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Sunday, March 11, 2018

डिजिटल समय में किताबें

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डिजिटल समय में
पत्रिकाएं-किताबें हो गईं कितनी गैर-ज़रूरी
अनुपपुर के प्लेटफार्म नम्बर एक पर
किताबों की दूकान कितना आकर्षित करती थी
रंग-बिरंगी हर रूचि की सस्ती-महंगी किताबें
उस बुक-सेलर से मुझे हमेशा ईर्ष्या होती
कितनी सारी किताबों का खजाना इसके पास होता है
कितना ज्ञान होगा इसके पास
उस समय हम कसबे में पच्चीस पैसे रोज़ के किराये पर
घर लाया करते थे राजन-इक़बाल सिरीज़ की किताबें
हिन्द पाकेट बुक्स का उत्कृष्ट साहित्य
बच्चों की पत्रिकाएं और बाद में गुलशन नंदा के नावेल
ऐसे समय में बुक-स्टाल कितने जरूरी हुआ करते थे
चाहे कहीं भी जाना हो, अनुपपुर होकर ही जाना होता है
घर लौटते वक्त अम्मी के लिए तब यहाँ मिल जाती थी
उर्दू माहनामा बीसवीं सदी और इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया
भांजी के लिए पराग, नन्दन और चंदामामा
इन स्टालों में बिकते थे एक साथ
वर्दीवाला गुंडा और गोदान
हंस, दिनमान और मनोहर कहानियां, अंगड़ाई
पीली पन्नियों से ढंकी-छुपी यौन-ज्ञान की किताबें
यह वह समय था जब
कोई गूगल अंकल बच्चों या किशोरों को ज्ञान नहीं बांटता था
ज्ञान हासिल करने के लिए किताबें ही हुआ करती थी साधन
इसी अनुपपुर स्टेशन पर अड़ जाती थी बिटिया
जब छोटी थी तब जिद करके
खरीदा करती थी ढेर सारी कामिक्स
आज भी बिटिया साथ है लेकिन वह
अपने फोरजी सेट पर उँगलियाँ दौड़ा रही है
आजकल ज़रूरी है अनलिमिटेड डाटा पैक
और लम्बे समय का बैटरी बैक-अप
फिर जैसे रिश्ते-नाते, दुलार-प्यार की ज़रूरत नहीं
मेरी आँखें बड़ी शिद्दत से तलाश रही है बुक-स्टाल
अब वहां कोई बुक-स्टाल नहीं है
उसकी जगह चाय-काफी, बिस्किट-नमकीन की दूकान देख
एकबारगी ऐसा लगा जैसे
सब कुछ कितनी तेज़ी से बदलता जा रहा है......
(अनुपपुर स्टेशन 6 मार्च 2018)

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