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Saturday, November 21, 2015

हि्मतरू : गणेश गनी की कविताओं पर केद्रित अंक


जब बिना विरासत जाने हिंदी में कविताई एक संक्रामक रोग की तरह बढ़ रही है, ऐसे गैर-ज़िम्मेदार समय में पूरी ज़िम्मेदारी के साथ हिंदी कविता की लोकोंमुखता को बरक़रार रखते हुए कविताएँ लिखी जा रही हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और दूजे कवि के बीच का संवाद भर नहीं हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और एक संपादक के बीच समझ का आदान-प्रदान भर नहीं हैं. कविताएँ अपने समय, परिवेश और सामाजिक चेतना को भावनात्मक रूप से महसूस कर लिखी जाती हैं और वृहद् पाठक/ श्रोता के साथ संवाद करने की लालसा रखती हैं तब उन कविताओं का महत्त्व है. 
ऐसी कविता पढना सुखद लगता है, जिसमें कवि पूरी ज़िम्मेदारी के साथ महसूस कर रहा है कि समाज, लोक, परिवेश और सोच-सरोकार के परिस्कार के लिए किन मुद्दों को स्पर्श किया जाए. आज सबसे बड़ी ज़रूरत है आत्मसुख का परित्याग और दूसरों के प्रति सहिष्णुता...ये बड़ी सस्कारी बातें हैं, और कुल्लू हिमाचल प्रदेश से निकलने वाली पत्रिका ‘हिमतरु’ का अक्टूबर २०१५ अंक ने कविता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए गणेश गनी की सशक्त कविताओं पर केन्द्रित अंक निकाला है. 
‘घुट रही है हवा’ कविता में पृथ्वी पर प्रेम बरसाने की लालसा उमड़ रही है: 
एक पौधे ने कहा / आज ज्यादा पानी देना भाई/ मेरी गांठों से कोंपलें फूटने को हैं....
कितनी मासूम मदद की उम्मीद एक बेजुबान पौधे की है, क्योंकि----‘कल और फूल खिलेंगे/ और प्रेम बरसेगा पृथ्वी पर.’ तो ये है कविता जिसमे कवि जानता है कि बिना शुरुआत किये कोई काम अंजाम तक नहीं पहुँचता. और जब हम दुनिया को सवर्ग बनाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, तब अपना थोडा सा योगदान / अंशदान नहीं करना चाहते.
‘पितर माओट करेंगे’ कविता तो जैसे चेतावनी देती है: ‘प्रश्न उठेंगे/ इंसानों की मुड़ी-तुड़ी संवेद्नाओं पर / पनघट के पानी के सूखने के कारणों पर / प्रश्न उठेंगे/ रिश्ते की शैवालों से उठती/ तेज़ हवाओं पर.’
स्मार्ट-सिटी बनने का दिवा-स्वप्न दिखाने वाली व्यवस्था से कितना बड़ा आदिम सवाल किया गया है---‘पता नहीं क्यों अब उम्र कम हो गई है / बर्फ और अन्न की ढेरियों की....’ और----‘इन दिनों बढ़ी हुई चंद मिटटी वाली छतें / हैरान हैं और उदास भी/ बस खालीपन है / न फसलें, न बच्चे / किसान मजदूरी पर गया है / और बच्चे शहर/ दंतकथाएं धीरे-धीरे पलायन कर रही हैं/ छतों पर उगी घास कह रही है / इस बार खेल उसने जीता है / और बच्चे हार गये हैं (घुरेई कहाँ नाचेगी)
जो बिम्ब प्रतीक गायब हो रहे हैं, गणेश गनी की कविताओं में बरबस अनायास ही आते हैं और पाठक की चेतना को झकझोरते हैं. बाज़ार और वैश्वीकरण की आंधी में किसान और खेत किस तरह से विकासशील देशों के लिए शोषण का केंद्र बने हैं और विश्व-राजनीति किस तरह से इनकी अनदेखी कर रही है उसकी बानगी देखिये---‘अब बैलों के गले लगकर/ खींचना चाहता है हल/ और खेत की हथेली पर/ किसान की किस्मत की लकीरें’ 
शिल्प का कसाव कवि की तैयारी बताता है कि कविताएँ यूँ ही नहीं लिखी गई हैं बल्कि इनके पीछे कवि की विकट चिंताएं दीखती हैं---‘जितना ज़रूरी है / आग का जलते रहना/ उनता ही ज़रूरी है / आग का बुझे रहना..’ (आग) जिसमें एक आग असहमति, संघर्ष, प्रतिरोध, जनांदोलन की आग है और दूजी आग शोषण, दमन, उत्पीड़न, अन्याय की आग है...पाठकों को सजग, सचेत करना कवि का कर्तव्य है और वो उसमे सफल भी है.
कृत्रिमता और यांत्रिकता ने इंसान को रोबोट बना दिया है. बाज़ार ने उसे एक खरीददार में तब्दील कर दिया है और जैसे इस आपा-धापी में भूल चूका है इंसान अपना वजूद---‘जब से उतारे हैं / उसने अपने सारे मुखौटे/ लोग कहते हैं/ तुम्हें कहीं देखा है / शायद पाठशाला जाते/ शायद भेड़ें चराते/ शायद हल चलाते/ शायद रास्ता बनाते/ शायद लोकगीत गाते (चेहरे) 
बेशक आज ज़रूरत है बिना कुछ मांगे अपने समय को संजोने की...अपनी विरासतों के अनमोल धरोहरों के संरक्षण की.---‘खिड़की पर रखा गुल्लक / न ब्याज देता है / और न कमीशन लेता है. (हवा को जाने नहीं देगी)
संवेदनहीनता से भयभीत है कवि गणेश गनी. यह शुभ संकेत नहीं है. सिर्फ जीतने के लिए खेलना ही जब लक्ष्य हो गया हो अब वो चाहे कम्प्यूटर या मोबाइल की स्क्रीन पर खेला जा रहा हो, खेल के मैदान में खेला जा रहा हो, राजनीती में खेला हो रहा हो या फिर बर्बरता के खेला जाने वाला खेल हो...हर खेल में सिर्फ और सिर्फ जीत की आकांक्षा ने इंसानों के अन्दर संवेदनहीनता बढ़ाई है.----‘संवेदनहीन समाजों वाला देश / संवेदनहीन देशों वाली पृथ्वी/ सोचो कैसी होगी दुनिया / सोचते ही ह्रदय / डूबने सा लगता है.’ 
गणेश गनी की कविताओं में लोक से विमुखता के प्रति गहरी चिंताएं मुखर हैं. शहर के स्लम्स में बजबजाने की लालसा पाले लोगों का गाँव से पलायन कवि को बेचैन करता है. गाँव यानी माँ यानी अपनी जड़ों से कटकर इंसान जो शहरों के हाशिये में दीखता है कितना बेचारा लगता है जैसे उसे किसी का अभिशाप लगा हो...और शापग्रस्त ही उसे शहर के कोनों में विलीन हो जाना हो...और यही कारण है कि---‘ अब गाँव में बच्चों की संख्या / धीरे-धीरे कम होने लगी है (हुआ जब सयाना) 
फासीवाद के बढ़ते प्रभाव से कवि सचेत है. शब्द और सृजक इंसानी समाज के लिए कितने जरूरी हैं इसे कवि से ज्यादा कौन समझ सकता है? ----‘शब्द कहीं हथियार न बन जाएँ/ इसीलिए वे चाहते हैं/ शब्दों को मार डालना / जुबान काट डालना / या कम से कम / शब्दों के अर्थ ही बदलना...’ (धारा १४४)
तो फासीवाद हर संभव प्रयास करता है अभिव्यक्ति को कुचलने के लिए. इसके लिए वह भी तैयार करता है अपने साम्राज्य की सलामती के लिए बुद्धिजीवियों की खेप...ऐसी खेप हर युग में, हर समाज में बड़ी प्रमुखता से पाई जाने लगी है और बेशक---‘आज शब्दों पर / प्रहार हो रहे हैं/ शब्द टूट रहे हैं/ मृत हो रहे हैं/ वे संवाद नहीं कर सकते / आज उनपर / धारा १४४ लगी है...’
यही राजनितिक सजगता कविता को एक हथियार बनाती है जिससे कवि तो लड़ता ही है, विराट पाठक समाज भी इस हथियार से अपने आसपास के दुश्मनों को पहचानने लगता है, और यही कविता का उद्देश्य है और यही कवि की सचेत दृष्टि-सम्पन्नता.
‘हिमतरु’ का गणेश गनी पर कविता केन्द्रित अंक इसीलिए पठनीय है, संग्रहणीय है और सराहनीय है. गणेश गनी के रचना कर्म पर, संकलित कविताओं पर सत्यपाल सहगल, जयदेव विद्रोही, हंसराज भारती, उमाशंकर सिंह परमार, अजीत प्रियदर्शी, राहुल देव और अविनाश मिश्र के आलेख भी हैं जो गणेश गनी की कविताई के कई पक्षों को उजागर करते हैं. 
एक उत्कृष्ट अंक के संपादन के लिए किशन श्रीमान बधाई के पात्र हैं. 
हिम्तरू : संपादक : किशन श्रीमान : (यह अंक : १५१ रुपये) 
२०१, कटोच भवन, नज़दीक मुख्य डाकघर, ढालपुर, कुल्लू (हि.प्र) 9736500069, 
9418063231








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