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Wednesday, June 5, 2019

मुस्लिम समाज के जीवन के अनछुए पहलू




-गंगा शरण सिंह की कलम से उपन्यास पहचान की समीक्षा :



अनवर सुहैल साहब का उपन्यास 'पहचान' पिछले साल डाक से आया था। उसी दौरान घर की शिफ्टिंग में किताबें इस कदर इधर उधर हुईं कि आज तक उनका मामला दरबदर ही है। जो अमूमन बहुत ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं, वही किताबें कभी कभार साफ सफाई करते अचानक हाथ लग जाती हैं, जैसे दो दिन पहले 'पहचान' हाथ लग गया।

कविता और कहानी दोनों विधाओं में निरन्तर लिखते रहने वाले अनवर सुहैल इस पीढ़ी के सबसे सक्रिय लेखकों में हैं। 'पहचान' संभवतः उनका पहला उपन्यास है जो 2009 में राजकमल प्रकाशन से आया था। उन्होंने इसे समर्पित किया है "उन नवयुवकों को जो ज़िन्दगी में अपने दम पर कुछ बनना चाहते हैं और किसी संस्था का नहीं बनना चाहते 'भोंपू' या कोई 'टूल्स'।"

इस रोचक उपन्यास की कथावस्तु के केन्द्र में भारतीय समाज के वे पिछड़े क्षेत्र हैं, जहाँ विकास और शिक्षा की जगह घोर अशिक्षा और पिछड़ापन है। जहाँ बच्चों का बचपन से जवानी तक का सफर फुटपाथ, सिनेमाहाल और गैरेज की संगति में बीतता है। इसी भूखण्ड पर अपने अस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद से जूझ रहा है यूनुस। जीवन के इस कठिनतम संघर्ष में यूनुस के साथ एक ही चीज है और वह है उसकी जाग्रत चेतना जो उसे निरन्तर अशुभ से दूर शुभत्व की तरफ़ जाने की प्रेरणा देती है और वह कड़ा परिश्रम करके अपने लिए एक स्वतंत्र पहचान बनाने का सुख हासिल करता है।

इस किताब में मुस्लिम जीवन और समाज के बहुत से यथार्थ दृश्य मौजूद हैं।
अनवर सुहैल ने बरेलवी और देवबंदी मुसलमानों के पहनावों, मान्यताओं, धार्मिक निशानियों और उनकी एक दूसरे के प्रति नापसंदगी का तटस्थ वर्णन किया है।

यूनुस का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहुत प्रभावित करता है। वह जितनी सहजता से अलग अलग संप्रदायों की मस्जिदों में चला जाता है उसी तरह मन्दिर से लौटे दोस्तों द्वारा दिया गया प्रसाद भी खा लेता है। न उसे वन्दे मातरम बोलने से कोई गुरेज़ है न ही कोई ऐसा धार्मिक दुराग्रह जो उसकी जीवन यात्रा में बाधा बन सके।
उसका रहन सहन और पहनावा इस तरह है कि उसके धर्म का अनुमान लगाना सहज नहीं।

" यूनुस ने फुटपाथी विश्वविद्यालय की पढ़ाई के बाद इतना अनुमान लगाना जान लिया था कि इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठे कोई। कुछ न कुछ काम करता रहे। तन्हा बैठ आँसू बहाने वालों के लिए इस नश्वर संसार में कोई जगह नहीं।
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए इंसान को परिवर्तन-कामी होना चाहिए।"

प्रसंगवश रिहन्द बाँध क्षेत्र का ज़िक़्र आने पर उस दौर की स्मृतियों का भी मार्मिक पुनरावलोकन हुआ है जब आजादी के बाद उस क्षेत्र के नागरिकों के लिए यह कल्पना असम्भव थी कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ेगा...
" कल्लू के बूढ़े दादा आज भी डूब के आतंक से भयभीत हो उठते। उनकी जन्मभूमि, उनके गाँव को इस बाँध ने निगल लिया था। ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी जड़ जमाये पेड़ को एक जगह से उखाड़कर कहीं और रोपा जाए! क्या अब वे लोग कहीं और जम पाएंगे?"

विसंगतियों का वर्णन करते समय अनवर सुहैल की शैली स्वाभाविक रूप से व्यंगात्मक हो जाती है। कोतमा क्षेत्र का यह शब्द-चित्र देखिए....

" कोतमा-वासी अपने अधिकारों के लिए लड़ मरने वाले और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हैं। हल्ला गुल्ला, अनावश्यक लड़ाई- झगड़े की आवाज़ से यात्री अंदाज़ लगा लेते हैं कि कोतमा आ गया।"

इसी तरह शहरों में धन और सुविधा की अंध दौड़ में खो गयी युवा पीढ़ी 
के लिए उनकी चिन्ता इस प्रकार व्यक्त हुई है--

" शहर में रहते रहते युवकों की संवेदनाएँ शहर की आग में जलकर स्वाहा हो जाती हैं। वे जेब में एक डायरी रखते हैं जिसमें मतलब भर के कुछ पते और टेलीफोन नम्बर्स दर्ज़ रहते हैं, सिर्फ़ उस एक पते को छोड़कर जहाँ उनका जन्म हुआ था। जिस जगह की मिट्टी और पानी से उनके जिस्म को आकार मिला था। जहाँ की यादें उनके जीवन का सरमाया बन सकती थीं। "

★पहचान
Anwar Suhail
★राजकमल प्रकाशन
Rajkamal Prakashan Samuh
मूल्य: ₹200

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