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Tuesday, March 27, 2018

हममें से हैं ये लोग

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कान बंद कर लेने से
सिर्फ हम ही न सुन पायेंगे न
लेकिन चीख-पुकार यूँ ही जारी रहेंगी
आँख बंद कर लेने से
हमें कुछ न दिखेगा 
लेकिन हिंसा और आगजनी के दृश्य
संसार से ओझल तो न हो पाएंगे
हम भीड़ का हिस्सा नहीं बनते
लेकिन इन भीड़ इकट्ठी करने वालों को
चुपचाप दे बैठते हैं चंदा
बगैर जाने-समझे कि इस रकम से
नफरतें भड़काने के औजार खरीदे जाते हैं
इस इमदाद से उत्पात और उद्दण्डताएँ जुटाई जाती हैं
अपनी सुख-सुविधामय जीवन में
हम किसी तरह का पंगा नहीं लेना चाहते
और क्या हम इस तरह इन उपद्रवियों को
आगे आने का मौका मुहैया नहीं कराते हैं?
इसीलिए दोस्त तुमसे कहता हूँ
यह प्रयोग ठीक नहीं
आँख-कान खुला रखें हम
आखिर इस माहौल को बदलना है हमें
बेशक, यह उपद्रवी आयातित नहीं हैं
हममें से हैं ये लोग
हम दूर रहना चाहते हैं इन सबसे
और इसीलिए ये लोग हमसे दूर होते जा रहे हैं

Friday, March 23, 2018

नगर के बीच घर अपना...




नगर के बीच घर है अपना
लेकिन अब उस घर में घुसने से डरता हूँ
जो हमारा घर हुआ करता है
इस घर के बाहरी गेट से लेकर अन्दर आलमारियों तक की
सभी चाभियाँ हैं हैण्ड-बैग में
मुझे मालूम है कि ये मेरा ही घर है
मेरा अपना घर
इस घर में मेरी नाल गड़ी है
इसमें जब चाहूँ घुस सकता हूँ
जब चाहे निकल सकता हूँ
मेरी मर्ज़ी इसमें चाहे हमेशा के लिए बस जाऊं
या कि ऐसे ही लावारिस पड़ा रहने दूँ
किसी को क्या फर्क पड़ता है
लेकिन फिर भी जाने क्यों
उस घर में जाने से शरमाता हूँ, डरता हूँ


नगर के बीच घर होना
कितना होता है महत्वपूर्ण
यह बताया करते थे पिता
कोई सामान इकट्ठा करके रखने की जरूरत नहीं
जब जी चाहा खट से गए पट से ले आये
दूध, फल, सब्जी, दवा, जलेबी, समोसा
और तब घर इतने अधिक दरवाजों और तालों वाला भी नहीं था
गली से आंगन तक बेरोक-टोक आ-जा सकता था कोई भी
फटकी वाली रसोई में भी कोई खटका नहीं
बस, सोने वाले कमरे पर जर्जर दरवाज़ा
जिस पर कभी-कभार ही लटक पाता एक सस्ता ताला
( जिसे बचपन में बहनों की हेयर-क्लिप खोल लिया करता था)


जब यह छोटा सा घर था तब बहुत से लोग बसते थे यहाँ
अब यह मकान है, इसीलिए सुनसान है
अम्मी कहाँ चाहती थीं कि मेहमान अपने तय समय पर लौट पाए
अरे, आज भर और रुक जाइए!
अभी आपने मेरे हाथों की मछली कहाँ खाई है
ऐसे ही कई दिन और रुक जाते थे मेहमान
पैसे की तंगी में आत्मीयता की आंच रहती है
सुख-सुविधाएँ अतिथि बर्दाश्त नहीं कर पातीं
वही घर अब कई वीरान कमरों का मकबरा सा है
कोई आहट नहीं, कोई खुशबु नहीं
ड्राइंग रूम की दीवाल घड़ी बंद पड़ी है
अब्बा की मौजूदगी के सन्नाटे में इस घडी के कांटे की टिक-टिक
किसी हथौड़े के चोट की तरह बजती रहती थी
अब इन घड़ियों की टिक-टिक कहाँ सुनाई देती है
इतना शोर है, इतनी आवाजें हैं इतनी व्यग्रता और बेचैनियाँ हैं
कि इंसान जैसे बहरा होता जा रहा है

अम्मी के न रहने पर घर पर वीरानी ने डेरा जमा लिया था
अब्बा कुछ दिन अकेले ही अकड़ में जीते रहे
लेकिन बुढ़ापा सहारा खोजता है और सहारे आज़ादी छीन लेते हैं
अब्बा बेटे-बेटियों के घर पारा-पारी दिन गुज़ारने को अभिशप्त हो गये
और नगर के ह्रदय में बसा उनका मकान
मकड़ियों, तिलचट्टों का बन गया अड्डा

मैं कार का शीशा उतारकर निहार रहा हूँ अपना घर
इतवार की दुपहर है ये सड़क सुनसान है
लोग अपने घरों में आराम कर रहे हैं
मुझे ख़ुशी है कि किसी ने मुझे देखा नहीं
और शीशा चढ़ाकर मैंने कार रिवर्स कर ली
इस घर में घुस पाने की हिम्मत मुझमे जाने कब आये?

Tuesday, March 13, 2018

किसान के पाँव

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उखड़ी हुई चमड़ी वाले खून-आलूदा 

पैर के तलवे की तस्वीरों ने जैसे 
सोख लिए हों अचानक जीवन से 
तमाम तरह के रस और आस्वाद 
बेहद कडुवा-कसैला और चिडचिडा 
होता गया है मन और मिजाज़
ऐसे में आज के दिन दोस्तों
बेहतर है खामोश ही रहा जाए...
(महाराष्ट्र के किसानों की पदयात्रा संघर्ष)


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   इसी तारतम्य में कुछ और विचार :
भक्त परेशान हैं कि कोई तमाशा न हुआ
ये कोई भीड़ नहीं थी महज़ इक आंधी थी
हक़ की यह जंग अभी और लड़ी जायेगी
धरती-पुत्रों ने फ़कत राह तलाशी है अभी।
(किसान आंदोलन, मार्च २०१८)

Sunday, March 11, 2018

डिजिटल समय में किताबें

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डिजिटल समय में
पत्रिकाएं-किताबें हो गईं कितनी गैर-ज़रूरी
अनुपपुर के प्लेटफार्म नम्बर एक पर
किताबों की दूकान कितना आकर्षित करती थी
रंग-बिरंगी हर रूचि की सस्ती-महंगी किताबें
उस बुक-सेलर से मुझे हमेशा ईर्ष्या होती
कितनी सारी किताबों का खजाना इसके पास होता है
कितना ज्ञान होगा इसके पास
उस समय हम कसबे में पच्चीस पैसे रोज़ के किराये पर
घर लाया करते थे राजन-इक़बाल सिरीज़ की किताबें
हिन्द पाकेट बुक्स का उत्कृष्ट साहित्य
बच्चों की पत्रिकाएं और बाद में गुलशन नंदा के नावेल
ऐसे समय में बुक-स्टाल कितने जरूरी हुआ करते थे
चाहे कहीं भी जाना हो, अनुपपुर होकर ही जाना होता है
घर लौटते वक्त अम्मी के लिए तब यहाँ मिल जाती थी
उर्दू माहनामा बीसवीं सदी और इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया
भांजी के लिए पराग, नन्दन और चंदामामा
इन स्टालों में बिकते थे एक साथ
वर्दीवाला गुंडा और गोदान
हंस, दिनमान और मनोहर कहानियां, अंगड़ाई
पीली पन्नियों से ढंकी-छुपी यौन-ज्ञान की किताबें
यह वह समय था जब
कोई गूगल अंकल बच्चों या किशोरों को ज्ञान नहीं बांटता था
ज्ञान हासिल करने के लिए किताबें ही हुआ करती थी साधन
इसी अनुपपुर स्टेशन पर अड़ जाती थी बिटिया
जब छोटी थी तब जिद करके
खरीदा करती थी ढेर सारी कामिक्स
आज भी बिटिया साथ है लेकिन वह
अपने फोरजी सेट पर उँगलियाँ दौड़ा रही है
आजकल ज़रूरी है अनलिमिटेड डाटा पैक
और लम्बे समय का बैटरी बैक-अप
फिर जैसे रिश्ते-नाते, दुलार-प्यार की ज़रूरत नहीं
मेरी आँखें बड़ी शिद्दत से तलाश रही है बुक-स्टाल
अब वहां कोई बुक-स्टाल नहीं है
उसकी जगह चाय-काफी, बिस्किट-नमकीन की दूकान देख
एकबारगी ऐसा लगा जैसे
सब कुछ कितनी तेज़ी से बदलता जा रहा है......
(अनुपपुर स्टेशन 6 मार्च 2018)

Tuesday, March 6, 2018

संस्कारी मूर्ति-भंजक

























बामियान में तालिबान ने
गिराया था चुपचाप खड़े बुद्ध को
हमने भी गिरा दी प्रतिमा लेनिन की ।
अब कोई ये समझने की भूल न करे
कि हम बुतशिकन नहीं 
बस, हमें न समझो
उन्मादी, हिंसक या बर्बर
हम संस्कारी हैं
सह्रदय, सहिष्णु हैं
और
और
डरो मत
इतना ज्यादा कि हम
जो ठान लेते हैं करते ही हैं
हां ये बात भी तय है
कि यह वक्त अब किसी और का नहीं है ।।।।




Monday, March 5, 2018

कैसे कह दें कि हम भी खुश हैं

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कैसे कह दें कि हम भी खुश हैं
रोज़ इक इम्तिहान देते हैं
और हर शाम फैल हो-होकर
ग़म के झुरमुट में गुम हो जाते हैं
मायूसियां पीछा छोड़ती नहीं
खामोशियां चीखना चाहे हैं
बड़बोलों ने समय को हाय साध लिया
कुछ दबंगों ने रस्ता रोक लिया
झिलमिल सी उम्मीदें भी साथ न दें तो
आप कहिये कि हम कहां जाएं।।।