वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जो खुद को कभी भी, कहीं भी नहीं करा पाते आमंत्रित
खुद्दार इतने कि बिना निमंत्रण जाएँ न यमराज के पास भी
ऐसा कहकर हंसते हैं कि हंसते हर हाल में हैं वे
हंसने की नामालूम वजह को जानने का कभी प्रयास भी नहीं करते
वे ये भी जानते हैं कि उनकी ये हंसी कालांतर में
गलती से भी नहीं बनेगी किसी शोध-पत्र का बीज-वाक्य
कि उनकी इस हंसी-ठिठोली को लोग लोक-हास्य कह देते हैं
जैसे किसी मजबूरी के तहत हँसते रहे हैं वे
उड़ा देते हैं अफवाह कि ये अपने ही में मस्त रहने के अभ्यस्त हैं
अपनी राजनीतिक समझ और कूटनीतिक चालों में डूबे
कोई कैसे जाने कि उनकी फक्कडपन और दीवानगी के पीछे
नहीं है किसी विपक्षी का हाथ या ये नहीं हैं वामपंथी या नक्सली
ये नहीं हैं कोई दरवेश या पीरो-मुर्शिद या कोई ऋषि-मुनि या कोई अतीन्द्रिय...
वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जिनके पहुँचने से बदल सकता था मेले का स्वरूप
क्योंकि वे जहाँ जाते हैं वहां तमाम अभावों-असुविधाओं के बीच
गूंजती है बिरहा की धुनें, कबीर की निरगुन और बुल्ले शाह के काफिये
वे पंच-तारा अस्पतालों की अट्टालिकाओं की परछाइयों के पीछे
जहां बस्तियां उग आती हैं फेंके गये मेडिकल कचरे के साथ
मगन होकर गुनगुनाते रहते हैं गीत
और अस्पतालों की मार्चरी में दिन-ब-दिन बढती जाती हैं लाशें.. खाए-पीये-अघाए लोगों की.....
ऐसे नहीं कि वे अजर-अमर हैं लेकिन एक अच्छी बात है कि
मरने से पहले नहीं चिंता होती उन्हें वसीयत की
और नहीं होता कोई षड्यंत्र उनके जीते जी या मरने के बाद
किसी संपत्ति या बैंक बैलेंस के लिए नहीं होती कोई लड़ाई...
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