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Thursday, July 19, 2018

कवि बेशक एक सृष्टा ही होता है.....


दिल्ली की सेल्फी साप्ताहिक में प्रकाशित इंटरव्यू : अनवर सुहैल से कवि नित्यानंद गायेन की बातचीत
nityanand gayen

कवि / उपन्यासकार एवं संपादक के तौर पर अबतक का सफ़र
अभिव्यक्ति की बेचैनी विधागत स्वतंत्रता देती है. विधाएं बदलतीं हैं लेकिन बातें/ चिंताएं वही बनी रहती हैं जिनसे चेतन/अचेतन परेशान रहे आता है. ये बेचैनियाँ ही रूप बदल-बदल कर, टूल्स बदल-बदलकर अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करती रहती हैं. अब चाहे कविताएँ आकार ले लें या कहानियां, उपन्यास आकार ले ले या कि लघुपत्रिका के रूप में संकेत के अंक छप कर मंजरे-आम हो जाएँ. मेरे अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी चाहे जिस फॉर्म में आये, मुझे आगे ले जाती है. मैं जानता हूँ कि मेरी ट्रेन निर्धारित समय से लेट चल रही है, लेकिन ये भी जानता हूँ कि अपने गंतव्य तक ये अवश्य पहुंचाएगी, या किसी गलत स्टेशन पर नहीं ले जायेगी. सफर अधूरा भले हो सकता है लेकिन जितना भी रास्ता तय होगा वह परफेक्ट होगा….
मेरी इन बेचैनियों से उत्पन्न उत्पाद बेशक मुझे लोगों से जोड़ते हैं. ये लोग मुझे हमेशा नया रचने की ताकत देते हैं.  मैं वाल्ट व्हित्मन की बात याद रखता हूँ और हमेशा नयों से जुड़ना पसंद करता हूँ. इसी क्रम में संकेत पत्रिका की तयारी भी हो जाती है. ऐसी कविताएँ जो पाठक से सीधे संवादरत हों मुझे बेहद पसंद हैं. हिंदी कविता का ये रूप भले से नकचढ़े आलोचकों को पसंद न आता हो लेकिन ये कविताएँ जो संवाद बनाती हैं, हिंदी कविता को व्यापक जनमानस तक पहुंचा रही हैं.
संकेत के अंक पेजमेकर पर स्वयं तैयार करता हूँ. कवि/चित्रकार कुंवर रवीन्द्र जी के रेखांकन से सज्जित कविताएँ पाठकों को बेहद पसंद हैं. मुझे लगता है कि अपनी रचनाओं में अब मैं खुद को दुहरा रहा हूँ तब लेखनी को विराम देता हूँ और संकेत के अंक तैयार करने लगता हूँ. यह एक अनियतकालीन पत्रिका है. मैं बिजुरी जिला अनुपपुर में रहता हूँ और यह एक पिछड़ा इलाका है. यहाँ डाकघर है रेलवे स्टेशन है और दो छोटे प्रिंटर्स हैं. जब मैं खुद कुछ नहीं लिख रहा होता हूँ तब या तो पढ़ रहा होता हूँ या फिर संकेत के अंक के लिए बेचैन रहता हूँ. संकेत की कविताएँ पाठक पसंद करते हैं. इसके अंकों में अब तक कई कवि छप चुके हैं जिन्हें आज भी गर्व होता है कि वे संकेत के कवि हैं.
इसका कारण है कि मैंने संकेत के माध्यम से कविता के नए पाठक तैयार किये हैं. दूसरी बात ये है कि संकेत की कविताएँ पढ़ी जाती हैं, ये कविताएँ पाठकों से संवाद करती हैं.
तो मैं कोयला खदान की नौकरी के बाद घर-परिवार की जिम्मेदारियों को निपटाकर अपनी नींद में से कुछ समय चुराता हूँ और खुद को अभिव्यक्त करने में मगन रहता हूँ.

साइबर युग में क्या कवि भी डीजीधन की तरह अपनी भावनाओं में   डिजिटल हो रहे हैं ?
डिजिटल होना युग की ज़रूरत है. यूनिकोड आ जाने से हिंदी लिखना-पढना आसान हो गया है. साइबर स्पेस का इस्तेमाल भ्रष्टाचारी, आतंकवादी करते हैं तो क्यों न हिंदी का लेखक भी इस माध्यम का उपयोग कर एक बृहत् नव-पाठक वर्ग से जुड़े. आज हिंदी में बहुत सी ऎसी साइट्स हैं जो हिंदी लेखन को प्रकाशित कर रही हैं और एक बड़े पाठक वर्ग से जोड़ रही हैं. लेखक अब नामी पत्रिकाओं और प्रकाशकों का मोहताज नहीं है.
अब वो जमाना नहीं रहा कि हिंदी सीखने के लिए चंद्रकांता संतति पढ़ी जाए.  पुस्तकालयों की जगह अब अधिकाँश नागरिकों के हाथ में ई-लाइब्रेरी है. इस ई-लाइब्रेरी की सुविधा ई-पाठक उठा रहे हैं तो लेखक क्यों इस माध्यम से दूर रहे?
हाँ, हिंदी लेखन के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा का नितांत अभाव था, सो डिजिटल माध्यम में भी ऐसी दिक्कतें हैं. गुरुओं ने शायद शिष्यों के अंगूठे माँगा बंद नहीं किया होगा सो हिंदी में शिष्य देश-विदेश का उपलब्ध साहित्य पढ़कर हिंदी में लेखन करता है. और लेखक के पास अपना लोक, अपना परिवेश, अपनी विरासत भी की पूँजी भी होती है. इस लोक को गुनकर या फिर बेचकर लेखक नाम कमाते रहते हैं.
एक जमाना था जब महानगरों में काफी-हाउस हुआ करते थे जहाँ स्टार लेखक आते थे और नये लेखक उनसे मिलते-जुड़ते थे. कितने लोगों को ये अवसर मिल पाता होगा तब? आज सोशल साइट्स में बड़े लेखक मौजूद हैं जिनसे गाँव-गिरांव का लेखक/पाठक सीधे संवाद कर ले रहा है. यह एक बड़ी सहूलत मिली है, और इस माध्यम से बेशक लोक-शिक्षण भी हो रहा है. मैं मप्र की सीमा पर एक कोयला खदान में काम करता हूँ. यह साइबर स्पेस है जो मुझे देश दुनिया से प्रतिदिन जोड़े रखता है. इस डिजिटल युग में मेरी भावनाओं पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा है तो बेशक इस माध्यम का स्वागत होना ही चाहिए.

संवेदना विहीन समाज का दायरा लगातर फ़ैल रहा है , इसका क्या कारण है ?
बढती आबादी, बेरोज़गारी, भूख-गरीबी से उत्पन्न अवसाद से पूरे विश्व का एक बहुत बड़ा वर्ग प्रभावित है. सिर्फ मुट्ठी-भर लोगों को सुविधाएँ और अनुकूलताएँ नसीब हो रही हैं. गरीब-अमीर के बीच खाई बढती जा रही है. इसका सीधा असर इंसान की सम्वेदनाओं पर हो रहा है. दुखी लोगों की बढती जमात किंकर्तव्यविमूढ़ सी जूझ रही है. बाज़ार में इंसान एक खरीदार बन कर रह गया है और सब कुछ बिकते हुए समय में कुछ भी न खरीद पाने वालों का दुःख बढ़ता जा रहा है. ये दुःख समाज में गरबीली गरीबी की जगह संवेदन-हीनता को बढ़ा रहा है.
इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित है युवा वर्ग. इस वर्ग को रोज़गार चाहिए. काम चाहिए. स्वावलम्बन चाहिए. संविधान सम्मत तमाम उपाय इन युवाओं को देश का नागरिक बनाये रख पाने में असमर्थ हैं. पढ़े-अनपढ़ इन युवाओं की प्राथमिकता अब फ्री डाटा-पैक हो गई है. राजनितिक संस्थाएं इन युवाओं को गुंडा / लूम्पेन की तरह इस्तेमाल कर रही हैं और आतंकवादी/ फासीवादी ताकतें इन युवाओं को धर्म की अफीम चटा कर उन्माद और दंगों का हथियार बना रही हैं….
वाकई ये ऐसा समय जहाँ सम्वेदनायें दम तोड़ रही हैं और बर्बरता फल-फूल रही है….

हिंदी साहित्य में ठेलो -धकेलो की परम्परा ने जो नई रफ़्तार पकड़ी है , उसे आप किस तरह से देखते हैं ?
हर युग में ऐसे लोग होते हैं जो जेनुइन की जगह नकली लेखन को बलजबरी प्रोत्साहित/ स्थापित करते रहते हैं लेकिन इससे जेनुइन लेखन का कोई नुक्सान नहीं होता. जेनुइन लेखन ही कालजयी होता है. बकौल मुक्तिबोध--अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले लेखकों के लिए पाठक/प्रशंसक आदि पाना आसान होता है. नकली चिंताएं और नकली क्रांतियों के भेद ज्यादा दिन नहीं छुपे रह सकते हैं. असली लेखन ही स्थापित होता है. लेखक को अपनी लेखनी पर भरोसा होना चाहिए न कि ठेल-धकेल कर स्थापित होने का उपक्रम करना चाहिए.
तालियाँ / वाह-वाहियाँ जेनुइन लेखन की राह में रोड़े अटकाती हैं. गुपचुप साधना का कोई विकल्प नहीं है और यह भी सत्य है कि जो रचेगा वही बचेगा. बाकी सब कुछ समय भुला देगा.
कई गिरोह बनते-बिगड़ते रहते हैं जो शॉर्टकट रास्ते के राही लेखकों पर अटैक करते हैं और उन्हें अपनी गिरफ्त में लेकर धंधेबाजी करते हैं लेकिन इन गिरोहों के निशाने पर कुछ जेनुइन लेखक भी होते हैं जो गाइडेंस के अभाव में गुमराह होते हैं. अब लेखक को स्वयं सचेत रहना है और ‘अहो रूपम, अहो ध्वनि!’ के वाग्जाल से मुक्त होना है.
हाँ, नव-लेखन को मिसगाइड नहीं बल्कि प्रोमोट करना ज़रूरी है. ये नए लोग आखिर हिंदी लेखन के क्षेत्र में क्यों आ रहे हैं? इनकी क्या कोई मजबूरी है या फिर इन्हें यही एकमात्र ऐसा माध्यम मिला है जिससे ये खुद को स्वतन्त्र रूप से अभिव्यक्त कर लेते हैं. तो इन नये लिखने वालों पर विकट आलोचकीय कुल्हाड़ी न चला कर इनके लेखन को दशा-दिशा देने वाले सुझाव आने चाहिए. उनके लिखे का सम्मान होना चाहिए क्योंकि प्रख्यात लेखक या आलोचक बनने से पूर्व आप भी तो एक पाठक ही थे और फिर धीरे से एक नवलेखक भी थे. तब किस तरह से आपके पूर्ववर्ती लेखकों ने आपको प्रोत्साहित किया था उसे भूलें नहीं. इस तरह ठेलो-धकेलो परंपरा के लोग खुद-बखुद मुंह के बल गिर जायेंगे.


कविता का सौन्दर्यशास्त्र क्या है ?
सौन्दर्य-शास्त्र जैसे प्रश्नों से मैं बचना चाहता हूँ. कविता का सौन्दर्य शास्त्र जैसा प्रश्न सुनकर ऐसा लगता है कि कोई कहीं बिरयानी का सौन्दर्य-शास्त्र या फिर जुताई-बोआई का सौदर्य शास्त्र जैसे सवाल क्यों नहीं बनाता है? अरे भाई, कविता अभिवयक्ति का एक फॉर्म है और इसमें अनुशासन है भी और नहीं भी है. ये कवि और पाठक के बीच का रिश्ता है. इसमें किसी मध्यस्थ की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. इन मध्यस्थों ने कविता का बड़ा नुक्सान किया है. लय,छंद, रस, अलंकार, शाब्दिक चमत्कार जैसे प्रयोगों के लिए कविता सवतंत्र है. हिंदी कविता संस्कृत, अवधि, ब्रज, भोजपुरी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी जैसी भाषाओँ की कविताओं की समृद्ध परंपरा को साभिमान साथ लेकर चल रही है और सबसे ज्यादा हिंदी में आज कवि हैं और प्रति वर्ष कविता की अनगिनत किताबें छपती हैं. ऐसे में कविता के सौन्दर्य-शास्त्र के बौद्धिक आतंक से कवियों को मुक्त रहना चाहिए.
भूमिगत कोयला खदान की अँधेरी सुरंगों के असामान्य वातावरण में, कैप-लैम्प की धुंधली रौशनी से राह तलाशता जब मैं  मीलों  घूमता हूँ तब जीवन का कोई सौन्दर्य शास्त्र मुझे नहीं सूझता. धरती के गर्भ की गर्मी से उग आती है देह में पसीने की बूँदें और खुद के कदमों की आहट से लरजता रहता तन-मन. यही जीवन की सच्चाई है. गृहणी बच्चे को दूध पिलाकर सुलाती है और फिर बच्चे के जागने से पहले किसी सर्कस के कलाकार की तरह एक साथ कई काम पूरी तन्मयता और सम्पूर्णता से करती है. ऐसा ही बड़ा तेज़ रफ़्तार युग है यह, जब कविताएँ लिखी भी जानी हैं, छपी भी जानी हैं और पढ़ी भी जानी हैं.
आभाषी संसार में आकार लेती हिंदी कविता ने जो कविताएँ दी हैं और जिस तरह से ये कविताएँ पढ़ी-सराही जा रही हैं ऐसे में मुझे तमाम यही लगता है कि हमने अपना एक नया सौंदर्यशास्त्र खुद ही गढ़ लिया है. इसे किसी प्राध्यापकीय या अकादमिक आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए.

आज हिंदी आलोचना किस दशा में है ?  
किसी भाषा में जब तक आलोचक अपने समय के लेखन को स्वयं खोजकर नहीं पढ़ेंगे, तब तक जो भी आलोचकीय बातें प्रकाशित होंगी वो संदेह के घेरे में रहेंगी. आज आलोचक के टेबिल में कुछ किताबें पहुँचती हैं या कि पहुंचाई जाती हैं. कुछ लेखक पहुँचते हैं या फिर अनुशंसित होकर पहुंचाए जाते हैं. फिर ये ही किताबें चर्चित होती हैं और यही लेखक. सीधे समझ में आती है बात कि अपने समय में हो रहे जेनुइन लेखन की नब्ज़ को देखना, पढना आलोचना को विश्वसनीय बनाये रखने में मददगार साबित होगा वर्ना आलोचकों की परवाह करता कौन है?
विदेशी विचारों की रौशनी में देशी लोक का छौंक देकर बौद्धिक आतंकी भाषा के आवरण में जो आलोचना परोसी जा रही है, उसी कारण  लेखक कवि आजकल आलोचक की परवाह नहीं करते हैं. किसी भाषा के साहित्य के लिए यह एक अच्छी प्रवित्ति नहीं है, इससे आलोचक और लेखक अलग-अलग राह पकड़ लेते हैं और इस झगड़े में आने वाली पीढ़ी को कोई दशा-दिशा नहीं मिल पाती है. 
क्या कवि बनाये जा सकते हैं ? क्या कविता लिखी जा सकती है या लिख जाती है ?
 मैंने चाहा कि हारमोनियम बजाने लगूं, क्या मेरे चाहने से ऐसा संभव हो पायेगा? 
 हारमोनियम खरीद कर घर में रख लेने से भी मैं उसे बजा नहीं सकता हूँ. सामान्य पेन 
 से खराब कविताएँ और पारकर की पेन से क्या खूब अच्छी कविताएँ लिखी जा सकती हैं?
 ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता कि उसके पास ऐसा विश्वसनीय, उच्च-स्तरीय कारखाना 
 है जहां से साल में इतने कवि बना कर निकाले जाते हैं. आप दरजी बना सकते हैं, बढ़ई,
 वेल्डर, संगीतकार आदि बना सकते हैं लेकिन कवि बनाने का दावा कतई न करें. ऎसी
 खुश-फहमी न पालें कि कोई रसखान बना सकता है, कोई संस्था तुलसीदास या कबीर 
 बना सकती है. कविता तो मेरे लिए किसी आयत से कम नहीं है और कवि बेशक एक 
 सृष्टा ही होता है.....

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