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Saturday, October 31, 2015

गौ-हत्या

कहानी : अनवर सुहैल                                                                         
गौ-हत्या                                                                                               

उन चार यारों के बारे में जान लें जिनके एडवेंचर ने नगर की तथाकथित शान्ति को भंग की थी.
वैसे तो वे तीन ही थे, लेकिन गाहे-बगाहे एक चौथा भी उनसे आ मिलता.
वे अक्सर बेनी नाले के रपटे पर आ मिलते.             
नगर जहां खत्म होता वहां पहाड़ी के दामन पर पतला सा बरसाती नाला है, बिना पानी का नाला….
बारिश और उसके बाद ये नाला वन-विभाग के लिए दिक्कतें पैदा करता है, इसलिए उस नाले पर एक रपटा बना दिया गया. इसे पुलिया भी कहते हैं देहाती...वैसे है ये रपटा, जब बारिश का पानी ऊपर से बहता है तब रपटा डूब जाता है..
दो-तीन बारिश झेलने के बाद रपटा जर्जर हो गया जैसे कभी उसका कोई अस्तित्व ही न हो. सो इस रपटे के आसपास जुआ खेलने या दारु-गांजा सेवन करने वालों के लिए अनुकूल वातावरण बन गया.
बड़ा ही मनोहारी प्राकृतिक दृश्य बनता शाम के समय, एक तरफ सिद्ध-बाबा की पहाड़ी के पीछे डूबता सूरज और वन-विभाग के संरक्षित सघन वृक्षों के पत्तों से छन-छन आती सुनहरी-लाल किरणों का मायाजाल..
इसी समय ये दोस्त इकट्ठे होते.
शाम के जादू का असर होता हो या नशे की किक...वे गुमसुम खोये से रहते जब तक कि अँधेरा पैर पसारने नहीं लगता था. पहले वे खुद ही गाते-गुनगुनाते थे लेकिन जब से उनके पास एक सेकण्ड-हैण्ड मोबाइल आ गया है, वे मोबाइल पर गाना सुनते हैं-----“हमका पीनी है पीनी है हमका पीनी है...”
डिस्पोजेबल कप-गिलास, पानी बोतल और चखना हो तो दारु इसी तरह की प्राकृतिक जगह में निर्विध्न पी जा सकती है. वे दोस्त थे, रसिक थे, गपोड़ी थे, नशेडी थे लेकिन समलैंगिक नहीं थे.
उन तीनों में से एक शादी-शुदा था लेकिन आवारागर्दी के कारण उसकी बीवी भाग गई. बाकी के दो कुंवारे थे और ये भी दावा करते कि शादी नहीं हुई तो क्या हुआ बारातें बहुत देखी हैं उन दोनों ने!
सूचना क्रान्ति के महा-विस्फोट के बाद अब कुछ भी छिपा नहीं है...और जो दिखता है सो बिकता है.
बेच रही हैं दुनिया भर की ताकतें अश्लीलता, असामाजिकता और अपसंस्कार..एक छोटी सी चिप में...इंसान के नाख़ून के बराबर पतली सी चिप और जाने कितने जीबी के डाटा को अपने अन्दर समोए हुए. ये चमत्कार ही तो है. इस डाटा स्टोर करने के नये साधन ने खा लिए ऑडियो-वीडियो टेप, ऑडियो-वीडियो सीडी, डीवीडी जैसी ताज़ी तकनिकी भी कितनी जल्दी बासी हो गई और अब जब ऑनलाइन डाटा स्टोर हो रहा है तब जाने क्या-क्या होगा कोई नहीं जानता...
असुविधाओं, अभावों के बीच भी उन तीनों ने खुश रहने के कई कारण खोज लिए थे लेकिन इस नई तकनीकी ने उन तीनों की नींदें उड़ा दी थीं.  भरी दुनिया में उन्हें अब बस यही एक चीज़ चाहिए थी. सिर्फ और सिर्फ ऐसा मोबाइल सेट, जिसकी बड़ी सी स्क्रीन हो और जिसे टच करते ही हाई स्पीड डाटा खींच स्वप्न दृश्य स्क्रीन पर चलायमान हो जाएँ.
ऐसे मोबाइल उन लोगों ने कई लोगों के पास देखे थे. कुछ लोगों के पास तो नौ-दस इंच स्क्रीन के मोबाइल देखे, जिनमें जाने कितने पिक्चर सेव रहते हैं, जिन्हें जब चाहें ऊँगली के इशारे पर स्क्रीन पर जिंदा किया जा सकता था और पिक्चर का भरपूर मज़ा लिया जा सकता था. अब धनपति लौंडे पक्का है ऐसे मोबाइल पर धार्मिक या सामाजिक सिनेमा देखते न होंगे. हालीवुड की एक्शन पिक्चर या फिर एडल्ट पिक्चर ही तो देखते हैं लोग...भीड़-भाड़ में छुप कर या फिर अकेले में मस्ती के साथ. ऐसा ही एक सेट उनके पास हो जाता तो फिर कितना आनन्द उठाते वे लोग. कहाँ से आयेंगे इतने सारे पैसे. कैसे होगा दस-पंद्रह हजार रुपये का जुगाड़..इसी जुगत में बेनी नाले के रपटा में बैठ वे योजनायें बनाते.

उन तीनों में जो मुखिया था, उसका नाम था सलमान कुरैशी उर्फ़ सल्लू...यानी बड़े चिकवा का पांचवें नम्बर का बेटा...नगर में तीन कसाई हैं...बड़े चिकवा, मंझले चिकवा और छोटे चिकवा. इन तीनों का नगर के मांस व्यापार में नब्बे प्रतिशत हिस्सा है...इनके कम्पटीशन में रहीस भाई आये लेकिन पनप न सके, गुलज़ार कसाई का धंधा ज़रूर कुछ जमने लगा है. वो भी इसलिए कि वो उधार का व्यापार करता, जबकि खाने-पीने वाले कहाँ याद रखते हैं उधारी-वुधारी...खाए पिए खिसके, पठान भाई किसके...
सल्लू बचपन से ही सुबह-सवेरे अपने अब्बू बड़े चिकवा की गालियाँ सुनकर उठता और आँख मलते हुए रेलवे लाइन किनारे मटन की दूकान पर आ जाता. उसकी ड्यूटी थी दुकान की सफाई करना और फिर सरकारी नल से बाल्टियाँ भर-भरके पानी लाना और दुकान के बाजू में रखे आधे ड्रम को पानी से फुल कर देना. इसी बीच रेल लाईन किनारे वह मैदान आदि से भी निपट लेता है.
फिर जब उसका छटे नम्बर का भाई दुकान आने लगा तब उसकी ज़िम्मेदारी बदल गई. अब वह दूकान की साफ-सफाई होने के बाद घर से माल लाकर दूकान में बांधता और फिर जब बड़े चिकवा माल जिबह करते तो माल की खालपोशी करता.
खालपोशी के बाद अंतड़ियों की सफाई करके नाले में बहाना और अंतड़ियों को सहेज कर दूकान में बिक्री के लिए रखना. कोई गाहक सर या पैर खरीदने आये तो उसे टेकल करना.
खालपोशी करना कोई अच्छा काम नहीं है..साधारण शब्दों में कहा जाए तो खालपोशी करना माने बकरे की चमड़ी बिना कटी-फटे उतारना...मवेशी का चमड़ा बिकता है...इसीलिए उसमे खरोंच नहीं लगनी चाहिए. खरोंच लगी खाल के दाम नहीं मिल पाते. धीरे-धीरे सल्लू इस हुनर में भी उस्ताद हो गया.
उसके बाद उसने बाकायदा दुकान में बैठ कर चापड़ से बोटियाँ काटकर गोश्त बेचने की कला भी सीख ली. बड़ा ही चतुर सयाना था सल्लू जो पलक झपकते ही गाहक की नजर के सामने ही इधर का माल उधर कर देता और अच्छा-बुरा मिलाकर गोश्त बेचना भी एक कला है...इस हुनर के कारण उसके अब्बू बड़े चिकवा उसे अब दूकान में बैठाने लगे थे. अपनी किशोरवय के कारण वह एक कुशल सेल्समैन बन गया था और यदा-कदा अपनी सूझ-बूझ से सौ-पचास की हेराफेरी भी कर लेता था. आखिर रोज़-रोज़ के नित नए खर्चे के लिए दूकान में निष्ठा दिखाने का ईनाम भी तो चाहिए ही था, वर्ना अब्बू के हाथ से फूटी कौड़ी भी न मिले...आठ-दस जनों का संयुक्त परिवार इसी गोश्त की दूकान से ही तो आजीविका पाता था.

सल्लू के दोनों दोस्त अक्सर सल्लू के कहे अनुसार काम करते. सल्लू उनका बॉस है. प्यार से उसे वे बॉस और कभी भाईजान कहते.
उनमे से एक विश्वकर्मा था...अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू...पप्पू के पिता पहले प्रिंटिंग प्रेस में कम्पोजीटर का काम करते थे. बड़ा ही आँख फोडू काम था वो. बीडी पीते और पेज कम्पोज़ करते. चिमटी के सहायता से एक-एक शब्द चुन कर फ्रेम में फिट करना. काम अधिक होता तो रात घर लौटने से पहले ठेके पर जाकर देसी मार लिया करते.
पैत्रिक संपत्ति के बंटवारे से कुछ राशि मिली तो उन्होंने जोड़-तोड़ कर एक सेकण्ड हैण्ड ट्रेडिल मशीन लगा ली. शुरू में अच्छा काम मिलता था लेकिन जब से स्क्रीन और फिर आफसेट प्रिंटिंग प्रेस नगर में  खुले, तब ट्रेडिल के लिए काम मिलना कम हो गया. उनके पास इतने पैसे तो थे नहीं कि अपना ऑफसेट प्रेस डाल लें सो पप्पू के पिता ने ट्रेडिल मशीन औने-पौने बेचकर साइकिल रिपेयर की दूकान लगा ली. साइकिल किराए पर भी लगाते और महीने में चार-पांच नई साईकिल बेच भी लेते. बगल के कसबे के सिन्धी सेठ से वे नई साइकिलें ले आते और कमीशन पर उन्हें बेचते.
ये अलग बात है कि उनका हाथ हमेशा तंग रहता है. पढने-लिखने में फिसड्डी रहने वाला उनका खुराफाती पूत पप्पू साइकिल की दुकान में बैठने लगा तो उन्हें दुपहर में आराम मिलने लगा. 
पप्पू शाम होते ही पिता को दूकान और गल्ला सौंप सीधे बेनी नाले की रपटे की तरफ इस तरह भागता जैसे कोई नमाज़ी अज़ान की आवाज़ सुन मस्जिद की तरफ भागता है.....इस रपटे में ही उसे दुनिया-जहान का ज्ञान की प्राप्त होता है.
उनका तीसरा साथी है अंसार जो जुगनू टेलर मास्टर का बेटा है..एक जमाने में जुगनू टेलर मास्टर बड़े फेमस थे...फिर जब से न्यू स्टाइल-टेलर की शॉप खुली और लौंडे-लफाड़ी अपने कपड़े न्यू स्टाइल-टेलर में सिलवाने लगे तब जुगनू टेलर मास्टर की दुकान में मंदी छाने लगी...अंसार के अब्बू अपने जमाने के बेस्ट टेलर थे...कोट-पेंट विशेषज्ञ लेकिन अब कोट-पेंट भी रेडीमेड मिलने लगे हैं...बस गिने-चुने पुराने गाहक हैं जिनके आर्डर मिलते रहने से जुगनू टेलर की दूकान में धूल नहीं जमने पाती है.
शाम के वक्त उस रपटे पर इक्का-दुक्का लोग ही आते...
एकदम एकांत वासा..झगडा न झांसा..यही तो नारा था उनका.
दिन भर इधर-उधर और शाम बेनी नाले पर बने रपटे पर बीतती.  
अपने पथरीले से मोबाइल सेट पर गाना सुनते और फूटी किस्मत को कोसा करते
सल्लू कहता—“साला इस मोबाइल को किसी के सामने निकालने पर बेइज्जती खराब हो जाती है..”
पप्पू कभी बिगड़ता तो बोलता मोबाइल फेंक के मारूंगा...मोबाइल न हुआ जैसे कोई पत्थर...
अंसार भी अपने बेढंगे मोबाइल से दुखी रहता.
पप्पू ने गहरी सांस भरकर कहा—“जिसे देखो मोबाइल की स्क्रीन पर ऊँगली से चिड़िया उड़ाता रहता है फुर्र..फुर्र...”
अंसार कहाँ चुप रहता---“अबे वे गेम खेलते हैं...जानता है मैंने भी अपने एक कस्टमर का मोबाइल चलाया है उसमें ऐसा गेम था कि उसे खेलते हुए सांस रोकनी पडती है....चुके नहीं कि धडाम से गड्ढे में गिरे और गेम-ओवर...”
सल्लू अपने लच्छे बालों को संवारते हुए नाक सुड़कते हुए बोला—“जानते हो मेरे बिलासपुर वाले जीजा के पास क्या मस्त टेब है..इतनी बड़ी स्क्रीन है कि जैसे सिनेमा हाल में पिक्चर देख रहे हों...मैंने उनका टेब झटक लिया और दो घंटे कैसे बीते पता भी नहीं चला...उसमें नेट-पेक भी था...खूब मजा आया...उसमें जानते हो दो वीडियो देखे...” सल्लू का चेहरा तमतमा रहा था, आँख दबा कर उसने बताया---“वोई वाले वीडियो...क्या पिक्चर क्वालिटी है उसकी...देख तो रहा था और मेरी “----“ भी फटी जा रही थी कि कहीं कोई आ न जाए...फिर जब उनकी एक काल आई तो मैंने हिस्ट्री डिलीट करके उनका सेट उन्हें वापस कर दिया...पच्चीस हजार का टेब है उनका...!”
सल्लू के अनुभव सुनके पप्पू और अंसार अवाक रह गये...
अब उनके पास एक ही ख़्वाब था...कैसे एक मोबाइल सेट या टेब उनके हाथ लगे...
कम से कम आठ-दस हज़ार रुपये तो लगेंगे ही कायदे का मोबाइल लेने में.
लेकिन इतना पैसा कहाँ से आयेगा?
और ये नामुराद पैसे का जुगाड़ उन्हें अपराध के रास्ते ले गया.
बुढ़िया बकरी का माँस ‘अल्ला-कसम एकदम खस्सी का गोश्त है...सॉलिड..!’ कहके नए लजीले गाहकों को लपेट दिया करता. लजीले गाहक माने ऐसे ग्राहक जो डरते-सहमते गोश्त खरीदने पहुँचते हैं कि उन्हें दूकान में ज्यादा समय खड़ा न रहना पड़े और जिससे लोग ये न जान जाएँ कि वे मांसाहारी हैं. ऐसे भी ग्राहक होते हैं जिन्हें गोश्त से मतलब होता है...जो एकदम नहीं जानते कि अगले पैरों को दस्त और पिछली टांगों को रान कहा जाता है. कि मोटा सीना क्या होता या चांप का गोश्त किसे कहते हैं. सल्लू ऐसे गाहकों को बखूबी पहचानता है और उन्हें छिछड़ा वगैरा भी तौल कर दे देता है.
इस मुए मोबाइल ने उनके रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया था.
एक अदद स्मार्ट फोन उनके हाथ आ जाता तो कान के साथ उनकी चक्षुओं के लिए भी मनोरंजन का साधन मिल जाता. वे औरों की तरह अपने स्मार्ट फोन के सपने देखा करते.
एक शाम जब सूरज डूब चूका था और धुंधलका फ़ैल रहा था...अचानक सल्लू को एक बकरा चरता दिखा.
शायद झुण्ड से बिछुड़ा बकरा था.
सल्लू के दिमाग में एक विचार आया.
उसने पप्पू और अंसार की तरफ देखा.
सल्लू भाईजान गुरु ठहरे....युक्ति उसे सूझ चुकी थी....
सल्लू का युक्ति सुनकर पप्पू और अंसार के होश उड़ गये.
---“अगर भेद खुला या पकडे गये तो...?”
---“कुछ नहीं होगा बे...कालूराम है न उसको भी साथ रख लेंगे...उनके बिरादरी में मरे जानवर का मांस खाया जाता है...वो एकदम एक्सपर्ट है इस काम में...!”
तो ये था उनके गैंग का चौथा सदस्य कालूराम.
कालूराम, जिसके बारे में सिर्फ सल्लू ही जानता था कि वो वास्तव में करता क्या है? चूँकि नगर के आखिरी सिरे में नदी के उपेक्षित किनारे पर उन लोगों की बस्ती है जहां कई घरों में सूअर के बाड़े हैं. गन्दगी, गरीबी, अभाव की शिकार बस्ती. उस बस्ती में संभ्रांत दिन में जाने से कतराते हैं. जबकि रात में सड़क के आस-पास की वे झोपड़ियां रगड़े-झगड़े, देसी दारु, जिन्दा और मुर्दा मांस के लिए मशहूर हैं. कहते हैं कि बस्ती की औरतें रात में खुले आम जिस्मफरोशी करती हैं. बस्ती की बदबू से परेशान लोगों को रात-बिरात उस बस्ती की औरतों में जाने कहाँ से सौदर्य और मादकता नज़र आ जाती है.  अमूमन पुलिस वालों की रेड वहां पड़ती ही रहती है. कहीं चोरी छिनैती हो तो पुलिस का पहला छापा इनकी बस्तियों में पड़ता है. जाने कितने हिस्ट्री-शीटर इस बस्ती के पुलिस के खाते में दर्ज हैं.
इस बस्ती के लोगों से चार पैसे छींट कर कोई भी काम करवाया जा सकता है. इसीलिए स्थानीय दारु के ठेके वाले हों या फिर सिनेमा हाल वाले...इस बस्ती के लौंडों को भरती करके रखती हैं...ताकि उनके प्रतिष्ठानों में शांति-व्यवस्था कायम रह सके.
नगर में कहीं भी कोई जानवर मरा हो और बदबू फ़ैल रही हो तो इस बस्ती में भागे-भागे आओ और समस्या का समाधान पाओ. अरे, अब न इतने नर्सिंग होम बन गये हैं वरना एक जमाने में तो यहाँ की चमाईन-दाईयाँ सेठ-महाजनों के घर प्रसव कराती और नेग पाती थीं.
कालूराम का नाम सुनकर पप्पू और अंसार आश्वस्त हुए कि उसके रहने से काम आसान हो जाएगा.
सल्लू के आत्मविश्वास भरे चेहरे को किसी सिद्ध-पुरुष की तरह दोनों ताक रहे थे. इसलिए उन्हें सल्लू भाईजान पर भरोसा है...
सल्लू ने आँख मार कर कहा--“मोबाइल चाहिए कि नहीं बेटा...कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ सकता है जानेमन...ऐसे आँख फाड़-फाड़ कर मुझे न देखो, और मौके की तलाश में रहो...लोहा गरम हो तभी हथोड़ा मारना चाहिए...!” 

वे चारों आखिर पकड़े गये.
जनता के जोरदार संघर्ष और धरना-प्रदर्शन का परिणाम था कि सालों से ठंडाई पुलिस-प्रशासन ने ज़बरदस्त गर्मजोशी दिखलाई और हत्यारों को गिरफ्तार कर ही लिया.
और इस गिरफ्तारी ने जैसे तमाम जुझारू प्रदर्शनकारियों को ठंडा कर दिया. एक अजीब सन्नाटा सा छा गया नगर में. गुनाहगारों के पकडे जाने के बाद अचानक बहुसंख्यक शांत हो गये और नगर में फैला तनाव समाप्त हो गया.
कहाँ तो अल्पसंख्यकों को टार्गेट बनाकर ज़बरदस्त भड़काऊ नारे लगाये जा रहे थे और पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ कर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया उससे तो जैसे उन लोगों को सांप सूंघ गया.
सल्लू उर्फ़ सलमान, अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू, अंसार और कालूराम.
इन चारों ने जो बयान पुलिस को दिया वही बयान पत्रकारों को भी दिया.
पत्रकार-वार्ता में पत्रकारों के अलावा नगर के ऐसे युवा भी शामिल थे जिन्होनें स्वस्थ और स्वच्छ समाज निर्माण का संकल्प लिया था. इससे पहले ये युवा नगर की धार्मिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ के हिस्सा लेते थे. इधर उनके मन ये विश्वास गहराता जा रहा है कि देश के लिए इससे सुन्दर अवसर फिर आये न आये इसलिए बरसों से मन में दबी इच्छाओं को, अधूरे स्वप्नों को पूरा किया जाए. गर्व से जाने कब से कहते तो आ रहे थे कि वे इस देश की बहुसंख्यक आबादी को अपने गौरवशाली अतीत की अनुभूति करा देंगे. तब उनके नारे में बहुसंख्यक-वाद की बू थी. इसलिए जब उन्हें भ्रष्टाचार-मुक्त भारत और सर्वांगीण विकास का नारा मिला तो जैसे उनके दिन फिर गए...
अपराधियों के पकड़े जाने से अल्पसंख्यक समाज ने भी चैन की सांस ली.
ऐसी ही चैन की सांस ली थी मुस्लिम समाज ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद...बड़े दहशत में थे लोग कि कहीं हत्यारा कोई मियां न हो... जब क्लियर हुआ कि इंदिरा गांधी के सेक्युरिटी सिपाहियों ने ही उनकी हत्या की है जो कि सिख हैं और आपरेशन ब्लू स्टार का बदला ले रहे हैं.
अरे, बादशाहों ने भी अपने जमाने में गौकशी को मान्यता नहीं दी थी...फिर थोड़े से धन के लालच में ये टुच्चे चिकवे-कसाई काहे अमन-चैन में खलल डालने की कोशिश करते हैं.
हाजी अशरफ साहब ने गांधी चौक पर भारी भीड़ को संबोधित करते हुए कहा---“अब घटना की हकीकत चाहे जो हो लेकिन कितनी शर्मनाक बात है कि एक मछली सारे तालाब को अगर गंदा करना चाहेगी तो हम उस मछली को ही मार देने के पक्ष में हैं...हमें साफ़ सुथरा तालाब चाहिए...हमारी नगर की अंजुमन कमेटी की तरफ से प्रशासन से अपील है कि इस गौकशी की तत्परता से जांच करें और दोषियों को तीन दिन के अन्दर पकड़ें..वर्ना हम अनिश्चित काल तक के लिए नगर बंद रखेंगे...!”

उन चारों के पकड़े जाने से पहले तक जो विस्फोटक माहौल बना हुआ था अचानक शांत हो गया क्योंकि इस प्रकरण में दो मियाँ और दो हिन्दू युवक पकड़े गये थे और उन लोगों ने इकबाले-जुर्म भी कर लिया था. जो शक किया जा रहा था कि गौ-हत्या के इस जघन्य अपराध को मुसलामानों ने किया उस धारणा को विराम मिला. अब आन्दोलनकारी लोग ये कहते पाए गए के भईया, घोर कलजुग है...घोर कलजुग...
सल्लू ने मीडिया को जो बताया उसका लब्बो-लुआब ये था कि स्मार्ट फोन के लिए उन्हें पैसे चाहिए थे. एक बड़ी रकम.  बिना गलत काम किये एक साथ इतनी बड़ी रकम कैसे आये सो बेनी नाला पर बने रपटा में जो योजना बनी कि मौके की ताक में रहा जाए और तमाम परिस्थितियाँ अनुकूल हों जिस दम ये काम अंजाम दिया जाए.
सल्लू ने कई दिनों एक बात गौर से देखी थी कि आखिरी पेट्रोल पम्प के बगल में बसे पंडित जी की गाय अक्सर देर तक चरती रहती है. उसने कालूराम को तैयार रहने को कहा था कि जिस दिन मौका लगा वह फोन करके उसे बुलाएगा. कालूराम औजार लेकर पंद्रह मिनट के अन्दर आ जायेगा.
हुआ वही...एक शाम जब सब तरफ सन्नाटा पसर चुका था.
चिड़िया अपने बसेरों में आ सिमटीं और सर्वत्र शान्ति छा गई थी तब सल्लू ने पप्पू और अंसार को कहा कि तुम दोनों गाय को वापस लौटने न दो. उसे किसी न किसी बहाने नाले के उल्टी तरफ हंकालते रहो.
फिर उसने कालूराम को फोन किया.
पंद्रह मिनट में कालूराम अपनी साइकिल पर औज़ार लिए हाज़िर हो गया.
फिर उन लोगों ने वो घृणित काम अंजाम दिया जिसके कारण नगर अशांत हुआ और दो समुदायों के बीच खाई और गहरा गई.
बड़े शातिर थे वे लेकिन पुलिस की तत्परता से वे धरा गये.
पांच हज़ार रुपये और पांच किलो गौ-मांस भी उनके पास से बरामद हुआ था, जिसे वे ठिकाने नहीं लगा पाए थे...

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संपर्क : अनवर सुहैल, टाईप IV-3 आफिसर कालोनी पो बिजुरी जिला अनुपपुर मप्र ४८४४४०

९९०७९७८१०८   sanketpatrika@gmail.com

Monday, October 26, 2015

पहचान उपन्यास लिखने से पूर्व

वैसे तो मैं कविता कहानियाँ लगातार लिख रहा था. हंस में तीन कहानियां आ चुकी थीं. अब मैं अपने लेखन से संतुष्ट था. क्योंकि कानपुर से निकलने वाली लघुपत्रिका के संपादक स्व. सुनील कोशिश ने जब मेरी पहली कहानी स्वीकृत की थी तब कहा था की हंस में छापना कथा-कार की कसौटी है. आपको हंस पढ़ना और कहानी के नए ट्रेंड को पकड़ना होगा. उनकी सीख ने असर किया था. अब ऐसे संपादक कहाँ जो बनते हुए लेखक को खाद-पानी दें.
तो मैं बता रहा था की कहानियां छापने लगीं. अकार, अन्यथा, कथाबिम्ब, कथादेश में कहानियां आ चुकीं.
मैं खुद को बचपन से एक उपन्यासकार के रूप में स्थापित होते देखना चाहता था. मेरे पास सिंगरौली की सर-ज़मीन पर उपन्यास का खाका तैयार हो चूका था. ज़रूरत थी सिर्फ एक बार तबीयत से पत्थर उछलने की…. मैंने अपने मन में उपन्यासकार बनने की तड़प को महसूस किया…..
मेरा इरादा लंबे उपन्यास लिखने का नहीं था.
लघु-उपन्यास या उपन्यासिका ही मेरा टारगेट था.
ऐसा काम्पेक्ट कथानक की पाठक एक बार घुसे तो फिर पूरा पढ़ कर ही रीते….
जैसा की दोस्तोयेव्स्की के उपन्यासों में होता है…
जैसा की निर्मल वर्मा के उपन्यासों में होता है…
जैसा की अमृता प्रीतम के उपन्यासों में होता है…
जैसा की कृष्ण सोबती के उपन्यासों में होता है…
ऐसा तो था मेरा स्वप्न…और उसके लिए मुझे बड़ी कड़ाई से अपने लिखे को काटना भी था….
पहचान
पहचान

जब मैं सिंगरौली की कोयला खदानों में काम करता था, तभी ‘पहचान’ का आइडिया मन में आया था. ये बात सन १९९० की है.
तब तक मैं कवी से कथाकार बन चूका था. कथानक, हंस, कथाबिम्ब, अक्षरपर्व में कहानियां पब्लिश हो चुकी थीं. इरादा था की अब उपन्यास में हाथ साफ़ किया जाए.
मैंने एक रजिस्टर लिया और उसके पहले पन्ने पर उपन्यास का खाका खींचा.
मुझे मंटो याद हो आये और मैंने रजिस्टर में कलम चलाने से पहले ‘७८६’ लिखा.
जैसा की मंटो करते थे.
उपन्यास का मैंने शीर्षक सोचा और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा
—–छलांग—-
इसमें युनुस की कहानी शुरू हुई.
फिर काम रुक गया.
विभागीय परीक्षाएं आती रहीं और कविता कहानियां समय खाती रही.
फिर १९९३ में मेरी शादी हो गई.
१९९४ में फिर मैं रजिस्टर के पन्ने उलटने पलटने लगा.
युनुस के साथ अब सलीम का चरित्र खुला.
युनुस के खाला खालू आये और उपन्यास ४० पन्ने का हो गया.
फिर मैं भूमिगत कोयला खदान में प्रशिक्षण के लिए आ गया. डेढ़ साल उसमे लगे.
रजिस्टर के पन्नों में कैद युनुस भी गुप-चुप ढंग से आकार लेता रहा.

Tuesday, October 6, 2015

चुनाव की फसल

चुनाव की फसल 


जख्म टीसता है, 
दर्द तो होगा ही 
लाजिम है ज़ख़्मी का रोना-तड़पना, 
मरहम की दरख्वास्त करना
इधर-उधर ताकना-गिडगिडाना 
लेकिन वे जानते हैं 
समय सबसे बड़ा डाक्टर होता है 
बड़े-बड़े ज़ख्म भर देता है 
उन्हें तो बस ये देखना था 
कि इस ज़ख्म से 
किस-किसको लगी ठेस...
किस-किसने पहुंचाया सांत्वना-सन्देश 
कौन-कौन गया मिलने 
किस मीडिया संस्थान ने कैसी लगाई बाईट 
किस अखबार ने कैसे रखी बात 
फिर वे जुट गये विवेचना में 
प्रयोग के प्रायोजन और प्रभाव पर 
हुई बैठकें और निकाला गया निष्कर्ष 
कि ऐसे ही प्रयोग के दुहराव से 
आजीविका से जूझते समाज को 
किया जा सकता है दिग्भ्रमित 
और चुनाव की अच्छी फसल के लिए 
ऐसे प्रयोग ही तो ज़रूरी हैं.....


 भूलना ही है इलाज 

मत करो चीख-पुकार 
भूल जाओ इसे कि भूलना ही इलाज है इसका 
सदियों सी किये जा रहे अपमान को 
यूँ ही भूलते ही तो आ रहे हो 
फिर अब क्यों न्याय की लगा रहे गुहार 
जबकि सदियों से किसी ने सुनी नही पुकार
मत करो चीख-पुकार
ज़ख्म हैं भर जायेंगे एक दिन
आंसूओं के सैलाब सूख जायेंगे एक दिन
कितनी चरेर देह है तुम्हारी
इतना मारने के बाद भी तो मरते नहीं तुम
मत करो चीख-पुकार
जान की होती है एक तयशुदा कीमत
लेकिन अपमान की कीमत कहाँ दे पाता है कोई
इस अपमान को भी भूलना होगा
जब तक कोई राह नहीं दीखती
भूलना ही इलाज है इसका....