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Saturday, June 9, 2018

दोस्तियाँ और कडुवाहटें



क्या हो गया हम सभी लोगों को
हम तो ऐसे नहीं थे 
एक दूसरे से कर लेते थे
ऐसे बेदर्द मजाक कि बुरा लगना लाजिमी होता
लेकिन कोई कभी नहीं मानता था बुरा
हम अक्सर हंसा करते थे
निकालते थे एक दुसरे की कमियाँ
खोजा करते थे इक-दूजे के जात-धरम में बुराइयां
तानों-उलाहनों के वार यूँ ही झेल जाते थे
हम कितना जल्दी भूल जाया करते थे
रिश्तों में पैदा हुई खटास को
इस तरह फिर से मिल जाते थे जैसे शिकंजी-शरबत

चाहे कुछ भी हो जाए 
हम फिर-फिर मिलते ज़रूर थे
और इस तरह मिलते थे
जैसे मिले हों एक मुद्दत बाद
रिश्तों में एक नई ताजगी के साथ

अब इधर कुछ अरसे से
हम मिलते तो हैं लेकिन वैसे बेबाक नहीं हो पाते
एक-दूजे को देखते कि आँखों में परायापन लिए
जाने क्यों इधर इस बीच
हम अक्सर बात-बेबात, बाल की खाल निकालकर
झगड़ पड़ते और उस मुद्दे को दफ़न करने का
नहीं करते कोई प्रयास
हम चाहते हैं कि बची रहे तकरार की गुंजाईश

कितने तीखे होते जा रहे हैं हम
दोस्तियों में गालियाँ अब बर्दाश्त नहीं करते हम
गालियाँ हमें वजूद में पेवस्त होती लगती हैं
हम आक्रामक भी होते जा रहे हैं और हिंसक भी
सयाने कहते हैं कि दोस्ती नजरिया गई है
कोई है गुनी जो नज़र उतारने का जानता हो टोटका
कि इस तरह जीने कितना बेमजा है यार!

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