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Tuesday, August 23, 2016

हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं.....

k Ravindra

चोटें ज़रूरी नहीं
किसी धारदार हथियार की हों
किसी लाठी या गोली की हों
किसी नामज़द या गुमनाम दुश्मन ने घात लगाया हो
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता दोस्त 
समय भर देता है बड़े से बड़ा ज़ख्म
कि जीने की विकट लालसा फिर-फिर सजा देती है
उजड़ी-बिखरी घर-गृहस्थी
जिस्म के ज़ख्मों को भूल जाता है इंसान
लेकिन तुम्हारी बातों की मार से बार-बार
हो जाता तन-मन बीमार, हताश और लाचार
तुम हो कि बाज़ नहीं आते
और बातों की गोलियां और लानतों के बम
आये दिन जख्मी कर जाते हमारे वजूद को
हम छुपा नहीं सकते खुद को
तुम्हीं बताओ कि छुपकर कब तक जिया जा सकता है
भेष बदलकर जी लेते हैं कुछ लोग
लेकिन जब पकड़ाते हैं तो पकड़ा ही जाते हैं
और जिन्होनें ने नहीं बदला भेष
उन्हें झेलनी पडती कदम-कदम पर ज़िल्लत...
हमें मालूम है भाई कि हम कितने गैर-जरूरी हैं
फिर भी हमारा वजूद तुम्हारे लिए एक मजबूरी है
जिल्द वाली किताबें हमें ताकत देती हैं
लेकिन क़ानून तो तोड़ने के लिए ही बनाये जाते हैं
न्यायाधीश के तराजू पकड़े हाथ कांपते रहते हैं
हम चीख-चीख कर कहते हैं क़ानून पर हमें भरोसा है
और तुम हंसते हो...
इस हंसी की खनक में हजार गोलियों से ज्यादा मार होती है
इसे हम ही महसूस कर सकते हैं
हम जो हमेशा से तुम्हारे लिए गैर-ज़रूरी हैं......

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