कुछ कविताएँ किसी वाद या विचार की गिरफ्त से आज़ाद होती हैं और अपने परिवेश की ऐसी उपज होती हैं जहाँ पहुंचकर सिर्फ असुविधाएं, अभाव, दुःख-दर्द की इबारतें इंसान को पशुतर बनने पर मजबूर किये रहती हैं और इंसान अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करने के लिए जिस जिजीविषा का परिचय देता है उसे ही कविता मान लेता है. जीने की कला सिखाती कवितायें, संघर्ष के हुनर से पारंगत करती कविताएँ सहज ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं. इन कविताओं को अभी भी मालूम नहीं रहता कि वे वर्ग-संघर्ष के लिए लड़ रहीं हैं हैं या फिर इंसानी हुकूक की बहाली के लिए... एक बात तो तय है कि ये कविताएँ इंसानी समाज को एक बेहतर समाज का विकल्प देने का विनम्र प्रयास करती हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मेरे सामने हैं और उनकी विगत दस-बारह वर्ष की कविताएँ ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ संग्रह के रूप में इकट्ठी संवादरत हैं. इस संग्रह से पूर्व कवि का एक संग्रह आ चूका है—‘पूरा हंसता चेहरा’. रमेश प्रजापति सिर्फ कविताई ही नहीं करते, उनके पास एक सधी आलोचकीय दृष्टि है, कहानी और लघुकथाएं भी लिखते हैं. इस तरह रमेश ये साबित करना चाहते हैं कि उनके अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी है जो उन्हें विश्यनुकुल विधा चुनने को प्रेरित करती है. कविता की अपनी सीमा होती है और कई बातें लघुकथा या कहानी की शक्ल में ज्यादा मुखर रूप में पाठकों के सम्मुख आते हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मुझे इसलिए अच्छी लगती हैं कि इनमें बडबोलापन नहीं है. ये पाठकों को बरगलाती नहीं और सीधे-सीधे अपनी बात कह जाती हैं---
‘अच्छे दिनों की रोटी में
किरकिराते हैं बुरे दिन...”
या
“तू ईश्वर है...
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ?”
और इन प्रतिकूलताओं में भी गज़ब की उम्मीदें---
“फुटपाथ पर बैठा / टांग हिलाता मजदूर
बुरे दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी भर चनों-सा.”
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें सांत्वना देने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है. ‘कौन सा दिल है जिसमें दाग नहीं...? वाकई अधिकाँश आबादी के दुःख-दर्दों की सूची दिनों-दिन बढती ही जाती है. कोई संस्था नहीं, कोई व्यवस्था नहीं जो इस मर्ज़ का उपचार करने का दावा करे...संसार के सारे वाद, विचार और हथकंडे इन लोगों को दुःख-दर्दों से निजात दिलाने में नाकाम रही हैं. असहमति, नफ़रत और युद्ध ही इन व्यवस्थाओं के औज़ार हैं. अपनी बात को तार्किक साबित करने के लिए इनके पास किताबें हैं, क़ानून है, सैनिक हैं, हथियार हैं और निरंकुशता भी है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी कवि और कविता अभिशप्त इंसान को उम्मीदों के ख़्वाब दिखलाती रहती है...ये क्या कम है? पाठकों के कुंद हुए दिलो-दिमाग में सहमति की जगह सवाल पैदा करने की हिम्मत कविता ही दे रही है---
“जब बर्फ सा जम गया हो
आदमी के अन्दर डर
दुखों की चट्टान तले
दफ़न हो गई हों जीने की उमंगें
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
बडबडाने के अलावा
कुछ न कर पा रहे हों किसान
ऐसे में अंतिम हथियार साबित होती है आग
वक्त-बेवक्त ज़रूरत के वास्ते
जलने दो इसे भीतर के अलाव में..”
यही कविता है जो इंसान को संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहती है. यही कवि की ज़िम्मेदारी है कि अपने समय के सच को पाठक के समक्ष रखे और इस लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करे..वर्ना इतिहास उसे भुला देगा...अपनी बात कहने के लिए ये कविताएँ एक नया सौन्दर्य-शास्त्र खुद ही गढ़ रही हैं, क्योंकि ये कविताएँ किसी भी तरह सत्ताश्रयी या सेठाश्रयी नहीं हैं. कविताई के लिए किसी भी तरह की पारिश्रमिक या पारितोष नहीं मिलता बल्कि अभियक्ति के खतरे उठाने में पहचान लिए जाने का खतरा मंडराता ही रहता है. बहुत आसान है सत्ता या पूँजी के समर्थन में भांड बनकर वीरगाथाएं रचना. इसमें पैसा है, सम्मान है, सुख है लेकिन जब जेनुइन कवि खुद को आने वाली पीढ़ी के साथ खड़ा करता है तो उसे लगता है ये बहुत बड़ी बेईमानी होगी! थोडा पैसा, सम्मान या सुख तात्कालिक राहत तो देगा लेकिन ये समझौता उसे समय की अदालत में नकार देगा.
रमेश प्रजापति की तमाम कवितायेँ अच्छी हैं ये नहीं कहता, लेकिन ये ज़रूर है कि तमाम कविताओं में कवि अपने समय के सच को अलग-अलग एंगल से देखने का विनम्र प्रयास करता है और कविता के एक ऐसे फ़ार्म के साथ अपनी बात कहता है जो आजकल के पाठकों के लिए बहुत सहज है.
इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं बड़ी ईमानदारी से ये कह सकता हूँ कि कठिन काव्य का प्रेत बनकर पहेलियों से कविताई के दिन लद गये... ऐसी कविताएँ लिखना कि जिन्हें समझने के लिए शब्दकोष की ज़रुरत पड़े, कोई व्याख्याता या फिर टिप्पणीकार उन कविताओं के मंतव्य से पाठक को अवगत कराये..इसे मैं भाषा की ऐयाशी मानता हूँ...ये कविता का रीतिकालीन या छायायुगीन कलेवर पाठकों को कविता से विलग/विरत करता है.
इससे कविता का ही नुक्सान होता है...न मालूम किस टार्गेट पाठक के लिए लिखी जाती हैं ऐसी क्लिष्ट कविताएँ कि जिन्हें कोई विद्यार्थी कोर्स में होने के कारण ही मजबूरीवश पढ़े...कोई नया पाठक खामखाँ क्यों इन कठिन काव्य के प्रेतों से झाड-फूँक करवाएगा.
रमेश प्रजापति की चिंताओं में शामिल हैं गाँव, घर, खेत-खलिहान, किसान, मजदूर, माँ-पिता, पशु-पक्षी, धनकार, स्त्रियाँ, नदी-नाले, चाँद-सूरज-पृथ्वी-गौरैया और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक-चिन्ह...कवि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता है लेकिन इंसान के शोषण की तमाम तकनीकों से घृणा करता है. कवि के सामाजिक सरोकार उसे पाठकों के साथ जोड़े रखते हैं और उसकी कवितायें, पाठकों के लिए किसी मलहम की तरह लेप लगाती हैं और बुरे दिनों से निजात दिलाने का प्रयास करती हैं....
रमेश प्रजापति की कविताएँ मेरे सामने हैं और उनकी विगत दस-बारह वर्ष की कविताएँ ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ संग्रह के रूप में इकट्ठी संवादरत हैं. इस संग्रह से पूर्व कवि का एक संग्रह आ चूका है—‘पूरा हंसता चेहरा’. रमेश प्रजापति सिर्फ कविताई ही नहीं करते, उनके पास एक सधी आलोचकीय दृष्टि है, कहानी और लघुकथाएं भी लिखते हैं. इस तरह रमेश ये साबित करना चाहते हैं कि उनके अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी है जो उन्हें विश्यनुकुल विधा चुनने को प्रेरित करती है. कविता की अपनी सीमा होती है और कई बातें लघुकथा या कहानी की शक्ल में ज्यादा मुखर रूप में पाठकों के सम्मुख आते हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मुझे इसलिए अच्छी लगती हैं कि इनमें बडबोलापन नहीं है. ये पाठकों को बरगलाती नहीं और सीधे-सीधे अपनी बात कह जाती हैं---
‘अच्छे दिनों की रोटी में
किरकिराते हैं बुरे दिन...”
या
“तू ईश्वर है...
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ?”
और इन प्रतिकूलताओं में भी गज़ब की उम्मीदें---
“फुटपाथ पर बैठा / टांग हिलाता मजदूर
बुरे दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी भर चनों-सा.”
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें सांत्वना देने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है. ‘कौन सा दिल है जिसमें दाग नहीं...? वाकई अधिकाँश आबादी के दुःख-दर्दों की सूची दिनों-दिन बढती ही जाती है. कोई संस्था नहीं, कोई व्यवस्था नहीं जो इस मर्ज़ का उपचार करने का दावा करे...संसार के सारे वाद, विचार और हथकंडे इन लोगों को दुःख-दर्दों से निजात दिलाने में नाकाम रही हैं. असहमति, नफ़रत और युद्ध ही इन व्यवस्थाओं के औज़ार हैं. अपनी बात को तार्किक साबित करने के लिए इनके पास किताबें हैं, क़ानून है, सैनिक हैं, हथियार हैं और निरंकुशता भी है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी कवि और कविता अभिशप्त इंसान को उम्मीदों के ख़्वाब दिखलाती रहती है...ये क्या कम है? पाठकों के कुंद हुए दिलो-दिमाग में सहमति की जगह सवाल पैदा करने की हिम्मत कविता ही दे रही है---
“जब बर्फ सा जम गया हो
आदमी के अन्दर डर
दुखों की चट्टान तले
दफ़न हो गई हों जीने की उमंगें
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
बडबडाने के अलावा
कुछ न कर पा रहे हों किसान
ऐसे में अंतिम हथियार साबित होती है आग
वक्त-बेवक्त ज़रूरत के वास्ते
जलने दो इसे भीतर के अलाव में..”
यही कविता है जो इंसान को संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहती है. यही कवि की ज़िम्मेदारी है कि अपने समय के सच को पाठक के समक्ष रखे और इस लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करे..वर्ना इतिहास उसे भुला देगा...अपनी बात कहने के लिए ये कविताएँ एक नया सौन्दर्य-शास्त्र खुद ही गढ़ रही हैं, क्योंकि ये कविताएँ किसी भी तरह सत्ताश्रयी या सेठाश्रयी नहीं हैं. कविताई के लिए किसी भी तरह की पारिश्रमिक या पारितोष नहीं मिलता बल्कि अभियक्ति के खतरे उठाने में पहचान लिए जाने का खतरा मंडराता ही रहता है. बहुत आसान है सत्ता या पूँजी के समर्थन में भांड बनकर वीरगाथाएं रचना. इसमें पैसा है, सम्मान है, सुख है लेकिन जब जेनुइन कवि खुद को आने वाली पीढ़ी के साथ खड़ा करता है तो उसे लगता है ये बहुत बड़ी बेईमानी होगी! थोडा पैसा, सम्मान या सुख तात्कालिक राहत तो देगा लेकिन ये समझौता उसे समय की अदालत में नकार देगा.
रमेश प्रजापति की तमाम कवितायेँ अच्छी हैं ये नहीं कहता, लेकिन ये ज़रूर है कि तमाम कविताओं में कवि अपने समय के सच को अलग-अलग एंगल से देखने का विनम्र प्रयास करता है और कविता के एक ऐसे फ़ार्म के साथ अपनी बात कहता है जो आजकल के पाठकों के लिए बहुत सहज है.
इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं बड़ी ईमानदारी से ये कह सकता हूँ कि कठिन काव्य का प्रेत बनकर पहेलियों से कविताई के दिन लद गये... ऐसी कविताएँ लिखना कि जिन्हें समझने के लिए शब्दकोष की ज़रुरत पड़े, कोई व्याख्याता या फिर टिप्पणीकार उन कविताओं के मंतव्य से पाठक को अवगत कराये..इसे मैं भाषा की ऐयाशी मानता हूँ...ये कविता का रीतिकालीन या छायायुगीन कलेवर पाठकों को कविता से विलग/विरत करता है.
इससे कविता का ही नुक्सान होता है...न मालूम किस टार्गेट पाठक के लिए लिखी जाती हैं ऐसी क्लिष्ट कविताएँ कि जिन्हें कोई विद्यार्थी कोर्स में होने के कारण ही मजबूरीवश पढ़े...कोई नया पाठक खामखाँ क्यों इन कठिन काव्य के प्रेतों से झाड-फूँक करवाएगा.
रमेश प्रजापति की चिंताओं में शामिल हैं गाँव, घर, खेत-खलिहान, किसान, मजदूर, माँ-पिता, पशु-पक्षी, धनकार, स्त्रियाँ, नदी-नाले, चाँद-सूरज-पृथ्वी-गौरैया और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक-चिन्ह...कवि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता है लेकिन इंसान के शोषण की तमाम तकनीकों से घृणा करता है. कवि के सामाजिक सरोकार उसे पाठकों के साथ जोड़े रखते हैं और उसकी कवितायें, पाठकों के लिए किसी मलहम की तरह लेप लगाती हैं और बुरे दिनों से निजात दिलाने का प्रयास करती हैं....
*शून्यकाल में बजता झुनझुना : कविता संग्रह : रमेश प्रजापति
पृष्ठ : १२० मूल्य : 100.00 संस्करण : 2015
बोधि प्रकाशन, एफ 77, सेक्टर-9 रोड नं. 11
करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६
फोन: 0141-2503989, 9829018087
bodhiprakashan@gmail.com
पृष्ठ : १२० मूल्य : 100.00 संस्करण : 2015
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