ोर हैं, उनको डराना, धमकाना और मार डालना मात्र रह गया है। मेरी समझ से अनवर सुहैल हमारे समय के ऐसे कवि हैं, जो सत्ता के इस अनैतिक कार्य को कविता की नैतिकता से ख़त्म करने का सफल प्रयास करते आए हैं, ‘टायर पंक्चर बनाते हो न / बनाओ, लेकिन याद रहे / हम चाह रहे हैं तभी बना पा रहे हो पंक्चर / जिस दिन हम न चाहें / तुम्हारी ज़िंदगी का चक्का फूट जाएगा / भड़ाम … / समझे / कपड़े सीते हो न मास्टर / ख़ूब सिलो, लेकिन याद रहे / हम चाह रहे हैं तभी सी पा रहे हो कपड़े / जिस दिन हम न चाहें / तुम्हारी ज़िंदगी का कपड़ा फट जाएगा / चर्र … / समझे (व्यथित मन की पीड़ा)।’
यह सच देखा-भाला हुआ है, आपका भी, मेरा भी और अनवर सुहैल का भी कि वे यानी जो हत्यारे हैं, वे चाहते हैं, तभी हम ज़िंदा हैं। वे जिस दिन हमें मुर्दा देखना चाहते हैं, हमसे हमारी ज़िंदगी छीन लेते हैं। उम्मीद बाक़ी है अभी पुस्तक की कविता हमारा साक्षात्कार ऐसे ही कड़वे सच से कराती है। यह एक कड़वा सच ही तो है कि हत्यारे ने जब चाहा किसी पहलू ख़ाँ को मार डाला। हत्यारे ने जब चाहा किसी तबरेज़ अंसारी को मार डाला। सवाल यह भी है कि पहलू ख़ाँ जैसों का दोष क्या था और तबरेज़ अंसारी जैसों का दोष क्या है? जवाब कोई नहीं देता – न कोई खबरिया चैनल, न कोई आला अफ़सर, न कोई मुंसिफ़ और न कोई सत्ताधीश। अब उम्मीद इतनी ही बाक़ी है कि बाक़ी बचे हुए पहलू ख़ाँ और तबरेज़ अंसारी अपने मार दिए जाने की बारी का इंतज़ार करते हुए दिखाई देते हैं, ‘मुट्ठी भर हैं वे / फिर भी चीख़-चीख़कर / हाँकते फिरते हैं हमें / हम भले से हज़ारों-लाखों में हों / जाने क्यों टाल नहीं पाते उनके हुक्म (इशारों का शब्दकोश)।’ आदमी अपनी साधुता में ही तो मारा जाता है। हत्यारी भीड़ ने आपको मारने की पूरी कोशिश करी और तब भी आप में ज़रा-सी जान बाक़ी अगर रह गई तो आपकी लाश जेल से बाहर आती है। इस तथाकथित क़ानून ने तो हद पार कर रखी है। जिसकी हत्या की साज़िश रची जाती रही है, वही जेल जाता रहा है। और जिस भीड़ ने आपको मारा, वह ईनाम पाती है। यह सच नहीं है तो फिर तबरेज़ अंसारी की लाश जेल से बाहर क्यों आती है और वह जेल किस जुर्म में भेजा गया था, यह सवाल अभी अनवर सुहैल की कविता में ज़िंदा है और वह हत्यारी भीड़ भी ज़िंदा है अभी, ‘ग़ौर से देखें इन्हें / किसी अकेले को घेरकर मारते हुए / ध्यान दें कि ये भीड़ नहीं हैं / भीड़ कहके हल्के से न लें इन्हें / दिखने में क़बीलाई लोग नहीं हैं / मानसिकता की बात अभी न करें हम / आधुनिक परिधानों में सजे / प्रतिदिन एक जीबी डाटा ख़ुराक वाले / कितने सुघड़-सजीले जवान हैं ये / इनके कपड़े ब्रांडेड है वैसे ही / इनके जूते, बेल्ट और घड़ियाँ भी (आखेट)।’
अब हर हत्यारा मॉडर्न है और एजुकेटेड है। वास्तव में, भीड़ के रूप में हाज़िर हत्यारे उच्चकोटि के होते हैं। इनको मालूम होता है कि जिस तरह आखेटक आखेट किया करते थे, वैसे ही अब इनको किसी आदमी को अपना शिकार मानते हुए शिकारी करना है। इस शिकार के एवज़ इनको कोई सज़ा नहीं मिलनी, सत्ता के वज़ीफ़े मिलने हैं, पूरी गारंटी के साथ, ‘जो ताने-उलाहने और गालियाँ दे रहे / प्रतिष्ठित हो रहे वे / जो भीड़ की शक्ल में धमका रहे / और कर रहे आगज़नी, लूटपाट / पुरस्कृत हो रहे वे / जो बलजबरी आरोप लगाकर / कर रहे मारपीट और हत्याएँ (सम्मानित हो रहे वे)।’ अब भारतीय होने का तानाबाना बिगड़ रहा है। भारतीयता का अर्थ जितना सुंदर हुआ करता था, अब इसका अर्थ उतना ही विद्रूप बना दिया गया है। यह भद्दापन हमारे भीतर असुरक्षा की भावना लाता रहा है। विगत कुछ वर्षों में सत्ता पाने की राजनीति ने जो नंगानाच अपने देश में शुरू किया है, चिंतनीय भी है और निंदनीय भी। उम्मीद बाक़ी है अभी की कविता में अनवर सुहैल की यही चिंता और यही निंदा पुष्ट होती दिखाई देती है, ‘हुक्मराँ के साथ प्यादे भी फ़िक्रमंद हैं / खोल के बैठे हैं मुल्क का नक़्शा ऐसे / जैसे पुश्तैनी ज़मीन पर बना रहे हों मकान / जबकि मुल्क होता नहीं किसी की निजी मिल्कियत (आह्वान)।’
अनवर सुहैल की चेष्टा यही है कि अपने देश में एका बचा रहे। यह देश सबका है। यानी जितना यह देश आपका है, उतना ही मेरा भी है और उतना ही अनवर सुहैल का भी है। न जाने एकाएक यह स्वर कहाँ से और कैसे उठने लगा है कि आप तो यहाँ के हैं लेकिन अनवर सुहैल किसी और दुनिया से हैं और उनको उसी दुनिया में लौट जाना चाहिए। यहाँ रहने की ज़िद पर अड़े रहेंगे तो किसी न किसी दिन पहलू ख़ाँ या तबरेज़ अंसारी वाली हालत अनवर सुहैल की भी होगी और अनवर सुहैल के बच्चों की भी। इतने के बावजूद अनवर सुहैल नाउम्मीद नहीं होते हैं। चूँकि अनवर सुहैल विवेकशील मानव हैं। इनको अपने मुल्क के संविधान पर पूरा भरोसा है। भरोसा है, तभी इनकी कविता में उम्मीद ज़िंदा है, ‘एक कवि के नाते / मुझे विश्वास है / कि जड़ें हर हाल में सलामत हैं / मुझे इस बात पर भी / यक़ीन है हमारी जड़ें / बहुत गहरी हैं जो कहीं से भी / खोज लाती रहेंगी जीवन-सुधा (जड़ें सलामत हैं)।’
भरोसा है, तभी तो बित्ता भर का पौधा झूम सकता है, अपनी ज़िंदगी की उम्मीद को बचाए रख सकता है तो अनवर सुहैल की कविता, जो किसी फलदार वृक्ष की तरह है, यह कविता उम्मीद का दामन कैसे छोड़ सकती है। फिर कविता जब विद्रोह है तो अनवर सुहैल जैसा सच्चा भारतीय कवि अपने मारे जाने का इंतज़ार थोड़े ही न कर सकता है। अनवर सुहैल हर उस हत्यारे के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं, जो हत्याकांड भी करता है और इसके एवज़ पुरस्कार और सम्मान भी पाता है। हम तय करते हैं, और रचे जाते रहें शब्द, तुम्हारी बातें मरहम हैं, मिल-जुल लैब खोलें, मरने के विकल्प, चोरी-छिपे प्रतिरोध, अबके ऐसी हवा चली है, हमें तलाशना है ईश्वर, मुसलमान, दलित या स्त्री, डरे हुए शब्द, बुर्क़े और टोपियाँ, दलितों द्वारा भारत बन्द, सहारे छीन लेते हैं आज़ादी, डिजिटल समय में किताबें, नव-इतिहासकार, जेलों का समाज-शास्त्र, हम शर्मिंदा हैं निर्भया, मई इसे उम्मीद कहता हूँ शीर्षक आदि कविता एक सच्चे कवि के दायित्व का नतीजा बेधक कहा जा सकता है। वास्तव में, जब हमारे आसपास जीने की चाहत तंग करने की पुरज़ोर कोशिश चल रही है तो ऐसे में किसी कवि से साधुभाषा की उम्मीद हम नहीं कर सकते हैं। अनवर सुहैल से भी हम इसीलिए साधुभाषा की उम्मीद नहीं कर सकते।
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उम्मीद बाक़ी है अभी (कविता-संग्रह) / कवि : अनवर सुहैल / प्रकाशक : एक्सप्रेस पब्लिशिंग, नोशन प्रेस मीडिया प्रा.लि., चेन्नई / मूल्य : ₹140
https://notionpress.com/read/1323139


Wednesday, June 5, 2019

मुस्लिम समाज के जीवन के अनछुए पहलू




-गंगा शरण सिंह की कलम से उपन्यास पहचान की समीक्षा :



अनवर सुहैल साहब का उपन्यास 'पहचान' पिछले साल डाक से आया था। उसी दौरान घर की शिफ्टिंग में किताबें इस कदर इधर उधर हुईं कि आज तक उनका मामला दरबदर ही है। जो अमूमन बहुत ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं, वही किताबें कभी कभार साफ सफाई करते अचानक हाथ लग जाती हैं, जैसे दो दिन पहले 'पहचान' हाथ लग गया।

कविता और कहानी दोनों विधाओं में निरन्तर लिखते रहने वाले अनवर सुहैल इस पीढ़ी के सबसे सक्रिय लेखकों में हैं। 'पहचान' संभवतः उनका पहला उपन्यास है जो 2009 में राजकमल प्रकाशन से आया था। उन्होंने इसे समर्पित किया है "उन नवयुवकों को जो ज़िन्दगी में अपने दम पर कुछ बनना चाहते हैं और किसी संस्था का नहीं बनना चाहते 'भोंपू' या कोई 'टूल्स'।"

इस रोचक उपन्यास की कथावस्तु के केन्द्र में भारतीय समाज के वे पिछड़े क्षेत्र हैं, जहाँ विकास और शिक्षा की जगह घोर अशिक्षा और पिछड़ापन है। जहाँ बच्चों का बचपन से जवानी तक का सफर फुटपाथ, सिनेमाहाल और गैरेज की संगति में बीतता है। इसी भूखण्ड पर अपने अस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद से जूझ रहा है यूनुस। जीवन के इस कठिनतम संघर्ष में यूनुस के साथ एक ही चीज है और वह है उसकी जाग्रत चेतना जो उसे निरन्तर अशुभ से दूर शुभत्व की तरफ़ जाने की प्रेरणा देती है और वह कड़ा परिश्रम करके अपने लिए एक स्वतंत्र पहचान बनाने का सुख हासिल करता है।

इस किताब में मुस्लिम जीवन और समाज के बहुत से यथार्थ दृश्य मौजूद हैं।
अनवर सुहैल ने बरेलवी और देवबंदी मुसलमानों के पहनावों, मान्यताओं, धार्मिक निशानियों और उनकी एक दूसरे के प्रति नापसंदगी का तटस्थ वर्णन किया है।

यूनुस का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहुत प्रभावित करता है। वह जितनी सहजता से अलग अलग संप्रदायों की मस्जिदों में चला जाता है उसी तरह मन्दिर से लौटे दोस्तों द्वारा दिया गया प्रसाद भी खा लेता है। न उसे वन्दे मातरम बोलने से कोई गुरेज़ है न ही कोई ऐसा धार्मिक दुराग्रह जो उसकी जीवन यात्रा में बाधा बन सके।
उसका रहन सहन और पहनावा इस तरह है कि उसके धर्म का अनुमान लगाना सहज नहीं।

" यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ाई के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोई। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोई जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।"

प्रसंगवश रिहन्द बाँध क्षेत्र का ज़िक़्र आने पर उस दौर की स्मृतियों का भी मार्मिक पुनरावलोकन हुआ है जब आजादी के बाद उस क्षेत्र के नागरिकों के लिए यह कल्पना असम्भव थी कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ेगा...
" कल्लू के बूढ़े दादा आज भी डूब के आतंक से भयभीत हो उठते। उनकी जन्मभूमि, उनके गाँव को इस बाँध ने निगल लिया था। ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी जड़ जमाये पेड़ को एक जगह से उखाड़कर कहीं और रोपा जाए! क्या अब वे लोग कहीं और जम पाएंगे?"

विसंगतियों का वर्णन करते समय अनवर सुहैल की शैली स्वाभाविक रूप से व्यंगात्मक हो जाती है। कोतमा क्षेत्र का यह शब्द-चित्र देखिए....

" कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़ मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हैं। हल्ला गुल्ला, अनावश्यक लड़ाई- झगड़े की आवाज़ से यात्री अंदाज़ लगा लेते हैं कि कोतमा आ गया।"

इसी तरह शहरों में धन और सुविधा की अंध दौड़ में खो गयी युवा पीढ़ी 
के लिए उनकी चिन्ता इस प्रकार व्यक्त हुई है--

" शहर में रहते रहते युवकों की संवेदनाएँ शहर की आग में जलकर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं जिसमें मतलब भर के कुछ पते और टेलीफोन नम्बर्स दर्ज़ रहते हैं, सिर्फ़ उस एक पते को छोड़कर जहाँ उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहाँ की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं। "

★पहचान
Anwar Suhail
★राजकमल प्रकाशन
Rajkamal Prakashan Samuh
मूल्य: ₹200