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Sunday, April 29, 2018

शरणार्थी कैम्प


शरणार्थी कैम्पों में सामान्य है सब कुछ
कोई ऐसी-वैसी हलचल नहीं है 
बाहर से सब-कुछ एक दम सामान्य सा ही है 

सुबह-सुबह पहली ज़रूरत पानी की होती है 
पानी इतना इकठ्ठा हो जाए कि आधा दिन बीत जाए 
इसी के लिए बड़ी मारा-मारी रहती है 
जो लोग बचे रह गये उनके आगे का जीवन 
इस पानी की ज़रूरत पूरी होने से उम्मीदें बंधाता है 

इन लोगों ने देखा है और भोगा है
क़त्लो-गारत और जलावतनी का दर्द
लेकिन रोज़मर्रा की मुश्किलों ने सोख लिया हो जैसे
भय और यातना की दर्द को 

सूरज उगने के साथ शुरू होती है
नातमाम जद्दोजेहद जीने की
सूरज ढलता है और ढल जाती है उनकी ऊर्जा 
टाट की झोपड़ियों के सेहन में निढाल-पस्त पड़े 
आसमान के उस पार बैठे सबके खुदा को 
तलाशते हैं क्षितिज पर टिकी निगाहों से 

और जैसे ही रात आती है
खूंखार दरिंदे नेज़ा उठाए
शोर मचाते हमलावर हो जाते हैं
दुधमुंहे बच्चे अब किशोर हो गए
वे नहीं जानते डरावने अतीत को
उन्हें चाहिये हर दिन एक जीबी का फ्री डाटा
और देर तक चार्ज रहने वाली बैटरी वाला मोबाईल
शरणार्थी कैम्पों में सामान्य है सब कुछ
जीने का हुनर कोई इन इंसानों से सीखे
मौत अब इन्हें डरा नहीं पाती
लुटने और दरबदर होने का दुख
उतना बड़ा नहीं होता जितना
अपनी जड़ों से उखड़ने में होता है
शरणार्थी कैम्पों में सब कुछ सामान्य है
उजड़ने से पहले गुनगुनाते भी थे ये लोग
लेकिन अब भूल चुके हैं सारे गीत, सारे धुन
जिन आंखों ने अपनों को मरते देखा है
जिन आंखों ने सपनों के मरते देखा है
उनसे सिर्फ सुना जा सकता है मर्सिया
प्रगति और विकास ने इन्हें रूदाली ही बनाया है ।।।।


जमानत पर रिहाई



आइये दें बधाई खूब उसे 
कैसे भी छूट गया भाई वो 
बच के इक बार तो निकल आया 
या कि इस बार छूटना ही था उसे 
या कि ये सोचकर छोड़े होंगे 
जब भी चाहेंगे धर दबोचेंगे 
और ज्यादा जो फड़फड़ाया तो 
अपनी मुठभेड़ सेना जिन्दा है 
कितनी आसान बात होती है 
इक जरा खुट और किस्सा तमाम 

यही तो सोच रहा हूँ कबसे 
भेड़िये कब शिकार छोड़े हैं 
कुछ तो होगी ज़रूर बात डियर 
वरना ऐसा कभी हुआ है कभी 
हाथ आया शिकार छूटा हो !
वह भी ऐसा शिकार कि जिसकी 
ज़िन्दगी की सलामती के लिए 
दुवाएं मांगने वाले भी कैसे काँपे हैं 
कहीं जान न जाएँ दलाल या गुंडे 
और किसी ऐसे ही नए मुक़दमे में 
कोई धारा लगाके बेड़ न दे 

आइये दें बधाई खूब उसे 
और चुपके से खिसक लें भाई 
अपनी भी ज़िन्दगी अभागी है 
हम तो हर दिन ही खोदते हैं कुआँ 
और हर रात प्यासे सोते हैं 
जितना पाते नहीं हैं उससे भी 
खूब ज्यादा सुकून खोते हैं 
हर कदम खूब सहे हैं ज़िल्लत 
ज़िन्दगी बोझ-बोझ ढोते हैं
भेड़िये घूम रहे हैं देखो 
उनसे बचके निकलने की कला 
सीखना आज की ज़रूरत है....

Tuesday, April 3, 2018

परिवर्तन की मांग

मेरे दु:ख की दवा करे कोई- (अनवर सुहैल)            
                                                           परिवर्तन की मांग

सूरज प्रकाश राठौर 
सूरज प्रकाश राठौर 

"मेरे दु:ख की दवा करे कोई "यह स्वर किसी से दान की अपेक्षा नहीं है अपितु जमाने से ऊपजी पीड़ा का मौन आर्तनाद है.सामाजिक परिवर्तन की आनिवार्य आवश्यकता की ओर ध्यान आकृष्ट करने वाली कथा है.समाज में स्त्री की स्थिति, लोगों की संवेदनशीलता, पुरूष की दुनिया में स्त्री के मूल्य आदि संवेदनशील मामलों का, इस काल का आईना है.आम जीवन में आने वाली दाल रोटी की समस्याओं से आम मनुष्य रोज जुझता है किंतु इन सब संघर्षो के साथ मनुष्य द्वारा अपने स्वार्थ से दूसरे के जीवन में उपजाए कष्ट हमें मानव होने के अधिकार से वंचित करते है.वसुधैव कटुम्बकम की भावनाएं महज समाज की चोचलेबाजी की तरह दिखाई पड़ती है.समाज के सामने प्रश्न उठाने वाली पुस्तक है यह जो कहती है कि सब कुछ त्याग देने वाली स्त्री को ,एक मनुष्य को, एक गरीब को, देने के लिए क्या हैं हमारे समाज के पास,हमारी व्यवस्था के पास.
इस कथा के पात्र की समस्या केवल सलीमा की समस्या नहीं है बल्कि विश्व जनीन है.हालांकि पैसा शोहरत ,और परिवार के नाम पर कुछ महिलाएं इस अवस्था से भी मुग्ध है,वरना हमारे भीतर के पुरूष का नजरिया लड़कियों को असमय युवा बनाने और अपनी कामना पूर्ति के औजार से ज्यादा तरजीह देती नहीं है
दुख का संबंध शरीर से नहीं मन से है उस गहरे आघात से है जो सलीमा जैसी युवती के जीवन में आते हैऔऱ जीवन को मथ जाते है. इस दुख की दवा खोजना एक ब्यक्ति के बस में नहीं अपितु 
संपूर्ण समाज के मानस बदलने से ही संभव है
सलीमा इस कथा की प्रमुख पात्र है,उसकी अम्मी मौलाना कादिर की अजान ,गीत, संगीत और प्रेम में फंंसकर भाग जाती है. एक भरा पूरा परिवार जिसमें तीन बेटियां,कामकाजी पति और बसा-बसाया घर है छोड़कर चली जाती है.अब्बू हाजी के मिल में काम करता है,काम में समय का पाबंद नहीं है,काम जब भी खत्म होगा तभी छुट्टी होगी, चाहे रात हो या दिन.अम्मी के भाग जाने के बाद वे भी बेपरवाह हो गए है.घर के क्रिया कलाप,घर के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पूर्णतः विरक्त सलीमा पर तीनों बहिनों की पढ़ाई लिखाई, पालन पोषण, शादी ब्याह,और बेहतर जीवन की, परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ गई है.अभी वह जुम्मा-जुम्मा दसवीं कक्षा की छात्रा है.पढ़ने लिखने में गणित विषय में कमजोर है.वह कक्षा में आखिरी बैच में बैठती है.गणित के सवालों को नहीं हल न कर पाने के कारण उसे हमेशा डाँट फटकार और मार खानी पड़ती है.एकदिन गंगाराम सर उसे अपने कमरे में बुलाते है और घर आकर मुफ्त ट्यूशन पढने की सलाह देते है.अपने अब्बू से सलाह लेकर वह रविवार के दिन गंगाराम सर के घर पहुंचती है.गंगाराम सर पढाते-पढाते ,सलीमा को सहलाते-दुलारते उसके शरीर को अपने हवश का शिकार बना लेता है तब से निरंतर यह कार्य चलने लगता है.गंगाराम सर सलीमा के कष्टों का निवारक हो जाता है .सलीमा को सलाह भी देता है कि बैंक मैनेजर विश्वकर्मा से मेरी बात हो चुकी है लोन लेकर आटा चक्की खुलवा लो,बस उस साहब के पास हमबिस्तर होना पड़ेगा. सलीमा शर्त मानती है और लोन पास हो जाता है .चक्की चलने लगती है.मुफलिसी के दिन दूर होने लगता है.वह विश्वकर्मा जी के सलाह पर ही छोटी बहन सुरैया को परमजीत कौर के ब्यूटी पार्लर में काम सीखने भेजती है.जीवन पटरी पर चलने लगता है,त्यौहार भी घर का दरवाजा पहचानने लगता है .पकवान बनने लगता है.अजमेर शरीफ से ख्वाजा साहब का बुलावा आता है.सब कुछ जब ठीक-ठाक चलने लगता है ऐसे में ही अचानक एक दिन सुरैया गायब हो जाती है.खोज-बीन चालू होता है.कहीं कोई सुराग नहीं मिलता. वह समाधान खोजने विश्वकर्मा साहब के घर जाती है.वह आदतन खूब मान-गौन करता है.काजू बादाम खिलाता है,शराब पिलाता है और शरीर के साथ रंगरेलिया करते हुए, टी.वी पर ब्लू फिल्म चलाने लगता है.टीवी चलती रहती है,शरीर का उत्सव भी...अचानक टी.वी पर एक चित्र उभरता है जो सलीमा को बेचैन कर देता है..सलीमा बहोश हो जाती है. नग्न पुरूष के साथ अपना तन उघारती वह कमसिन कोई और नहीं सुरैया होती है..
इस कथा के पात्र इस काल के मनुष्यों तथा समकालीन भारतीय घटनाक्रमों का प्रतिनिधित्व करते है साथ ही लेखक की विचारधारा का निदर्शन भी कराता है.अब्बा सलीमा के पिता है जो रात दिन हाजी के मिल को चलाता है,उसके पास पत्नी के साथ बतियाने,विनोद करने का समय नहीं है.पत्नी के भाग जाने से वह अपने दायित्व और जीवन से तटस्थ हो गया है.युसुफ सफीना आपा का बेटा है जिनके पिता जी(याकूब)मैकेनिक(शर्मा गैरेज) थे. अत्यधिक शराब पीने और रात्रि में मोटर साईकिल से गाड़ी ठीक करने, अकेले जंगल चला जाता है,वहाँ से लौटते समय उसकी मृत्यु हो जाती है.युसुफ मौलाना और अण्डे लाल यादव के संपर्क में आकर वह 
‌अपने मार्ग से भटका गया है.वह लादेन का शागिर्द है आतंकवाद की राह पर चला गया है. उस किशोर के मन में यह स्थापित कर दिया गया है कि अखिल विश्व में इस्लाम की स्थापना ही मुसलमानों का लक्ष्य है.मजहब के लिए मर मिटने वालों को अल्लाह शहीद का दर्जा देता है. सुरैया सलीमा की छोटी बहन है जो सुंदर है और चटक मटक रहने वाली है .युसुफ हो या अजमेर का खादिम,उसका मन ऐसे लड़कों की तरफ आकर्षित होने लगता है .युसुफ से मुफ्त में मोबाईल पाकर दिन भर खेलती रहती है.यह परमजीत कौर की वीनस ब्यूटी पार्लर में काम करती है.रात देर तक घर लौटती है.कथा का अंत इसी लड़की के अचानक गायब हो जाने से होती है. परमजीत कौर का पति बाहर किसी शहर में रहता है.यह अकेले ब्यूटी पार्लर चलाती है, तथा जवान लड़को तथा किशोरों के साथ गुलछर्रे उड़ाती है.इनका पार्लर रंगरेलियों का अड्डा है.यह औरत शहर भर में बदनाम है.अम्मी सलीमा की मां है ,जो घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलती. घर में ही सजी-धजी पड़ी रहती है.वह बंगला देश से बड़े मामू के साथ कोलकाता और छोटे मामू के साथ बिलासपुर आई है तथा वहां से व्याह कर इब्राहिम पुरा पहुंची है.उसे ससुराल से कभी भी प्रेम नहीं रहा. वह मौलाना कादिर से ईश्क लडा़ती है हमबिस्तर हो जाती है और एक दिन परिवार छोडकर दफा हो जाती है.मीरा सलीमा की पड़ोसी है जिसके पास मुस्लिम परिवार पर ताने मारने के अनेक बहाने है.कि इन लोगों के घर में औरतों की कोई इज्जत नहीं है.धन दौलत नहीं पर हर साल बच्चे पैदा करना जरूरी है.बच्चे भी नंग धडंग इधर उधर छुछवाते रहेंगे.हमेशा मुर्गी-बकरी से गंधाया रहेगा इनका घर. खाने के लिए चार पैसे नहीं है पर घर में माँस पकना जरूरी है.सलीमा गरीबी देखी है.अल्पायु में ही घर की जिम्मेदारी उठाने विवश है.दो किशोर बहनें है,वृद्ध मुरझाया पिता है.ऐसी मुफलिसी है कि घर में पलस्तर करने तक के पैसे नहीं है.नहाने के साबुन की जगह कपड़े धोने के साबुन और हाथ पैर रगड़ने के लिए नारियल बुछ का उपयोग किया जा रहा है.टटरे से घिरी नहानी है जिसमें दुमंजिले में रहने वाले रहवासियों के ताकझाँक का हमेशा डर बना हुआ है.अब्बू अब निकम्मा है.ऐसे में खुद पढाई करना और बहनों को पढ़ाना,उन पर पड़ रही जमाने की नजर से पाक रख पाना टेढ़ी खीर है.सलीमा की कथा परिवार के आनंद के लिए अपने जीवन को झोंक देने की कथा है.पढ़ाई कर पाने की ललक सलीमा को गंगाराम सर के पास ले जाती है. गंगाराम सर की हरकतें और सहानुभूति सलीमा के भीतर परिवर्तन ला देती है कि समय रहते इस शरीर का प्रयोग कर क्यों न अपने घर-परिवार की दशा सुधार ली जाए. बहनों की जिंदगी संवार ली जाए .
गंगाराम सर चरित्रहीन मनुष्य है.वह अपने शैक्षिक दायित्व से बहुत दूर है.वह सही मार्गदर्शन हेतु छात्रा के साथ शारिरिक संबंध स्थापित करता है.लड़की को वैश्या बना देता है.
विश्वकर्मा साहब का भी यही हाल है .लोन देने के नाम पर सलीमा से खेलता है. उनकी बातों में ग्यान भरा है किंतु वह कर्म से निहायत ही निकृष्ट मानसिकता वाला व्यक्ति है.‌सकीना का दुख उन समस्त मांओं का दुख है जिनके बेटे नक्सली, आतंकवादी आदि संस्थाओं में लिप्त हैं. इब्राहिम पुरा गांव है जहाँ मुस्लिमों की संख्या अधिक है.लोगों की आदत पड़ गई है ऐसी जगहों को बहुधा पाकिस्तान शब्द से नवाजने की. सलीमा अपने अल्पायु ही में ऐसी ऐसी घटनाएं देख चुकी है कि वह सुख-दुख के प्रति तटस्थ भाव रखने लगी है.वह चाहती है कि दिन भर इतना काम करे की बिस्तर पर जाते ही नींद आगोश में ले ले.दिमाग को देश दुनिया के बारे में सोचने का अवसर ही ना मिले. यही निर्धन के जीवन की माया है.तकलीफ उन्हें होतीं है पर लोग कहते है,गरीब दुख पाने के आदी होते. है इसलिये दुखों का उन पर असर ही नहीं पड़ता.गरीब से यदि आचार विचार में कुछ कमी रह जाए तो समाज उसे जंगल में आग की तरह फैला देता है किंतु यदि अमीर कुछ गलत करे तो दौलत उसकी बदनामियां ढक देती है.गरीब का जीवन गर्म तवे की तरह होती है कभी सुख की बूंद पढ़ जाए तो तुरंत भाप बनकर उड़ जाती है.इस कथा में कथाकार पुरूष वादी सोच पर प्रकाश डालते है.गरीब लड़की को समाज आनंद औऱ भोग की वस्तु मानता है.यहाँ सलीमा की झिझक को लेकर व्याख्या किया गया है कि झिझक ,निर्बल का आभूषण है.यह मनुष्य को कमजोर कर देती है.गंगाराम सर का सलीमा पर अत्याचार इसका ही परिणाम है.
‌विश्वकर्मा के माध्यम से कथाकार कहते है कि ईश्वर को न मानना एक तरह का यकीन है,आस्था है.मुड़ मुड़ाकर मोटी चोटी रखने से कोई पवित्र नहीं हो जाता. ना ही मुछ मुड़ाकर दाढी बनाकर कोई पाक मुसलमान.
‌यह कथा अपना सर्वत्र होम कर देने वाली सलीमा की है जो परिवार की मंगल कामना के लिए अंधेरे में पुरूषों के साथ बिछ जाती है.भाषा सरल है.निरंतर पढ़ने की उत्सुकता बनी रहती है.उर्दू भाषा का यथास्थान प्रयोग कथा को रोचक बना दिया है.पठन की खुमारी लिए दुख की गलियों से गुजरते हुए जो आभा मंडल भीतर निर्मित होता है उससे केदारनाथ सिंह की यह पंक्ति बार-बार जेहन में कौंधती हैः
‌भयानक सूखा है
‌पक्षी छोड़कर चले गए है
‌पेड़ों को
‌बिलों को छोड़कर चले गए है चीटें-चीटियां
‌देहरी और चौखट पता नहीं 
‌कहाँ किधर चले गए है
‌घरों को छोड़कर....
‌                               --------------------------------------------------------------------------सूरज प्रकाश





Sunday, April 1, 2018

खेल हार-जीत का



हम जिसे खेल समझते हैं दोस्त
यह जीत-हार का मामूली खेल नहीं है
खेल होता तो खेल-भावना भी होती
खिलाड़ियों की जोर-आजमाइशें होतीं 
मैदान में दोनों पक्षों के दर्शक एक साथ जुटते
दर्शकों की प्रतिबद्धता स्पष्ट होती
टीम के खिलाड़ी पाला-बदल नहीं करते
रेफरी का निर्णय अंतिम होता है
रेफरी कोई न्यायाधीश तो नहीं होता
और न होता है ईश्वर लेकिन
खेल के मैदान का अपना उसूल है
यह खेल अब इस तरह खेला जा रहा है
कि टीम सिर्फ एक ही खेले
तमाम दर्शक सिर्फ एक ही टीम के पीछे रहें
पूरा मैदान एक ही तरह की ड्रेस के खिलाडियों
और एक तरह के झंडा थामे दर्शकों से अटा-पटा हो
ढिंढोरची मीडिया अपनी पूरी ताकत से
इस एकतरफा खेल को महायुद्ध के रूप में
चौबीस घंटे करता रहे प्रचारित
और दुनिया इस खेल को अमान्य न करार कर दे
इसलिए बेवजह सीटियाँ बजाता
एक सजावटी रेफरी भी नियुक्त रहे ताकि सनद रहे
अबके जो खेल हो रहा है दोस्त
इसके नतीजे सबको मालूम रहते हैं....