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Monday, December 17, 2018

पहचान : पहचान का द्वंद्व और संकट





आदमी की पहचान क्या है? उसकी जाति? मज़हब? पद, प्रतिष्ठा, या काबिलियत? आदमी इन द्वंद
्वों में जीता रहा है। सामंती समाजों में जाति भी पहचान का महत्वपूर्ण कारक होता है,और वह आर्थिक स्थिति को भी प्रभावित करता है;बावजूद इसके व्यक्ति का आर्थिक वर्ग ही उसकी मुख्य पहचान बनता रहा है; मगर पिछले कुछ दशकों से साम्प्रदायिक राजनीति के उभार ने मज़हब को अस्मिता से जोड़कर उसे आदमी की 'मुख्य पहचान' बनाने की कोशिश की है; और बहुत हद तक सफल भी रहा है।इसके दुष्परिणाम कितने भयावह रहे हैं, यह किसी से छुपा नही है। मगर 'अपने मज़हब' के भीतर भी ऊंच-नीच के संस्तरण रहते हैं, और यहां भी आदमी की पूछ-परख उसके आर्थिक हैसियत के आधार पर होती है।
अनवर सुहैल जी का उपन्यास 'पहचान' में पहचान का यह द्वंद्व उभरकर आया है। उपन्यास का मुख्य पात्र 'यूनुस' निम्न वर्गीय मुस्लिम युवक है। पारिवारिक विडम्बना से 'खाला' के यहां रहता है।उनकी स्थिति भी लगभग वही है; जैसे-तैसे घर चल रहा है।किशोरवय यूनुस खाला की बेटी सनूबर को चाहता है;वह भी उसे पसंद करती है। खाला के घर यूनुस 'पराश्रित' ही है। शिक्षा-दीक्षा से वंचित; जिसमे उसकी लापरवाही भी शामिल है। दरअसल वह जिस 'माहौल' में रहता है, वहां यह स्वाभाविक है।गरीबी, अशिक्षा और लापरवाही भी लाती है,जिसे समाज के सम्पन्न वर्ग 'उनके संस्कार' कह कर मजाक उड़ाते हैं।ऐसे में जीवन के अनुभव ही सब-कुछ सिखाते हैं। इनके लिए फुटपाथ ही कॉलेज और विश्वविद्यालय है। यूनुस भी इसी 'विश्वविद्यालय' से अपना ज्ञान अर्जित करता है।यह ज्ञान यौन-संबंधों से लेकर सामाजिक-आर्थिक हर प्रकार के होते हैं,जिसमे व्यक्ति जिंदा रहने का हुनर सीखता है।उपन्यासकर ने बेबाकी से इसका चित्र खींचा है। चूँकि कथानक मुख्यतः मुस्लिम समाज से सम्बंधित है, इसलिए चित्रण अधिकतर उसी परिप्रेक्ष्य में हुआ है। दूसरे 'मजहबों' को मानने वालों की जीवन शैली पर रहस्य का आरोपण करने वाले देख सकते हैं कि जीवन के जद्दोजहद हर जगह हैं।
यूनुस खाला के घर 'बोझ' न सही उन पर निर्भर तो है ही इसलिए अधिकार का दावा तो कर ही नही सकता। जल्द ही उसे इस बात का अहसास हो भी जाता है जब घर मे 'जमाल साहब' का प्रवेश होता है। जमाल साहब सम्पन्न हैं; अधिकारी हैं; अविवाहित हैं,उनका घर आना खुशनसीबी है। खाला उनमें अपना भावी दामाद देखती है। सनूबर भी उनके तरफ आकर्षित होने लगती है। उनके सामने यूनुस की क्या औकात?टूटता है दिल तो टूटा करे!जमाल साहब भी मंजे खिलाड़ी हैं; सनूबर से सम्बंध बनाने की कोशिश है तो खाला से भी याराना है। खाला का चरित्र भी ऐसा है कि यह तय कर पाना कठिन है कि इस सम्बंध की पहल जमाल साहब ने की होगी या खाला ने।लेखक ने खाला के चरित्र को जिस ढंग से उभारा है उसमें खाला काफी 'बिंदास' है। कमजोर आर्थिक स्थिति उसकी इच्छाओं से मेल नही खाती।नैतिकता-अनैतिकता के उनके अपने मापदण्ड हैं।
इन घटनाक्रमों से यूनुस का भ्रम टूटता है; मानो वह स्वप्नलोक से बाहर आता है।उसके आत्म सम्मान को चोट पहुँचती है ।उसे अहसास होता है कि बिना अपने पैरों पर खड़े हुए दुनिया मे उसकी कोई पहचान नही है। सनूबर भी हकीकत से वाकिफ़ होती है यूनुस के प्रति उसका प्रेम बढ़ता है। यूनुस दर्जिगिरी से मोटर साइकिल मैकेनिक तक काम सीखने का अनुभव लेते हुए अंततः कोयला खदान में पेलोडर और पोकलेन ऑपरेटर बन जाता है।इस तरह वह आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ जाता और अपनी पहचान बनाने लगता है।यह जरूर कोई 'बड़ी' पहचान नही है, मगर छोटे-छोटे कदमो से भी सफर तय होता है और मंज़िल मिलती है।
यूनुस एक मुस्लिम युवक है; इसलिए उसे कई बार पहचान के संकट से गुजरना पड़ता है।उसे उसके मुस्लिम होने के कारण कई बार बहुसंख्यक वर्ग के अधीन 'सेवायें' नही मिल पाती; कई बार लोगो की दृष्टि बदल जाती है।अंततः इस 'संकट' से बचने के लिए वह अपनी पहचान छुपाने लगता है। अपना हुलिया इस तरह रखने लगता है कि जसकी धार्मिक पहचान न हो सके। उसका बड़ा भाई सलीम अपने 'धार्मिक पहचान' के कारण ही गुजरात दंगे में मारा जाता है। सलीम के माध्यम से लेखक ने मुसलमानों के एक वर्ग में भी बढ़ते धार्मिक पहचान के प्रति अतिरिक्त आग्रह को रेखांकित किया है। इस तरह उपन्यास में संकेतो में कई जगह पहचान के इस द्वंद्व और संकट जो पिछले कुछ दशकों से वैश्विक और स्थानीय दोनो स्तरों पर उभर कर आया है;प्रकट हुआ है।
उपन्यास विधा की यह खासियत है कि इसमें कथानक के परिवेश को प्रकट करने के लिए लेखक के पास पर्याप्त स्पेस होता है।इस उपन्यास में भी लेखक ने सिंगरौली कोयला क्षेत्र के भूगोल,औद्योगिकरण, उसके उपजे संकट, क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने, रहन-सहन; खासकर कामकाजी वर्ग के जीवन को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित किया है।परिवेश अनुरूप भाषा भी प्रवाहपूर्ण और 'ठेठ' है, जिससे पात्र जीवंत लगते हैं।कुल मिलाकर उपन्यास सार्थक है; जिसे पढ़ा जाना चाहिए।
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कृति- पहचान(उपन्यास)
लेखक- अनवर सुहैल
प्रकाशक- राजकमल,नयी दिल्ली
मूल्य- 200 रू(हार्ड बाइंडिंग)
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अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728320

Friday, October 5, 2018

पुख्ता होती दीवारें



एक ------------
कितने भोले हो तुम
जो बड़ी मासूमियत से
चाह रहे समझाना
कि हम नहीं हैं टारगेट
तो कौन है जो हममें से
हर दिन एक कम होता जा रहा है गुपचुप नहीं बल्कि आगाह करके मारने की संस्कृति कैसे ढीठ बनकर आ बैठी संग जितना सोचो उतनी बढती चिंताएं एक नामालूम सा डर साथ चलता हैहमारे दिलो-दिमाग की हार्ड-डिस्क में आजकल
एक खतरनाक वायरस जगह बना चूका है
हमारी नींद पर भी जिसने कर लिया कब्जा
डरावने सपनों की श्रृंखलाएं
झझक कर जगा देती हैं हमें
और तुम कहते हो
कि हम खामखा डरते हैं
भाई मेरे
हम जो तुम्हारे साथ
उठते-बैठते, नाचते-गाते
दुःख-दर्द बांटते और भूले रहते हैं
कि हम पराये नहीं हैं
और बेशक तुम भी तो कभी
यह अहसास नहीं होने देते हो
लेकिन
यह नामुराद लेकिन क्यों बार-बार
आ खड़ा होता हमारे रिश्तों के बीच
आओ ऐसा करें कुछ कि इस
आभाषी दीवार को पुख्ता होने से बचा लें हम
मुझे उम्मीद है कि अब भी शेष है उम्मीदें ........

दो
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यह जानते हुए भी कि
हमारे लिए लड़ नहीं रहा कोई
हम फिर भी एक स्वप्न जीते हैं
और उन लोगों के जीतने की ख्वाहिश रखते हैं
जो दुश्मनों के खिलाफ खड़े होने का
खूबसूरत अभिनय करते दिखलाई देते हैंयह तो तय है कि कोई नहीं हमनवा
हम अपने दुश्मनों को पहचानते हैं
इतने बरसों के साथ का असर है
कि दोस्तों की मजबूरियों से भी वाकिफ हैं हम
हम हर बार ऐसे दुश्मनों को तरजीह देते हैं
जिसके नाखून कम बड़े हों
दांत कम नुकीले हों
और जो प्रहार करे लेकिन बिना मजाक उडाये
हम इज्ज्तों के लिए मरते हैं
तुम अपनी फ़िक्र करो दोस्तों
कि तुम्हें भी पहचानने लगे हैं वे
और ये जानने लगे हैं कि तुम
हर मौसम में हमारे साथ खड़े हो
ऐसा बर्दाश्त करने वाले लोग
लगातार घटते जा रहे हैं
मालूम है न !

Saturday, September 22, 2018

कामरेड चंद्रशेखर की याद में


हक़ की लड़ाई जारी रखने के लिए,
सच की हिफ़ाज़त के लिए
बार-बार मरना जानते हैं कामरेड
रिरियाकर समझौता करना फ़ितरत नहीं
और सुन लो कि कामरेडों को 
शहादत की ब्रांडिंग नहीं आती
बड़े ढीठ होते हैं कामरेड
मरकर नष्ट नहीं होते
बल्कि वे फिर उग आते हैं
हर युग में
नए जिस्मों में,
नई रौशनी के साथ
कि बिकाऊ होने से पहले
हर व्यक्ति के अवचेतन में
एक कामरेड आकार लेना चाहता है
उसे दु:स्वप्न की तरह फेंक देते हैं जो लोग
बन नहीं पाते कामरेड
बन नही पाते आदि-विद्रोही।
कामरेड की शहादत की बरसी मत मनाओ लोगों
कामरेड मरा नहीं करते
देखो, हर उठे हाथों में
हर बंधी मुट्ठियों में
गगनभेदी नारों में
जीवित है कामरेड
लांग-लिव कामरेड।।।
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(कामरेड चंद्रशेखर की याद में)

Monday, August 6, 2018

देख बुझने न पाए भीतर की आग




चुप रहकर भी बोल दी जाती हैं बातें 
हम जिस दौर में हैं 
हमें आदत डालनी होगी 
चुप की भाषा डिकोड करने की
मुट्ठियाँ अब नहीं लहराती हवा में 
इशारों पर भी लगे हैं पहरे 
हुंकारी भरने वाली अवाम की ब्रीड 
कर ली गई है ईजाद 
सुबहो-शाम, दिन-रात 
गालियों की नई खेप उतरती है
प्रतिरोध का गला घोंटने वालों को 
मिल रहा इनामो-इकराम 
आलोचकों को दी गई है ड्यूटी 
कविता में तलाशें कला-तत्व 
आह-कराह में कहाँ होता है सौन्दर्य 
कहाँ होती है कला?
सुर की तलाश जहाँ खत्म होती है 
परिवर्तन के नव-राग वहाँ फूटेंगे 
बस ज़रूरत है एक बार और 
मिजाज़ से फेंका जाए जाल
जाग, ओ मेरे मीत जाग 
देख बुझने न पाए भीतर की आग 
जाग ओ मेरे मीत 
समय रहते जाग!

Friday, August 3, 2018

कितनी वहशी सोच तुम्हारी



कितना ज़हर भरा है तुममें
बार-बार डसने पर भी
खत्म नहीं होता है विष
दांतों के खोहों में तुमने
कितना ज़हर छुपा रक्खा है?
अब तक तुम करते रहते थे
ढेरों प्यार-मनुहार की बातें
गंगा-जमुनी तहजीब की बातें
सतरंगी दुनिया की बातें
हम सब कितना खुश थे भाई
गलबहियों और बतकहियों के
कितने अच्छे दिन बीते हैं
इधर हुआ क्या बोलो भाई
तुमने ज़हर उगलना सीखा
हमनें डरना-बचना सीखा
देखो-देखो, इस जहान में
नफरत की ज्वाला भड़की है
कत्लो-गारत, आगज़नी से
घर भी जले हैं दिल भी जले
कितनी वहशी सोच तुम्हारी
कितने बर्बर स्वप्न देखते
ऐसा हरगिज कभी न होगा
नफरत के इस मकड़जाल में
जब तक तुम यूं फंसे रहोगे
केवल तुम भर बचे रहोगे
बेशक तुम ही बचे रहोगे।

Thursday, July 19, 2018

कवि बेशक एक सृष्टा ही होता है.....


दिल्ली की सेल्फी साप्ताहिक में प्रकाशित इंटरव्यू : अनवर सुहैल से कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत
nityanand gayen

कवि / उपन्यासकार एवं संपादक के तौर पर अबतक का सफ़र
अभिव्यक्ति की बेचैनी विधागत स्वतंत्रता देती है. विधाएं बदलतीं हैं लेकिन बातें/ चिंताएं वही बनी रहती हैं जिनसे चेतन/अचेतन परेशान रहे आता है. ये बेचैनियाँ ही रूप बदल-बदल कर, टूल्स बदल-बदलकर अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करती रहती हैं. अब चाहे कविताएँ आकार ले लें या कहानियां, उपन्यास आकार ले ले या कि लघुपत्रिका के रूप में संकेत के अंक छप कर मंजरे-आम हो जाएँ. मेरे अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी चाहे जिस फॉर्म में आये, मुझे आगे ले जाती है. मैं जानता हूँ कि मेरी ट्रेन निर्धारित समय से लेट चल रही है, लेकिन ये भी जानता हूँ कि अपने गंतव्य तक ये अवश्य पहुंचाएगी, या किसी गलत स्टेशन पर नहीं ले जायेगी. सफर अधूरा भले हो सकता है लेकिन जितना भी रास्ता तय होगा वह परफेक्ट होगा….
मेरी इन बेचैनियों से उत्पन्न उत्पाद बेशक मुझे लोगों से जोड़ते हैं. ये लोग मुझे हमेशा नया रचने की ताकत देते हैं.  मैं वाल्ट व्हित्मन की बात याद रखता हूँ और हमेशा नयों से जुड़ना पसंद करता हूँ. इसी क्रम में संकेत पत्रिका की तयारी भी हो जाती है. ऐसी कविताएँ जो पाठक से सीधे संवादरत हों मुझे बेहद पसंद हैं. हिंदी कविता का ये रूप भले से नकचढ़े आलोचकों को पसंद न आता हो लेकिन ये कविताएँ जो संवाद बनाती हैं, हिंदी कविता को व्यापक जनमानस तक पहुंचा रही हैं.
संकेत के अंक पेजमेकर पर स्वयं तैयार करता हूँ. कवि/चित्रकार कुंवर रवीन्द्र जी के रेखांकन से सज्जित कविताएँ पाठकों को बेहद पसंद हैं. मुझे लगता है कि अपनी रचनाओं में अब मैं खुद को दुहरा रहा हूँ तब लेखनी को विराम देता हूँ और संकेत के अंक तैयार करने लगता हूँ. यह एक अनियतकालीन पत्रिका है. मैं बिजुरी जिला अनुपपुर में रहता हूँ और यह एक पिछड़ा इलाका है. यहाँ डाकघर है रेलवे स्टेशन है और दो छोटे प्रिंटर्स हैं. जब मैं खुद कुछ नहीं लिख रहा होता हूँ तब या तो पढ़ रहा होता हूँ या फिर संकेत के अंक के लिए बेचैन रहता हूँ. संकेत की कविताएँ पाठक पसंद करते हैं. इसके अंकों में अब तक कई कवि छप चुके हैं जिन्हें आज भी गर्व होता है कि वे संकेत के कवि हैं.
इसका कारण है कि मैंने संकेत के माध्यम से कविता के नए पाठक तैयार किये हैं. दूसरी बात ये है कि संकेत की कविताएँ पढ़ी जाती हैं, ये कविताएँ पाठकों से संवाद करती हैं.
तो मैं कोयला खदान की नौकरी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निपटाकर अपनी नींद में से कुछ समय चुराता हूँ और खुद को अभिव्यक्त करने में मगन रहता हूँ.

साइबर युग में क्या कवि भी डीजीधन की तरह अपनी भावनाओं में   डिजिटल हो रहे हैं ?
डिजिटल होना युग की ज़रूरत है. यूनिकोड आ जाने से हिंदी लिखना-पढना आसान हो गया है. साइबर स्पेस का इस्तेमाल भ्रष्टाचारी, आतंकवादी करते हैं तो क्यों न हिंदी का लेखक भी इस माध्यम का उपयोग कर एक बृहत् नव-पाठक वर्ग से जुड़े. आज हिंदी में बहुत सी ऎसी साइट्स हैं जो हिंदी लेखन को प्रकाशित कर रही हैं और एक बड़े पाठक वर्ग से जोड़ रही हैं. लेखक अब नामी पत्रिकाओं और प्रकाशकों का मोहताज नहीं है.
अब वो जमाना नहीं रहा कि हिंदी सीखने के लिए चंद्रकांता संतति पढ़ी जाए.  पुस्तकालयों की जगह अब अधिकाँश नागरिकों के हाथ में ई-लाइब्रेरी है. इस ई-लाइब्रेरी की सुविधा ई-पाठक उठा रहे हैं तो लेखक क्यों इस माध्यम से दूर रहे?
हाँ, हिंदी लेखन के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा का नितांत अभाव था, सो डिजिटल माध्यम में भी ऐसी दिक्कतें हैं. गुरुओं ने शायद शिष्यों के अंगूठे माँगा बंद नहीं किया होगा सो हिंदी में शिष्य देश-विदेश का उपलब्ध साहित्य पढ़कर हिंदी में लेखन करता है. और लेखक के पास अपना लोक, अपना परिवेश, अपनी विरासत भी की पूँजी भी होती है. इस लोक को गुनकर या फिर बेचकर लेखक नाम कमाते रहते हैं.
एक जमाना था जब महानगरों में काफी-हाउस हुआ करते थे जहाँ स्टार लेखक आते थे और नये लेखक उनसे मिलते-जुड़ते थे. कितने लोगों को ये अवसर मिल पाता होगा तब? आज सोशल साइट्स में बड़े लेखक मौजूद हैं जिनसे गाँव-गिरांव का लेखक/पाठक सीधे संवाद कर ले रहा है. यह एक बड़ी सहूलत मिली है, और इस माध्यम से बेशक लोक-शिक्षण भी हो रहा है. मैं मप्र की सीमा पर एक कोयला खदान में काम करता हूँ. यह साइबर स्पेस है जो मुझे देश दुनिया से प्रतिदिन जोड़े रखता है. इस डिजिटल युग में मेरी भावनाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है तो बेशक इस माध्यम का स्वागत होना ही चाहिए.

संवेदना विहीन समाज का दायरा लगातर फ़ैल रहा है , इसका क्या कारण है ?
बढती आबादी, बेरोज़गारी, भूख-गरीबी से उत्पन्न अवसाद से पूरे विश्व का एक बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित है. सिर्फ मुट्ठी-भर लोगों को सुविधाएँ और अनुकूलताएँ नसीब हो रही हैं. गरीब-अमीर के बीच खाई बढती जा रही है. इसका सीधा असर इंसान की सम्वेदनाओं पर हो रहा है. दुखी लोगों की बढती जमात किंकर्तव्यविमूढ़ सी जूझ रही है. बाज़ार में इंसान एक खरीदार बन कर रह गया है और सब कुछ बिकते हुए समय में कुछ भी न खरीद पाने वालों का दुःख बढ़ता जा रहा है. ये दुःख समाज में गरबीली गरीबी की जगह संवेदन-हीनता को बढ़ा रहा है.
इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित है युवा वर्ग. इस वर्ग को रोज़गार चाहिए. काम चाहिए. स्वावलम्बन चाहिए. संविधान सम्मत तमाम उपाय इन युवाओं को देश का नागरिक बनाये रख पाने में असमर्थ हैं. पढ़े-अनपढ़ इन युवाओं की प्राथमिकता अब फ्री डाटा-पैक हो गई है. राजनितिक संस्थाएं इन युवाओं को गुंडा / लूम्पेन की तरह इस्तेमाल कर रही हैं और आतंकवादी/ फासीवादी ताकतें इन युवाओं को धर्म की अफीम चटा कर उन्माद और दंगों का हथियार बना रही हैं….
वाकई ये ऐसा समय जहाँ सम्वेदनायें दम तोड़ रही हैं और बर्बरता फल-फूल रही है….

हिंदी साहित्य में ठेलो -धकेलो की परम्परा ने जो नई रफ़्तार पकड़ी है , उसे आप किस तरह से देखते हैं ?
हर युग में ऐसे लोग होते हैं जो जेनुइन की जगह नकली लेखन को बलजबरी प्रोत्साहित/ स्थापित करते रहते हैं लेकिन इससे जेनुइन लेखन का कोई नुक्सान नहीं होता. जेनुइन लेखन ही कालजयी होता है. बकौल मुक्तिबोध--अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले लेखकों के लिए पाठक/प्रशंसक आदि पाना आसान होता है. नकली चिंताएं और नकली क्रांतियों के भेद ज्यादा दिन नहीं छुपे रह सकते हैं. असली लेखन ही स्थापित होता है. लेखक को अपनी लेखनी पर भरोसा होना चाहिए न कि ठेल-धकेल कर स्थापित होने का उपक्रम करना चाहिए.
तालियाँ / वाह-वाहियाँ जेनुइन लेखन की राह में रोड़े अटकाती हैं. गुपचुप साधना का कोई विकल्प नहीं है और यह भी सत्य है कि जो रचेगा वही बचेगा. बाकी सब कुछ समय भुला देगा.
कई गिरोह बनते-बिगड़ते रहते हैं जो शॉर्टकट रास्ते के राही लेखकों पर अटैक करते हैं और उन्हें अपनी गिरफ्त में लेकर धंधेबाजी करते हैं लेकिन इन गिरोहों के निशाने पर कुछ जेनुइन लेखक भी होते हैं जो गाइडेंस के अभाव में गुमराह होते हैं. अब लेखक को स्वयं सचेत रहना है और ‘अहो रूपम, अहो ध्वनि!’ के वाग्जाल से मुक्त होना है.
हाँ, नव-लेखन को मिसगाइड नहीं बल्कि प्रोमोट करना ज़रूरी है. ये नए लोग आखिर हिंदी लेखन के क्षेत्र में क्यों आ रहे हैं? इनकी क्या कोई मजबूरी है या फिर इन्हें यही एकमात्र ऐसा माध्यम मिला है जिससे ये खुद को स्वतन्त्र रूप से अभिव्यक्त कर लेते हैं. तो इन नये लिखने वालों पर विकट आलोचकीय कुल्हाड़ी न चला कर इनके लेखन को दशा-दिशा देने वाले सुझाव आने चाहिए. उनके लिखे का सम्मान होना चाहिए क्योंकि प्रख्यात लेखक या आलोचक बनने से पूर्व आप भी तो एक पाठक ही थे और फिर धीरे से एक नवलेखक भी थे. तब किस तरह से आपके पूर्ववर्ती लेखकों ने आपको प्रोत्साहित किया था उसे भूलें नहीं. इस तरह ठेलो-धकेलो परंपरा के लोग खुद-बखुद मुंह के बल गिर जायेंगे.


कविता का सौन्दर्यशास्त्र क्या है ?
सौन्दर्य-शास्त्र जैसे प्रश्नों से मैं बचना चाहता हूँ. कविता का सौन्दर्य शास्त्र जैसा प्रश्न सुनकर ऐसा लगता है कि कोई कहीं बिरयानी का सौन्दर्य-शास्त्र या फिर जुताई-बोआई का सौदर्य शास्त्र जैसे सवाल क्यों नहीं बनाता है? अरे भाई, कविता अभिवयक्ति का एक फॉर्म है और इसमें अनुशासन है भी और नहीं भी है. ये कवि और पाठक के बीच का रिश्ता है. इसमें किसी मध्यस्थ की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. इन मध्यस्थों ने कविता का बड़ा नुक्सान किया है. लय,छंद, रस, अलंकार, शाब्दिक चमत्कार जैसे प्रयोगों के लिए कविता सवतंत्र है. हिंदी कविता संस्कृत, अवधि, ब्रज, भोजपुरी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी जैसी भाषाओँ की कविताओं की समृद्ध परंपरा को साभिमान साथ लेकर चल रही है और सबसे ज्यादा हिंदी में आज कवि हैं और प्रति वर्ष कविता की अनगिनत किताबें छपती हैं. ऐसे में कविता के सौन्दर्य-शास्त्र के बौद्धिक आतंक से कवियों को मुक्त रहना चाहिए.
भूमिगत कोयला खदान की अँधेरी सुरंगों के असामान्य वातावरण में, कैप-लैम्प की धुंधली रौशनी से राह तलाशता जब मैं  मीलों  घूमता हूँ तब जीवन का कोई सौन्दर्य शास्त्र मुझे नहीं सूझता. धरती के गर्भ की गर्मी से उग आती है देह में पसीने की बूँदें और खुद के कदमों की आहट से लरजता रहता तन-मन. यही जीवन की सच्चाई है. गृहणी बच्चे को दूध पिलाकर सुलाती है और फिर बच्चे के जागने से पहले किसी सर्कस के कलाकार की तरह एक साथ कई काम पूरी तन्मयता और सम्पूर्णता से करती है. ऐसा ही बड़ा तेज़ रफ़्तार युग है यह, जब कविताएँ लिखी भी जानी हैं, छपी भी जानी हैं और पढ़ी भी जानी हैं.
आभाषी संसार में आकार लेती हिंदी कविता ने जो कविताएँ दी हैं और जिस तरह से ये कविताएँ पढ़ी-सराही जा रही हैं ऐसे में मुझे तमाम यही लगता है कि हमने अपना एक नया सौंदर्यशास्त्र खुद ही गढ़ लिया है. इसे किसी प्राध्यापकीय या अकादमिक आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.

आज हिंदी आलोचना किस दशा में है ?  
किसी भाषा में जब तक आलोचक अपने समय के लेखन को स्वयं खोजकर नहीं पढ़ेंगे, तब तक जो भी आलोचकीय बातें प्रकाशित होंगी वो संदेह के घेरे में रहेंगी. आज आलोचक के टेबिल में कुछ किताबें पहुँचती हैं या कि पहुंचाई जाती हैं. कुछ लेखक पहुँचते हैं या फिर अनुशंसित होकर पहुंचाए जाते हैं. फिर ये ही किताबें चर्चित होती हैं और यही लेखक. सीधे समझ में आती है बात कि अपने समय में हो रहे जेनुइन लेखन की नब्ज़ को देखना, पढना आलोचना को विश्वसनीय बनाये रखने में मददगार साबित होगा वर्ना आलोचकों की परवाह करता कौन है?
विदेशी विचारों की रौशनी में देशी लोक का छौंक देकर बौद्धिक आतंकी भाषा के आवरण में जो आलोचना परोसी जा रही है, उसी कारण  लेखक कवि आजकल आलोचक की परवाह नहीं करते हैं. किसी भाषा के साहित्य के लिए यह एक अच्छी प्रवित्ति नहीं है, इससे आलोचक और लेखक अलग-अलग राह पकड़ लेते हैं और इस झगड़े में आने वाली पीढ़ी को कोई दशा-दिशा नहीं मिल पाती है. 
क्या कवि बनाये जा सकते हैं ? क्या कविता लिखी जा सकती है या लिख जाती है ?
 मैंने चाहा कि हारमोनियम बजाने लगूं, क्या मेरे चाहने से ऐसा संभव हो पायेगा? 
 हारमोनियम खरीद कर घर में रख लेने से भी मैं उसे बजा नहीं सकता हूँ. सामान्य पेन 
 से खराब कविताएँ और पारकर की पेन से क्या खूब अच्छी कविताएँ लिखी जा सकती हैं?
 ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता कि उसके पास ऐसा विश्वसनीय, उच्च-स्तरीय कारखाना 
 है जहां से साल में इतने कवि बना कर निकाले जाते हैं. आप दरजी बना सकते हैं, बढ़ई,
 वेल्डर, संगीतकार आदि बना सकते हैं लेकिन कवि बनाने का दावा कतई न करें. ऎसी
 खुश-फहमी न पालें कि कोई रसखान बना सकता है, कोई संस्था तुलसीदास या कबीर 
 बना सकती है. कविता तो मेरे लिए किसी आयत से कम नहीं है और कवि बेशक एक 
 सृष्टा ही होता है.....

Saturday, July 14, 2018

आओ, बोलें, मिलजुल लब खोलें.



उनकी हर इक बात के
अर्थ हैं कुछ और
बड़े साधारण से शब्द हैं
कोई गोला-बारूद या खंज़र नहीं छिपा है इनमें
लेकिन एक चीज़ पेवस्त है साथी 
जिसे हम नफरत कहते हैं
और जिस नफरत के बलबूते
खड़ा होता जा रहा है एक साम्राज्य
देखते-देखते....
बाल की खाल निकालना
हर किसी को नहीं आता
अमूमन लोग समझना नहीं चाहते
और वही अर्थ ग्रहण करते हैं
जो कि होना चाहिए था
लेकिन ऐसा नहीं है दोस्त
ये कोड हैं, कोई साधारण बात नहीं
हर बात के कई निहितार्थ हैं
अब वक्त आ गया है
इन बड़ी-बड़ी बातों को डिकोड करने का
क्योंकि उनमें-हममें जो फर्क है
वह सिर्फ इतना है कि
वे खोजते रहते हैं सिर्फ बुराइयां
और हम नज़र-अंदाज़ करते जाते हैं बुराइयां
कि सच और अच्छाई को साबित क्या करना
लेकिन हम गलत साबित हुए जा रहे हैं
देखो, लांछनों के कचरे फेंके जा रहे हम पर
ढेरों तले दब जायेंगे इक दिन यूं ही खामोश रहे तो
आओ, बोलें, मिलजुल लब खोलें.

Tuesday, July 10, 2018

आईने चटक कर टूट रहे हैं



सम्मानित हो रहे वे
जो ताने-उलाहने और गालियाँ दे रहे
प्रतिष्ठित हो रहे वे
जो भीड़ की शक्ल में धमका रहे
और कर रहे आगज़नी, लूटपाट
पुरुस्कृत हो रहे वे
जो बलजबरी आरोप लगाकर
कर रहे मारपीट और हत्याएं
ऐसे लोगों की बढती जा रही तादाद
छिटपुट चिंताएं और भर्त्सना के शब्द
किसी भी तरह से नहीं पायेंगे भरपाई
देखो तो सही कितनी बेरहमी से
आईने चटक कर टूट रहे हैं
और इन कांच के टुकड़ों में
पेवस्त चेहरों से टपक रहा खून
इस दुर्दांत समय में कुछ लोग गुपचुप
अपने-अपने खुदाओं का शुकराना अदा कर रहे
कि उन्हें नहीं पड़ रही गालियाँ
कि बचे हैं अब तक उनके घर आगजनी से
कि उन्हें नहीं खोज रहे हत्यारे
सांत्वना देते हैं कुछ लोग
ऐसा हमेशा नहीं होता रहेगा
ठंडा जायेंगे लोग तो सब कुछ हो जाएगा
एकदम पहले जैसा ही
भले से ऐसी बाते करने हैं इने-गिने ही
लेकिन ढाढ़स बंधाते इन शब्दों के मरहम से
तुम्हें क्या पता हमारे कमजोर दिलों को
कितना सुकून मिलता है
तुम ऐसे ही बतियाते रहना दोस्त
कि तुम्हारी बातें मरहम है हमारे लिए....

Sunday, July 1, 2018

ओ नादान बच्चियों!


लडकी जबसे होश संभालती है
तभी से एक डर उसके साथ चलता है
हो सकता है अचानक कोई यौन हमला
कहीं भी
कभी भी 
घूरती निगाहों के एक्सरे से बचती-बचाती
गुजारती रहती है उम्र के रास्ते
लेकिन उन बच्चियों का क्या हो
जिनके नन्हे से तन-मन को
होश सम्भालने से पहले ही
कोई दरिंदा
कोई भेड़िया
नोच-खसोट के
कर देता है लहुलुहान
ऐसे पशुओं से कैसे हो हिफाजत
ओ मेरी नन्ही बच्ची
हम समाज के तमाम
तथाकथित सुलझे हुए लोग
बहुत शर्मशार हैं
कि अभी भी नहीं हुए सभ्य
क्षमा करना हमें
ओ नादान बच्चियों!

Thursday, June 21, 2018

उम्मीदें

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जिससे भी उम्मीदें रक्खो
जितनी भी उम्मीदें बांधो
कुछ ही दिन में, इक झटके से
तड़-तड़ करके टूटी जाए
उम्मीदों की लम्बी डोर
रात की स्याही गाढ़ी होवे
दूर चली जावे है भोर
हारने वाले दुबके बैठे
जीते लोग मचाएं शोर
बहुत चकित हैं वे सब हमसे
दुःख इतने हैं फिर भी कैसे
पास हमारे बच जाती हैं
फिर-फिर जीने की उम्मीदें
एक जख्म के भरते-भरते
दूजा वार उससे भी घातक
लेकिन हिम्मत देखो यारों
सब्र का दामन थाम के बैठे
जख्मों की पीड़ा को पीकर
सीने में ईमान की ज्वाला
होठों पर इक गीत सजाकर
निकले हैं सब घर से बाहर
देख हमारी हिम्मत-ताकत
जल-भुन कर वे राख हो जाते
(19 जून 2018)

Wednesday, June 20, 2018

वाजिब है मारा जाना तुम लोगों का

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तुम लोगों का मारा जाना वाजिब है
भूख और अभाव से नहीं मरे
तो गोलियां हैं ही हमारे पास
हम तुम्हें मरने में मदद करने के लिए
दिन-रात बनाते हैं योजनायें 
कितने ज्यादा विकल्प हैं तुम्हारे पास
एडियाँ रगड़ कर मर सकते हो
सिसक-सिसक के भी मर सकते हो
फंदा डाल झूल सकते हो किसी पेड़ पर
अगर फिर भी नहीं मर पाए
तो हमारी चौबीस घंटे खुली हेल्पलाइन हैं ही
हम मदद के लिए तत्पर हैं
तुम सिर्फ मजदूर नहीं हो सकते
तुम सिर्फ किसान नहीं हो सकते
तुम्हें होना होगा हिन्दू या मुसलमान
आदिवासी या दलित या फिर स्त्री
इससे तुम्हें विकल्प चुनने में होगी आसानी
क्योंकि खालिस इंसानों के लिए
हमारी हेल्पलाइन अभी अपडेट नहीं है
इसके लिए कुछ रोज़ करना होगा इंतज़ार
रोटी और रोज़गार मत मांगो
हम तुम्हें कितना सस्ता डाटा दे रहे हैं
नई पीढ़ी समझदार है
इसकी हमें हर चुनाव में दरकार है
हमें ख़ुशी है की यह नई पीढ़ी
अकारण मरने-मारने के लिए हो रही तैयार है
(20 जून 2018)

Saturday, June 9, 2018

दोस्तियाँ और कडुवाहटें



क्या हो गया हम सभी लोगों को
हम तो ऐसे नहीं थे 
एक दूसरे से कर लेते थे
ऐसे बेदर्द मजाक कि बुरा लगना लाजिमी होता
लेकिन कोई कभी नहीं मानता था बुरा
हम अक्सर हंसा करते थे
निकालते थे एक दुसरे की कमियाँ
खोजा करते थे इक-दूजे के जात-धरम में बुराइयां
तानों-उलाहनों के वार यूँ ही झेल जाते थे
हम कितना जल्दी भूल जाया करते थे
रिश्तों में पैदा हुई खटास को
इस तरह फिर से मिल जाते थे जैसे शिकंजी-शरबत

चाहे कुछ भी हो जाए 
हम फिर-फिर मिलते ज़रूर थे
और इस तरह मिलते थे
जैसे मिले हों एक मुद्दत बाद
रिश्तों में एक नई ताजगी के साथ

अब इधर कुछ अरसे से
हम मिलते तो हैं लेकिन वैसे बेबाक नहीं हो पाते
एक-दूजे को देखते कि आँखों में परायापन लिए
जाने क्यों इधर इस बीच
हम अक्सर बात-बेबात, बाल की खाल निकालकर
झगड़ पड़ते और उस मुद्दे को दफ़न करने का
नहीं करते कोई प्रयास
हम चाहते हैं कि बची रहे तकरार की गुंजाईश

कितने तीखे होते जा रहे हैं हम
दोस्तियों में गालियाँ अब बर्दाश्त नहीं करते हम
गालियाँ हमें वजूद में पेवस्त होती लगती हैं
हम आक्रामक भी होते जा रहे हैं और हिंसक भी
सयाने कहते हैं कि दोस्ती नजरिया गई है
कोई है गुनी जो नज़र उतारने का जानता हो टोटका
कि इस तरह जीने कितना बेमजा है यार!

Sunday, May 20, 2018

व्यथित मन की पीड़ा


टायर पंचर बनाते हो न
बनाओ, लेकिन याद रहे
हम चाह रहे हैं तभी बना पा रहे हो पंचर
जिस दिन हम न चाहें
तुम्हारी ज़िन्दगी का चक्का फूट जाएगा
भड़ाम....
समझे!
कपड़े सीते हो न मास्टर
खूब सिलो, लेकिन याद रहे
हम चाह रहे हैं तभी सी पा रहे हो कपड़े
जिस दिन हम न चाहें
तुम्हारी ज़िन्दगी का कपड़ा फट जाएगा
चर्र...
समझे!
अलिफ़-बे पढ़ाते हो न
पढाओ, लेकिन याद रहे
हम चाह रहे हैं तभी पढ़ा पा रहे हो कायदा
जिस दिन हम न चाहें
तुम्हारी ज़िन्दगी की किताब के अक्षर
उड़ जायेंगे फुर्र...
समझे!
यह मत समझो कि धोखा देकर
जी लोगे सुख-चैन से यहाँ
हमारे लोग झाँक रहे हैं तुम्हारी रसोइयों में
क्या पकाया जा रहा है उन बर्तनों में
क्या खाया जा रहा है दावतों में
क्या पढ़ा जा रहा है
क्या लिखा जा रहा है
किस-किससे बतियाया जा रहा है
किस-किससे नहीं बतियाया जा रहा है
कब सोया जा रहा है
कब जागा जा रहा है
कितना बचा पाओगे और कब तक
हम खुद हत्या नहीं करते
कि आ जाएँ क़ानून और संविधान के दायरे में
ऐसी स्थिति बना देते हैं
कि गिरने लगती हैं धडाधड लाशें इतनी
कि हम गिनना भी ज़रूरी नहीं समझते
इस खेल में तुम भी माहिर थे
लेकिन अब तुम्हारा वक्त नहीं रहा
अब समय हमारा है
याद रखना......

Sunday, April 29, 2018

शरणार्थी कैम्प


शरणार्थी कैम्पों में सामान्य है सब कुछ
कोई ऐसी-वैसी हलचल नहीं है 
बाहर से सब-कुछ एक दम सामान्य सा ही है 

सुबह-सुबह पहली ज़रूरत पानी की होती है 
पानी इतना इकठ्ठा हो जाए कि आधा दिन बीत जाए 
इसी के लिए बड़ी मारा-मारी रहती है 
जो लोग बचे रह गये उनके आगे का जीवन 
इस पानी की ज़रूरत पूरी होने से उम्मीदें बंधाता है 

इन लोगों ने देखा है और भोगा है
क़त्लो-गारत और जलावतनी का दर्द
लेकिन रोज़मर्रा की मुश्किलों ने सोख लिया हो जैसे
भय और यातना की दर्द को 

सूरज उगने के साथ शुरू होती है
नातमाम जद्दोजेहद जीने की
सूरज ढलता है और ढल जाती है उनकी ऊर्जा 
टाट की झोपड़ियों के सेहन में निढाल-पस्त पड़े 
आसमान के उस पार बैठे सबके खुदा को 
तलाशते हैं क्षितिज पर टिकी निगाहों से 

और जैसे ही रात आती है
खूंखार दरिंदे नेज़ा उठाए
शोर मचाते हमलावर हो जाते हैं
दुधमुंहे बच्चे अब किशोर हो गए
वे नहीं जानते डरावने अतीत को
उन्हें चाहिये हर दिन एक जीबी का फ्री डाटा
और देर तक चार्ज रहने वाली बैटरी वाला मोबाईल
शरणार्थी कैम्पों में सामान्य है सब कुछ
जीने का हुनर कोई इन इंसानों से सीखे
मौत अब इन्हें डरा नहीं पाती
लुटने और दरबदर होने का दुख
उतना बड़ा नहीं होता जितना
अपनी जड़ों से उखड़ने में होता है
शरणार्थी कैम्पों में सब कुछ सामान्य है
उजड़ने से पहले गुनगुनाते भी थे ये लोग
लेकिन अब भूल चुके हैं सारे गीत, सारे धुन
जिन आंखों ने अपनों को मरते देखा है
जिन आंखों ने सपनों के मरते देखा है
उनसे सिर्फ सुना जा सकता है मर्सिया
प्रगति और विकास ने इन्हें रूदाली ही बनाया है ।।।।


जमानत पर रिहाई



आइये दें बधाई खूब उसे 
कैसे भी छूट गया भाई वो 
बच के इक बार तो निकल आया 
या कि इस बार छूटना ही था उसे 
या कि ये सोचकर छोड़े होंगे 
जब भी चाहेंगे धर दबोचेंगे 
और ज्यादा जो फड़फड़ाया तो 
अपनी मुठभेड़ सेना जिन्दा है 
कितनी आसान बात होती है 
इक जरा खुट और किस्सा तमाम 

यही तो सोच रहा हूँ कबसे 
भेड़िये कब शिकार छोड़े हैं 
कुछ तो होगी ज़रूर बात डियर 
वरना ऐसा कभी हुआ है कभी 
हाथ आया शिकार छूटा हो !
वह भी ऐसा शिकार कि जिसकी 
ज़िन्दगी की सलामती के लिए 
दुवाएं मांगने वाले भी कैसे काँपे हैं 
कहीं जान न जाएँ दलाल या गुंडे 
और किसी ऐसे ही नए मुक़दमे में 
कोई धारा लगाके बेड़ न दे 

आइये दें बधाई खूब उसे 
और चुपके से खिसक लें भाई 
अपनी भी ज़िन्दगी अभागी है 
हम तो हर दिन ही खोदते हैं कुआँ 
और हर रात प्यासे सोते हैं 
जितना पाते नहीं हैं उससे भी 
खूब ज्यादा सुकून खोते हैं 
हर कदम खूब सहे हैं ज़िल्लत 
ज़िन्दगी बोझ-बोझ ढोते हैं
भेड़िये घूम रहे हैं देखो 
उनसे बचके निकलने की कला 
सीखना आज की ज़रूरत है....

Tuesday, April 3, 2018

परिवर्तन की मांग

मेरे दु:ख की दवा करे कोई- (अनवर सुहैल)            
                                                           परिवर्तन की मांग

सूरज प्रकाश राठौर 
सूरज प्रकाश राठौर 

"मेरे दु:ख की दवा करे कोई "यह स्वर किसी से दान की अपेक्षा नहीं है अपितु जमाने से ऊपजी पीड़ा का मौन आर्तनाद है.सामाजिक परिवर्तन की आनिवार्य आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करने वाली कथा है.समाज में स्त्री की स्थिति, लोगों की संवेदनशीलता, पुरूष की दुनिया में स्त्री के मूल्य आदि संवेदनशील मामलों का, इस काल का आईना है.आम जीवन में आने वाली दाल रोटी की समस्याओं से आम मनुष्य रोज जुझता है किंतु इन सब संघर्षो के साथ मनुष्य द्वारा अपने स्वार्थ से दूसरे के जीवन में उपजाए कष्ट हमें मानव होने के अधिकार से वंचित करते है.वसुधैव कटुम्बकम की भावनाएं महज समाज की चोचलेबाजी की तरह दिखाई पड़ती है.समाज के सामने प्रश्न उठाने वाली पुस्तक है यह जो कहती है कि सब कुछ त्याग देने वाली स्त्री को ,एक मनुष्य को, एक गरीब को, देने के लिए क्या हैं हमारे समाज के पास,हमारी व्यवस्था के पास.
इस कथा के पात्र की समस्या केवल सलीमा की समस्या नहीं है बल्कि विश्व जनीन है.हालांकि पैसा शोहरत ,और परिवार के नाम पर कुछ महिलाएं इस अवस्था से भी मुग्ध है,वरना हमारे भीतर के पुरूष का नजरिया लड़कियों को असमय युवा बनाने और अपनी कामना पूर्ति के औजार से ज्यादा तरजीह देती नहीं है
दुख का संबंध शरीर से नहीं मन से है उस गहरे आघात से है जो सलीमा जैसी युवती के जीवन में आते हैऔऱ जीवन को मथ जाते है. इस दुख की दवा खोजना एक ब्यक्ति के बस में नहीं अपितु 
संपूर्ण समाज के मानस बदलने से ही संभव है
सलीमा इस कथा की प्रमुख पात्र है,उसकी अम्मी मौलाना कादिर की अजान ,गीत, संगीत और प्रेम में फंंसकर भाग जाती है. एक भरा पूरा परिवार जिसमें तीन बेटियां,कामकाजी पति और बसा-बसाया घर है छोड़कर चली जाती है.अब्बू हाजी के मिल में काम करता है,काम में समय का पाबंद नहीं है,काम जब भी खत्म होगा तभी छुट्टी होगी, चाहे रात हो या दिन.अम्मी के भाग जाने के बाद वे भी बेपरवाह हो गए है.घर के क्रिया कलाप,घर के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पूर्णतः विरक्त सलीमा पर तीनों बहिनों की पढ़ाई लिखाई, पालन पोषण, शादी ब्याह,और बेहतर जीवन की, परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ गई है.अभी वह जुम्मा-जुम्मा दसवीं कक्षा की छात्रा है.पढ़ने लिखने में गणित विषय में कमजोर है.वह कक्षा में आखिरी बैच में बैठती है.गणित के सवालों को नहीं हल न कर पाने के कारण उसे हमेशा डाँट फटकार और मार खानी पड़ती है.एकदिन गंगाराम सर उसे अपने कमरे में बुलाते है और घर आकर मुफ्त ट्यूशन पढने की सलाह देते है.अपने अब्बू से सलाह लेकर वह रविवार के दिन गंगाराम सर के घर पहुंचती है.गंगाराम सर पढाते-पढाते ,सलीमा को सहलाते-दुलारते उसके शरीर को अपने हवश का शिकार बना लेता है तब से निरंतर यह कार्य चलने लगता है.गंगाराम सर सलीमा के कष्टों का निवारक हो जाता है .सलीमा को सलाह भी देता है कि बैंक मैनेजर विश्वकर्मा से मेरी बात हो चुकी है लोन लेकर आटा चक्की खुलवा लो,बस उस साहब के पास हमबिस्तर होना पड़ेगा. सलीमा शर्त मानती है और लोन पास हो जाता है .चक्की चलने लगती है.मुफलिसी के दिन दूर होने लगता है.वह विश्वकर्मा जी के सलाह पर ही छोटी बहन सुरैया को परमजीत कौर के ब्यूटी पार्लर में काम सीखने भेजती है.जीवन पटरी पर चलने लगता है,त्यौहार भी घर का दरवाजा पहचानने लगता है .पकवान बनने लगता है.अजमेर शरीफ से ख्वाजा साहब का बुलावा आता है.सब कुछ जब ठीक-ठाक चलने लगता है ऐसे में ही अचानक एक दिन सुरैया गायब हो जाती है.खोज-बीन चालू होता है.कहीं कोई सुराग नहीं मिलता. वह समाधान खोजने विश्वकर्मा साहब के घर जाती है.वह आदतन खूब मान-गौन करता है.काजू बादाम खिलाता है,शराब पिलाता है और शरीर के साथ रंगरेलिया करते हुए, टी.वी पर ब्लू फिल्म चलाने लगता है.टीवी चलती रहती है,शरीर का उत्सव भी...अचानक टी.वी पर एक चित्र उभरता है जो सलीमा को बेचैन कर देता है..सलीमा बहोश हो जाती है. नग्न पुरूष के साथ अपना तन उघारती वह कमसिन कोई और नहीं सुरैया होती है..
इस कथा के पात्र इस काल के मनुष्यों तथा समकालीन भारतीय घटनाक्रमों का प्रतिनिधित्व करते है साथ ही लेखक की विचारधारा का निदर्शन भी कराता है.अब्बा सलीमा के पिता है जो रात दिन हाजी के मिल को चलाता है,उसके पास पत्नी के साथ बतियाने,विनोद करने का समय नहीं है.पत्नी के भाग जाने से वह अपने दायित्व और जीवन से तटस्थ हो गया है.युसुफ सफीना आपा का बेटा है जिनके पिता जी(याकूब)मैकेनिक(शर्मा गैरेज) थे. अत्यधिक शराब पीने और रात्रि में मोटर साईकिल से गाड़ी ठीक करने, अकेले जंगल चला जाता है,वहाँ से लौटते समय उसकी मृत्यु हो जाती है.युसुफ मौलाना और अण्डे लाल यादव के संपर्क में आकर वह 
‌अपने मार्ग से भटका गया है.वह लादेन का शागिर्द है आतंकवाद की राह पर चला गया है. उस किशोर के मन में यह स्थापित कर दिया गया है कि अखिल विश्व में इस्लाम की स्थापना ही मुसलमानों का लक्ष्य है.मजहब के लिए मर मिटने वालों को अल्लाह शहीद का दर्जा देता है. सुरैया सलीमा की छोटी बहन है जो सुंदर है और चटक मटक रहने वाली है .युसुफ हो या अजमेर का खादिम,उसका मन ऐसे लड़कों की तरफ आकर्षित होने लगता है .युसुफ से मुफ्त में मोबाईल पाकर दिन भर खेलती रहती है.यह परमजीत कौर की वीनस ब्यूटी पार्लर में काम करती है.रात देर तक घर लौटती है.कथा का अंत इसी लड़की के अचानक गायब हो जाने से होती है. परमजीत कौर का पति बाहर किसी शहर में रहता है.यह अकेले ब्यूटी पार्लर चलाती है, तथा जवान लड़को तथा किशोरों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है.इनका पार्लर रंगरेलियों का अड्डा है.यह औरत शहर भर में बदनाम है.अम्मी सलीमा की मां है ,जो घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलती. घर में ही सजी-धजी पड़ी रहती है.वह बंगला देश से बड़े मामू के साथ कोलकाता और छोटे मामू के साथ बिलासपुर आई है तथा वहां से व्याह कर इब्राहिम पुरा पहुंची है.उसे ससुराल से कभी भी प्रेम नहीं रहा. वह मौलाना कादिर से ईश्क लडा़ती है हमबिस्तर हो जाती है और एक दिन परिवार छोडकर दफा हो जाती है.मीरा सलीमा की पड़ोसी है जिसके पास मुस्लिम परिवार पर ताने मारने के अनेक बहाने है.कि इन लोगों के घर में औरतों की कोई इज्जत नहीं है.धन दौलत नहीं पर हर साल बच्चे पैदा करना जरूरी है.बच्चे भी नंग धडंग इधर उधर छुछवाते रहेंगे.हमेशा मुर्गी-बकरी से गंधाया रहेगा इनका घर. खाने के लिए चार पैसे नहीं है पर घर में माँस पकना जरूरी है.सलीमा गरीबी देखी है.अल्पायु में ही घर की जिम्मेदारी उठाने विवश है.दो किशोर बहनें है,वृद्ध मुरझाया पिता है.ऐसी मुफलिसी है कि घर में पलस्तर करने तक के पैसे नहीं है.नहाने के साबुन की जगह कपड़े धोने के साबुन और हाथ पैर रगड़ने के लिए नारियल बुछ का उपयोग किया जा रहा है.टटरे से घिरी नहानी है जिसमें दुमंजिले में रहने वाले रहवासियों के ताकझाँक का हमेशा डर बना हुआ है.अब्बू अब निकम्मा है.ऐसे में खुद पढाई करना और बहनों को पढ़ाना,उन पर पड़ रही जमाने की नजर से पाक रख पाना टेढ़ी खीर है.सलीमा की कथा परिवार के आनंद के लिए अपने जीवन को झोंक देने की कथा है.पढ़ाई कर पाने की ललक सलीमा को गंगाराम सर के पास ले जाती है. गंगाराम सर की हरकतें और सहानुभूति सलीमा के भीतर परिवर्तन ला देती है कि समय रहते इस शरीर का प्रयोग कर क्यों न अपने घर-परिवार की दशा सुधार ली जाए. बहनों की जिंदगी संवार ली जाए .
गंगाराम सर चरित्रहीन मनुष्य है.वह अपने शैक्षिक दायित्व से बहुत दूर है.वह सही मार्गदर्शन हेतु छात्रा के साथ शारिरिक संबंध स्थापित करता है.लड़की को वैश्या बना देता है.
विश्वकर्मा साहब का भी यही हाल है .लोन देने के नाम पर सलीमा से खेलता है. उनकी बातों में ग्यान भरा है किंतु वह कर्म से निहायत ही निकृष्ट मानसिकता वाला व्यक्ति है.‌सकीना का दुख उन समस्त मांओं का दुख है जिनके बेटे नक्सली, आतंकवादी आदि संस्थाओं में लिप्त हैं. इब्राहिम पुरा गांव है जहाँ मुस्लिमों की संख्या अधिक है.लोगों की आदत पड़ गई है ऐसी जगहों को बहुधा पाकिस्तान शब्द से नवाजने की. सलीमा अपने अल्पायु ही में ऐसी ऐसी घटनाएं देख चुकी है कि वह सुख-दुख के प्रति तटस्थ भाव रखने लगी है.वह चाहती है कि दिन भर इतना काम करे की बिस्तर पर जाते ही नींद आगोश में ले ले.दिमाग को देश दुनिया के बारे में सोचने का अवसर ही ना मिले. यही निर्धन के जीवन की माया है.तकलीफ उन्हें होतीं है पर लोग कहते है,गरीब दुख पाने के आदी होते. है इसलिये दुखों का उन पर असर ही नहीं पड़ता.गरीब से यदि आचार विचार में कुछ कमी रह जाए तो समाज उसे जंगल में आग की तरह फैला देता है किंतु यदि अमीर कुछ गलत करे तो दौलत उसकी बदनामियां ढक देती है.गरीब का जीवन गर्म तवे की तरह होती है कभी सुख की बूंद पढ़ जाए तो तुरंत भाप बनकर उड़ जाती है.इस कथा में कथाकार पुरूष वादी सोच पर प्रकाश डालते है.गरीब लड़की को समाज आनंद औऱ भोग की वस्तु मानता है.यहाँ सलीमा की झिझक को लेकर व्याख्या किया गया है कि झिझक ,निर्बल का आभूषण है.यह मनुष्य को कमजोर कर देती है.गंगाराम सर का सलीमा पर अत्याचार इसका ही परिणाम है.
‌विश्वकर्मा के माध्यम से कथाकार कहते है कि ईश्वर को न मानना एक तरह का यकीन है,आस्था है.मुड़ मुड़ाकर मोटी चोटी रखने से कोई पवित्र नहीं हो जाता. ना ही मुछ मुड़ाकर दाढी बनाकर कोई पाक मुसलमान.
‌यह कथा अपना सर्वत्र होम कर देने वाली सलीमा की है जो परिवार की मंगल कामना के लिए अंधेरे में पुरूषों के साथ बिछ जाती है.भाषा सरल है.निरंतर पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है.उर्दू भाषा का यथास्थान प्रयोग कथा को रोचक बना दिया है.पठन की खुमारी लिए दुख की गलियों से गुजरते हुए जो आभा मंडल भीतर निर्मित होता है उससे केदारनाथ सिंह की यह पंक्ति बार-बार जेहन में कौंधती हैः
‌भयानक सूखा है
‌पक्षी छोड़कर चले गए है
‌पेड़ों को
‌बिलों को छोड़कर चले गए है चीटें-चीटियां
‌देहरी और चौखट पता नहीं 
‌कहाँ किधर चले गए है
‌घरों को छोड़कर....
‌                               --------------------------------------------------------------------------सूरज प्रकाश





Sunday, April 1, 2018

खेल हार-जीत का



हम जिसे खेल समझते हैं दोस्त
यह जीत-हार का मामूली खेल नहीं है
खेल होता तो खेल-भावना भी होती
खिलाड़ियों की जोर-आजमाइशें होतीं 
मैदान में दोनों पक्षों के दर्शक एक साथ जुटते
दर्शकों की प्रतिबद्धता स्पष्ट होती
टीम के खिलाड़ी पाला-बदल नहीं करते
रेफरी का निर्णय अंतिम होता है
रेफरी कोई न्यायाधीश तो नहीं होता
और न होता है ईश्वर लेकिन
खेल के मैदान का अपना उसूल है
यह खेल अब इस तरह खेला जा रहा है
कि टीम सिर्फ एक ही खेले
तमाम दर्शक सिर्फ एक ही टीम के पीछे रहें
पूरा मैदान एक ही तरह की ड्रेस के खिलाडियों
और एक तरह के झंडा थामे दर्शकों से अटा-पटा हो
ढिंढोरची मीडिया अपनी पूरी ताकत से
इस एकतरफा खेल को महायुद्ध के रूप में
चौबीस घंटे करता रहे प्रचारित
और दुनिया इस खेल को अमान्य न करार कर दे
इसलिए बेवजह सीटियाँ बजाता
एक सजावटी रेफरी भी नियुक्त रहे ताकि सनद रहे
अबके जो खेल हो रहा है दोस्त
इसके नतीजे सबको मालूम रहते हैं....