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Thursday, January 21, 2016

बचपन के दिन : एक

      
डॉ लाल रत्नाकर की पेंटिंग 
           कुछ भी विलक्षण नहीं है बाल-जीवन में सिवाय सृजन के स्वप्न के...
ये एक ऐसा स्वप्न है जो अब भी बेचैन किये रहता है..और यही बेचैनी कुछ नया करने को प्रेरित करती है. एकदम बच्चा था जब तब चार आने में कापी आती थी और चार आने की पेन्सिल. नानी आतीं तो वो बच्चों को अपनी आमद पर खुश होकर आठ आने दिया करतीं. भाई-बहन उन पैसों का क्या करते मुझे याद नहीं लेकिन मैं दौड़ा-दौड़ा मुल्लाजी की किताब दूकान जा पहुँचता. उनकी दुकान से एक कापी और पेन्सिल खरीद लाता...
ये मेरे अक्षर-ज्ञान से पहले के दिन थे...जब बेशक मैं छः साल का नहीं हुआ था. क्योंकि तब छः साल होने पर ही स्कूल में दाखिला मिलता था. तो उस कापी पर पेन्सिल से मैं बड़ी रवानी से गोलम-गुल्लम लिखा करता..बीच-बीच में कुछ आकृतियों को काट भी दिया करता और कुछ आकृतियों के ऊपर लाइन खींचा करता...
छोटा भाई बड़ी उत्सुकता से मेरी हरकत देखा करता और पूछता—‘का कर रहे हो भईया?’
तो मैं गर्व से बताता—‘वकीलों की तरह लिख रहा हूँ...!’
मेरा गृह-नगर तहसील था सो वहां तहसील दफ्तर के बाहर मैं कई बाबुओं को कागज़ पर कलम घिसते देखा करता था.
मुझे लगता कि संसार का सारा ज्ञान इन बाबुओं के पास होगा तभी तो सेठ-महाजन, अधिकारी और अन्य लोग इन बाबुओं के पास बैठकर बड़ी तल्लीनता से उन्हें काम करते देखा करते हैं. ये बाबू कोई सूट-बूट वाले नहीं होते थे बल्कि धोती-कुरता, पजामा-कमीज़ वाले हुआ करते थे. इनके चेहरे पर ज़माने भर की गंभीरता आसानी से दिखलाई देती थी.
फिर जब दाहिने हाथ से बांया कान पकड़ में आने लगा तब अब्बा ने कहा कि अब पहली में नाम लिख जाएगा.
मेरा दोस्त था बगल के लाज में काम करने वाले का बेटा..उसके साथ मैंने अब्बा के रेलवे प्रायमरी स्कूल में नाम लिखवा लिया और अचानक से इतना गंभीर हो गया कि जैसे किसी बड़ी क्लास में पढने वाला बच्चा हो गया हूँ. मेरे कक्षा शिक्षक मिश्रा गुरूजी सफ़ेद धोती और लम्बा कुरता पहनते थे. वे मुझे बहुत मानते थे, क्योंकि मैंने तब तक गुपचुप रूप से अपनी दीदी लोगों की संगत में अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया था. एक से सौ तक की गिनती लिखनी मुझे आती थी. हाँ, पहाडा स्कूल में जाकर रटने लगा था. मिश्रा गुरूजी कुर्सी पर बैठकर खैनी खाते फिर ऊंघने लगते और मुझे बच्चों को अक्षर-ज्ञान का काम सौंप देते थे.
उस जमाने में हम सिर्फ हिंदी भाषा ही पढ़ते थे. अंग्रेजी का औपचारिक ज्ञान हमें छठवीं कक्षा से मिला था.
स्कूल में बिना पैसे के खेल हम खेला करते. जैसे आमा-डंडी, छुपा-छुपौवल, पिट्टुल और लडकियों के खेल जैसे खो-खो, लंगड़ी-घोड़ी, धुप-छाँह आदि.
घर में तब अध्यापक अब्बा का प्रशासन बहुत कड़ा था. क्या मजाल कि उनकी मर्ज़ी के बिना परिंदा भी पर मार ले. उनकी नज़र जैसे कि ख़ुदा की नज़र हो, जिससे बचना नामुमकिन होता था. बचने को तो बचा जा सकता था लेकिन पकड़े जाने पर जहन्नुम के बारे में बयान किये जाने वाले अज़ाब (दंड) से भी जियादा का खौफ हमें मारे डालता था. जहन्नुम के अज़ाब तो मरने के बाद मिलेंगे लेकिन जीते-जी अब्बा की डांट-मार का ज़िक्र किसी धर्म-ग्रन्थ में नहीं मिल सकता है, जितना डर हम बच्चों के दिल में रहता था.
पिन-ड्राप साइलेंस का मतलब यदि जानना हो तो मेरे बचपन के दिनों में अब्बा की मौजूदगी में हमारा घर इसकी बड़ी मिसाल होगा.
अब्बा की दबंग उपस्थिति के ठीक उलट अम्मी की अंधी ममता..वे भरसक अब्बा के कोप और क्रोध से हम बच्चों को बचातीं..हमने कभी ये अलफ़ाज़ नहीं सुने उनके मुंह से—‘आने दे तुम्हारे अब्बा को, उन्हें सब कुछ बता दूंगी..!’ अब्बा की गैर-मौजूदगी में हमारी गलतियों, शरारतों और बदमाशियों को अम्मी इंज्वॉय किया करतीं...वे हमारे साथ थोड़ी-बहुत मस्ती भी कर लिया करती थीं और हमारी बड़ी राजदार थीं..ऐसी माएं अब कहाँ होती हैं...
तो बचपन में पढाई-लिखाई, खेल-कूद, शरारतें ही याद आती हैं. हाँ, हम दोनों भाई मोहल्ले के बच्चों के साथ नहीं खेलते थे क्योंकि अब्बा का ये मानना था कि मोहल्ले के लडकों के साथ मिलने-जुलने से गाली बकना और उत्पाती बनना ही हम सीखेंगे. वैसे भी मोहल्ले के लडके आये दिन कंचे खेला करते या सिक्का-जीत जैसे खेल खेलते, बीच-बीच में हल्ला करते और एक-दुसरे को गालियाँ बकते...हमारे घर में ‘अबे’ या  ‘रे’ भी गाली  के  तुल्य हुआ करता था. हम जब बहुत गुस्सा होते तो एक-दूजे को कुत्ता-कुत्ती जैसे शब्द कहके गाली बकने की क्षुधा शांत किया करते थे. दीवाली में बिकने वाले हरामी बम को हम तब घर में ‘गाली बम’ कहा करते थे.
हम दोनों भाई अपनी बहनों की सहेलियों के साथ लडकियों के खेल खेलते...इसी कारण कपड़े की तुरपाई करना, बटन-काज का काम, स्वेटर बुनने का हुनर और खाना बनाने में पारंगत हो गया था मैं..इसका लाभ ये हुआ कि आज भी कपड़े की रिपेयर खुद कर लेता हूँ. कालेज में मैं खुद ही खाना पका कर खाता था.

अम्मी को चाय पीने का शौक था और मैं उनका चायवाला बेटा था..उनकी फरमाईश पर तत्काल चूल्हे में लकड़ी सुलगा कर चाय बना लाता था. तब उस जमाने में घरों में मिटटी तेल के स्टोव भी हुआ करते थे, लेकिन हमारे घर में तीन मुंह वाला मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था. अम्मी अलस्सुबह उस चूल्हे की टूट-फूट रिपेयर करतीं, फिर छूही माटी से रसोई की लिपाई करती थीं. 

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