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Thursday, June 21, 2018

उम्मीदें

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जिससे भी उम्मीदें रक्खो
जितनी भी उम्मीदें बांधो
कुछ ही दिन में, इक झटके से
तड़-तड़ करके टूटी जाए
उम्मीदों की लम्बी डोर
रात की स्याही गाढ़ी होवे
दूर चली जावे है भोर
हारने वाले दुबके बैठे
जीते लोग मचाएं शोर
बहुत चकित हैं वे सब हमसे
दुःख इतने हैं फिर भी कैसे
पास हमारे बच जाती हैं
फिर-फिर जीने की उम्मीदें
एक जख्म के भरते-भरते
दूजा वार उससे भी घातक
लेकिन हिम्मत देखो यारों
सब्र का दामन थाम के बैठे
जख्मों की पीड़ा को पीकर
सीने में ईमान की ज्वाला
होठों पर इक गीत सजाकर
निकले हैं सब घर से बाहर
देख हमारी हिम्मत-ताकत
जल-भुन कर वे राख हो जाते
(19 जून 2018)

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