शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

पुख्ता होती दीवारें



एक ------------
कितने भोले हो तुम
जो बड़ी मासूमियत से
चाह रहे समझाना
कि हम नहीं हैं टारगेट
तो कौन है जो हममें से
हर दिन एक कम होता जा रहा है गुपचुप नहीं बल्कि आगाह करके मारने की संस्कृति कैसे ढीठ बनकर आ बैठी संग जितना सोचो उतनी बढती चिंताएं एक नामालूम सा डर साथ चलता हैहमारे दिलो-दिमाग की हार्ड-डिस्क में आजकल
एक खतरनाक वायरस जगह बना चूका है
हमारी नींद पर भी जिसने कर लिया कब्जा
डरावने सपनों की श्रृंखलाएं
झझक कर जगा देती हैं हमें
और तुम कहते हो
कि हम खामखा डरते हैं
भाई मेरे
हम जो तुम्हारे साथ
उठते-बैठते, नाचते-गाते
दुःख-दर्द बांटते और भूले रहते हैं
कि हम पराये नहीं हैं
और बेशक तुम भी तो कभी
यह अहसास नहीं होने देते हो
लेकिन
यह नामुराद लेकिन क्यों बार-बार
आ खड़ा होता हमारे रिश्तों के बीच
आओ ऐसा करें कुछ कि इस
आभाषी दीवार को पुख्ता होने से बचा लें हम
मुझे उम्मीद है कि अब भी शेष है उम्मीदें ........

दो
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यह जानते हुए भी कि
हमारे लिए लड़ नहीं रहा कोई
हम फिर भी एक स्वप्न जीते हैं
और उन लोगों के जीतने की ख्वाहिश रखते हैं
जो दुश्मनों के खिलाफ खड़े होने का
खूबसूरत अभिनय करते दिखलाई देते हैंयह तो तय है कि कोई नहीं हमनवा
हम अपने दुश्मनों को पहचानते हैं
इतने बरसों के साथ का असर है
कि दोस्तों की मजबूरियों से भी वाकिफ हैं हम
हम हर बार ऐसे दुश्मनों को तरजीह देते हैं
जिसके नाखून कम बड़े हों
दांत कम नुकीले हों
और जो प्रहार करे लेकिन बिना मजाक उडाये
हम इज्ज्तों के लिए मरते हैं
तुम अपनी फ़िक्र करो दोस्तों
कि तुम्हें भी पहचानने लगे हैं वे
और ये जानने लगे हैं कि तुम
हर मौसम में हमारे साथ खड़े हो
ऐसा बर्दाश्त करने वाले लोग
लगातार घटते जा रहे हैं
मालूम है न !

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