से उन बच्चों के अन्दर स्कूली पढाई के प्रति उदासीनता आती जाती है और एक-दो बार फ़ैल हो जाने के बाद वे पढाई छोड़ देते हैं हैं बहुधा ये आरोप लगाकर---'अरे भाई, मीम लोगों को जानबूझकर फ़ैल कर देते हैं ई मस्टरवा लोग..चाहते नहीं हैं न कि मीम के लइका लिखे-पढ़ें-तरक्की करें...!'
तो मदरसा की हिज्जेवाली अरबी-उर्दू की तालीम, प्राथमिक विद्यालय की अक्षर-ज्ञान के बाद उनके पास तीसरा विकल्प बचता है माँ-बाप के पुश्तैनी कारोबार या हुनरमंदी के गुर सीखना और विराट सामजिक ताने-बाने से कटकर एक ऐसे समाज का अपने इर्द-गिर्द बनते देखना जहां असहमति/ विरोध/ बहस की गुंजाइश एकदम नहीं रहती...
यूनुस उस समाज से खुद को अलग करेगा...ऐसा मेरा विश्वास है और यही विश्वास उपन्यास पहचान की मुख्य सोच है...
औपचारिक स्कूली शिक्षा में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या आज भी उत्साह वर्धक नहीं हैं और सीनियर सेकंडरी तक आते-आते ये संख्या काफी निराशाजनक हो जाती है. इस शिक्षा-प्रणाली की दुरुहता के कारण मुस्लिम ही नहीं आदिवासी, दलित और स्त्रियाँ भी आगे की पढाई नहीं पढ़ पाते हैं...
यूनुस को मैंने विकल्प के रूप में मज़हबी यूनुस की जगह हुनरमंद यूनुस के रूप में तरजीह देने का प्रयास किया है...
तो मदरसा की हिज्जेवाली अरबी-उर्दू की तालीम, प्राथमिक विद्यालय की अक्षर-ज्ञान के बाद उनके पास तीसरा विकल्प बचता है माँ-बाप के पुश्तैनी कारोबार या हुनरमंदी के गुर सीखना और विराट सामजिक ताने-बाने से कटकर एक ऐसे समाज का अपने इर्द-गिर्द बनते देखना जहां असहमति/ विरोध/ बहस की गुंजाइश एकदम नहीं रहती...
यूनुस उस समाज से खुद को अलग करेगा...ऐसा मेरा विश्वास है और यही विश्वास उपन्यास पहचान की मुख्य सोच है...
औपचारिक स्कूली शिक्षा में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या आज भी उत्साह वर्धक नहीं हैं और सीनियर सेकंडरी तक आते-आते ये संख्या काफी निराशाजनक हो जाती है. इस शिक्षा-प्रणाली की दुरुहता के कारण मुस्लिम ही नहीं आदिवासी, दलित और स्त्रियाँ भी आगे की पढाई नहीं पढ़ पाते हैं...
यूनुस को मैंने विकल्प के रूप में मज़हबी यूनुस की जगह हुनरमंद यूनुस के रूप में तरजीह देने का प्रयास किया है...
bahut sahi
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