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Thursday, August 10, 2023

IBNE MARIYAM TUM AAYE NHIN

 अनवर सुहैल की कवितायेँ :







एक

इब्ने-मरियम तुम आये नहीं...

 

देखो तो सही इब्ने-मरियम 
जाने कितने लोग अपने कमज़ोर कांधों पर 
उठाये फिर रहे हैं वज़नदार सलीब
छिल चुकी काँधे की चमड़ी 
छलक आये खून के कतरे 
झाँकने लगीं हड्डियाँ
ये लोग हार नहीं मानते 
और जिद्दी इतने कि जीये जाते हैं 
ढीठ ऐसे कि पीये जाते आंसू

 

देखो तो सही इब्ने-मरियम 
काँधे पर सलीब उठाये 
छायाओं की तरह डोलती इन आबादियों को 
ये थके हैं लेकिन हारे नहीं हैं 
ये कराहते हैं लेकिन गिडगिडाते नहीं हैं 
ये सुबकते हैं लेकिन इनकी आँखों में 
तैरता है क्षमा का समंदर 
इन्हें यकीन है पुख्ता इतना 
कि तुम आओगे ज़रूर एक दिन 
और हर एक काँधे से हटेगा सलीब का बोझ 
ये जोह रहे हैं बाट तब से 
जब तुमने कहा था कि तुम आओगे 
ये खड़े हैं इसी तरह गुज़र गई सदियाँ कई

 

तुम आये नहीं इब्ने मरियम 
और जाने कितने धोखेबाज़ 
बन-बन कर नकली मसीहा जख्मों को हरियाते रहे 
और जाने कितने विध्वंसक 
दिखाते रहे स्वप्न और अधरात जचक कर टूटती रही नींदें 
तुम्हें मालूम हो इब्ने मरियम 
कमजोर कांधों पर सलीब उठाये लोगों की 
बढती जा रही तादाद 
इन्हें रेवड़ की तरह हंकालने वाले 
जो ज्यादा नहीं हैं 
जिन्हें चाबुक बनाता है शक्तिशाली 
और कोई किताब है जिससे मिलती है वैधता 
इन किताबों में जब चाहें वे कर लेते मन-माफिक संशोधन 
जाने कितने विद्वान इनके चाकर हैं 
जिनके हाथों में कलम की जगह तलवारें हैं 
जिनके दिमाग में इल्म की जगह बारूद है 
ये लोग चीत्कार को चुप कराने के खोले बैठे हैं विश्व-विद्यालय

 

देखो तो सही इब्ने मरियम 
कितने यकीन से डोल रही हैं छायाएं 
सलीबें उठाये तब से 
तुम्हारे आगमन की राह तकते....

 

 

 

दो

प्रतिरोध

 

जब भी होता वो दूसरों के बीच

मिलाता हर किसी की हाँ में हाँ

कभी बोलता नहीं बहुमत के विरुद्ध

इसका ये मतलब न निकालें

उसकी अपनी कोई होती नहीं राय

मैंने देखा है उसे अपने जैसे लोगों के बीच भी

तब वो नहीं रहता

तुम्हारे इशारों से नाचने वाला रोबोट

उसके शब्दकोश में भी हैं प्रतिरोध के शब्द

उसके सुरों में भी है विरोध के गान

 

तुम क्या जानों की वह मुझे

मानता है कितना अपना

कि एकबारगी उबल पड़ता है

उसके सीने में सुप्त ज्वालामुखी

इस बीच कोई दूजा उसे देख ले

तो यही घोषणा करता है

कि पी ली है उसने दारू

या लग गया गांजा का नशा

दिमाग फिर गया है

होश में आएगा तो ठीक हो जायेगा ससुरा

 

जान लो वो होश में ही है

तुम लोगों के बीच अपने क्रोध को

छुपाने के लिए करता रहता ढोंग

कि जैसे उसने किया हो नशा...

 

उसकी ताकत यही चालाकी तो है

इसी कारण वो बचा हुआ है

और इसी तरह अभिनय करते-करते

किसी दिन बोलेगा वो तो

भागने के लिए तुम्हें छोटी पड़ेगी

इतनी बड़ी धरती!

 

 

तीन

अंतिम व्यक्ति

 

 

हर कोई करता बात

पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की

और वह व्यक्ति कौन है

उसकी शिनाख्त क्या है

इन सबसे बेपरवाह

गोलघरों में गहन मंत्रणा होती है

अंतिम व्यक्ति नहीं पाता अपने पीछे

कोई और व्यक्ति

कि अंतिम व्यक्ति की पीड़ा

पंक्ति में लगा अंतिम व्यक्ति ही समझ सकता है

उसके आगे तो होते हैं करोड़ों-करोड़ लोग

लेकिन उसकी पीठ पर सर्द हवा के थपेड़े

अहसास कराते रहते हैं

कि वो है अभिशप्त अंतिम व्यक्ति

जिसकी बेहतरी के लिए बनती रहती हैं योजनायें...

 

पंक्ति के उस अंतिम व्यक्ति की

व्यथा को अभिव्यक्त करो तो

लगने लगती तोहमत-दुत्कार  

लामबंद हो जाते आलोचक

कतई नहीं है ये भोगा हुआ यथार्थ

फैशन के तहत कहा जा रहा है ये सब

ब्रांडिंग की जा रही अंतिम व्यक्ति के दुखों की

बेचे जा रहे उसके स्वप्न किसी उत्पाद की तरह

 

पंक्ति में खड़ा अंतिम व्यक्ति कभी नहीं जान पाता

कि उसके पक्ष में तैनात हैं सैकड़ों फोरम

हजारों प्रवक्ता, लाखों एक्सपर्ट पा रहे हैं मोटा वेतन

सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी में है

उस अंतिम व्यक्ति की हड्डियों के पायदान

और उधड़ी त्वचा की कालीन...

 

पंक्ति में खड़ा अंतिम व्यक्ति

इन सबसे अनजान

जोहता रहता बाट

उस एक व्यक्ति की

जो अचानक किसी दिन

उसकी पीठ से आ सटेगा

और इस तरह मिल जायेगी उसे

अंतिम व्यक्ति के अभिशाप से मुक्ति...

 

 

चार

निष्पक्ष सयाने

 

चिडचिडाकर निष्पक्ष सयाने 
खोजते हैं तर्क और साक्ष्य 
समझाना चाहते हैं कि कुछ भी टूटे न फूटे 
बचा रहे सब कुछ इस तरह 
कि जोड़ना कठिन होता है

कैसे समझाया जाए उन्हें 
कि ये समय निष्पक्ष सयानों का नहीं है 
दबंगई हावी है 
बड़ी निर्लज्जता से लतिया दी जाती हैं दलीलें 
गालियाँ ही सबसे बड़ा तर्क हैं 
और अकारण मार दिए जाने का भय 
खामोश कर देता है 
गुनी सयानों को...

इतना निरादर सहकर भी 
रोज़ कोई न कोई निष्पक्ष सयाना 
अपनी बात रखता है फिर भी 
कि तड़ातड़ बरसने लगती हैं गालियाँ 
उलटी-सीधी बोलियाँ 
लानतें-मलामतें 
और दूर-दूर तक नहीं दीखता
कोई हमनफ़स-हमनवां

यह समय सच बोलने वालों को 
अकेला कर दिए जाने का समय है
और ये समय ठहर सा गया है 
रुक सा गया है 
टूटती जाती है उम्मीद 
कैसे खुद को सांत्वना दें 
कोई सूरत नज़र नहीं आती......

 

Saturday, September 24, 2022

प्रेम-कविता

 










उसने मुझसे कहा

ये क्या लिखते रहते हो
ग़रीबी के बारे में
अभावों, असुविधाओं,
तन और मन पर लगे घावों के बारे में
रईसों, सुविधा-भोगियों के ख़िलाफ़
उगलते रहते हो ज़हर
निश-दिन, चारों पहर
तुम्हे अपने आस-पास
क्या सिर्फ़ दिखलाई देता है
अन्याय, अत्याचार
आतंक, भ्रष्टाचार!!
और कभी विषय बदलते भी हो
तो अपनी भूमिगत कोयला खदान के दर्द का
उड़ेल देते हो
कविताओं में
कहानियों में
क्या तुम मेरे लिए
सिर्फ़ मेरे लिए
नहीं लिख सकते प्रेम-कविताएँ…

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ प्रिये
कि बेशक मैं लिख सकता हूँ
कविताएँ सावन की फुहारों की
रिमझिम बौछारों की
उत्सव-त्योहारों की कविताएँ
कोमल, सांगीतिक छंद-बद्ध कविताएँ
लेकिन तुम मेरी कविताओं को
गौर से देखो तो सही
उसमे तुम कितनी ख़ूबसूरती से छिपी हुई हो
जिन पंक्तियों में
विपरीत परिस्थितियों में भी
जीने की चाह लिए खडा़ दि‍खता हूँ
उसमें तुम्ही तो मेरी प्रेरणा हो…