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Friday, November 27, 2015

तीन कविता संग्रह : टिप्पणियां

बर्फ और आग : निदा नवाज़ 

निदा नवाज़ कश्मीर घाटी में, बिना किसी सुरक्षा घेरे में रहे, आम लोगों के बीच रहकर अभिव्यक्ति के खतरे उठा रहे हैं। पंद्रह वर्ष पूर्व उनका एक कविता संग्रह ‘अक्षर-अक्षर रक्त भरा’ प्रकाशित हुआ था जब घाटी में दहशतगर्दी चरम पर थी। सीमा पार से अलगाववाद को मिलता समर्थन भारतीय प्रशासन के लिए हमेशा चिंता का कारण रहा है ऐसे में अपने लोगों के मन की बात को कठोरता से वृहद जनमानस तक पहुंचाने का बीड़ा निदा नवाज़ ने उठाया है, जो काफी स्तुत्य है और बेशक इससे उन्हें भी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ा है।
जिन परिस्थितियों में निदा नवाज़ सृजनरत हैं वहां अस्मिता, राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के मसले बेहद उलझे हुए हैं कि उस पर बात करते हुए अरझ जाने का खतरा बना रहता है। निदा नवाज़ अपनी सीमाएं जानते हैं और बड़ी शालीनता से आम कश्मीरीजन की पीड़ा को स्वर देने का विनम्र प्रयास करते हैं। ‘बर्फ और आग’ में भी निदा नवाज़ ने लाऊड हुए बिना अपने लोगों की पीड़ा का सटीक दस्तावेजीकरण किया है। हिन्दी मेें ये कविताएं इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि इन कविताओं के ज़रिए हम कश्मीरियत और कश्मीरीजन की पीड़ा को व्यापक रूप से जान पाते हैं। कवि इन विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता और यही कवि और कविता की विजय है।
‘किसी सुनामी की तरह/
रास्ता निकालती है
 मेरी रचना
 मेरे सारे कबूतर लौट आते हैं वापस
 छिप जाते हैं
 मेरी बौद्धिक कोशिकाओं में
 और एक ऊंची उड़ान भरने के लिए/
आने वाले करोड़ों वर्षोें पर फैले
 बहुत सारे आसमानों पर...’ (पृ. 11)
संग्रह की तमाम कविताएं जैसे बड़ी शिद्दत से पाठक से कनेक्ट होती हैं और बेधड़क सम्वाद करती हैं। फै़ज़ के पास जिस तरह से ‘सू ए यार से कू ए दार’ की बातें होती हैं उसी तरह से निदा नवाज़ एक साथ बर्फ़ और आग के गीत गाते हैं। वे बहुत चैकन्ने कवि हैं जो जानते हैं कि---
‘आम लोगों को नींद में मारने के लिए
 दो बड़े हथियार थे उनके पास
 धर्म भी
 और राजनीति भी!’
 निदा नवाज़ ऐसे लोगों के बीच सृजनरत हैं जहां---
                   ‘उस शहर के बुद्धिजीवी
                    दर्शन के जंगलों में
                    सपनों को ओढ़कर
                    सो जाते हैं
                   और बस्ती के बीच
                   तर्क का हो जाता है अपहरण!’
मेरा विचार है कि निदा नवाज़ की कविताओं को इसलिए पढ़ा जाना ज़रूरी है कि इसमें एक ऐेसी नागरिक पीड़ा व्यक्त है जिससे देश के अन्य हिस्से के कवि नहीं जूझा करते...रोजी, रोटी, मकान के अलावा जो देशभक्ति का सबूत मांगेे जाने की पीड़ा हैे उसे जानने के लिए इन कविताओं को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
बर्फ़ औेर आग: निदा नवाज़: 2015
पृ. 112  मूल्य: 235.00
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन, सी-56 / यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन 2 गाजियाबाद उप्र



 इस समय की पटकथा : शहंशाह आलम 

पृथ्वी, प्रकृति, परिवेश और लोक के इर्द-गिर्द बड़ी बारीकी से बुनी गई कविताएं यदि पढ़नेे को मिलें तो बरबस शहंशाह आलम का नाम याद आता है। शहंशाह आलम हिन्दुस्तानी समाज की घरहू बनावट और उसकी तासीर के अद्भुत चित्रकार हैं। वे कविताओं में बोलते हैं तो शब्दों से जैसे रंग झरते हैं, आकृतियों आकार लेती हैं और एक अनहद नाद सा गूंजता है। यही तो कविता के टूल्स हैं जिन पर शहंशाह आलम की सिद्धहस्त पकड़ है। उनकी कविताओं का पैटर्न बरबस पाठकों को अपने जादू से चकित कर देेता हैै।
जैैसे--‘एक चिडि़या उड़ती है
औैर छू आती है इंद्रधनुष
यह रंग अद्भुत था
 इस पूरे समय में
 उस हत्यारे तक के लिए।’
एक अद्भुत राजनीतिक चेतना से लैस है कवि। इसमें बिहार प्रदेश के आमजन की सोच को भी समझने का प्रयास किया है और समसामयिक राजनीति पर बड़ा कटाक्ष भी है---
‘यह बड़ा भारी आयोजन था
 उनके द्वारा  भव्य और अंतर्राष्ट्रीय भी
 इसलिए कि इस महाआयोेजन में
 जनतंत्र को हराया जाना था
 भारी बहुमत से
 मित्रों, निकलो अब इस घर से
 अब यहां न जन है न जनतंत्र!’
तो शहंशाह आलम की कविता में एक तरफ कोमल शब्दावली है तो दूजी तरफ अनायास गूंजता सटायर है जोे कवि को अपने समय का सजग कवि बनाने में सक्षम है।
इस समय की पटकथा: शहंशाह आलम / 2015 
पृ. 130  मूल्य 150 प्रकाशक शब्दा प्रकाशन, 63 एमआईजी हनुमान नगर पटना बिहार


इस रूट की सभी लाइने व्यस्त हैं : सुशांत सुप्रिय 

शब्द-विरोधी समय में हिन्दी जगत में कविताओं का टोटा नहीं है। बिना किसी औपचारिकता के कवि अपनी अभिव्यक्ति के बल पर पाठकों से सम्वाद करने की मुहिम छेड़े हैं। चूंकि लड़ाई एक-आयामी नहीं है, दुश्मन भी बहुरूपिये हैं तो फिर कविता ही ऐसा औज़ार बनती है जिससे कवि अपनी पीड़ा, विडम्बना और उत्पीड़न से लड़ना चाहता है। यही कारण है कि आज छपी कविता भी दीख जाती हैं और आभाषी संसार में भी कविता ही एक-दूसरे को जोड़े रक्खी है। इस कठिन समय में हिन्दी कविता आलोचकों की धता बताकर अपने लिए एक सहज फार्म भी खोज रही है।
इस सदी में यांत्रिकता और कृत्रिमता से जूझते आम आदमी के जीवन में विकल्पहीनता को चैलेंज करती कविताएं इस संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं। सुशांत सुप्रिय की कविताएं हाशिए के लोगों के साथ मज़बूती से खड़ी होती हैं। शिल्प और संवेदना के स्तर पर कविताएं प्रभावी हैं।
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं: सुशांत सुप्रिय: मूल्य 335.00
अंतिका प्रकाशन, सी-56//यूजीएफ 4, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद, उप्र

Saturday, November 21, 2015

हि्मतरू : गणेश गनी की कविताओं पर केद्रित अंक


जब बिना विरासत जाने हिंदी में कविताई एक संक्रामक रोग की तरह बढ़ रही है, ऐसे गैर-ज़िम्मेदार समय में पूरी ज़िम्मेदारी के साथ हिंदी कविता की लोकोंमुखता को बरक़रार रखते हुए कविताएँ लिखी जा रही हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और दूजे कवि के बीच का संवाद भर नहीं हैं. कविताएँ बेशक एक कवि और एक संपादक के बीच समझ का आदान-प्रदान भर नहीं हैं. कविताएँ अपने समय, परिवेश और सामाजिक चेतना को भावनात्मक रूप से महसूस कर लिखी जाती हैं और वृहद् पाठक/ श्रोता के साथ संवाद करने की लालसा रखती हैं तब उन कविताओं का महत्त्व है. 
ऐसी कविता पढना सुखद लगता है, जिसमें कवि पूरी ज़िम्मेदारी के साथ महसूस कर रहा है कि समाज, लोक, परिवेश और सोच-सरोकार के परिस्कार के लिए किन मुद्दों को स्पर्श किया जाए. आज सबसे बड़ी ज़रूरत है आत्मसुख का परित्याग और दूसरों के प्रति सहिष्णुता...ये बड़ी सस्कारी बातें हैं, और कुल्लू हिमाचल प्रदेश से निकलने वाली पत्रिका ‘हिमतरु’ का अक्टूबर २०१५ अंक ने कविता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए गणेश गनी की सशक्त कविताओं पर केन्द्रित अंक निकाला है. 
‘घुट रही है हवा’ कविता में पृथ्वी पर प्रेम बरसाने की लालसा उमड़ रही है: 
एक पौधे ने कहा / आज ज्यादा पानी देना भाई/ मेरी गांठों से कोंपलें फूटने को हैं....
कितनी मासूम मदद की उम्मीद एक बेजुबान पौधे की है, क्योंकि----‘कल और फूल खिलेंगे/ और प्रेम बरसेगा पृथ्वी पर.’ तो ये है कविता जिसमे कवि जानता है कि बिना शुरुआत किये कोई काम अंजाम तक नहीं पहुँचता. और जब हम दुनिया को सवर्ग बनाने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, तब अपना थोडा सा योगदान / अंशदान नहीं करना चाहते.
‘पितर माओट करेंगे’ कविता तो जैसे चेतावनी देती है: ‘प्रश्न उठेंगे/ इंसानों की मुड़ी-तुड़ी संवेद्नाओं पर / पनघट के पानी के सूखने के कारणों पर / प्रश्न उठेंगे/ रिश्ते की शैवालों से उठती/ तेज़ हवाओं पर.’
स्मार्ट-सिटी बनने का दिवा-स्वप्न दिखाने वाली व्यवस्था से कितना बड़ा आदिम सवाल किया गया है---‘पता नहीं क्यों अब उम्र कम हो गई है / बर्फ और अन्न की ढेरियों की....’ और----‘इन दिनों बढ़ी हुई चंद मिटटी वाली छतें / हैरान हैं और उदास भी/ बस खालीपन है / न फसलें, न बच्चे / किसान मजदूरी पर गया है / और बच्चे शहर/ दंतकथाएं धीरे-धीरे पलायन कर रही हैं/ छतों पर उगी घास कह रही है / इस बार खेल उसने जीता है / और बच्चे हार गये हैं (घुरेई कहाँ नाचेगी)
जो बिम्ब प्रतीक गायब हो रहे हैं, गणेश गनी की कविताओं में बरबस अनायास ही आते हैं और पाठक की चेतना को झकझोरते हैं. बाज़ार और वैश्वीकरण की आंधी में किसान और खेत किस तरह से विकासशील देशों के लिए शोषण का केंद्र बने हैं और विश्व-राजनीति किस तरह से इनकी अनदेखी कर रही है उसकी बानगी देखिये---‘अब बैलों के गले लगकर/ खींचना चाहता है हल/ और खेत की हथेली पर/ किसान की किस्मत की लकीरें’ 
शिल्प का कसाव कवि की तैयारी बताता है कि कविताएँ यूँ ही नहीं लिखी गई हैं बल्कि इनके पीछे कवि की विकट चिंताएं दीखती हैं---‘जितना ज़रूरी है / आग का जलते रहना/ उनता ही ज़रूरी है / आग का बुझे रहना..’ (आग) जिसमें एक आग असहमति, संघर्ष, प्रतिरोध, जनांदोलन की आग है और दूजी आग शोषण, दमन, उत्पीड़न, अन्याय की आग है...पाठकों को सजग, सचेत करना कवि का कर्तव्य है और वो उसमे सफल भी है.
कृत्रिमता और यांत्रिकता ने इंसान को रोबोट बना दिया है. बाज़ार ने उसे एक खरीददार में तब्दील कर दिया है और जैसे इस आपा-धापी में भूल चूका है इंसान अपना वजूद---‘जब से उतारे हैं / उसने अपने सारे मुखौटे/ लोग कहते हैं/ तुम्हें कहीं देखा है / शायद पाठशाला जाते/ शायद भेड़ें चराते/ शायद हल चलाते/ शायद रास्ता बनाते/ शायद लोकगीत गाते (चेहरे) 
बेशक आज ज़रूरत है बिना कुछ मांगे अपने समय को संजोने की...अपनी विरासतों के अनमोल धरोहरों के संरक्षण की.---‘खिड़की पर रखा गुल्लक / न ब्याज देता है / और न कमीशन लेता है. (हवा को जाने नहीं देगी)
संवेदनहीनता से भयभीत है कवि गणेश गनी. यह शुभ संकेत नहीं है. सिर्फ जीतने के लिए खेलना ही जब लक्ष्य हो गया हो अब वो चाहे कम्प्यूटर या मोबाइल की स्क्रीन पर खेला जा रहा हो, खेल के मैदान में खेला जा रहा हो, राजनीती में खेला हो रहा हो या फिर बर्बरता के खेला जाने वाला खेल हो...हर खेल में सिर्फ और सिर्फ जीत की आकांक्षा ने इंसानों के अन्दर संवेदनहीनता बढ़ाई है.----‘संवेदनहीन समाजों वाला देश / संवेदनहीन देशों वाली पृथ्वी/ सोचो कैसी होगी दुनिया / सोचते ही ह्रदय / डूबने सा लगता है.’ 
गणेश गनी की कविताओं में लोक से विमुखता के प्रति गहरी चिंताएं मुखर हैं. शहर के स्लम्स में बजबजाने की लालसा पाले लोगों का गाँव से पलायन कवि को बेचैन करता है. गाँव यानी माँ यानी अपनी जड़ों से कटकर इंसान जो शहरों के हाशिये में दीखता है कितना बेचारा लगता है जैसे उसे किसी का अभिशाप लगा हो...और शापग्रस्त ही उसे शहर के कोनों में विलीन हो जाना हो...और यही कारण है कि---‘ अब गाँव में बच्चों की संख्या / धीरे-धीरे कम होने लगी है (हुआ जब सयाना) 
फासीवाद के बढ़ते प्रभाव से कवि सचेत है. शब्द और सृजक इंसानी समाज के लिए कितने जरूरी हैं इसे कवि से ज्यादा कौन समझ सकता है? ----‘शब्द कहीं हथियार न बन जाएँ/ इसीलिए वे चाहते हैं/ शब्दों को मार डालना / जुबान काट डालना / या कम से कम / शब्दों के अर्थ ही बदलना...’ (धारा १४४)
तो फासीवाद हर संभव प्रयास करता है अभिव्यक्ति को कुचलने के लिए. इसके लिए वह भी तैयार करता है अपने साम्राज्य की सलामती के लिए बुद्धिजीवियों की खेप...ऐसी खेप हर युग में, हर समाज में बड़ी प्रमुखता से पाई जाने लगी है और बेशक---‘आज शब्दों पर / प्रहार हो रहे हैं/ शब्द टूट रहे हैं/ मृत हो रहे हैं/ वे संवाद नहीं कर सकते / आज उनपर / धारा १४४ लगी है...’
यही राजनितिक सजगता कविता को एक हथियार बनाती है जिससे कवि तो लड़ता ही है, विराट पाठक समाज भी इस हथियार से अपने आसपास के दुश्मनों को पहचानने लगता है, और यही कविता का उद्देश्य है और यही कवि की सचेत दृष्टि-सम्पन्नता.
‘हिमतरु’ का गणेश गनी पर कविता केन्द्रित अंक इसीलिए पठनीय है, संग्रहणीय है और सराहनीय है. गणेश गनी के रचना कर्म पर, संकलित कविताओं पर सत्यपाल सहगल, जयदेव विद्रोही, हंसराज भारती, उमाशंकर सिंह परमार, अजीत प्रियदर्शी, राहुल देव और अविनाश मिश्र के आलेख भी हैं जो गणेश गनी की कविताई के कई पक्षों को उजागर करते हैं. 
एक उत्कृष्ट अंक के संपादन के लिए किशन श्रीमान बधाई के पात्र हैं. 
हिम्तरू : संपादक : किशन श्रीमान : (यह अंक : १५१ रुपये) 
२०१, कटोच भवन, नज़दीक मुख्य डाकघर, ढालपुर, कुल्लू (हि.प्र) 9736500069, 
9418063231








Thursday, November 12, 2015

बाज़ार और साम्प्रदायिकता में फंसे हम


बाज़ार रहें आबाद
बढ़ता रहे निवेश
इसलिए वे नहीं हो सकते दुश्मन
भले से वे रहे हों
आतताई, साम्राज्यवादी, विशुद्ध विदेशी...
अपने मुल्क की रौनक बढाने के लिए
भले से किया हो शोषण, उत्पीड़न
वे तब भी नहीं थे वैसे दुश्मन
जैसे कि ये सारे हैं
कोढ़ में खाज से
दल रहे छाती पे मूंग
और जाने कब तक सहना है इन्हें
जाते भी नहीं छोड़कर
जबकि आधे से ज्यादा जा चुके
अपने बनाये स्वप्न-देश में
और अब तक बने हुए हैं मुहाज़िर!

ये, जो बाहर से आये, रचे-बसे
ऐसे घुले-मिले कि एक रंग हुए
एक संग भी हुए
संगीत के सुरों में भी ढल से गये ऐसे
कि हम बेसुरे से हो गये...
यहीं जिए फिर इसी देश की माटी में दफ़न हुए
यदि देश भर में फैली
इनकी कब्रगाहों के क्षेत्रफल को
जोड़ा जाए तो बन सकता है एक अलग देश
आखिर किसी देश की मान्यता के लिए
कितनी भूमि की पडती है ज़रूरत
इन कब्रगाहों को एक जगह कर दिया जाए
तो बन सकते हैं कई छोटे-छोटे देश

आह! कितने भोले हैं हम और हमारे पूर्वज
और जाने कब से इनकी शानदार मजारों पर
आज भी उमड़ती है भीड़ हमारे लोगों की
कटाकर टिकट, पंक्तिबद्ध
कैसे मरे जाते हैं धक्का-मुक्की सहते
जैसे याद कर रहे हों अपने पुरखों को

आह! कितने भोले हैं हम
सदियों से...
नहीं सदियों तो छोटी गिनती है
सही शब्द है युगों से
हाँ, युगों से हम ठहरे भोले-भाले
ये आये और ऐसे घुले-मिले
कि हम भूल गये अपनी शुचिता
आस्था की सहस्रों धाराओं में से
समझा एक और नई धारा इन्हें
हम जो नास्तिकता को भी
समझते हैं एक तरह की आस्तिकता

बाज़ार रहें आबाद
कि बनकर व्यापारी ही तो आये थे वे...
बेशक, वे व्यापारी ही थे
जैसे कि हम भी हैं व्यापारी ही
हम अपना माल बेचना चाहते है
और वे अपना माल बेचना चाहते हैं
दोनों के पास ग्राहकों की सूचियाँ हैं
और गौर से देखें तो अब भी
सारी दुनिया है एक बाज़ार
इस बाज़ार में प्रेम के लिए जगह है कम
और नफरत के लिए जैसे खुला हो आकाश
नफरतें न हों तो बिके नहीं एक भी आयुध
एक से बढ़कर एक जासूसी के यंत्र
और भुखमरी, बेकारी, महामारी के लिए नहीं
बल्कि रक्षा बजट में घुसाते हैं
गाढे पसीने की तीन-चौथाई कमाई

जगाना चाह रहा हूँ कबसे
जागो, और खदेड़ो इन्हें यहाँ से
ये जो व्यापारी नहीं
बल्कि एक तरह की महामारी हैं
हमारे घर में घुसी बीमारी हैं....

प्रेम के ढाई आखर से नहीं चलते बाज़ार
बाज़ार के उत्पाद बिकते हैं
नफरत के आधार पर
व्यापार बढाना है तो
बढानी होगी नफरत दिलों में
इस नफरत को बढाने के लिए
साझी संस्कृति के स्कूल
करने होंगे धडाधड बंद
और बदले की आग से
सुलगेगा जब कोना-कोना
बाज़ार में रौनक बढ़ेगी