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Monday, December 25, 2017

जेलों का समाज-शास्त्र

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जेलों में बहुत कम मिलेंगे अगड़े
मिलेंगे भरपूर दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े
ये क़ैदी चुपचाप सज़ा काटते
और मुक्ति की चाह से बेपरवाह दीखते
वे जापनते हैं कि बाहर निकलकर
कौन पैर पुजवाना है किसी से
जेल के बाहर भी तो एक है दुनिया
जहां भी तादाद में कम ही हैं अगड़े
लेकिन हर संस्था के
मुख्य द्वार की चाबियां
रहतीं इनके पास
यहां भी दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक
वंचित हैं सुविधाओं से
फिर कहां जाएं ये लोग
जिन्हें कहते हैं कि संविधान की किताब में
सबसे ज्यादा ताकत दी गई है
इस दी गई ताकत से
खुद ब खुद प्राप्त ताकत जीत जाती है
कि ज़िंदगी के इस खेल का निर्णायक
अगड़ा ही होता है
हर तरह की लूट में मुब्तिला है यही अगड़ा।।।

Tuesday, December 19, 2017

हम शर्मिंदा हैं निर्भया

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हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि हम पुरुष हैं
कि हम तलाशते रहते हैं 
किसी भी समय बलात्कार की सम्भावनाएँ
ज़रूरी नहीं कि जिस्म से ही
देखकर, सुनकर, सूंघकर भी
कोशिशें करते रहते हैं बलात्कार की
जरुरी नहीं कि हम जिस्मानी तौर पर
पूर्ण पुरुष हों लेकिन
कहीं भी, यूँ ही, स्खलित होने के
चूकना नहीं चाहते अवसर
हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि हम बड़े शातिर हैं
कभी भाई, कभी बाप, कभी चाचा-मामा
कभी डॉक्टर, तो कभी अध्यापक की आड़ लेकर
खोजते रहते हैं बेबस शिकार
हमने मछली कहा तुम्हें
और चारा डाल कर पकड़ लिया, यूं
कभी चिड़िया कहा
और दाना डाल कर पकड़ लिया, यूं
हिरनी कहा और दौड़ा कर शिकार कर लिया
हम शर्मिंदा हैं निर्भया
कि अपनी बच्चियों की हिफाज़त के लिए
हम रहते हैं बड़े चौकन्ने
कि उन्हें गड़ने न पाए काँटा भी
लेकिन निर्भया,
केवल अपनी बच्चियों के लिए ही
रहते हैं सतर्क और लेना नहीं चाहते
तनिक भी रिस्क...
क्योंकि हमें मालूम हैं
हम नहीं तो कोई और पुरुष
घूमता रहता है हर समय
एक कोमल शिकार के लिए.....

Monday, December 18, 2017

लेकिन दिल नहीं बहला

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पहले बहल जाता था दिल
मरहम के इक फाहे से भी
आज जाने क्या हुआ
लोग आए, सभी ने की दुवाएं भी
लेकिन दिल नहीं बहला 
हरारत भी रही आई
कि घबराहट अब भी वैसी है
मुझे मालूम है ओ चारागर तुम भी
इधर कुछ खोए रहते हो
तुम्हारे इल्मो-हुनर पर भी
किसी ने कर दिया है कुछ
दवाएं बेअसर हैं अब।
ज़रा सोचो, ज़रा समझो
कोई तो राह निकलेगी
चलो फिर कोई नुस्खा
करें ईजाद कुछ ऐसा
कि जिससे इस जहां में फिर
भरोसा हो जाए खुद पर।।।।।

Wednesday, December 13, 2017

खोखली सांत्वना...

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आ रहे ढाढ़स बंधाने लोग
ऐसा नहीं कि निभा रहे हों रस्म
वे दिल से दुखी हैं
उतने ही डरे हुए भी
जितना कि हम हैं खौफ़जदा
आए हैं वे सभी लोग सांत्वना देने
जो धार्मिक हैं लेकिन धर्मांध नहीं
उनमें कई नास्तिक भी हैं
ये सभी दुखी हैं और डरे हुए भी
लेकिन हम समझें अगर
तो ये सभी शर्मिन्दा भी हैं
शर्मिन्दा इसलिए भी कि अब लगता है
बेशर्मी ही जीता करेगी हमेशा
हां, यह अलग बात है
कि अपनी ही आवाज़ उन्हें
बेजान सी लगती है
सांत्वना देने वाले भी
जैसे जानते हैं कितने
खोखले होते हैं शब्द

Sunday, December 10, 2017

मैं इसे उम्मीद कहता हूँ..

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कोई चीज़ है ऎसी
जो बार-बार तोड़े जाने की 
ज़बरदस्त कोशिशों के बाद भी
टूटने नहीं दे रही
खंडित होने के लिए विवश वजूद को
दानिश्वर इसे जो कहें
मैं इसे उम्मीद कहता हूँ
बस, इसी उम्मीद के सहारे
कट जायेंगी काँटों भरी राहें
चाँदनी-बिना पथरीली पगडंडियाँ
तुम देखते रहना
चुपचाप...
मन की हारे हार है
मन है कि हारना नहीं चाहता
बेयारो-मददगार बचाए रखना अपना वजूद
मौत के कुंए में चक्कर लगाने वाले
मोटर-साइकिल चालक जैसा अभ्यस्त हो चुके हैं हम
बिना किसी निर्धारित पाठ्यक्रम के
बहुत लम्बे समय से ली जा रही है धैर्य की परीक्षा
और परीक्षा परिणाम घोषणा के पहले
एक नया प्रश्न-पत्र रख दिया जाता है सामने
अकबकाओ या भुनभुनाओ
उन नित नए अनगिनत सवालों के जवाब लिखते-लिखते
कई पीढियां गुज़र गई हैं भाई
न परीक्षा ख़त्म होती है
न सवालों की फेहरिस्त
समझदार लोग जानते हैं
सुहानुभूति भी रखते हैं
कुछ सहृदय दोस्त, परीक्षा-भवन तो छोड़ भी आते हैं
लेकिन इन परीक्षाओं से
इन अनगिनत सवालों से
कोई तो निजात दिलाओ
आओ भाई, आगे आओ
हमें बचाओ.....
कि ना-उम्मीदी अभी भी हमसे
एक बिलांग दूरी बनाये हुए है
बस, एक बिलांग...
🌸

Thursday, December 7, 2017

अपमान की बरसी



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हम इंतज़ार नहीं करते
फिर भी, हर बरस आती है
हमारे लिए अवसाद, हताशा, अपमान की बरसी
उद्दंडता, निर्लज्जता, बेहयाई की बरसी
हम याद नहीं करते
फिर भी, हर बरस आकर
अहसास करा जाती है
कि कैसे टूटते हैं दिल
कैसे होती है विश्वास का कत्ल
जिसे बड़ी मुद्दत से संजोकर
बारीकी से एक धागे में पिरोकर
हजारों साल के लिए संरक्षित किया गया था
हम भूलना चाहते हैं
एक नये कल की आस में
मिटाना चाहते हैं अतीत के निशाँ
फिर भी हर बरस सुनाई जाती है
उन अनकिये गुनाहों की फेहरिस्त
जिनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं
हमारा वजूद बना दिया गया कितना गैर-ज़रूरी
हम बार-बार
बताना चाहते हैं कि हमारी मौजूदगी
कोई ऐतिहासिक मजाक नहीं है भाई
हम सच में इस बगिया का हिस्सा हैं
मिटटी, हवा, पानी और धूप पर
उतना ही हक़ है हमारा
जितना कि तुम्हारा है......

Monday, November 27, 2017

अन्धकार के बीज

अन्धकार के बीज
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अधिकृत साक्ष्य और दस्तावेजों को सहेजकर
अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप
जब लिखा जा रहा था इतिहास 
उस समय ये लोग कहाँ थे
क्यों नहीं दर्ज कराई असहमति
फिर पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया इतिहास
तब भी इन लोगों ने नहीं की आपत्ति
अपनी अधकचरी प्रयोगशालाओं में ये लोग
रचते रहे मनगढ़ंत फ़साने
और करते रहे मनोनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा
यह मत भूलो कि आज का दिन भी
कभी बनेगा एक इतिहास
और उस इतिहास में दर्ज होगी हम सबकी उपस्थिति भी
लेकिन यह भी एक तथ्य है
कि तर्क और तथ्यों की हत्या करके
बलजबरिया तैयार किये जा रहे थे ऐसे ग्रन्थ
जिनमें बीज छुपे थे अन्धकार के
तब हमने भी तो साध रखी थी चुप्पी
या अपने ज्ञान के अहंकार से
जिन ग्रंथों की कर रहे थे उपेक्षा
वही ग्रन्थ आज
प्रमाण के रूप में किये जा रहे प्रस्तुत
क्या अब भी तुम्हें नहीं होता महसूस दोस्त
कि बहुत देर हो चुकी है
कि तर्क और तथ्यों को
गालियों और पत्थरों की जगह
बेधड़क किया जा रहा इस्तेमाल
और हम निरुपाय-असहाय से देख रहे
उन तमाम संस्थाओं की हत्या होते.....

Saturday, November 18, 2017

अँधेरा कुआं


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ख़ुशी-ख़ुशी बैनर पोस्टर उठाये
हलक फाड़ कर नारेबाजी करते
इनके-उनके रोड शो का हिस्सा बनते
जाने क्यों नौकरी नहीं मांगते युवा
चिडचिडाते रहें माँ-बाप
कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें
आवारा मवेशियों की तरह
प्राइम टाइम में
नगर के गलियों-चौराहों पर
इधर-उधर नौकरी बजाते से टीप-टॉप युवा
हर युवक के पास है एक अदद यूजी
बहुतों के पास पीजी भी...
देश जिस युवा शक्ति के बल पर
बनना चाहता है महाशक्ति
उन युवाओं की कितनी कम मांगें हैं
उन्हें चाहिए बस एक फोर जी मोबाइल सेट
खूब सारा सस्ता अनलिमिटेड डाटा प्लान
पोर्न साइट्स से समय बचे तो
व्हाट्सएप विश्व-विद्यालय से
फ़ॉर्वर्डेड ज्ञान की जुगाली
जेब में इतने ही पैसे
कि कभी-कभार
नशा-खोरी विथ बिरयानी का हो जाए जुगाड़
तीन टाइम का खाना तो माँ-बाप खिलाएंगे ही
इस बीच किसी करमजले ने पसंद कर लिया
तो फिर धूमधाम से हो ही जायेगी शादी
शादी के बाद ऐश ही ऐश
कराएं डिलेवरी पैरेंट्स
या करा दें कुछ साल बाद बहू की नसबंदी
कोई फर्क नहीं पड़ता
नौकरी मिलने से रही
मठों-मजारों में मत्था टेकते माँ-बाप
थक-हार कर कुनमुनाते रहें
ये तो अच्छा है कि नगर में
किसी न किसी कारण
होते रहते हैं चुनाव
नगर निकाय हो या विधान-सभा
नगर पंचायत हो या लोकसभा
कुछ युवा सत्तापक्ष के साथ
कुछ विपक्ष के साथ
कुछेक विक्षुब्धों के साथ
बचे-खुचे निर्दलियों के साथ
इससे अधिक बेकार युवा
कहाँ रहते हैं किसी नगर में
है कि नहीं...?

Tuesday, October 17, 2017

फिर क्या हुआ?

लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ...
आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दिया.
क्या समाज में स्त्री पात्रों का बस इतना ही योगदान है कि कहानी को ट्विस्ट देने के लिए उन्हें प्रकाश में लाया गया फिर जब नायक को आधार मिल गया तो भाग गए नायक के किस्से के साथ. जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है कि अभिनेत्रियों को सजावटी रोल दिया जाता है.
अन्य लोगों की जिज्ञासा का तो जवाब मैं दे ही देता लेकिन मेरे एक पचहत्तर वर्षीय प्रशंसक पाठक का जब मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला कि बरखुरदार, उपन्यास में आपने जो परोसना चाहा बखूबी जतन से परोसा...लेकिन नायक की उस खिलंदड़ी सी किशोरी प्रेमिका 'सनूबर' को आपने आधे उपन्यास के बाद बिसरा ही दिया. क्या सनूबर फिर नायक के जीवन में नहीं आई  और यदि नहीं आई तो फिर इस भरे-पूरे संसार में कहाँ गुम हो गई सनूबर....
मेरी कालेज की मित्र सुरेखा ने भी एक दिन फोन पर याद किया और बताया कि कालेज की लाइब्रेरी में तुम्हारा उपन्यास भी है. मैंने उसे पढ़ा है और क्या खूब लिखा है तुमने. लेकिन यार उस लडकी 'सनूबर' के बारे में और जानने की जिज्ञासा है. 
वह मासूम सी लडकी 'सनूबर'...तुम तो कथाकार हो, उसके बारे में भी क्यों नही लिखते. तुम्हारे अल्पसंख्यक-विमर्श वाले कथानक तो खूब नाम कमाते हैं,  लेकिन क्या तुम उस लडकी के जीवन को सजावटी बनाकर रखे हुए थे या उसका इस ब्रम्हाण्ड में और भी कोई रोल था...क्या नायिकाएं नायकों की सहायक भूमिका ही निभाती रहेंगी..??
मैं इन तमाम सवालों से तंग आ गया हूँ और अब प्रण करता हूँ कि सनूबर की कथा को ज़रूर लिखूंगा...वाकई कथानक में सनूबर की इसके अतिरिक्त कोई भूमिका मैंने क्यों नहीं सोची थी कि वो हाड-मांस की संरचना है...मैंने उसे एक डमी पात्र ही तो बना छोड़ा था. क्या मैं भी हिंदी मसाला फिल्मों वाली पुरुष मानसिकता से ग्रसित नहीं हूँ जिसने बड़ी खूबसूरती से एक अल्हड पात्र को आकार दिया और फिर अचानक उसे छोड़ कर पुरुष पात्र को गढने, संवारने के श्रम लगा दिया.
मुझे उस सनूबर को खोजना होगा...वो अब कहाँ है, किस हाल में है...क्या अब भी वो एक पूरक इकाई ही है या उसने कोई सवतंत्र इमेज बनाई है ?



·         
तब पंद्रह वर्षीय सनूबर कहाँ जानती थी कि उसके माँ-बाप उसे जमाल साहब के सामने एक उत्पाद की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं. हाँ, उत्पाद ही तो थी सनूबर...विवाह-बाज़ार की एक आवश्यक उत्पाद...एक ऐसा उत्पाद जिसका मूल्य कमसिनी में ही अधिकतम रहता है...जैसे-जैसे लडकी की उम्र बढती जाती है उसकी कीमत घटती जाती है. सनूबर की अम्मी के सामने अपने कई बच्चों की ज़िन्दगी का सवाल था. सनूबर उनकी बड़ी संतान है...गरीबी में पढाई-लिखाई कराना भी एक जोखिम का काम है. कौन रिस्क लेगा. जमाना ख़राब है कितना..ज्यादा पढ़ लेने के बाद बिरादरी में वैसे पढ़े-लिखे लडके भी तो नहीं मिलेंगे?
चील-गिद्धों के संसार में नन्ही सी मासूम सनूबर को कहीं कुछ हो-हुआ गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे. फिर उसके बाद और भी तो बच्चे हैं. एक-एक करके पीछा छुडाना चाह रही थीं सनूबर की अम्मी. 
सनूबर की अम्मी अक्सर कहा करतीं---“ जैसे भिन्डी-तुरई..चरेर होने के बाद किसी काम की नहीं होती, दुकानदार के लिए या किसी ग्राहक के लिए..कोई मुफत में भी न ले..ऐसे ही लडकियों को चरेर होने से पहले बियाह देना चाहिए...कम उमिर में ही नमक रहता है उसके बाद कितना स्नो-पाउडर लगाओ, हकीकत नहीं छुपती...!”
सनूबर की अम्मी जमाल साहब के सामने सनूबर को अकारण डांटती और जमाल साहब का चेहरा निहारती. इस डांटने-डपटने से जमाल साहब का चेहरा मुरझा जाता. जैसे ये डांट सनूबर को न पड़ी हो बल्कि जमाल साहब को पड़ी हो. यानी जमाल साहब उसे मन ही मन चाहने लगे हैं.
जमाल साहब का चेहरा पढ़ अम्मी खुश होतीं और सनूबर से चाय बनाने को कहती या शरबत लाने का हुक्म देतीं.
कुल मिलाकर जमाल साहब अम्मी की गिरफ्त में आ गये थे. 
बस एक ही अड़चन थी कि उन दोनों की उम्र में आठ-दस बरस का अंतर था. 
सनूबर की अम्मी तो आसपास के कई घरों का उदाहरण देतीं जहां पति-पत्नी की उम्र में काफी अंतर है. फिर भी जो राजी-ख़ुशी जीवन गुज़ार रहे हैं. 
ऐसा नहीं है कि सनूबर यूनुस की दीवानी है....या उसे शादी-बियाह नहीं करवाना है. 
यूनुस जब तक था, तब तक था....वो गया और फिर लौट के न आया...
सुनने में आता कि कोरबा की खुली खदानों में वह काम करता है. बहुत पैसे कमाने लगा है और अपने घरवालों की मदद भी करने लगा है. 
यूनुस ने अपने खाला-खालू को जैसे भुला ही दिया था ये तो ठीक था लेकिन सनूबर को भूल जाना उसे कैसे गवारा हुआ होगा..वही जाने...
सनूबर तो एक लडकी है...लडकी यानी पानी...जिस बर्तन में ढालो वैसा आकार ग्रहण कर लेगी...
सनूबर तो एक लडकी है...लडकी यानी पराया धन..जिसे अमानत के तौर पर मायके में रखा जाता है...और एक दिन असली मालिक ढोल-बाजे-आतिशबाजी के साथ आकर उस अमानत को अपने साथ ले जाते हैं...
सनूबर इसीलिए ज्यादा मूंड नही खपाती...जो हो रहा है ठीक हो रहा है, जो होगा ठीक ही होगा....
आखिर अपनी माँ की तरह उसका भी कोई घर होगा...कोई पति होगा..कोई नया जीवन होगा...
हर लडकी के जीवन में दोराहे आते हैं...ऐसे ही किसी दोराहे पर ज्यादा दिन टिकना उसे भी पसंद नहीं था...क्या मतलब. पढाई-लिखाई का घर में माहौल नहीं है. स्कूल भी कोई ऐसा प्रतिस्पर्धा वाला नहीं कि जो बच्चों को बाहरी दुनिया से जोड़े और आगे की राह दिखलाए. सरकारी स्कूल से ज्यादा उम्मीद क्या रखना. अम्मी-अब्बू वैसे भी लडकी जात को ज्यादा पढाने के पक्षधर नहीं हैं. लोक-लाज का डर और पुराने खयालात...लडकियों को गुलाबी उम्र में सलटाने वाली नीति पर अमल करते हैं..बस जैसे ही कोई ठीक-ठाक रिश्ता जमा नहीं कि लडकी को विदा कर दो...काहे घर में टेंशन बना रहे...हाँ लडकों को अच्छे स्कूल में पढाओ और उनपर शिक्षा में जो भी खर्च करना हो करो...
अब वो जमाल साहब के रूप में हो तो क्या कहने...साहब-सुह्बा ठहरे...अफसर कालोनी में मकान है उनका...कितने सारे कमरे हैं...दो लेट्रिन-बाथरूम हैं. बड़ा सा हाल और किचन कितना सुविधाजनक है. 
सनूबर का क्वार्टर तो दो कमरे का दडबा है. उसी में सात-आठ लोग ठुंसे पड़े रहते हैं. आँगन में बाथरूम के नाम पर एक चार बाई तीन का डब्बा, जिसमे कायदे से हाथ-पैर भी डुलाना मुश्किल. 
यदि ये शादी हो जाती है तो कम से कम उसे एक बड़ा सा घर मिल जाएगा. 
घूमने फिरने के लिए कार और इत्मीनान की ज़िन्दगी...
इसलिए सनूबर भी अपनी अम्मी के इस षड्यंत्र में शामिल हो गई कि उसकी शादी जमाल साहब से हो ही जाये...


·          
ये अलग बात है कि उसे यूनुस पसंद है. 
सनूबर का कजिन यूनुस...
सनूबर अपनी अम्मी की इसीलिए कद्र नही करती कि उनकी सोच का हर कोण सनूबर की शादी की दिशा में जाता है. अम्मी हमेशा बच्चियों की शादी के लिए अब्बू को कोसती रहती हैं कि वे काहे नहीं इतना कमाते कि बच्चियों के लिए गहने-जेवर ख़रीदे जाएँ, जोड़े जाएँ...फिक्स्ड डिपोजिट में रकम जमा की जाए और नात-रिश्तेदारों में उठे-बैठें ताकि बच्चियों के लिए अच्छे रिश्ते आनन्-फानन मिल जाएँ. 
लडकियों के बदन का नमक ख़त्म हो जाए तो रिश्ता खोजना कितना मुश्किल होता है...ये वाक्य सनूबर अम्मी के मुख से इतना सुन चुकी है कि उसने अपने बदन को चखा भी एक बार..और स्वाद में बदन नमकीन ही मिला...
इसका मतलब उम्र बढने के साथ लडकियों के बदन में नमक कम हो जाता होगा. 
इस बात की तस्दीक के लिए उसने खाला की लडकी के बदन को चाट कर देखा था...उसके तो तीन बच्चे भी हैं..और उम्र यही कोई पच्चीस होगी लेकिन उसका बदन का स्वाद नमकीन था. 
एक बार सनूबर ने अम्मी के बदन को चाट कर देखा...वह भी नमकीन था...फिर ये अम्मी ऐसा क्यों कहती हैं कि उम्र बढने के साथ बदन में नमक कम हो जाता है. 
ये सब देहाती बातें हैं और तेरी अम्मी निरी देहातन है.....
ऐसा अब्बू ने हंसते हुए कहा था जब सनूबर ने बताया कि सबके बदन में नमक होता है, क्योंकि इंसान का पसीना नमकीन होता है...और इस नमक का उम्र केसाथ कोई ताल्लुक नहीं होता है. 
अम्मी को सोचना चाहिए कि स्कूल में पढने वाली लडकी ये तो कतई नही सोचती होगी कि उसकी शादी हो जाए...और वो लडकी अपने आस-पास के लडकों या मर्दों में पति तलाशती नहीं फिरती है. 
फिर लडकियों की बढती उम्र या बदन की रानाइयां माँ-बाप और समाज को क्यों परेशान किये रहते हैं...उठते-बैठते, सोते-जागते, घुमते-फिरते बस यही बात कि मेरी सनूबर की शादी होगी या नहीं...
सनूबर कभी खिसिया जाती तो कहती----"मूरख अम्मी...शादी तो भिखारन की, कामवाली की, चाट-वाले की बिटिया की भी हो जाती है...और तो और तुम्हारी पड़ोसन पगली तिवारिन आंटी की क्या शादी नही हुई..जो बात-बेबात तिवारी अंकल से लडती रहती है और दिन में पांच बार नहाती है कि कहीं किसी कारण अशुद्ध तो नहीं हो गई हो...दुनिया में काली-गोरी, टेढ़ी-मेढ़ी, लम्बी-ठिगनी सब प्रकार की लडकियाँ तो ब्याही जाती हैं अम्मी...और तुम्हारी सनूबर तो कित्ती खूबसूरत है...जानती हो मैथ के सर मुझे नेचुरल ब्यूटी कहते हैं...तो क्या मेरी शादी वक्त आने पर नहीं होगी..?"
सनूबर के तर्क अपनी जगह और अम्मी का लड़का खोज अभियान अपनी जगह...
उन्हें तो जमाल साहब के रूप में एक दामाद दिखलाई दे रहा था....


·          
निकिता स्कूल में आज संजीदा दिखी. 
सनूबर ने कारण जानने की कोशिश नही की. ये सनूबर की स्टाइल है. वह ज़बरदस्ती किसी के राज उगलवाने में यकीन नहीं करती. उसे मालूम है कि जिसे सुख या दुःख की बात शेयर करनी होगी वो खुद करेगी. यदि बात एकदम व्यक्तिगत होगी तो फिर काहे किसी के फटे में टांग अड़ाना. 
टिफिन ब्रेक में जब दोनों ने नाश्ते की मिक्सिंग की तो निकिता आहिस्ता से फूट पड़ी...
---“
जानती है सनूबर, कल गज़ब हो गया रे..! 
सनूबर के कान खड़े हुए लेकिन उसने रूचि का प्रदर्शन नहीं किया.
निकिता फुसफुसाई---कल शाम मुझे देखने लड़के वाले आने वाले हैं...!
जैसे कोई बम फटा हो...निकिता का मुंह उतरा हुआ था...सनूबर भी जैसे सकते में आ गई...ये क्या हुआ..,अभी तो मिडिल स्कूल में नवमी ही तो पहुँची हैं सखियाँ. उम्र पंद्रह या कि सोलह साल ही तो हुई है. इतनी जल्दी शादी..!
---“
तेरी मम्मी ने ऐतराज़ नहीं किया पगली...
---“
काहे..मम्मी की ही तो कारस्तानी है ये...उन्होंने मेरी दीदी की शादी भी तो जब तो सत्रह साल की थीं तभी करा दी थी...कहती हैं कि उम्र बढ़ जाने के बाद लड़के वाले रिजेक्ट करने लगते हैं और हमें पढ़ा-लिखा कर नौकरी तो करानी नहीं बेटियों से...चार बहनों के बाद एक भाई है...एक-एक कर लडकियाँ निपटती जाएँ तभी सुकून मिलेगा उन्हें...!
सनूबर क्या कहती..कितने बेबस हैं सखियाँ इस मामले में...
उन्हें घर का सदस्य कब समझा जाता है..हमेशा पराई अमानत ही तो कहते हैं लोग...उनका जन्म लेना ही दोख और असगुन की निशानी है. 
लडकियों के सतीत्व की रक्षा और दहेज़ ऐसे मसले हैं जिनसे उनके परिवार जूझते रहते हैं.


·          
निकिता की चिंता—“मुझे आगे पढाई करना है रे...अभी शादी नही करनी...क्या मेरी कोई सुनेगा?”
सनूबर क्या जवाब देती. 
लडकियों की कहाँ सुनी जाती है. उन्हें तो हुकुम सुनने और तामील करने की ट्रेनिंग मिली होती है.
अजब समाज है जहां लडकियों को एक बीमारी की तरह ट्रीट किया जाता है. बीमारी हुई नहीं कि जो भी कीमत लगे लोग उस बीमारी से निजात पाना चाहते हैं. 
और जब बिटिया बियाह कर फुर्सत पाते हैं लोग तब दोस्त-अहबाबों में यही कहते फिरते हैं---"गंगा नहा आये भाई...अच्छे से अच्छा इंतज़ाम किया. लेन-देन में कोई कसर नहीं रक्खी."
सनूबर की भी तो अपने घर में यही समस्या थी.
आये दिन अम्मी अब्बू को ताने देती हैं—“कान में रुई डाले रहते हैं और बिटिया है कि ताड़ की तरह बढ़ी जा रही है. सोना दिनों-दिन महंगा होता जा रहा है. न जेवर बनाने की चिंता न कहीं रिश्तेदारी में उठाना-बैठना. क्या घर-बैठे रिश्ता आएगा? जूते घिस जाते हैं तब कहीं जाकर ढंग का रिश्ता मिलता है..?”
अब्बू मजाक करते—“तुम्हारे माँ-बाप के कितने जूते घिसे थे..कुछ याद है..जो मैं मिला..ऐसे ही अल्लाह हमारी बिटिया सनूबर का कोई अच्छा सा रिश्ता करा ही देगा.
अम्मी गुस्सा जातीं—“अल्लाह भी उसी की मदद करता है जो खुद कोई कोशिश करे. हाथ पे हाथ रखकर बैठे आदमी के मुंह में अल्लाह निवाला नहीं डालता..आप मज़ाक में बात न टालिए और दुनियादार बनिए. अभी से जोड़ेंगे तभी आगे जाकर बोझा नहीं लगेगा.
सनूबर ने अपनी व्यथा निकिता को सुनाई. 
दोनों सहेलियां उदास हो गईं....
तभी टिफिन खत्म होने की घंटी बजी और वे क्लास-रूम की तरफ भागीं.



·          
सनूबर को स्कूल जाना बहुत पसंद है. इस बहाने उसे घर-परिवार की बेढंगी वयस्तता से मुक्ति मिलती है. अम्मी चिल्लाती रहती है कि इतनी जल्दी क्यों स्कूल भागने की फिराक में रहती है सनूबर. टाइम होने से पांच मिनट पहले घर छोड़ना चाहिए. कितना नजदीक है स्कूल. 
--“
का करती है माटीमिली इत्ता पहले जाकर, झाडू लगाती है का वहां?” 
सनूबर का स्कूल में बहुत मन लगता है. वहां तमाम सहेलियां मिल जाती हैं. उनके सुख-दुःख सुनना, बेहिसाब गप्पें मारना. एक-दूसरे की ज़िन्दगी में समानता-असमानता की विवेचना करना. टीवी पर देखी फिल्म या सीरियल पर बहस करना. 
और भी इधर-उधर की लटर-पटर...लंतरानियां....
घर में क्या हो सकता है...बस अम्मी के आदेश सुनते रहो...काम हैं कि ख़तम ही नहीं होते हैं. जब कुछ काम न हो तो कपड़ों का ढेर लेकर प्रेस करने बैठो. ये भी कोई ज़िन्दगी है. 
सनूबर के घर में तो और भी मुसीबतें हैं...कोई न कोई मेहमान आता रहता है. उनकी खातिरदारी करना कितना बोरिंग होता है. उस पर अम्मी-अब्बू के नए दोस्त जमाल साहेब..वे आये नहीं कि जुट जाओ खिदमत में. प्याज काटो, बेसन के पकौड़े बनाओ. बार-बार चाय पेश करो. अम्मी भी उनके सामने जमीन्दारिन बन कर हुकुम चलाती हैं---कहाँ मर गई रे सनूबर, देखती नहीं..कित्ती देर हो गई साहब को आये..तेरी चाय न हुई मुई बीरबल की खिचड़ी हो गई..जल्दी ला!
सनूबर न हुई नौकरानी हो गई...
-“
कहाँ मर गई रे...देख तेरे अब्बू का मोजा नहीं मिल रहा है..जल्दी खोज कर ला...!
-“
मेरा पेटीकोट कहाँ रख दी तूने...पेटी के ऊपर रखी थी, नहीं मिल रही है...जल्दी खोज कर ला!
-“
जा जल्दी से चावल चुन दे...फिर स्कूल भागना...बस सबेरे से स्कूल की तैयारी करती रहती है, पढ़-लिख कर नौकरी करेगी क्या...तेरी उम्र में मेरी शादी हो गई थी...और तू जाने कब तक छोकरी बनी रहेगी.
ऐसे ही जाने-कितने आदेश..उठते-बैठते, सोते-जागते सनूबर का जीना हराम करते रहते.
सनूबर स्कूल के होमवर्क हर दिन निपटा लेती थी. 
उसके टीचर इस बात के लिए उसकी मिसाल देते. 
उससे गणित न बनती थी इसलिए उसने गणित की कुंजी अब्बू से खरीदवा ली थी.
बाकी विषय को किसी तरह वह समझ लेती. 
वैसे भी बहुत आगे पढने-पढ़ाने के कोई आसार उसे नज़र नहीं आते थे, यही लगता कि दसवीं के बाद अगर किस्मत ने साथ दिया तो बारहवीं तक ही पढ़ पाएगी वर्ना उसके पहले ही बैंड बज सकती है. अम्मी बिटिया को घर में बिठा कर नहीं रखेंगी---जमाना खराब है..जवान लडकी घर में रखना बड़ा जोखिम भरा काम है. कुछ उंच-नीच हो गई तो फिर माथा पीटने के अलावा क्या बचेगा. इसलिए समय रहते लडकियों को ससुराल पहुंचा दो..एक बार विदा कर दो..बाद में सब ठीक हो जाता है. घर-परिवार के बंधन और जिम्मेदारियां उलटी-सीधी उड़ान को ज़मीन पर ला पटकती हैं.
अम्मी कहती भी हैं—“अपने घर जाकर जो करना हो करियो...ये घर तुम्हारा नहीं सनूबर...!
तो क्या लडकी अपने माँ-बाप के घर में किरायेदार की हैसियत से रहती है?
यही तो निकिता ने भी थक-हार कर कहा—“मुझे उन लोगों ने पसंद कर लिया है सनूबर...इस साल गर्मियों में मेरी शादी हो जायेगी रे...!
सनूबर का दिल धडक उट्ठा. 
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गज़ब हो गया..पिछले साल यास्मीन ने इस चक्कर में पढाई छोड़ दी और ससुराल चली गई...कितनी बढ़िया तिकड़ी थी अपनी...जानती है मार्केट में यास्मीन की अम्मी मिलीं थीं..उन्होंने बताया कि यास्मीन बड़ी बीमार रहती है. उसका ससुराल गाँव में है जहां आसपास कोई अस्पताल नहीं है. उसकी पहली डिलवरी होने वाली थी और कमजोरी के कारण बच्चा पेट ही में मर गया...बड़ी मुश्किल से यास्मीन की जान बची..ईद में यास्मीन आएगी तो उससे मिलने चलेंगे न...पता नहीं तुम्हारा साथ कब तक का है..!
निकिता की आँख में आंसू थे. 
उसने स्कूल के मैदान में बिंदास क्रिकेट खेलते लडकों को देखा...
सनूबर की निगाह भी उधर गई...
लडकों की ज़िन्दगी में किसी तरह की आह-कराह क्यों नहीं होती..
सारे दुःख, सारी दुश्वारियां लडकियों के हिस्से क्यों दिए मेरे मौला...मेरे भगवान...
और तभी निकिता ने घोषणा की---हम लडकियों का कोई भगवान या अल्लाह नहीं सनूबर..!
सनूबर ने भी कुछ ऐसा ही सोचा था, कहा नहीं कि कहीं ईमान न चला जाए..अल्लाह की पाक ज़ात पर ईमान और यकीन तो इस्लाम की पहली शर्त है...
लेकिन निकिता ठीक ही तो कह रही है...
कितनी तनहा, कितनी पराश्रित, कितनी समझौता-परस्त होती हैं लडकियाँ...


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लडकियाँ ज़िन्दगी के तल्ख़ हकीकतों से कितनी जल्दी वाकिफ होती जाती हैं. 
लड़के जो लडकियों को सिर्फ एक मालया कमोडिटीके रूप में देखते हैं..वे कहाँ जान पाते हैं कभी कि इन शोख चुलबुली लडकियों को प्रतिदिन ज़िन्दगी की कई नई सच्चाइयों से दो-चार होना पड़ता है. 
ऐसे ही एक दिन सनूबर और निकिता यास्मीन से मिलने उसके घर गईं.
मस्जिद-पारा में घर है यास्मीन का. 
बड़ी मस्जिद के पीछे वाली गली में रहती है वह. 
निकिता ने जींस-टॉप पहना था जबकि सनूबर सलवार-सूट में थी. सनूबर मस्जिद-पारा आती है तो बाकायदा सर पर दुपट्टा डाले रहती है. 
यास्मीन ने घर का दरवाज़ा खोला था. 
आह, कितना बेरौनक चेहरा हो गया है...गाल पिचके हुए और आँखों के इर्द-गिर्द काले घेरे. जैसे लम्बी बीमारी से उठी हो. तभी पीछे से यास्मीन की अम्मी भी आ गईं और उन्हें अन्दर आकर बैठने को कहा. 
निकिता और सनूबर चुपचाप यास्मीन का चेहरा निहारे जा रही थीं. कितनी खूबसूरत हुआ करती थी यास्मीन, शादी ने उससे ख़्वाब और हंसी छीन ली थी. 
यास्मीन स्कूल भर के तमाम बच्चों और टीचरों की मिमिक्री किया करती और खुद न हंसती, जब सब उसके मजाक को समझ कर हंसते तब ठहाका मार कर हंसती थी. उसकी हंसी को ग्रहण लग गया था. 
निकिता और सनूबर उसकी दशा देख खौफज़दा हो चुकी थीं. क्या ऐसा ही कोई भविष्य उनकी बाट जोह रहा है. कम उम्र में शादी का यही हश्र होता है...फिर उनकी मांए ये क्यों कहती हैं कि उनकी शादियाँ तब हुई थीं जब वे तेरह या चौदह साल की थीं. लेकिन वे लोग तो मस्त हैं अपनी ज़िन्दगी में. फिर ये स्कूल पढने वाली लडकियाँ क्यों कम उम्र में ब्याहे जाने पर खल्लास हो जाती हैं? 
ऐसे ही कई सवालात उनके ज़ेहन में उमड़-घुमड़ रहे थे. 
यास्मीन शादी का एल्बम लेकर आ गई और उन लोगों ने देखा कि यास्मीन का शौहर नाते कद का एक मजबूत सा युवक है. दिखने में तो ठीक-ठाक है, फिर उन लोगों ने क्यों कम उम्र में बच्चों की ज़िम्मेदारी का निर्णय लिया. मान लिया शादी हो ही गई है, फिर इतनी हडबडी क्यों की? बच्चे दो-चार साल बाद भी हो जाते तो क्या संसार का काम रुका रह जाता?
यास्मीन बताने लगी—“उनका मोटर-साईकिल रिपेयर की गैरेज है...सुबह दस बजे जाते हैं तो रात नौ-दस के बाद ही लौटते हैं. गैरेज अच्छी चलती है, लेकिन काम तो मेहनत वाला है. मेरी जिठानी मेरी ही उम्र की है और उसके दो बच्चे हैं. इस हिसाब से तो उस परिवार में मैं बच्चे जनने के काबिल तो थी ही. मुझे वैसे भी कहानियों की किताब पढने का शौक है. वहां पढाई-लिखाई से किसी का कोई नाता नहीं. बस कमाओ और डेली बिस्सर खाना खाओ...मटन न हो तो मछली और नहीं तो अंडा...इसके बिना उनका निवाला मुंह के अन्दर नहीं जाता. ये लोग औरत को चारदीवारी में बंद नौकरानी और बच्चा जनने की मशीन मानते हैं...!
तो ये सब होता है शादी के बाद और अपनी निकिता भी इस घनचक्कर में फंसने वाली है.
सनूबर ने गौर किया कि निकिता के चेहरे पर डर के भाव हैं...आशंकाओं के बादल तैर रहे हैं उसके चेहरे पर. 
लड़के वालों ने उसे पसंद कर लिया है. 
निकिता को जो मालूम हुआ है उसके मुताबिक बीस एकड़ की खेती है उनकी, एक खाद-रसायन की दूकान है. दो लड़के और दो लडकियाँ हैं वहां. निकिता का होने वाला पति बड़ा भाई है, बीए करने के बाद खेती संभालता है और छोटा भाई इंजीनियरिंग कर रहा है. दोनों लडकियों की शादी हो चुकी है. इसका मतलब निकिता घर की बड़ी बहू होने जा रही है. 
ससुराल झारखण्ड के गढ़वा में है...नगर से सटा गाँव है उनका. वैसे तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन निकिता की इच्छा किसी ने जाननी चाही..क्या निकिता अभी विवाह की जिम्मेदारियों में बंधने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार है? कहाँ बच्चियों की इच्छा पूछी जाती है. माँ-बाप पर एक अघोषित बोझ जो होती हैं लडकियाँ...
यास्मीन का इलाज चल रहा है, डॉक्टर खान मेडम उसका इलाज कर रही हैं..उसे रक्ताल्पता है और ससुराली दिक्कतों ने मानसिक रूप से उसे कन्फ्यूज़ का कर दिया है. 
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अल्ला जाने कब उसका आत्म-विश्वास लौटेगा...कितनी बिंदास हुआ करती थी अपनी यास्मीन...!घर लौटते हुए सनूबर ने गहरी सांस लेकर यही तो कहा था, और निकिता भी भर रास्ता खामोश बनी रही...






अनवर सुहैल :  9 अक्टूबर 1964

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