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Thursday, December 31, 2015

खनिकर्मी

कोयला खदान की
काली अँधेरी सुरंगों में
निचुड़े तन-मन वाले खनिकर्मी के
कैप लैम्प की पीली रौशनी के घेरे से
कभी नहीं झांकेगा कोई सूरज 
नहीं दीखेगा नीला आकाश
एक अँधेरे कोने से निकलकर
दूसरे अँधेरे कोने में दुबका रहेगा ता-उम्र वह
पता नहीं किसने, कब बताया ये इलाज
कि फेफड़ों में जमते जाते कोयला धूल की परत को
काट सकती है सिर्फ दारु
और ये दारू ही है जो एक-दिन नागा कराकर
फिर ले आती है उसे
कोयला खदान की अँधेरी सुरंगों में
कभी-कभी औरतों और अफसरों को गरियाने के बाद
बड़ी गंभीर मुद्रा में बात करते हैं वे
तो बताते हैं कि ज़िन्दगी एक सर्कस है
हर दिन तीन शो और हर शो में जान की बाज़ी
यही तो खनिकर्मी का जीवन
'इत्ता रिस्क तो सीमा पर सिपाहियों को भी नहीं होता साब
जंग-लड़ाई तो कभी छिड़ती है
खनिकर्मी तो हर दिन एक जंग लड़ता है
एक जंग जीतता है जीवन की, उम्मीदों की...
(उम्मीदों का दामन थामे सभी कोयला खनिकर्मियों को नव-वर्ष की शुभकामनायें)

Saturday, December 26, 2015

फिर भी अनंत आस्थावान..

रहता है वो
बिना वेतन के भी जीवित
भले से भाग जाए ठीकेदार
लेकर छः-सात माह की पगार
उसे नहीं क़ानून बनाने का अधिकार
इसीलिए बलजबरी मांग नहीं सकता पगार
लेकिन फिर-फिर काम पाने के लिए
खोज लेता एक नया ठीकेदार
और बिकट आस्था के साथ जुटे रहता
हर दिन एक नई टूटन के लिए
हर दिन अंतहीन थकान की लिए
हर दिन एक नई उम्मीद के साथ.
रहता है वो
बिना वेतन के जीवित
मुंह अँधेरे बाँध कर बासी भात-चटनी
साइकिल पर आंधर-झांवर पैडल मार
पहुँच आता ठीहे पर
कितना खुश-खुश, कितना उर्जावान
जैस-जैसे बढ़ती धूप और ताप
वैसे-वैसे गर्माता जाता उसका मिजाज़
और सूरज के ढलने के साथ
बढती थकान, गूंजता थकान का गान
एक बार फिर गाँव-घर तब
थके-तन, खाली हाथ लौटने का ईनाम
फिर भी अनंत आस्थावान..
रहता है वो
बिना वेतन की जीवित
वह नहीं जानना चाहता
कि इस हाड़तोड़ मेहनत और पगार में
हैं कितनी विसंगतियां
कि इसी काम के लिए सरकारी सेवक
पाते हैं दस गुना ज्यादा वेतन
बिना नागा, हर माह, निश्चित तिथि में
वह दूसरों के सुख से दुखी नहीं होता
इसीलिए तो रात भरपूर नींद है सोता...
अपने लिए कतई नहीं चाहिए उसे
एक नया सूरज
एक नई धरती, एक नया आकाश
बस थोड़ी सी जगह में सिकुड़कर-सिमटकर
संकोच और अपार सब्र के साथ
सबके लिए बचा देता है पर्याप्त स्पेस
ताकि बची रहे आसपास
ढेर सारी आस्था और विश्वास.....

Tuesday, December 8, 2015

विद्रोही जी की स्मृति में :


और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीत गई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग रहा हूँ? सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं हैं वे ही व्यवस्था के संचालक हो सकते हैं...
क्या नित्यानंद गायेन की सूचना ने मुझमें पागलपन के लक्षण डाल दिए हैं? नित्यानंद गायेन ने तो सिर्फ इतनी बात कही कि विद्रोही जी नहीं रहे....कैसी खबर थी ये जिसे नित्यानंद ने मुझे सुनाना ज़रूरी समझा और ये विद्रोही जी ऐसी कौन सी शख्सियत थे कि जिनके लिए व्यथित हुआ जाए. फिर हमरंग के संपादक हनीफ मदार का फोन आया कि विद्रोही जी के बारे में पोस्ट डालनी है, फ़िल्मकार इमरान का पता या फोन नम्बर खोजा जाए जिसने विद्रोही पर डाक्यूमेंट्री बनाई है. मैंने देखा कि फेसबुक में स्वतः स्फूर्त लोगों ने विद्रोही के निधन पर पोस्ट लगानी शुरू कर दी हैं...और सबसे आश्चर्य तब हुआ जब बारहवीं की गणित की तैयारी करती बिटिया सबा मेरे साथ विद्रोही को यू-ट्यूब पर सुनने लगी...क्या था उस कवि विद्रोही की वाणी में कि आदेल के अंग्रेजी गाने सुनने वाली बिटिया भी मन्त्र-मुग्ध होकर विद्रोही को सुनने लगी...
“और ईश्वर मर गया 
फिर राजा भी मर गया 
राजा मरा लड़ाई में 
रानी मरी कढ़ाई में 
और बेटा मरा पढाई में...” 
जबकि देश के आइआइटीयन तो कुमार विश्वास को ही हिंदी का कवि समझते हैं, चेतन भगत को उपन्यासकार फिर ये विद्रोही ऐसा कौन सा कवि हुआ जिसके न रहने से लोगों को इतनी व्यथा हो रही है, कि जिसके रहने से कोई विचलित नहीं होता था..वो न सम्मानित कवि थे कि उनके पास सम्मान लौटाने का विकल्प होता...वे न सत्ता से प्रताड़ित कवि थे कि कभी पक्षधर सरकार बनती तो उनका सम्मान होता...फिर क्यों लोग रमाशंकर यादव उर्फ़ कवि विद्रोही जी के निधन पर इतने दुखी हैं....लेकिन एक बात तो है पार्टनर कि भले से हमें कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना या केदारनाथ सिंह की कविता-पंक्ति याद हों या न हों लेकिन विद्रोही की पंक्तियाँ अवचेतन में जगह क्यों बना लेती हैं और बार-बार उद्धृत होने को बेचैन करती हैं जैसे ग़ालिब के अशआर हों या कोई चिर-परिचित मुहावरे...
"अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है"
या 
"मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को 
एक ही साथ औरतों की अदालत में तलब कर दूंगा "
या 
" मेरी नानी की देह ,देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी"
वही विद्रोही कहते हैं तो लगता है कि ये पागल व्यक्ति का कथन नहीं हो सकता लेकिन सभ्य समाज ऐसे व्यक्ति को पागल ही कहता है जो ये कहे---“मैं ऐसी कवितायेँ लिखता हूँ कि मुझे पुरूस्कार मिले या फिर सज़ा मिले...लेकिन देखो ये कैसी व्यवस्था है जो मुझे न पुरस्कार देती है न सज़ा...अब मैं क्या करूँ...जबकि मैंने लिखा ये सोचकर कि मुझे सज़ा मिलेगी---
“मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें.”
मैं जानता हूँ कि ये किसी नेता की मृत्यु का मामला नहीं है, और नहीं है किसी ओहदेदार या संत की मृत्यु कि जिसे चाह कर भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता है. आप भले से इन मृत्युओं को भूल जाएँ, लेकिन राष्ट्रीय शोक की घोषणाएं और शासकीय अवकाश भरसक आपको मृत्यु के उत्सव की तरफ घसीट ले जाएँगी. सत्ता-नियोजित भव्य शोभा-यात्रायें मौत को भी एक इवेंट की तरह सेलेब्रेट करती हैं.. ऐसी मौतों से मैं क्या कोई भी व्यथित नहीं होता...भले से मौत स्वाभाविक न होकर हत्या ही क्यों न हो! उस मौत का हत्यारा सज़ा पाए या न पाए लेकिन उस हत्या के बाद होने वाले नरसंहार के हत्यारे कभी सज़ा नहीं पाते...कई पीढियां मुक़दमे लडती जाती हैं...मौत का मुआवजा मिल जाना ही जैसे अभीष्ट होता है और सदियों तक मरने से बच गये लोग हर रात स्वप्न में डरते हुए कत्ल होते हैं...विद्रोही जी की मृत्यु ऐसी मृत्यु नहीं है कि इवेंट की तरह मैनेज हो...भले से कवि को अपने होने और न होने के बारे में जानकारी थी, तभी तो कितनी बुलंदी से वे कह गये---
"कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा...."
उनके लेखन पर, लेखनी पर, जीवनी पर और भी लोग बेशक लिक्खेंगे लेकिन मैं जो उनसे कभी नहीं मिला, मैं जो जेएनयू में नहीं पढ़ा...मैं जो खुद को एक चेतना संपन्न जागरूक नागरिक होने का दम्भ जीता हूँ आज बहुत व्यथित हूँ कि हम विद्रोही के लिए एक मुहाफ़िज़ क्यों नहीं बन पाए...क्या हम पागल नहीं थे..?
हममे पागलपन है लेकिन हम उसे छुपाते हैं और विद्रोही जी पागलपन को शान से जीते थे...

Friday, November 27, 2015

तीन कविता संग्रह : टिप्पणियां

बर्फ और आग : निदा नवाज़ 

निदा नवाज़ कश्मीर घाटी में, बिना किसी सुरक्षा घेरे में रहे, आम लोगों के बीच रहकर अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहे हैं। पंद्रह वर्ष पूर्व उनका एक कविता संग्रह ‘अक्षर-अक्षर रक्त भरा’ प्रकाशित हुआ था जब घाटी में दहशतगर्दी चरम पर थी। सीमा पार से अलगाववाद को मिलता समर्थन भारतीय प्रशासन के लिए हमेशा चिंता का कारण रहा है ऐसे में अपने लोगों के मन की बात को कठोरता से वृहद जनमानस तक पहुंचाने का बीड़ा निदा नवाज़ ने उठाया है, जो काफी स्तुत्य है और बेशक इससे उन्हें भी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ा है।
जिन परिस्थितियों में निदा नवाज़ सृजनरत हैं वहां अस्मिता, राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के मसले बेहद उलझे हुए हैं कि उस पर बात करते हुए अरझ जाने का खतरा बना रहता है। निदा नवाज़ अपनी सीमाएं जानते हैं और बड़ी शालीनता से आम कश्मीरीजन की पीड़ा को स्वर देने का विनम्र प्रयास करते हैं। ‘बर्फ और आग’ में भी निदा नवाज़ ने लाऊड हुए बिना अपने लोगों की पीड़ा का सटीक दस्तावेजीकरण किया है। हिन्दी मेें ये कविताएं इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि इन कविताओं के ज़रिए हम कश्मीरियत और कश्मीरीजन की पीड़ा को व्यापक रूप से जान पाते हैं। कवि इन विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता और यही कवि और कविता की विजय है।
‘किसी सुनामी की तरह/
रास्ता निकालती है
 मेरी रचना
 मेरे सारे कबूतर लौट आते हैं वापस
 छिप जाते हैं
 मेरी बौद्धिक कोशिकाओं में
 और एक ऊंची उड़ान भरने के लिए/
आने वाले करोड़ों वर्षोें पर फैले
 बहुत सारे आसमानों पर...’ (पृ. 11)
संग्रह की तमाम कविताएं जैसे बड़ी शिद्दत से पाठक से कनेक्ट होती हैं और बेधड़क सम्वाद करती हैं। फै़ज़ के पास जिस तरह से ‘सू ए यार से कू ए दार’ की बातें होती हैं उसी तरह से निदा नवाज़ एक साथ बर्फ़ और आग के गीत गाते हैं। वे बहुत चैकन्ने कवि हैं जो जानते हैं कि---
‘आम लोगों को नींद में मारने के लिए
 दो बड़े हथियार थे उनके पास
 धर्म भी
 और राजनीति भी!’
 निदा नवाज़ ऐसे लोगों के बीच सृजनरत हैं जहां---
                   ‘उस शहर के बुद्धिजीवी
                    दर्शन के जंगलों में
                    सपनों को ओढ़कर
                    सो जाते हैं
                   और बस्ती के बीच
                   तर्क का हो जाता है अपहरण!’
मेरा विचार है कि निदा नवाज़ की कविताओं को इसलिए पढ़ा जाना ज़रूरी है कि इसमें एक ऐेसी नागरिक पीड़ा व्यक्त है जिससे देश के अन्य हिस्से के कवि नहीं जूझा करते...रोजी, रोटी, मकान के अलावा जो देशभक्ति का सबूत मांगेे जाने की पीड़ा हैे उसे जानने के लिए इन कविताओं को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
बर्फ़ औेर आग: निदा नवाज़: 2015
पृ. 112  मूल्य: 235.00
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन, सी-56 / यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन 2 गाजियाबाद उप्र



 इस समय की पटकथा : शहंशाह आलम 

पृथ्वी, प्रकृति, परिवेश और लोक के इर्द-गिर्द बड़ी बारीकी से बुनी गई कविताएं यदि पढ़नेे को मिलें तो बरबस शहंशाह आलम का नाम याद आता है। शहंशाह आलम हिन्दुस्तानी समाज की घरहू बनावट और उसकी तासीर के अद्भुत चित्रकार हैं। वे कविताओं में बोलते हैं तो शब्दों से जैसे रंग झरते हैं, आकृतियों आकार लेती हैं और एक अनहद नाद सा गूंजता है। यही तो कविता के टूल्स हैं जिन पर शहंशाह आलम की सिद्धहस्त पकड़ है। उनकी कविताओं का पैटर्न बरबस पाठकों को अपने जादू से चकित कर देेता हैै।
जैैसे--‘एक चिडि़या उड़ती है
औैर छू आती है इंद्रधनुष
यह रंग अद्भुत था
 इस पूरे समय में
 उस हत्यारे तक के लिए।’
एक अद्भुत राजनीतिक चेतना से लैस है कवि। इसमें बिहार प्रदेश के आमजन की सोच को भी समझने का प्रयास किया है और समसामयिक राजनीति पर बड़ा कटाक्ष भी है---
‘यह बड़ा भारी आयोजन था
 उनके द्वारा  भव्य और अंतर्राष्ट्रीय भी
 इसलिए कि इस महाआयोेजन में
 जनतंत्र को हराया जाना था
 भारी बहुमत से
 मित्रों, निकलो अब इस घर से
 अब यहां न जन है न जनतंत्र!’
तो शहंशाह आलम की कविता में एक तरफ कोमल शब्दावली है तो दूजी तरफ अनायास गूंजता सटायर है जोे कवि को अपने समय का सजग कवि बनाने में सक्षम है।
इस समय की पटकथा: शहंशाह आलम / 2015 
पृ. 130  मूल्य 150 प्रकाशक शब्दा प्रकाशन, 63 एमआईजी हनुमान नगर पटना बिहार


इस रूट की सभी लाइने व्यस्त हैं : सुशांत सुप्रिय 

शब्द-विरोधी समय में हिन्दी जगत में कविताओं का टोटा नहीं है। बिना किसी औपचारिकता के कवि अपनी अभिव्यक्ति के बल पर पाठकों से सम्वाद करने की मुहिम छेड़े हैं। चूंकि लड़ाई एक-आयामी नहीं है, दुश्मन भी बहुरूपिये हैं तो फिर कविता ही ऐसा औज़ार बनती है जिससे कवि अपनी पीड़ा, विडम्बना और उत्पीड़न से लड़ना चाहता है। यही कारण है कि आज छपी कविता भी दीख जाती हैं और आभाषी संसार में भी कविता ही एक-दूसरे को जोड़े रक्खी है। इस कठिन समय में हिन्दी कविता आलोचकों की धता बताकर अपने लिए एक सहज फार्म भी खोज रही है।
इस सदी में यांत्रिकता और कृत्रिमता से जूझते आम आदमी के जीवन में विकल्पहीनता को चैलेंज करती कविताएं इस संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं। सुशांत सुप्रिय की कविताएं हाशिए के लोगों के साथ मज़बूती से खड़ी होती हैं। शिल्प और संवेदना के स्तर पर कविताएं प्रभावी हैं।
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं: सुशांत सुप्रिय: मूल्य 335.00
अंतिका प्रकाशन, सी-56//यूजीएफ 4, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद, उप्र

Saturday, November 21, 2015

हि्मतरू : गणेश गनी की कविताओं पर केद्रित अंक


जब बिना विरासत जाने हिंदी में कविताई एक संक्रामक रोग की तरह बढ़ रही है, ऐसे गैर-ज़िम्मेदार समय में पूरी ज़िम्मेदारी के साथ हिंदी कविता की लोकोंमुखता को बरक़रार रखते हुए कविताएँ लिखी जा रही हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और दूजे कवि के बीच का संवाद भर नहीं हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और एक संपादक के बीच समझ का आदान-प्रदान भर नहीं हैं. कविताएँ अपने समय, परिवेश और सामाजिक चेतना को भावनात्मक रूप से महसूस कर लिखी जाती हैं और वृहद् पाठक/ श्रोता के साथ संवाद करने की लालसा रखती हैं तब उन कविताओं का महत्त्व है. 
ऐसी कविता पढना सुखद लगता है, जिसमें कवि पूरी ज़िम्मेदारी के साथ महसूस कर रहा है कि समाज, लोक, परिवेश और सोच-सरोकार के परिस्कार के लिए किन मुद्दों को स्पर्श किया जाए. आज सबसे बड़ी ज़रूरत है आत्मसुख का परित्याग और दूसरों के प्रति सहिष्णुता...ये बड़ी सस्कारी बातें हैं, और कुल्लू हिमाचल प्रदेश से निकलने वाली पत्रिका ‘हिमतरु’ का अक्टूबर २०१५ अंक ने कविता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए गणेश गनी की सशक्त कविताओं पर केन्द्रित अंक निकाला है. 
‘घुट रही है हवा’ कविता में पृथ्वी पर प्रेम बरसाने की लालसा उमड़ रही है: 
एक पौधे ने कहा / आज ज्यादा पानी देना भाई/ मेरी गांठों से कोंपलें फूटने को हैं....
कितनी मासूम मदद की उम्मीद एक बेजुबान पौधे की है, क्योंकि----‘कल और फूल खिलेंगे/ और प्रेम बरसेगा पृथ्वी पर.’ तो ये है कविता जिसमे कवि जानता है कि बिना शुरुआत किये कोई काम अंजाम तक नहीं पहुँचता. और जब हम दुनिया को सवर्ग बनाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, तब अपना थोडा सा योगदान / अंशदान नहीं करना चाहते.
‘पितर माओट करेंगे’ कविता तो जैसे चेतावनी देती है: ‘प्रश्न उठेंगे/ इंसानों की मुड़ी-तुड़ी संवेद्नाओं पर / पनघट के पानी के सूखने के कारणों पर / प्रश्न उठेंगे/ रिश्ते की शैवालों से उठती/ तेज़ हवाओं पर.’
स्मार्ट-सिटी बनने का दिवा-स्वप्न दिखाने वाली व्यवस्था से कितना बड़ा आदिम सवाल किया गया है---‘पता नहीं क्यों अब उम्र कम हो गई है / बर्फ और अन्न की ढेरियों की....’ और----‘इन दिनों बढ़ी हुई चंद मिटटी वाली छतें / हैरान हैं और उदास भी/ बस खालीपन है / न फसलें, न बच्चे / किसान मजदूरी पर गया है / और बच्चे शहर/ दंतकथाएं धीरे-धीरे पलायन कर रही हैं/ छतों पर उगी घास कह रही है / इस बार खेल उसने जीता है / और बच्चे हार गये हैं (घुरेई कहाँ नाचेगी)
जो बिम्ब प्रतीक गायब हो रहे हैं, गणेश गनी की कविताओं में बरबस अनायास ही आते हैं और पाठक की चेतना को झकझोरते हैं. बाज़ार और वैश्वीकरण की आंधी में किसान और खेत किस तरह से विकासशील देशों के लिए शोषण का केंद्र बने हैं और विश्व-राजनीति किस तरह से इनकी अनदेखी कर रही है उसकी बानगी देखिये---‘अब बैलों के गले लगकर/ खींचना चाहता है हल/ और खेत की हथेली पर/ किसान की किस्मत की लकीरें’ 
शिल्प का कसाव कवि की तैयारी बताता है कि कविताएँ यूँ ही नहीं लिखी गई हैं बल्कि इनके पीछे कवि की विकट चिंताएं दीखती हैं---‘जितना ज़रूरी है / आग का जलते रहना/ उनता ही ज़रूरी है / आग का बुझे रहना..’ (आग) जिसमें एक आग असहमति, संघर्ष, प्रतिरोध, जनांदोलन की आग है और दूजी आग शोषण, दमन, उत्पीड़न, अन्याय की आग है...पाठकों को सजग, सचेत करना कवि का कर्तव्य है और वो उसमे सफल भी है.
कृत्रिमता और यांत्रिकता ने इंसान को रोबोट बना दिया है. बाज़ार ने उसे एक खरीददार में तब्दील कर दिया है और जैसे इस आपा-धापी में भूल चूका है इंसान अपना वजूद---‘जब से उतारे हैं / उसने अपने सारे मुखौटे/ लोग कहते हैं/ तुम्हें कहीं देखा है / शायद पाठशाला जाते/ शायद भेड़ें चराते/ शायद हल चलाते/ शायद रास्ता बनाते/ शायद लोकगीत गाते (चेहरे) 
बेशक आज ज़रूरत है बिना कुछ मांगे अपने समय को संजोने की...अपनी विरासतों के अनमोल धरोहरों के संरक्षण की.---‘खिड़की पर रखा गुल्लक / न ब्याज देता है / और न कमीशन लेता है. (हवा को जाने नहीं देगी)
संवेदनहीनता से भयभीत है कवि गणेश गनी. यह शुभ संकेत नहीं है. सिर्फ जीतने के लिए खेलना ही जब लक्ष्य हो गया हो अब वो चाहे कम्प्यूटर या मोबाइल की स्क्रीन पर खेला जा रहा हो, खेल के मैदान में खेला जा रहा हो, राजनीती में खेला हो रहा हो या फिर बर्बरता के खेला जाने वाला खेल हो...हर खेल में सिर्फ और सिर्फ जीत की आकांक्षा ने इंसानों के अन्दर संवेदनहीनता बढ़ाई है.----‘संवेदनहीन समाजों वाला देश / संवेदनहीन देशों वाली पृथ्वी/ सोचो कैसी होगी दुनिया / सोचते ही ह्रदय / डूबने सा लगता है.’ 
गणेश गनी की कविताओं में लोक से विमुखता के प्रति गहरी चिंताएं मुखर हैं. शहर के स्लम्स में बजबजाने की लालसा पाले लोगों का गाँव से पलायन कवि को बेचैन करता है. गाँव यानी माँ यानी अपनी जड़ों से कटकर इंसान जो शहरों के हाशिये में दीखता है कितना बेचारा लगता है जैसे उसे किसी का अभिशाप लगा हो...और शापग्रस्त ही उसे शहर के कोनों में विलीन हो जाना हो...और यही कारण है कि---‘ अब गाँव में बच्चों की संख्या / धीरे-धीरे कम होने लगी है (हुआ जब सयाना) 
फासीवाद के बढ़ते प्रभाव से कवि सचेत है. शब्द और सृजक इंसानी समाज के लिए कितने जरूरी हैं इसे कवि से ज्यादा कौन समझ सकता है? ----‘शब्द कहीं हथियार न बन जाएँ/ इसीलिए वे चाहते हैं/ शब्दों को मार डालना / जुबान काट डालना / या कम से कम / शब्दों के अर्थ ही बदलना...’ (धारा १४४)
तो फासीवाद हर संभव प्रयास करता है अभिव्यक्ति को कुचलने के लिए. इसके लिए वह भी तैयार करता है अपने साम्राज्य की सलामती के लिए बुद्धिजीवियों की खेप...ऐसी खेप हर युग में, हर समाज में बड़ी प्रमुखता से पाई जाने लगी है और बेशक---‘आज शब्दों पर / प्रहार हो रहे हैं/ शब्द टूट रहे हैं/ मृत हो रहे हैं/ वे संवाद नहीं कर सकते / आज उनपर / धारा १४४ लगी है...’
यही राजनितिक सजगता कविता को एक हथियार बनाती है जिससे कवि तो लड़ता ही है, विराट पाठक समाज भी इस हथियार से अपने आसपास के दुश्मनों को पहचानने लगता है, और यही कविता का उद्देश्य है और यही कवि की सचेत दृष्टि-सम्पन्नता.
‘हिमतरु’ का गणेश गनी पर कविता केन्द्रित अंक इसीलिए पठनीय है, संग्रहणीय है और सराहनीय है. गणेश गनी के रचना कर्म पर, संकलित कविताओं पर सत्यपाल सहगल, जयदेव विद्रोही, हंसराज भारती, उमाशंकर सिंह परमार, अजीत प्रियदर्शी, राहुल देव और अविनाश मिश्र के आलेख भी हैं जो गणेश गनी की कविताई के कई पक्षों को उजागर करते हैं. 
एक उत्कृष्ट अंक के संपादन के लिए किशन श्रीमान बधाई के पात्र हैं. 
हिम्तरू : संपादक : किशन श्रीमान : (यह अंक : १५१ रुपये) 
२०१, कटोच भवन, नज़दीक मुख्य डाकघर, ढालपुर, कुल्लू (हि.प्र) 9736500069, 
9418063231








Thursday, November 12, 2015

बाज़ार और साम्प्रदायिकता में फंसे हम


बाज़ार रहें आबाद
बढ़ता रहे निवेश
इसलिए वे नहीं हो सकते दुश्मन
भले से वे रहे हों
आतताई, साम्राज्यवादी, विशुद्ध विदेशी...
अपने मुल्क की रौनक बढाने के लिए
भले से किया हो शोषण, उत्पीड़न
वे तब भी नहीं थे वैसे दुश्मन
जैसे कि ये सारे हैं
कोढ़ में खाज से
दल रहे छाती पे मूंग
और जाने कब तक सहना है इन्हें
जाते भी नहीं छोड़कर
जबकि आधे से ज्यादा जा चुके
अपने बनाये स्वप्न-देश में
और अब तक बने हुए हैं मुहाज़िर!

ये, जो बाहर से आये, रचे-बसे
ऐसे घुले-मिले कि एक रंग हुए
एक संग भी हुए
संगीत के सुरों में भी ढल से गये ऐसे
कि हम बेसुरे से हो गये...
यहीं जिए फिर इसी देश की माटी में दफ़न हुए
यदि देश भर में फैली
इनकी कब्रगाहों के क्षेत्रफल को
जोड़ा जाए तो बन सकता है एक अलग देश
आखिर किसी देश की मान्यता के लिए
कितनी भूमि की पडती है ज़रूरत
इन कब्रगाहों को एक जगह कर दिया जाए
तो बन सकते हैं कई छोटे-छोटे देश

आह! कितने भोले हैं हम और हमारे पूर्वज
और जाने कब से इनकी शानदार मजारों पर
आज भी उमड़ती है भीड़ हमारे लोगों की
कटाकर टिकट, पंक्तिबद्ध
कैसे मरे जाते हैं धक्का-मुक्की सहते
जैसे याद कर रहे हों अपने पुरखों को

आह! कितने भोले हैं हम
सदियों से...
नहीं सदियों तो छोटी गिनती है
सही शब्द है युगों से
हाँ, युगों से हम ठहरे भोले-भाले
ये आये और ऐसे घुले-मिले
कि हम भूल गये अपनी शुचिता
आस्था की सहस्रों धाराओं में से
समझा एक और नई धारा इन्हें
हम जो नास्तिकता को भी
समझते हैं एक तरह की आस्तिकता

बाज़ार रहें आबाद
कि बनकर व्यापारी ही तो आये थे वे...
बेशक, वे व्यापारी ही थे
जैसे कि हम भी हैं व्यापारी ही
हम अपना माल बेचना चाहते है
और वे अपना माल बेचना चाहते हैं
दोनों के पास ग्राहकों की सूचियाँ हैं
और गौर से देखें तो अब भी
सारी दुनिया है एक बाज़ार
इस बाज़ार में प्रेम के लिए जगह है कम
और नफरत के लिए जैसे खुला हो आकाश
नफरतें न हों तो बिके नहीं एक भी आयुध
एक से बढ़कर एक जासूसी के यंत्र
और भुखमरी, बेकारी, महामारी के लिए नहीं
बल्कि रक्षा बजट में घुसाते हैं
गाढे पसीने की तीन-चौथाई कमाई

जगाना चाह रहा हूँ कबसे
जागो, और खदेड़ो इन्हें यहाँ से
ये जो व्यापारी नहीं
बल्कि एक तरह की महामारी हैं
हमारे घर में घुसी बीमारी हैं....

प्रेम के ढाई आखर से नहीं चलते बाज़ार
बाज़ार के उत्पाद बिकते हैं
नफरत के आधार पर
व्यापार बढाना है तो
बढानी होगी नफरत दिलों में
इस नफरत को बढाने के लिए
साझी संस्कृति के स्कूल
करने होंगे धडाधड बंद
और बदले की आग से
सुलगेगा जब कोना-कोना
बाज़ार में रौनक बढ़ेगी


Saturday, October 31, 2015

गौ-हत्या

कहानी : अनवर सुहैल                                                                         
गौ-हत्या                                                                                               

उन चार यारों के बारे में जान लें जिनके एडवेंचर ने नगर की तथाकथित शान्ति को भंग की थी.
वैसे तो वे तीन ही थे, लेकिन गाहे-बगाहे एक चौथा भी उनसे आ मिलता.
वे अक्सर बेनी नाले के रपटे पर आ मिलते.             
नगर जहां खत्म होता वहां पहाड़ी के दामन पर पतला सा बरसाती नाला है, बिना पानी का नाला….
बारिश और उसके बाद ये नाला वन-विभाग के लिए दिक्कतें पैदा करता है, इसलिए उस नाले पर एक रपटा बना दिया गया. इसे पुलिया भी कहते हैं देहाती...वैसे है ये रपटा, जब बारिश का पानी ऊपर से बहता है तब रपटा डूब जाता है..
दो-तीन बारिश झेलने के बाद रपटा जर्जर हो गया जैसे कभी उसका कोई अस्तित्व ही न हो. सो इस रपटे के आसपास जुआ खेलने या दारु-गांजा सेवन करने वालों के लिए अनुकूल वातावरण बन गया.
बड़ा ही मनोहारी प्राकृतिक दृश्य बनता शाम के समय, एक तरफ सिद्ध-बाबा की पहाड़ी के पीछे डूबता सूरज और वन-विभाग के संरक्षित सघन वृक्षों के पत्तों से छन-छन आती सुनहरी-लाल किरणों का मायाजाल..
इसी समय ये दोस्त इकट्ठे होते.
शाम के जादू का असर होता हो या नशे की किक...वे गुमसुम खोये से रहते जब तक कि अँधेरा पैर पसारने नहीं लगता था. पहले वे खुद ही गाते-गुनगुनाते थे लेकिन जब से उनके पास एक सेकण्ड-हैण्ड मोबाइल आ गया है, वे मोबाइल पर गाना सुनते हैं-----“हमका पीनी है पीनी है हमका पीनी है...”
डिस्पोजेबल कप-गिलास, पानी बोतल और चखना हो तो दारु इसी तरह की प्राकृतिक जगह में निर्विध्न पी जा सकती है. वे दोस्त थे, रसिक थे, गपोड़ी थे, नशेडी थे लेकिन समलैंगिक नहीं थे.
उन तीनों में से एक शादी-शुदा था लेकिन आवारागर्दी के कारण उसकी बीवी भाग गई. बाकी के दो कुंवारे थे और ये भी दावा करते कि शादी नहीं हुई तो क्या हुआ बारातें बहुत देखी हैं उन दोनों ने!
सूचना क्रान्ति के महा-विस्फोट के बाद अब कुछ भी छिपा नहीं है...और जो दिखता है सो बिकता है.
बेच रही हैं दुनिया भर की ताकतें अश्लीलता, असामाजिकता और अपसंस्कार..एक छोटी सी चिप में...इंसान के नाख़ून के बराबर पतली सी चिप और जाने कितने जीबी के डाटा को अपने अन्दर समोए हुए. ये चमत्कार ही तो है. इस डाटा स्टोर करने के नये साधन ने खा लिए ऑडियो-वीडियो टेप, ऑडियो-वीडियो सीडी, डीवीडी जैसी ताज़ी तकनिकी भी कितनी जल्दी बासी हो गई और अब जब ऑनलाइन डाटा स्टोर हो रहा है तब जाने क्या-क्या होगा कोई नहीं जानता...
असुविधाओं, अभावों के बीच भी उन तीनों ने खुश रहने के कई कारण खोज लिए थे लेकिन इस नई तकनीकी ने उन तीनों की नींदें उड़ा दी थीं.  भरी दुनिया में उन्हें अब बस यही एक चीज़ चाहिए थी. सिर्फ और सिर्फ ऐसा मोबाइल सेट, जिसकी बड़ी सी स्क्रीन हो और जिसे टच करते ही हाई स्पीड डाटा खींच स्वप्न दृश्य स्क्रीन पर चलायमान हो जाएँ.
ऐसे मोबाइल उन लोगों ने कई लोगों के पास देखे थे. कुछ लोगों के पास तो नौ-दस इंच स्क्रीन के मोबाइल देखे, जिनमें जाने कितने पिक्चर सेव रहते हैं, जिन्हें जब चाहें ऊँगली के इशारे पर स्क्रीन पर जिंदा किया जा सकता था और पिक्चर का भरपूर मज़ा लिया जा सकता था. अब धनपति लौंडे पक्का है ऐसे मोबाइल पर धार्मिक या सामाजिक सिनेमा देखते न होंगे. हालीवुड की एक्शन पिक्चर या फिर एडल्ट पिक्चर ही तो देखते हैं लोग...भीड़-भाड़ में छुप कर या फिर अकेले में मस्ती के साथ. ऐसा ही एक सेट उनके पास हो जाता तो फिर कितना आनन्द उठाते वे लोग. कहाँ से आयेंगे इतने सारे पैसे. कैसे होगा दस-पंद्रह हजार रुपये का जुगाड़..इसी जुगत में बेनी नाले के रपटा में बैठ वे योजनायें बनाते.

उन तीनों में जो मुखिया था, उसका नाम था सलमान कुरैशी उर्फ़ सल्लू...यानी बड़े चिकवा का पांचवें नम्बर का बेटा...नगर में तीन कसाई हैं...बड़े चिकवा, मंझले चिकवा और छोटे चिकवा. इन तीनों का नगर के मांस व्यापार में नब्बे प्रतिशत हिस्सा है...इनके कम्पटीशन में रहीस भाई आये लेकिन पनप न सके, गुलज़ार कसाई का धंधा ज़रूर कुछ जमने लगा है. वो भी इसलिए कि वो उधार का व्यापार करता, जबकि खाने-पीने वाले कहाँ याद रखते हैं उधारी-वुधारी...खाए पिए खिसके, पठान भाई किसके...
सल्लू बचपन से ही सुबह-सवेरे अपने अब्बू बड़े चिकवा की गालियाँ सुनकर उठता और आँख मलते हुए रेलवे लाइन किनारे मटन की दूकान पर आ जाता. उसकी ड्यूटी थी दुकान की सफाई करना और फिर सरकारी नल से बाल्टियाँ भर-भरके पानी लाना और दुकान के बाजू में रखे आधे ड्रम को पानी से फुल कर देना. इसी बीच रेल लाईन किनारे वह मैदान आदि से भी निपट लेता है.
फिर जब उसका छटे नम्बर का भाई दुकान आने लगा तब उसकी ज़िम्मेदारी बदल गई. अब वह दूकान की साफ-सफाई होने के बाद घर से माल लाकर दूकान में बांधता और फिर जब बड़े चिकवा माल जिबह करते तो माल की खालपोशी करता.
खालपोशी के बाद अंतड़ियों की सफाई करके नाले में बहाना और अंतड़ियों को सहेज कर दूकान में बिक्री के लिए रखना. कोई गाहक सर या पैर खरीदने आये तो उसे टेकल करना.
खालपोशी करना कोई अच्छा काम नहीं है..साधारण शब्दों में कहा जाए तो खालपोशी करना माने बकरे की चमड़ी बिना कटी-फटे उतारना...मवेशी का चमड़ा बिकता है...इसीलिए उसमे खरोंच नहीं लगनी चाहिए. खरोंच लगी खाल के दाम नहीं मिल पाते. धीरे-धीरे सल्लू इस हुनर में भी उस्ताद हो गया.
उसके बाद उसने बाकायदा दुकान में बैठ कर चापड़ से बोटियाँ काटकर गोश्त बेचने की कला भी सीख ली. बड़ा ही चतुर सयाना था सल्लू जो पलक झपकते ही गाहक की नजर के सामने ही इधर का माल उधर कर देता और अच्छा-बुरा मिलाकर गोश्त बेचना भी एक कला है...इस हुनर के कारण उसके अब्बू बड़े चिकवा उसे अब दूकान में बैठाने लगे थे. अपनी किशोरवय के कारण वह एक कुशल सेल्समैन बन गया था और यदा-कदा अपनी सूझ-बूझ से सौ-पचास की हेराफेरी भी कर लेता था. आखिर रोज़-रोज़ के नित नए खर्चे के लिए दूकान में निष्ठा दिखाने का ईनाम भी तो चाहिए ही था, वर्ना अब्बू के हाथ से फूटी कौड़ी भी न मिले...आठ-दस जनों का संयुक्त परिवार इसी गोश्त की दूकान से ही तो आजीविका पाता था.

सल्लू के दोनों दोस्त अक्सर सल्लू के कहे अनुसार काम करते. सल्लू उनका बॉस है. प्यार से उसे वे बॉस और कभी भाईजान कहते.
उनमे से एक विश्वकर्मा था...अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू...पप्पू के पिता पहले प्रिंटिंग प्रेस में कम्पोजीटर का काम करते थे. बड़ा ही आँख फोडू काम था वो. बीडी पीते और पेज कम्पोज़ करते. चिमटी के सहायता से एक-एक शब्द चुन कर फ्रेम में फिट करना. काम अधिक होता तो रात घर लौटने से पहले ठेके पर जाकर देसी मार लिया करते.
पैत्रिक संपत्ति के बंटवारे से कुछ राशि मिली तो उन्होंने जोड़-तोड़ कर एक सेकण्ड हैण्ड ट्रेडिल मशीन लगा ली. शुरू में अच्छा काम मिलता था लेकिन जब से स्क्रीन और फिर आफसेट प्रिंटिंग प्रेस नगर में  खुले, तब ट्रेडिल के लिए काम मिलना कम हो गया. उनके पास इतने पैसे तो थे नहीं कि अपना ऑफसेट प्रेस डाल लें सो पप्पू के पिता ने ट्रेडिल मशीन औने-पौने बेचकर साइकिल रिपेयर की दूकान लगा ली. साइकिल किराए पर भी लगाते और महीने में चार-पांच नई साईकिल बेच भी लेते. बगल के कसबे के सिन्धी सेठ से वे नई साइकिलें ले आते और कमीशन पर उन्हें बेचते.
ये अलग बात है कि उनका हाथ हमेशा तंग रहता है. पढने-लिखने में फिसड्डी रहने वाला उनका खुराफाती पूत पप्पू साइकिल की दुकान में बैठने लगा तो उन्हें दुपहर में आराम मिलने लगा. 
पप्पू शाम होते ही पिता को दूकान और गल्ला सौंप सीधे बेनी नाले की रपटे की तरफ इस तरह भागता जैसे कोई नमाज़ी अज़ान की आवाज़ सुन मस्जिद की तरफ भागता है.....इस रपटे में ही उसे दुनिया-जहान का ज्ञान की प्राप्त होता है.
उनका तीसरा साथी है अंसार जो जुगनू टेलर मास्टर का बेटा है..एक जमाने में जुगनू टेलर मास्टर बड़े फेमस थे...फिर जब से न्यू स्टाइल-टेलर की शॉप खुली और लौंडे-लफाड़ी अपने कपड़े न्यू स्टाइल-टेलर में सिलवाने लगे तब जुगनू टेलर मास्टर की दुकान में मंदी छाने लगी...अंसार के अब्बू अपने जमाने के बेस्ट टेलर थे...कोट-पेंट विशेषज्ञ लेकिन अब कोट-पेंट भी रेडीमेड मिलने लगे हैं...बस गिने-चुने पुराने गाहक हैं जिनके आर्डर मिलते रहने से जुगनू टेलर की दूकान में धूल नहीं जमने पाती है.
शाम के वक्त उस रपटे पर इक्का-दुक्का लोग ही आते...
एकदम एकांत वासा..झगडा न झांसा..यही तो नारा था उनका.
दिन भर इधर-उधर और शाम बेनी नाले पर बने रपटे पर बीतती.  
अपने पथरीले से मोबाइल सेट पर गाना सुनते और फूटी किस्मत को कोसा करते
सल्लू कहता—“साला इस मोबाइल को किसी के सामने निकालने पर बेइज्जती खराब हो जाती है..”
पप्पू कभी बिगड़ता तो बोलता मोबाइल फेंक के मारूंगा...मोबाइल न हुआ जैसे कोई पत्थर...
अंसार भी अपने बेढंगे मोबाइल से दुखी रहता.
पप्पू ने गहरी सांस भरकर कहा—“जिसे देखो मोबाइल की स्क्रीन पर ऊँगली से चिड़िया उड़ाता रहता है फुर्र..फुर्र...”
अंसार कहाँ चुप रहता---“अबे वे गेम खेलते हैं...जानता है मैंने भी अपने एक कस्टमर का मोबाइल चलाया है उसमें ऐसा गेम था कि उसे खेलते हुए सांस रोकनी पडती है....चुके नहीं कि धडाम से गड्ढे में गिरे और गेम-ओवर...”
सल्लू अपने लच्छे बालों को संवारते हुए नाक सुड़कते हुए बोला—“जानते हो मेरे बिलासपुर वाले जीजा के पास क्या मस्त टेब है..इतनी बड़ी स्क्रीन है कि जैसे सिनेमा हाल में पिक्चर देख रहे हों...मैंने उनका टेब झटक लिया और दो घंटे कैसे बीते पता भी नहीं चला...उसमें नेट-पेक भी था...खूब मजा आया...उसमें जानते हो दो वीडियो देखे...” सल्लू का चेहरा तमतमा रहा था, आँख दबा कर उसने बताया---“वोई वाले वीडियो...क्या पिक्चर क्वालिटी है उसकी...देख तो रहा था और मेरी “----“ भी फटी जा रही थी कि कहीं कोई आ न जाए...फिर जब उनकी एक काल आई तो मैंने हिस्ट्री डिलीट करके उनका सेट उन्हें वापस कर दिया...पच्चीस हजार का टेब है उनका...!”
सल्लू के अनुभव सुनके पप्पू और अंसार अवाक रह गये...
अब उनके पास एक ही ख़्वाब था...कैसे एक मोबाइल सेट या टेब उनके हाथ लगे...
कम से कम आठ-दस हज़ार रुपये तो लगेंगे ही कायदे का मोबाइल लेने में.
लेकिन इतना पैसा कहाँ से आयेगा?
और ये नामुराद पैसे का जुगाड़ उन्हें अपराध के रास्ते ले गया.
बुढ़िया बकरी का माँस ‘अल्ला-कसम एकदम खस्सी का गोश्त है...सॉलिड..!’ कहके नए लजीले गाहकों को लपेट दिया करता. लजीले गाहक माने ऐसे ग्राहक जो डरते-सहमते गोश्त खरीदने पहुँचते हैं कि उन्हें दूकान में ज्यादा समय खड़ा न रहना पड़े और जिससे लोग ये न जान जाएँ कि वे मांसाहारी हैं. ऐसे भी ग्राहक होते हैं जिन्हें गोश्त से मतलब होता है...जो एकदम नहीं जानते कि अगले पैरों को दस्त और पिछली टांगों को रान कहा जाता है. कि मोटा सीना क्या होता या चांप का गोश्त किसे कहते हैं. सल्लू ऐसे गाहकों को बखूबी पहचानता है और उन्हें छिछड़ा वगैरा भी तौल कर दे देता है.
इस मुए मोबाइल ने उनके रात की नींद और दिन का चैन छीन लिया था.
एक अदद स्मार्ट फोन उनके हाथ आ जाता तो कान के साथ उनकी चक्षुओं के लिए भी मनोरंजन का साधन मिल जाता. वे औरों की तरह अपने स्मार्ट फोन के सपने देखा करते.
एक शाम जब सूरज डूब चूका था और धुंधलका फ़ैल रहा था...अचानक सल्लू को एक बकरा चरता दिखा.
शायद झुण्ड से बिछुड़ा बकरा था.
सल्लू के दिमाग में एक विचार आया.
उसने पप्पू और अंसार की तरफ देखा.
सल्लू भाईजान गुरु ठहरे....युक्ति उसे सूझ चुकी थी....
सल्लू का युक्ति सुनकर पप्पू और अंसार के होश उड़ गये.
---“अगर भेद खुला या पकडे गये तो...?”
---“कुछ नहीं होगा बे...कालूराम है न उसको भी साथ रख लेंगे...उनके बिरादरी में मरे जानवर का मांस खाया जाता है...वो एकदम एक्सपर्ट है इस काम में...!”
तो ये था उनके गैंग का चौथा सदस्य कालूराम.
कालूराम, जिसके बारे में सिर्फ सल्लू ही जानता था कि वो वास्तव में करता क्या है? चूँकि नगर के आखिरी सिरे में नदी के उपेक्षित किनारे पर उन लोगों की बस्ती है जहां कई घरों में सूअर के बाड़े हैं. गन्दगी, गरीबी, अभाव की शिकार बस्ती. उस बस्ती में संभ्रांत दिन में जाने से कतराते हैं. जबकि रात में सड़क के आस-पास की वे झोपड़ियां रगड़े-झगड़े, देसी दारु, जिन्दा और मुर्दा मांस के लिए मशहूर हैं. कहते हैं कि बस्ती की औरतें रात में खुले आम जिस्मफरोशी करती हैं. बस्ती की बदबू से परेशान लोगों को रात-बिरात उस बस्ती की औरतों में जाने कहाँ से सौदर्य और मादकता नज़र आ जाती है.  अमूमन पुलिस वालों की रेड वहां पड़ती ही रहती है. कहीं चोरी छिनैती हो तो पुलिस का पहला छापा इनकी बस्तियों में पड़ता है. जाने कितने हिस्ट्री-शीटर इस बस्ती के पुलिस के खाते में दर्ज हैं.
इस बस्ती के लोगों से चार पैसे छींट कर कोई भी काम करवाया जा सकता है. इसीलिए स्थानीय दारु के ठेके वाले हों या फिर सिनेमा हाल वाले...इस बस्ती के लौंडों को भरती करके रखती हैं...ताकि उनके प्रतिष्ठानों में शांति-व्यवस्था कायम रह सके.
नगर में कहीं भी कोई जानवर मरा हो और बदबू फ़ैल रही हो तो इस बस्ती में भागे-भागे आओ और समस्या का समाधान पाओ. अरे, अब न इतने नर्सिंग होम बन गये हैं वरना एक जमाने में तो यहाँ की चमाईन-दाईयाँ सेठ-महाजनों के घर प्रसव कराती और नेग पाती थीं.
कालूराम का नाम सुनकर पप्पू और अंसार आश्वस्त हुए कि उसके रहने से काम आसान हो जाएगा.
सल्लू के आत्मविश्वास भरे चेहरे को किसी सिद्ध-पुरुष की तरह दोनों ताक रहे थे. इसलिए उन्हें सल्लू भाईजान पर भरोसा है...
सल्लू ने आँख मार कर कहा--“मोबाइल चाहिए कि नहीं बेटा...कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ सकता है जानेमन...ऐसे आँख फाड़-फाड़ कर मुझे न देखो, और मौके की तलाश में रहो...लोहा गरम हो तभी हथोड़ा मारना चाहिए...!” 

वे चारों आखिर पकड़े गये.
जनता के जोरदार संघर्ष और धरना-प्रदर्शन का परिणाम था कि सालों से ठंडाई पुलिस-प्रशासन ने ज़बरदस्त गर्मजोशी दिखलाई और हत्यारों को गिरफ्तार कर ही लिया.
और इस गिरफ्तारी ने जैसे तमाम जुझारू प्रदर्शनकारियों को ठंडा कर दिया. एक अजीब सन्नाटा सा छा गया नगर में. गुनाहगारों के पकडे जाने के बाद अचानक बहुसंख्यक शांत हो गये और नगर में फैला तनाव समाप्त हो गया.
कहाँ तो अल्पसंख्यकों को टार्गेट बनाकर ज़बरदस्त भड़काऊ नारे लगाये जा रहे थे और पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ कर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया उससे तो जैसे उन लोगों को सांप सूंघ गया.
सल्लू उर्फ़ सलमान, अशोक विश्वकर्मा उर्फ़ पप्पू, अंसार और कालूराम.
इन चारों ने जो बयान पुलिस को दिया वही बयान पत्रकारों को भी दिया.
पत्रकार-वार्ता में पत्रकारों के अलावा नगर के ऐसे युवा भी शामिल थे जिन्होनें स्वस्थ और स्वच्छ समाज निर्माण का संकल्प लिया था. इससे पहले ये युवा नगर की धार्मिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ के हिस्सा लेते थे. इधर उनके मन ये विश्वास गहराता जा रहा है कि देश के लिए इससे सुन्दर अवसर फिर आये न आये इसलिए बरसों से मन में दबी इच्छाओं को, अधूरे स्वप्नों को पूरा किया जाए. गर्व से जाने कब से कहते तो आ रहे थे कि वे इस देश की बहुसंख्यक आबादी को अपने गौरवशाली अतीत की अनुभूति करा देंगे. तब उनके नारे में बहुसंख्यक-वाद की बू थी. इसलिए जब उन्हें भ्रष्टाचार-मुक्त भारत और सर्वांगीण विकास का नारा मिला तो जैसे उनके दिन फिर गए...
अपराधियों के पकड़े जाने से अल्पसंख्यक समाज ने भी चैन की सांस ली.
ऐसी ही चैन की सांस ली थी मुस्लिम समाज ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद...बड़े दहशत में थे लोग कि कहीं हत्यारा कोई मियां न हो... जब क्लियर हुआ कि इंदिरा गांधी के सेक्युरिटी सिपाहियों ने ही उनकी हत्या की है जो कि सिख हैं और आपरेशन ब्लू स्टार का बदला ले रहे हैं.
अरे, बादशाहों ने भी अपने जमाने में गौकशी को मान्यता नहीं दी थी...फिर थोड़े से धन के लालच में ये टुच्चे चिकवे-कसाई काहे अमन-चैन में खलल डालने की कोशिश करते हैं.
हाजी अशरफ साहब ने गांधी चौक पर भारी भीड़ को संबोधित करते हुए कहा---“अब घटना की हकीकत चाहे जो हो लेकिन कितनी शर्मनाक बात है कि एक मछली सारे तालाब को अगर गंदा करना चाहेगी तो हम उस मछली को ही मार देने के पक्ष में हैं...हमें साफ़ सुथरा तालाब चाहिए...हमारी नगर की अंजुमन कमेटी की तरफ से प्रशासन से अपील है कि इस गौकशी की तत्परता से जांच करें और दोषियों को तीन दिन के अन्दर पकड़ें..वर्ना हम अनिश्चित काल तक के लिए नगर बंद रखेंगे...!”

उन चारों के पकड़े जाने से पहले तक जो विस्फोटक माहौल बना हुआ था अचानक शांत हो गया क्योंकि इस प्रकरण में दो मियाँ और दो हिन्दू युवक पकड़े गये थे और उन लोगों ने इकबाले-जुर्म भी कर लिया था. जो शक किया जा रहा था कि गौ-हत्या के इस जघन्य अपराध को मुसलामानों ने किया उस धारणा को विराम मिला. अब आन्दोलनकारी लोग ये कहते पाए गए के भईया, घोर कलजुग है...घोर कलजुग...
सल्लू ने मीडिया को जो बताया उसका लब्बो-लुआब ये था कि स्मार्ट फोन के लिए उन्हें पैसे चाहिए थे. एक बड़ी रकम.  बिना गलत काम किये एक साथ इतनी बड़ी रकम कैसे आये सो बेनी नाला पर बने रपटा में जो योजना बनी कि मौके की ताक में रहा जाए और तमाम परिस्थितियाँ अनुकूल हों जिस दम ये काम अंजाम दिया जाए.
सल्लू ने कई दिनों एक बात गौर से देखी थी कि आखिरी पेट्रोल पम्प के बगल में बसे पंडित जी की गाय अक्सर देर तक चरती रहती है. उसने कालूराम को तैयार रहने को कहा था कि जिस दिन मौका लगा वह फोन करके उसे बुलाएगा. कालूराम औजार लेकर पंद्रह मिनट के अन्दर आ जायेगा.
हुआ वही...एक शाम जब सब तरफ सन्नाटा पसर चुका था.
चिड़िया अपने बसेरों में आ सिमटीं और सर्वत्र शान्ति छा गई थी तब सल्लू ने पप्पू और अंसार को कहा कि तुम दोनों गाय को वापस लौटने न दो. उसे किसी न किसी बहाने नाले के उल्टी तरफ हंकालते रहो.
फिर उसने कालूराम को फोन किया.
पंद्रह मिनट में कालूराम अपनी साइकिल पर औज़ार लिए हाज़िर हो गया.
फिर उन लोगों ने वो घृणित काम अंजाम दिया जिसके कारण नगर अशांत हुआ और दो समुदायों के बीच खाई और गहरा गई.
बड़े शातिर थे वे लेकिन पुलिस की तत्परता से वे धरा गये.
पांच हज़ार रुपये और पांच किलो गौ-मांस भी उनके पास से बरामद हुआ था, जिसे वे ठिकाने नहीं लगा पाए थे...

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