Total Pageviews

Tuesday, December 24, 2019

साथ


मैं ग़मज़दा हूँ
और खामोश हूँ
एक खुन्नस सी तारी है
अपने दुखों का बयान
सिर्फ मैं ही क्यों करूँ

मेरी अपील है हमख़यालों से
मुझसे दुखों के बोझ उठाया नहीं जाता
अपने काँधे दे दो यारों
जैसे हम मिलजुलकर पहले भी
बांट लिया करते थे सुख-दुख

मैं यक़ीन है मेरी खामोशी से
तुम भी हो जाते हो गूंगे
मेरी तहरीरों को सदा तुमने
अपनी आवाज़ समझ दुलारा है
मेरी खामोशी को
दे दो अपनी आवाज़
कि इस खामोशी से
घुटता है दम।।।

(बीती रात बिटिया जामिया होस्टल में थी और हम सब ख़ौफ़ज़दा थे)

Thursday, November 7, 2019

भूखे आदमी को कविता नहीं रोटी चाहिए....


भूखा आदमी क्या कविता लिखता है
भूखा आदमी खामोश मुझे घूरता रहा
मैने उसकी आंखों में देखी महाकाव्य की सम्भावनाएं
मैने उसकी मजबूरियों में देखीं
सम्पादकों से स्वीकृत होती कविताएं
आलोचकों की प्रशंसात्मक टिप्पणियां

कवि का टारगेट पाठक भूखा आदमी होता है
भूखा आदमी कविता नहीं पढ़ता है
भूखा आदमी पर बनी पेंटिंग कीमती होती है
उसकी बेचारगी से सिनेमा ग्लोबल हो जाता है

भूखे लोग संगठित नहीं हो पाते
खाये-पिये-अघाये लोगों से
हज़ार गुना ज्यादा होने पर भी
भूखे लोग अल्पमत में रहते हैं
भूखे लोग एक रोटी पाने की लिए
लड़ सकते हैं, मर सकते हैं
मार सकते हैं किसी को भी लेकिन
इंकलाबी नहीं हो सकते क्योंकि
भूख इंसान को हैवान बना सकती है
इन्क़िलाबी कतई नहीं।

भूखा आदमी एक अदद रोटी के लिए
हर पन्थ, हर वाद को अपना लेता है
इसलिए जुलूस में झंडा थामे, नारा लगाते
उस आदमी को गौर से देखो जिसके
स्वप्न का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ
एक अदद रोटी का जुगाड़ है
आज और अभी के लिए तत्काल
उसे नहीं चाहिए योजनाओं वाले पांच साल।।

(पेंटिंग : अवधेश बाजपेई)

Thursday, October 24, 2019

किताब की दुकान





हमारे मासूम ख्वाबों में
इन किताब की गुमटियों की
कितनी बड़ी जगह हुआ करती थी
जेबें खाली हों तब भी
किताबों के मुखपृष्ठ को
और अंदर छुपी कहानियों को
कितनी ललचाई निगाहों से सोखते थे हम
दुकानदार को मानते थे
कितना भाग्यशाली हम
जो जब चाहे जिस किताब को
घूँट-घूँट पी सकता था
और एक हम जो एक अरसे बाद ही
देख पाते थे झलक किताब के दुकान की

Tuesday, October 8, 2019

सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती कहानियां : गहरी जड़ें


  • बिभूति कुमार झा 

Anwar Suhail अनवर सुहैल साहेब की लिखी कहानी संग्रह "गहरी जड़ें" पढ़कर अभी समाप्त किया है। बहुत ही सार्थक शीर्षक है। समाज में जिन कुरीतियों और विचारधाराओं ने अपनी गहरी जड़ें जमा लीं हैं उन्हें उखाड़ना आसान नहीं है।
पुस्तक को एपीएन पब्लिकेशंस ने सुन्दर आवरण में मूल्य ₹160/- रखकर प्रकाशित किया है।
मैं अनवर सुहैल साहब को इस बेहतरीन और खतरा मोल लेने वाली पुस्तक के लिए बधाई, शुभकामनाएँ देता हूँ और इतना हिम्मती कार्य करने के लिये उनकी सराहना करता हूँ।
इस पुस्तक में दस कहानियाँ हैं और सभी कहानियाँ मुस्लिम परिवार, उनकी जीवन शैली, आशंका, निजी जीवन में धर्म के नाम पर हस्तक्षेप और ज्यादातर कर्मकांड के बारे में लिखी गयीं हैं। लेखक ने लगभग प्रत्येक कहानी में कट्टर धर्मान्धता, मुस्लिम समाज का जातिवाद और निजी जीवन में धर्म के नाम पर कुछ भी थोप देने का बहुत सलीके से, खुलकर, सीधा विरोध किया है। यह एक मुस्लिम लेखक के लिए दसरथ माँझी की तरह पहाड़ काट रास्ता बनाने जैसा कार्य है। लेखक ने बहुत ही हिम्मत से मुँहतोड़ साहित्यिक कुदाल चलाया है।
किसी भी समाज की कुरीतियों को साहित्य सबसे पहले उजागर करता है। कुरीतियों पर बार- बार, लगातार प्रहार कर समाज को जगाता है तभी अंत में समाज उसे अपने से हटाता है। लेखक ने मुस्लिम समाज के अनेक कुरीतियों पर तेज़ प्रहार किया है। मुझे मुस्लिम समाज की बहुत चीजों की जानकारी नहीं थी जो इस पुस्तक से मिली है।
अब कहानियों पर आता हूँ।
पहली कहानी 'नीला हाथी' में लेखक ने एक ऐसे कलाकार के बारे में लिखा है जो बहुत अच्छा मूर्तिकार था। मुस्लिम होकर हिन्दू देवी देवताओं की मूर्ति बनाता था। धर्म के ठेकेदार ने रोककर माफी मंगवायी। अब वह जुगाड़ कर एक मजार बनवाता है और मुजाबिर (दरगाह/मजार पर रहने वाला जो चढ़ावा लेता है) बन जाता है। हरा चोगा पहन, गले में रंगीन पत्थर डालकर अपने लाभ के लिये बाजार खड़ा कर देता है। बेहतरीन अंदाज में व्यंग्य है। लेखक यह स्थापित करने में सफल हो जाता है कि इस्लाम में मूर्ति पूजा मना है लेकिन एक कलाकार का मूर्ति बनाना तो जायज़ होना चाहिए।
मुझे मजाहिया शायर नश्तर अमरोही का एक सच्चा शेर याद आता है कि
'बरहम जिस्म पर चादर कोई ओढ़ाये क्यों,
सड़क की लाश है कोई मजार थोड़े है।'
इनकी रचनाओं में एक आम शहरी जो सोचता है वही हू ब हू कलम ने उतार दिया है। 1984 का सिक्ख दंगा हो, 1992 का बाबरी मस्जिद के बाद का विवाद, 1993 का मुम्बई बम ब्लास्ट या 2002 का गुजरात दंगा, सबको लेखक ने कटघरे में खड़ा किया है। लेखक मुस्लिम हैं अतः उन्होंने अपने समाज की बारीकियों और कमियों को बहुत ही अच्छे तरीक़े से रखा है।
दूसरी कहानी '11 सितंबर के बाद' में एक आम मुस्लिम जो किसी गुट में नहीं था लेकिन व्यंग्य और गंदी मानसिकता के लोगों की बातों से तंग आकर मुस्लिम खेमे में शामिल होता है, की कहानी है। आपसी वैचारिक दूरी की त्रासदी की कहानी है।

'गहरी जड़ें' जो इस पुस्तक का नाम भी है, वाकई इतनी समृद्ध है कि अकेला मुस्लिम परिवार अपने पुश्तैनी मकान में, हिन्दुओं के मोहल्ले में, इस विश्वास से रह रहा है कि साम्प्रदायिकता की हवा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगी। मुख्य पात्र अपने बच्चों और परिवार के कहने पर भी मुस्लिम बहुल इलाके में नहीं आता। यह आत्मविश्वास है। ये कहानी उन लोगों के लिए है जो अपने धर्म मानने वाले लोगों के बीच जाकर रहना चाहते हैं। भीड़ के बीच। अच्छी रचना है।

'चेहल्लुम' कहानी एक आम घर की कहानी है। दो बेटे पिता की मृत्यु के बाद माँ से सब ले लेने की राजनीति करते हैं। बेटी आकर माँ का पक्ष लेती है। मुस्लिम बेवा औरतों का पति की मृत्यु के बाद इद्दत की अवधि तीन माह तक घर से बाहर निकलना मना होता है जिसे मुख्य पात्र अम्मी ने विद्रोह कर तोड़ दिया है। अपना काम वो खुद नहीं करेंगी तो बेटे बहू इसका लाभ ले उनका सब हड़प लेने की नीयत में लगे हैं। कहानी आज के समय में जीने को कह रही है। कहानी पिछले समय के जंज़ीरों को तोड़ आगे बढ़ने को प्रेरित करती है।
'दहशतगर्द' कहानी में एक मुस्लिम युवक साम्प्रदायिक माहौल में कैसे दहशतगर्द बन जाता है, की कहानी है। मुस्लिम समाज पर लगने वाले आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच उलझे इस पात्र ने अनेक ज्वलंत प्रश्नों को उठाया है। कहानी अपनी रोचकता बनाये रखती है।

'नसीबन' एक तलाकशुदा महिला की कहानी है। इसमें सास अपने नपुंसक बेटे की पत्नी से किसी भी तरह बच्चे की आस लगा झगड़ते रहती है। विवश निरपराध औरत मायके आती है। तलाक़ मिलने पर दूसरा खुशहाल जीवन पुनः शुरू करती है। अब बस में उसे अपने पति की दूसरी पत्नी से उसके तीन बच्चों के साथ भेंट हो जाती है। तीन बच्चे कैसे आये। यह कहानी कुछ भी, कैसे भी, नैतिक या अनैतिक तरीके के बीच से निकलती है। एक औरत कैसे अपने अहं के लिये कुछ भी करवा सकती है का चित्रण है। तलाक़ मिली हुई महिला के संघर्ष की कहानी है। यहाँ "अवली" पुस्तक की एक कहानी लेखक Dr-Sarveshvar Pratap Chandravanshi सर्वेश्वर प्रतापजी की "धाधा" की याद आती है जिसमें औरत अपने बाँझ होने की गाली भी नहीं सुनती, नफरत करने वाली सास से भी अलग होना नहीं चाहती और ना ही अपने नशेड़ी पति को छोड़ना चाहती। ये दोनों कहानियाँ एक दूसरे के आमने सामने लगतीं हैं।
'पीरू हज्जाम उर्फ हजरतजी' कहानी में लोगों की आँखों में धूल झोंककर मजार के बनवाने और अध्यात्म के नाम पर ढ़कोसला, ठगी , पाखंड और व्यवसाय करवाने की कहानी है। पैसे और अय्यासी के कारण कोई रिश्ता स्थायी नहीं रह पाता। कहानी अपनी दिशा दिखाने में बिल्कुल स्पष्ट और कामयाब है।
'कुंजड़-कसाई' कहानी मुस्लिमों के अन्दर जाति प्रथा के कसक को बयां करती है। कुरैशी का विवाह सैय्यद की लड़की से होती है लेकिन उसे अपना सरनेम छुपाने को कहा जाता है। कहानी ऊँची और निम्न जाति के मिथक को तोड़ती है लेकिन मुख्य पात्र अंत तक इसे झुठला नहीं पाता।
'फत्ते भाई' कहानी एक ऐसे साधारण पति पत्नी की है जो छोटा सा काम करके अपना जीवन बसर करता है। निःसंतान है लेकिन दोनों के बीच बहुत प्यार है। दोनों खुश भी हैं। फत्ते भाई जोर का बीमार पड़ते हैं। चिकित्सा से, झाड़- फूँक, ताबीज़ के बाद भी जब ठीक नहीं होते तो किसी दूर के हिन्दू बजरंगबली के मंदिर का प्रसाद समाज से छुपाकर इस विश्वास से खाते हैं कि बीमारी ठीक हो जायेगी। ये बात मुस्लिम धर्मगुरु और समाज के ठेकेदार को पता चल जाती है। वे इसे धर्म विरुद्ध मानकर पुनः इस्लाम में दाखिल होने को कहते हैं। कुफ्र करने वाले का निकाह टूट जाता है इसलिए उसे अपनी पत्नी के साथ फिर से निकाह पढ़वाना होगा। सुनते ही फत्ते भाई का जिस्म बेसुध हो जाता है।
लेखक ये बताने में सफल हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति को स्वयं कोई भी धर्म मानने का अधिकार है और वो अपनी मर्जी से किसी भी धर्म के किसी कार्य में भाग ले सकता है, इससे उसका अपना धर्म खतरे में नहीं आ जाता।

'पुरानी रस्सी' कहानी एक अदृश्य रस्सी की तरह एक मुस्लिम युवक का एक आदिवासी महिला के प्रति प्रेम की कहानी है। अब विवाहित महिला अपना प्रिय बकरा बेचना नहीं चाहती थी लेकिन पहले प्यार को कैसे मना कर दे। अंत तक पाठक आगे क्या होगा सोचकर बंधा रहता है।

कुल मिलाकर एक मुस्लिम लेखक द्वारा अपने समाज के अंदर का भय, आशंका, स्थिति, जातिवाद, अंधविश्वास, ठगी, गरीबी, अशिक्षा और धार्मिक कट्टरवादिता के साथ बहु संख्यक से अनेक सवाल पूछती कहानियाँ लिखी गयीं हैं। यह लेखक का भागीरथी प्रयास है। इन रीतियों की जंजीरों को तोड़ना बहुत आसान नहीं है लेकिन छोटा ही सही लेखक ने एक हथौड़ा तो मार ही दिया है। मैं लेखक को इतनी साफगोई से अपनी बात रखने की पुनः बधाई देता हूँ।
पुस्तक पढ़ने योग्य है एकबार अवश्य पढ़ें।

Thursday, August 15, 2019

जाने-पहचाने कातिल

kanha dubey 


एक 
जाने पहचाने क़ातिल / Anwar Suhail_____\\_____\\_____\\_____\\_____\\_____\\_____
ग़ौर से देखें इन्हें
किसी अकेले को घेरकर मारते हुए
ध्यान दें कि ये भीड़ नहीं है
भीड़ कहके हल्के से न लें इन्हें
दीखने में ये क़बीलाई लोग नहीं हैं
मानसिकता की बात अभी न करें हम
आधुनिक परिधानों में सजे
प्रतिदिन एक जीबी डाटा खुराक वाले
कितने सुघड़-सजीले जवान हैं ये
इनके कपड़े ब्राँडेड हैं वैसे ही
इनके जूते, बेल्ट और घड़ियाँ भी
अनपढ़-गँवार भी नहीं हैं ये
हिंगलिश और इमोजी के ज्ञाता हैं
फ़ोर-जी मोबाइल फ़ोन इनके हाथों में
जिनमें फ़्रंट-रियर कैमरे हैं दस-बीस मेगा-पिक्सल के
हम नहीं जान सकते हैं कि ये लोग
नौकरीपेशा हैं या छिटपुट रोज़गार वाले हैं
या कि एकदम बेरोज़गार हैं
ये अच्छी तरह से जानते हैं
कि कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं जो आकस्मिक हो
और थोड़ी भी हड़बड़ाहट नहीं है
कोई जल्दबाज़ी भी नहीं है
कितना इत्मिनान है इनमें
जान की सलामती माँगती आहों को
इनकी उन्मादी चीख़ें उभरने नहीं देतीं
कई मोबाइल कैमरे व्यस्त रहते हैं
आखेट के इन क़ीमती पलों को क़ैद करने में
कुछ साथी लाइव भी हो जाते हैं
जैसे उनमें पहचान लिए जाने का कोई डर नहीं है
ग़ौर करें कि सभी लोग नहीं पीट रहे हैं
बहुत से लोग हैं जो तमाशबीन भी हैं
इनमें हिंसा की हर हालत में निंदा करने वाले भी लोग हैं
जिन्हें झटका की जगह हलाल करना क्रूर लगता है
किसी पवित्र उद्देश्य के तहत
एक आदमी को बेदम होते तक पीटा जाता है
इतना पीटा जाता है कि वह मर ही जाता है
और ठीक इसी के साथ मर जाते हैं बहुत से
अमनो-पसंद लोगों के जिस्मों-रूह भी...

kanha dubey

दो 
जाने पहचाने क़ातिल / Anwar Suhail_____\\_____\\_____\\_____\\_____\\_____\\_____
ग़ौर से देखें इन्हें
किसी अकेले को घेरकर मारते हुए
ध्यान दें कि ये भीड़ नहीं है
भीड़ कहके हल्के से न लें इन्हें
दीखने में ये क़बीलाई लोग नहीं हैं
मानसिकता की बात अभी न करें हम
आधुनिक परिधानों में सजे
प्रतिदिन एक जीबी डाटा खुराक वाले
कितने सुघड़-सजीले जवान हैं ये
इनके कपड़े ब्राँडेड हैं वैसे ही
इनके जूते, बेल्ट और घड़ियाँ भी
अनपढ़-गँवार भी नहीं हैं ये
हिंगलिश और इमोजी के ज्ञाता हैं
फ़ोर-जी मोबाइल फ़ोन इनके हाथों में
जिनमें फ़्रंट-रियर कैमरे हैं दस-बीस मेगा-पिक्सल के
हम नहीं जान सकते हैं कि ये लोग
नौकरीपेशा हैं या छिटपुट रोज़गार वाले हैं
या कि एकदम बेरोज़गार हैं
ये अच्छी तरह से जानते हैं
कि कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं जो आकस्मिक हो
और थोड़ी भी हड़बड़ाहट नहीं है
कोई जल्दबाज़ी भी नहीं है
कितना इत्मिनान है इनमें
जान की सलामती माँगती आहों को
इनकी उन्मादी चीख़ें उभरने नहीं देतीं
कई मोबाइल कैमरे व्यस्त रहते हैं
आखेट के इन क़ीमती पलों को क़ैद करने में
कुछ साथी लाइव भी हो जाते हैं
जैसे उनमें पहचान लिए जाने का कोई डर नहीं है
ग़ौर करें कि सभी लोग नहीं पीट रहे हैं
बहुत से लोग हैं जो तमाशबीन भी हैं
इनमें हिंसा की हर हालत में निंदा करने वाले भी लोग हैं
जिन्हें झटका की जगह हलाल करना क्रूर लगता है
किसी पवित्र उद्देश्य के तहत
एक आदमी को बेदम होते तक पीटा जाता है
इतना पीटा जाता है कि वह मर ही जाता है
और ठीक इसी के साथ मर जाते हैं बहुत से
अमनो-पसंद लोगों के जिस्मों-रूह भी...

Saturday, June 29, 2019

बित्ता भर का पौधा झूमता है

संदर्भ : अनवर सुहैल की किताब #उम्मीद_बाक़ी_है_अभी
■ शहंशाह आलम
Image may contain: Shahanshah Alam, standing, shoes and beard

आज जब हमारी साझा संस्कृति दम तोड़ रही है। भाषा की जो मर्यादा होती है, वह ख़त्म होने-होने को है। व्यवस्था का जो अपना वचन होता है, वह ध्वस्त है। विचारों का जो आशय हुआ करता था, वह अपना आशय खो चुका है। राजनीतिक संगठनों की अपनी जो विशेषता हुआ करती थी, वह अब किसी पार्टी में दिखाई नहीं देती। खबरिया चैनल भी अब सत्ता के ग़ुलाम प्रवक्ता बने दिखाई देते हैं। थोड़ा-बहुत ठीक-ठाक कुछ बचा हुआ दिखाई देता है, तो वह साहित्य में ही दिखाई देता है। यहाँ भी सत्ता की ग़ुलामी ने अपना ख़ूनी पंजा मारना शुरू कर दिया है, मगर ख़ूनी पंजा यहाँ से हारकर वापस अपने आका के यहाँ लौट जाता रहा है। उसके लौटने की असल वजह यही है कि कवियों की, लेखकों की, कलाकारों की चेतावनी से यह ख़ूनी पंजा हमेशा डरता आया है। इतना-सा सच साहित्य में इसलिए हो रहा है कि यहाँ ईमानदारी पूरी तरह बची हुई है। साहित्य हर ज़माने में देशकाल के प्रति अपनी सक्रिय भूमिका और अपने शत्रुओं को पहचानने दृष्टि खुली जो रखता आया है। जहाँ तक सत्ता की बात है, सत्ता का वर्तमान अर्थ, जो कमज़ोर हैं, उनको डराना, धमकाना और मार डालना मात्र रह गया है। मेरी समझ से अनवर सुहैल हमारे समय के ऐसे कवि हैं, जो सत्ता के इस अनैतिक कार्य को कविता की नैतिकता से ख़त्म करने का सफल प्रयास करते आए हैं, ‘टायर पंक्चर बनाते हो न / बनाओ, लेकिन याद रहे / हम चाह रहे हैं तभी बना पा रहे हो पंक्चर / जिस दिन हम न चाहें / तुम्हारी ज़िंदगी का चक्का फूट जाएगा / भड़ाम … / समझे / कपड़े सीते हो न मास्टर / ख़ूब सिलो, लेकिन याद रहे / हम चाह रहे हैं तभी सी पा रहे हो कपड़े / जिस दिन हम न चाहें / तुम्हारी ज़िंदगी का कपड़ा फट जाएगा / चर्र … / समझे (व्यथित मन की पीड़ा)।’
यह सच देखा-भाला हुआ है, आपका भी, मेरा भी और अनवर सुहैल का भी कि वे यानी जो हत्यारे हैं, वे चाहते हैं, तभी हम ज़िंदा हैं। वे जिस दिन हमें मुर्दा देखना चाहते हैं, हमसे हमारी ज़िंदगी छीन लेते हैं। उम्मीद बाक़ी है अभी पुस्तक की कविता हमारा साक्षात्कार ऐसे ही कड़वे सच से कराती है। यह एक कड़वा सच ही तो है कि हत्यारे ने जब चाहा किसी पहलू ख़ाँ को मार डाला। हत्यारे ने जब चाहा किसी तबरेज़ अंसारी को मार डाला। सवाल यह भी है कि पहलू ख़ाँ जैसों का दोष क्या था और तबरेज़ अंसारी जैसों का दोष क्या है? जवाब कोई नहीं देता – न कोई खबरिया चैनल, न कोई आला अफ़सर, न कोई मुंसिफ़ और न कोई सत्ताधीश। अब उम्मीद इतनी ही बाक़ी है कि बाक़ी बचे हुए पहलू ख़ाँ और तबरेज़ अंसारी अपने मार दिए जाने की बारी का इंतज़ार करते हुए दिखाई देते हैं, ‘मुट्ठी भर हैं वे / फिर भी चीख़-चीख़कर / हाँकते फिरते हैं हमें / हम भले से हज़ारों-लाखों में हों / जाने क्यों टाल नहीं पाते उनके हुक्म (इशारों का शब्दकोश)।’ आदमी अपनी साधुता में ही तो मारा जाता है। हत्यारी भीड़ ने आपको मारने की पूरी कोशिश करी और तब भी आप में ज़रा-सी जान बाक़ी अगर रह गई तो आपकी लाश जेल से बाहर आती है। इस तथाकथित क़ानून ने तो हद पार कर रखी है। जिसकी हत्या की साज़िश रची जाती रही है, वही जेल जाता रहा है। और जिस भीड़ ने आपको मारा, वह ईनाम पाती है। यह सच नहीं है तो फिर तबरेज़ अंसारी की लाश जेल से बाहर क्यों आती है और वह जेल किस जुर्म में भेजा गया था, यह सवाल अभी अनवर सुहैल की कविता में ज़िंदा है और वह हत्यारी भीड़ भी ज़िंदा है अभी, ‘ग़ौर से देखें इन्हें / किसी अकेले को घेरकर मारते हुए / ध्यान दें कि ये भीड़ नहीं हैं / भीड़ कहके हल्के से न लें इन्हें / दिखने में क़बीलाई लोग नहीं हैं / मानसिकता की बात अभी न करें हम / आधुनिक परिधानों में सजे / प्रतिदिन एक जीबी डाटा ख़ुराक वाले / कितने सुघड़-सजीले जवान हैं ये / इनके कपड़े ब्रांडेड है वैसे ही / इनके जूते, बेल्ट और घड़ियाँ भी (आखेट)।’
अब हर हत्यारा मॉडर्न है और एजुकेटेड है। वास्तव में, भीड़ के रूप में हाज़िर हत्यारे उच्चकोटि के होते हैं। इनको मालूम होता है कि जिस तरह आखेटक आखेट किया करते थे, वैसे ही अब इनको किसी आदमी को अपना शिकार मानते हुए शिकारी करना है। इस शिकार के एवज़ इनको कोई सज़ा नहीं मिलनी, सत्ता के वज़ीफ़े मिलने हैं, पूरी गारंटी के साथ, ‘जो ताने-उलाहने और गालियाँ दे रहे / प्रतिष्ठित हो रहे वे / जो भीड़ की शक्ल में धमका रहे / और कर रहे आगज़नी, लूटपाट / पुरस्कृत हो रहे वे / जो बलजबरी आरोप लगाकर / कर रहे मारपीट और हत्याएँ (सम्मानित हो रहे वे)।’ अब भारतीय होने का तानाबाना बिगड़ रहा है। भारतीयता का अर्थ जितना सुंदर हुआ करता था, अब इसका अर्थ उतना ही विद्रूप बना दिया गया है। यह भद्दापन हमारे भीतर असुरक्षा की भावना लाता रहा है। विगत कुछ वर्षों में सत्ता पाने की राजनीति ने जो नंगानाच अपने देश में शुरू किया है, चिंतनीय भी है और निंदनीय भी। उम्मीद बाक़ी है अभी की कविता में अनवर सुहैल की यही चिंता और यही निंदा पुष्ट होती दिखाई देती है, ‘हुक्मराँ के साथ प्यादे भी फ़िक्रमंद हैं / खोल के बैठे हैं मुल्क का नक़्शा ऐसे / जैसे पुश्तैनी ज़मीन पर बना रहे हों मकान / जबकि मुल्क होता नहीं किसी की निजी मिल्कियत (आह्वान)।’
अनवर सुहैल की चेष्टा यही है कि अपने देश में एका बचा रहे। यह देश सबका है। यानी जितना यह देश आपका है, उतना ही मेरा भी है और उतना ही अनवर सुहैल का भी है। न जाने एकाएक यह स्वर कहाँ से और कैसे उठने लगा है कि आप तो यहाँ के हैं लेकिन अनवर सुहैल किसी और दुनिया से हैं और उनको उसी दुनिया में लौट जाना चाहिए। यहाँ रहने की ज़िद पर अड़े रहेंगे तो किसी न किसी दिन पहलू ख़ाँ या तबरेज़ अंसारी वाली हालत अनवर सुहैल की भी होगी और अनवर सुहैल के बच्चों की भी। इतने के बावजूद अनवर सुहैल नाउम्मीद नहीं होते हैं। चूँकि अनवर सुहैल विवेकशील मानव हैं। इनको अपने मुल्क के संविधान पर पूरा भरोसा है। भरोसा है, तभी इनकी कविता में उम्मीद ज़िंदा है, ‘एक कवि के नाते / मुझे विश्वास है / कि जड़ें हर हाल में सलामत हैं / मुझे इस बात पर भी / यक़ीन है हमारी जड़ें / बहुत गहरी हैं जो कहीं से भी / खोज लाती रहेंगी जीवन-सुधा (जड़ें सलामत हैं)।’
भरोसा है, तभी तो बित्ता भर का पौधा झूम सकता है, अपनी ज़िंदगी की उम्मीद को बचाए रख सकता है तो अनवर सुहैल की कविता, जो किसी फलदार वृक्ष की तरह है, यह कविता उम्मीद का दामन कैसे छोड़ सकती है। फिर कविता जब विद्रोह है तो अनवर सुहैल जैसा सच्चा भारतीय कवि अपने मारे जाने का इंतज़ार थोड़े ही न कर सकता है। अनवर सुहैल हर उस हत्यारे के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं, जो हत्याकांड भी करता है और इसके एवज़ पुरस्कार और सम्मान भी पाता है। हम तय करते हैं, और रचे जाते रहें शब्द, तुम्हारी बातें मरहम हैं, मिल-जुल लैब खोलें, मरने के विकल्प, चोरी-छिपे प्रतिरोध, अबके ऐसी हवा चली है, हमें तलाशना है ईश्वर, मुसलमान, दलित या स्त्री, डरे हुए शब्द, बुर्क़े और टोपियाँ, दलितों द्वारा भारत बन्द, सहारे छीन लेते हैं आज़ादी, डिजिटल समय में किताबें, नव-इतिहासकार, जेलों का समाज-शास्त्र, हम शर्मिंदा हैं निर्भया, मई इसे उम्मीद कहता हूँ शीर्षक आदि कविता एक सच्चे कवि के दायित्व का नतीजा बेधक कहा जा सकता है। वास्तव में, जब हमारे आसपास जीने की चाहत तंग करने की पुरज़ोर कोशिश चल रही है तो ऐसे में किसी कवि से साधुभाषा की उम्मीद हम नहीं कर सकते हैं। अनवर सुहैल से भी हम इसीलिए साधुभाषा की उम्मीद नहीं कर सकते।
—-
उम्मीद बाक़ी है अभी (कविता-संग्रह) / कवि : अनवर सुहैल / प्रकाशक : एक्सप्रेस पब्लिशिंग, नोशन प्रेस मीडिया प्रा.लि., चेन्नई / मूल्य : ₹140
https://notionpress.com/read/1323139


Wednesday, June 5, 2019

मुस्लिम समाज के जीवन के अनछुए पहलू




-गंगा शरण सिंह की कलम से उपन्यास पहचान की समीक्षा :



अनवर सुहैल साहब का उपन्यास 'पहचान' पिछले साल डाक से आया था। उसी दौरान घर की शिफ्टिंग में किताबें इस कदर इधर उधर हुईं कि आज तक उनका मामला दरबदर ही है। जो अमूमन बहुत ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं, वही किताबें कभी कभार साफ सफाई करते अचानक हाथ लग जाती हैं, जैसे दो दिन पहले 'पहचान' हाथ लग गया।

कविता और कहानी दोनों विधाओं में निरन्तर लिखते रहने वाले अनवर सुहैल इस पीढ़ी के सबसे सक्रिय लेखकों में हैं। 'पहचान' संभवतः उनका पहला उपन्यास है जो 2009 में राजकमल प्रकाशन से आया था। उन्होंने इसे समर्पित किया है "उन नवयुवकों को जो ज़िन्दगी में अपने दम पर कुछ बनना चाहते हैं और किसी संस्था का नहीं बनना चाहते 'भोंपू' या कोई 'टूल्स'।"

इस रोचक उपन्यास की कथावस्तु के केन्द्र में भारतीय समाज के वे पिछड़े क्षेत्र हैं, जहाँ विकास और शिक्षा की जगह घोर अशिक्षा और पिछड़ापन है। जहाँ बच्चों का बचपन से जवानी तक का सफर फुटपाथ, सिनेमाहाल और गैरेज की संगति में बीतता है। इसी भूखण्ड पर अपने अस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद से जूझ रहा है यूनुस। जीवन के इस कठिनतम संघर्ष में यूनुस के साथ एक ही चीज है और वह है उसकी जाग्रत चेतना जो उसे निरन्तर अशुभ से दूर शुभत्व की तरफ़ जाने की प्रेरणा देती है और वह कड़ा परिश्रम करके अपने लिए एक स्वतंत्र पहचान बनाने का सुख हासिल करता है।

इस किताब में मुस्लिम जीवन और समाज के बहुत से यथार्थ दृश्य मौजूद हैं।
अनवर सुहैल ने बरेलवी और देवबंदी मुसलमानों के पहनावों, मान्यताओं, धार्मिक निशानियों और उनकी एक दूसरे के प्रति नापसंदगी का तटस्थ वर्णन किया है।

यूनुस का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहुत प्रभावित करता है। वह जितनी सहजता से अलग अलग संप्रदायों की मस्जिदों में चला जाता है उसी तरह मन्दिर से लौटे दोस्तों द्वारा दिया गया प्रसाद भी खा लेता है। न उसे वन्दे मातरम बोलने से कोई गुरेज़ है न ही कोई ऐसा धार्मिक दुराग्रह जो उसकी जीवन यात्रा में बाधा बन सके।
उसका रहन सहन और पहनावा इस तरह है कि उसके धर्म का अनुमान लगाना सहज नहीं।

" यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ाई के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोई। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोई जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।"

प्रसंगवश रिहन्द बाँध क्षेत्र का ज़िक़्र आने पर उस दौर की स्मृतियों का भी मार्मिक पुनरावलोकन हुआ है जब आजादी के बाद उस क्षेत्र के नागरिकों के लिए यह कल्पना असम्भव थी कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ेगा...
" कल्लू के बूढ़े दादा आज भी डूब के आतंक से भयभीत हो उठते। उनकी जन्मभूमि, उनके गाँव को इस बाँध ने निगल लिया था। ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी जड़ जमाये पेड़ को एक जगह से उखाड़कर कहीं और रोपा जाए! क्या अब वे लोग कहीं और जम पाएंगे?"

विसंगतियों का वर्णन करते समय अनवर सुहैल की शैली स्वाभाविक रूप से व्यंगात्मक हो जाती है। कोतमा क्षेत्र का यह शब्द-चित्र देखिए....

" कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़ मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हैं। हल्ला गुल्ला, अनावश्यक लड़ाई- झगड़े की आवाज़ से यात्री अंदाज़ लगा लेते हैं कि कोतमा आ गया।"

इसी तरह शहरों में धन और सुविधा की अंध दौड़ में खो गयी युवा पीढ़ी 
के लिए उनकी चिन्ता इस प्रकार व्यक्त हुई है--

" शहर में रहते रहते युवकों की संवेदनाएँ शहर की आग में जलकर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं जिसमें मतलब भर के कुछ पते और टेलीफोन नम्बर्स दर्ज़ रहते हैं, सिर्फ़ उस एक पते को छोड़कर जहाँ उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहाँ की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं। "

★पहचान
Anwar Suhail
★राजकमल प्रकाशन
Rajkamal Prakashan Samuh
मूल्य: ₹200

Monday, February 11, 2019

दो कवितायेँ


एक


हम आपके बताए
इतिहास को नहीं मानते
हम आपकी किताबों का
करते हैं बहिष्कार!
जान लो कि अब हमने 
लिख ली इतिहास की नई किताबें
पूरा सच तुम भी कहां जानते हो
पूरा सच हम भी नहीं जानते
फिर तुम्हारी मान्यताएं क्यों हो मान्य
हम भी दावा करते हैं कि सच के
ज्यादा करीब हैं हमारी मान्यताएं
दो अधूरे सच मिलकर भी
नहीं बन सकते पूरा सच
कि जीवन कोई गणितीय फार्मूला नहीं।।।


दो 

अपनी विद्वता, पद-प्रतिष्ठा को
आड़े नहीं आने देता कि तुम कहीं
अपनी मासूम, बेबाक छवि को छुपाने लगो
मैं नहीं चाहता कि मेरे आभा-मंडल में
गुम जाए तुम्हारा फितरतन चुलबुलापन
तुम्हें जानकार हौरानी होगी
कि हम लोग बड़े आभाषी लोग हैं
और हम खुद नहीं जानते अपनी वास्तविक छवि
परत-दर-परत उधेड़ते जाओ
फिर भी भेद न पाओगे असल रूप
तुम जिस तरह जी रहे हो दोस्त
बेशक, उस तरह से जीना एक साधना है
बेदर्द मौसमों की मार से बेपरवाह, बिंदास
भोले-भाले सवाल और वैसे ही जवाब
बस इतने से ही तुम सुलझा लेते हो
अखंड विश्व की गूढ़-गुत्थियाँ
बिना विद्वता का दावा किये
यही तुम्हारी ऊर्जा है
यही तुम्हारी ताकत
और यही सरलता मुझे तुम्हारे करीब लाती है......