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Saturday, September 11, 2021

तिलचट्टे



     

अम्मा के कमरे में मनहूसियत तारी थी।

ये मनहूसियत तो पूरे घर में डेरा डाले है।

जब कुछ नहीं था, तब ये घर कितना गुलज़ार हुआ करता था और जब सब कुछ है तो फिर जाने क्येां मनहूसियत के सिवा इस घर में कुछ नज़र नहीं आता।

तब घर में इतने कमरे कहां थे?

इतनी सुविधाएं कहां थीं?

नगरपालिका के सार्वजनिक नल से तब पानी बाल्टियों में भर-भरकर घर की टंकी मे ंजमा किया जाता था।

घर में बिजली नहीं थी।

लालटेन और चिमनी के ज़रिए रात गुज़ारी जाती थी।

आज एक छत के नीचे सब सुविधाएं मौजूद हैं। क़दम-क़दम पर नल की टोटियां हैं। बस, नल खोलो और पानी हाज़िर।

दोनों तल्लों में बाथरूम और पैखाना हैं

दो कमरे बाथरूम अटैच हैं।

बस कमी ये है कि अब घर में रहने वाले कम हो गए हैं।

पंछियों के पर उगे नहीं कि सब अपने नए घरौंदे बना कर फुर्र हो गए।

बचा रहा सिर्फ यादों का मकबरा...

वाक़ई ये घर अब यादों का मकबरा ही तो है।

इसी घर से सब भाई-बहनों ने तालीम हासिल की।

अच्छी-अच्छी जगहों पर काम पा कर टा-टा, बाय-बाय कर विदा हो गए।

उसका मन बेहद उदास हो रहा था।

वह अम्मा के पास बिस्तर पर बैठ गया।

बाबूजी पान का पिटारा लेकर बैठे पान का बीड़ा बना रहे थे।

अम्मा के चेहरे पर झुर्रियां बढ़ गई हैं।

उसने अम्मा की हथेली को अपने हाथ पर रखकर सहलाया।

‘‘लगता है अब इस घर में तिलचट्टे और मकड़ियां ही रहेंगी...!’’ कहकर अम्मा रोने लगीं।

वह बहुत दिनों के बाद घर आया था।

बेटे की समझ में न आया कि अम्मा को कैसे सांत्वना दे।

वाकई घर की छत और दीवारों पर मकड़ियों के बेषुमार जाले हैं और किचन की सिंक के नीचे तो तिलचट्टों ने अड्डा बना लिया है।

सम्भवतः रात-बिरात ये तिलचट्टे पूरी आज़ादी से घर में आवारागर्दी करते होंगे।

अम्मा को मोतियाबिंद के कारण धुंधला दिखाई देता है। कहते हैं कि रात के वक़्त तिलचट्टे उड़ते भी हैं। उसने तिलचट्टों को उड़ते तो देखा नहीं था, लेकिन अम्मा की व्यथा उसे समझ में आ रही थी।

अम्मा रोएं क्यों न?

इतना बड़ा घर और रहने के लिए सिर्फ दो प्राणी।

दो टाईम नौकरानी आकर खाना पका जाती है।

अम्मा परसों पैखाना जाते समय गिर गई थीं, जिससे उनके कंधे की हड्डी उखड़ गई थी। डाॅक्टर ने हाथ मोड़ कर गरदन के सहारे से उसे झुला दिया था। हिदायत थी कि कम से कम एक माह इसी तरह आराम किया जाए।

उस हाथ से कोई काम न लिया जाए।

एक माह बाद एक्सरेलिया जाएगा, फिर जैसी स्थिति होगी, वैसा निर्णय लिया जाएगा।

बाबूजी ने उसे फोन किया और वह दौड़ा चला आया।

म्ंांझला और छोटा भाई भी आते, लेकिन काम की अधिकता के कारण वे तत्काल नहीं आ सके थे।

मोबाईल के ज़रिए ऐसी ही मजबूरी तो बतलाई थी दोनों भाईयों ने।

उसकी पत्नी ने भी आदतन उसे कितना रोका था। वह नहीं चाहती कि अम्मा-बाबूजी के फोन पर वह दौड़ा चला जाए। अरे, और भी तो औलाद हैं, क्या वही भर ज़िम्मेदार है उनका?

उसने कहा था कि उसे अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए।

चेहरा कैसा खड्डूस सा हुआ जा रहा है। खाया-पिया तन पर लगता नहीं। गैस के मरीज़ हो। बदन-दर्द और बीपी अलग।

पत्नी ने कहा था-‘‘क्या आपने ठेका ले रखा है?’’

पत्नी की बात सुन कर उसका गुस्सा सातवें आसमान जा पहुंचा और हमेषा की तरह वह बिना कुछ खाए-पिए घर छोड़ दिया था...

 

 

     

दवा दुकान पर बहुत भीड़ थी।

कुछ धंधे ऐसे हैं जहां आजकल बिन बुलाए भीड़ के दर्षन हो जाते हैं।

दवा-दुकान, पेट्रोल टंकी, मंदिर-मकबरे, मौज-मस्ती के अड्डे...

धर्म और आस्था से सम्बंधित व्यवसाय आजकल सबसे ज़बरदस्त व्यवसाय है, जहां आयकर, सम्पत्ति कर आदि किसी कर-कानून की त्यौरियां टेढ़ी नहीं होतीं।

दवा-दुकान के काउण्टर पर कई सेल्समेन कार्यरत थे।

उसने एक पतले-दुबले सेल्समेन से पूछा, जिसके दांत जबड़े सहित बाहर नज़र आ रहे थे-‘‘काकरोच मारने की दवा चाहिए?’’

सेल्समेन ने बड़ी मासूमियत से उसे घूर कर देखा और अपने हाथ की पर्ची के मुताबिक दवा लगाने में मषगूल हो गया।

उसे समझ में न आया कि सेल्समेन ने ऐसा बर्ताव क्यों किया?

षायद उसने काकरोचषब्द न समझा हो, सो उसने हाथ की अंगुलियों से तिलचट्टे का बिम्ब बनाते हुए स्पष्ट करना चाहा-‘‘काकरोच यानी वो घर की अंधेरी जगहों में जो नहीं लग जाते हैं कीड़े, तिलचट्टे...’’

सेल्समेन, दूसरे ग्राहक की दवा-पर्ची पढ़ते हुए बोला-‘‘यहां नहीं मिलेगा!’’

ऐसा लगा कि सेल्समेन दांत मसूढ़ों सहित बाहर निकल आएंगे

उसने षांत स्वर में पूछा-‘‘तो फिर कहां मिलेगा?’’

तब तक दवा खरीदते, बगल में खड़े मोटे से ग्राहक ने मुस्कुराते हुए हस्तक्षेप किया -‘‘खेती-किसानी वाली जो बस-स्टेंड मंे दुकान है न, वही लोग चूहा, तिलचट्टा, खटमल आदि मारने वाली दवा रखते हैं।’’

वह समझ गया।

पैदल ही था।

उसने घड़ी पर निगाह डाली।

दिन के बारह बज रहे थे।

कई दिनों से बारिष नहीं हुई थी, सो गुस्सैल आसमान से सूरज की किरणें कोड़े बरसा रही थीं।

बदन पसीने से चिपचिपा रहा था।

सितम्बर का षुरूआती हफ़्ता था।

आसमान पर कभी बादल आते और कभी धूप इस क़दर क़हर बरसाती कि जान निकल जाए।

कहते हैं कि ऐसा मौसम डाॅक्टरों का सीज़नकहलाता है।

इस मौसम में मच्छरों और मरीज़ों की बेतहाषा बढ़त होती है।

उसने जेब से चष्मा निकाला।

धूप-छांह वाला चष्मा।

चष्मा पहनने से उसे कुछ सुकून मिला।

यदि वह टकला न होता और सिर पर प्रचुर मात्रा में बाल होते तो धूप उसका कुछ न बिगाड़ पाती।

जिस बात पर उसका बस नहीं, उसके लिए वह क्या कर सकता है?

मन में ख़्याल आया कि जेब से रूमाल निकाल कर सिर पर डाल ले, लेकिन इससे नमूना बनने का ख़तरा था।

इसलिए रूमाल से माथे पर चुचुआए पसीने की बूंदों को पांेछते हुए वह तेज़ क़दमों से बस-स्टेंड की तरफ चल पड़ा।

फौव्वारा-चैक से स्कूल चैराहा तक भीड़ बहुत थी, उसके बाद भगतसिंह तिराहा का रास्ता सूना मिला।

उसने दांए-बांए की दुकानें देखीं। वे ग्राहकों के बिना पहले जैसी ही वीरान नज़र आईं। जाने क्यों ये दुकाने मुद्दत से अभिषप्त हैं। इनमें ग्राहक आकर्षित क्यों नहीं होते?

तिराहे पर विक्की की पान दुकान दिखी।

विक्की दुकान पर था।

गोल-मटोल, वैसे का वैसा विक्की।

उसके बाल न उड़े थे, न सफेद हुए थे।

उसका चेहरा भी वही मासूम सा था।

उसे लगा कि कभी फुर्सत में पत्नी से विक्की की मुलाक़ात कराएगा और बताएगा कि विक्की उसका सहपाठी है। वह दोनों समवयस्क हैं। जाने क्येां वह असमय बूढ़ा दिखने लगा था। उसके बाल सफेद हुए और जल्दी ही झड़ गए। बत्तीस में से पांच दांत अब तक षहीद हो चुके हैं।

परसों जब वह घर से चलने लगा था तो पत्नी ने टोका था कि रूकिए जी, आपने ग़ौर किया है, आपकी भौंह का एक बाल सफेद है।

अब भौंह के बाल भी सफेद होने लगे।

वह घबरा गया था।

उसकी निगाह के सामने मध्यप्रदेष के भूतपूर्व स्पीकर श्रीनिवास तिवारी का चेहरा आ गया। क्या वह कुछ सालों बाद उन्हीं जैसा दिखने लगेगा?

नहीं, वह तत्काल आईना लेकर आंगन में चला गया। वहां तेज़ धूप की रोषनी में उसने जब ध्यान से अपनी बांईं भौंह का निरीक्षण किया तो पाया कि वाकई एक बाल सफेद है।

उसके हाथ में तेज़ धार वाली छोटी कैंची थी।

उसने कैंची की नोक का सावधानी से इस्तेमाल किया और उस बाल को जड़ से उड़ा दिया।

उस पर बुढ़ापे का हमला बहुत तेज़ी से हुआ था।

जबकि आज वह एक बैंक का सफल प्रबंधक है। रायपुर षहर में अपना एक डुप्लेक्स बंगला है। नई चमचमाती कार है। अच्छा बैंक-बैलेंस है। पत्नी, बच्चे, स्वयं और अन्य ज़रूरी सामानों का उसने बीमा करवाया हुआ है। कहीं किसी रिस्कका सवाल नहीं। बच्चों को बोर्डिंग में डाला हुआ है। पत्नी घर के पास एक स्वयं-सेवी संस्था में म्यूज़िक-टीचर है।

तकरीबन पचास-साठ हज़ार रूपए हर साल वह भारत-सरकार को आयकर के रूप में अदा करता है। सभी कुछ वेल-सेटल्डहै।

कोई कमी नहीं, सिवाए सिर के इस उजड़े चमन के। जो बाल नहीं उड़े वे अब सफेद होते जा रहे हैं। वह तो भला हो हेयर-डाईकरने वालों का। वरना अब तक तो वह मुहल्ले के बच्चों का नानाजी, दादाजी कहलाता।

उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता।

काम की अधिकता, षहरी जीवन की आपाधापी के कारण दिन में दो बार उसे गैस्ट्रिक की दवा लेनी पड़ती है। सुबह नाष्ते के बाद ब्लड-प्रेषर की एक गोली खाना ज़रूरी है। सप्ताह में दो-तीन बार सिर-दर्द की गोली का इस्तेमाल न करे तो सिर से भेजा निकल कर हाथ में आ जाए। ऐसा ख़तरनाक सिर-दर्द होता है उसे।

उसने अपनी कई आदतें बिगाड़ ली हैं।

मसलन देसी स्टाईल वाले पैखाने में वह खुलासा नहीं कर पाता।

कुर्सी वाले कमोड पर अखबार पढ़ते हुए षौच करना उसकी आदत है।

इसीलिए नाते-रिष्ते में यदि जाना पड़े तो वह क़ब्ज़ का मरीज़ हो जाता है।

पैतृक मकान में भी उसने कुर्सी वाला कमोड लगवा रखा है। अम्मा को जब घुटने के दर्द की षिकायत थी, तब उसने पांच हज़ार का चेक बाबूजी के नाम भेज दिया था कि वह घर में एक पैखाने को मोडिफाईडकरा लें।

वाकई कमोड लग जाने के बाद अम्मा को काफी आराम मिला। पहले पैखाना या पेषाब जाने के नाम से वह घबराया करती थीं कि एक बार उकड़ू बैठ जाने के बाद उठ भी पाएंगी या नहीं।

वैसे पत्नी उसकी इस फिजूलखर्ची पर बहुत चिड़चिड़ाई थी।

पति अपने परिवार वालों पर एक भी धेला खर्च करे तो पत्नी के लिए वह फिजूलखर्ची का सबब था। जब उसने समझाया कि फिर अम्मा को यहीं रायपुर ले आना होगा। तभी उनकी सही देखभाल हो पाएगी।

पत्नी का गुस्सा भड़क उठा थी-‘‘काहे, क्या हमारी ही ज़िम्मेदारी है उनके देखभाल की। मंझले और छोटे भईया काहे उनका ख्याल नहीं रखते। उनकी क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं। और जो चटर-चटर मुंह चलाती हैं आपकी बहनें, जब भी मैके आती हैं, घर से कुछ न कुछ ले ही जाती हैं। उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती। एक आपई श्रवन-कुमार हैं का?’’

वह जानता है कि इस लड़ाई का कोई अंत नहीं होता।

हां, गुस्से और तनाव को नियंत्रण न कर पाने के कारण वह भी पत्नी से काफ़ी लड़ लेता और फिर विरोध-स्वरूप एक-दो टाईम का खाना घर में नहीं खाता। फिर जब स्थिति सामान्य हो जाती, जब कहीं जाकर वह खाना खाता। उसे मालूम है कि सब कुछ पास होने के बावजूद उसके पास बहुत कुछ नहीं है। इसी बहुत-कुछको पाने के लिए वह परेषान रहता।

अममा-बाबूजी की सेवा करके उसे बहुत सुकून मिलता है।

उसे लगता है कि वह खोया हुआ बहुत-कुछयही तो है!

ल्ेकिन क्या इस जीवन में यह सम्भव हो पाएगा?

फिर भी वह पत्नी से छिपाकर अममा-बाबूजी के नाम हर माह दो हज़ार रूपए भेज दिया करता है। एक हज़ार तो नौकरानी ले जाती है। बाकी से अम्मा का सब्ज़ी वगैरा का खर्च निकल जाता। बाबूजी की पेंषन से घर के अन्य खर्च चलते। मंझला भाई भी छठे-छमाहे चार-पांच हज़ार रूपए अम्मा के हाथ रख जाता है। हां, छोटू निकम्मा है। वह पूरी तरह अपनी ससुराल पर आश्रित है। वह अपने जन्म-स्थान से नाता तोड़ बैठा है।

दो बहनें हैं तो दोनों अपनी-अपनी ससुराल में हैं।

साल-डेढ़ साल में एक्कोबार मैके का दौरा लगा जाती हैं।

पत्नी उन्हें क्यों कोसती है, वह आज तक समझ नहीं पाया।

हां, एक बार मूड ठीक देख उसने पत्नी से पूछ लिया था कि तुम अपनी ननदों से क्यों इतना खार खाए रहती हो।

तब उसने बताया था-‘‘अम्मा के षरीर पर आपने कभी ध्यान दिया है?’’

पत्नी का चेहरा उससे देखा नहीं गया। जब भी उसके दिल में नफ़रत के षोले भड़कते हैं तो उसका सुंदर सा चेहरा चु़ड़ैलों जैसा हो जाता है।

उसने अनभिज्ञता प्रकट की।

‘‘उनके हाथ में सोने की चार चूड़ियां हुआ करती थीं। अब सिर्फ दो बची हैं। उनके गले में मंगल-सूत्र के अलावा सोने की एक मोटी सी चैन हुआ करती थी, वह कहां ग़ायब हो गई? करधन और पायल की कोई गिनती न थी, लेकिन अब उनके सारे ज़ेवरात कहां गए? गहना ले जाएं बेटियां और उनका गू-मूत साफ़ करे बहू! ऐसा होगा नहीं। बेटियां काहे उनकी सेवा नहीं करतीं। जब मिलेंगी, बहुओं के खि़लाफ़ अम्मा के कान भरती रहेंगी। सिर्फ बटोरना ही जानती हैं वे?’’

वह क्या जवाब देता।

बेटियां तो पराया धन होती हैं।

दुनिया के तमाम दामाद उसकी तरह बेवकूफ नहीं होते जो पत्नी के दबाव में आकर ससुराल में महींनों पड़े रहते हैं और सास-ससुर की खि़दमत किया करते हैं।

इसी से चिढ़कर उसने एक बार पत्नी से कह दिया था कि जितना दिन मैंने अपनी ससुराल में गुज़ारा है, उसका पचास प्रतिषत भी तुमने अपनी ससुराल में नहीं बिताया।

लेकिन वही बात कि अंधे के आगे रोईए अपना दीदा खोईए।

वह अपने जीवन से क़तई संतुष्ट नहीं था।

वह अक्सर मदर-इंडियाका वह गीत गुनगुनाया करता-

‘‘दुनिया में जो आए हैं तो जीना ही पड़ेगा

 जीवन है अगर ज़हर तो  पीना ही पड़ेगा।’’

 

 

 

     

और विक्की, उसके बचपन का दोस्त, जिसका धंधा उतना जमा नहीं है लेकिन फिर भी कितना बिंदास, कितना स्वस्थ, कितना टनाटन् दिखता है।

विक्की उसे देख कर मुस्कुराया-‘‘और मुकेष भाई, दूज का चांद हो गए हो भईया?’’

वह जवाबन मुस्कुराया।

वह जानता है कि उसकी मुस्कान काफ़ी हद तक पेषेवराना मुस्कुराहट है।

इस मुस्कान में आत्मीयता का पुट डालने की कला क्या उससे छिन चुकी है?

उसने विक्की से एक सिगरेट मांगी।

उसने सोचा कि गर्मी का मुक़ाबला गर्मी से किया जाए।

जिस तरह लोहा लोहे को काटता है, उसी तरह गर्मी, गरम को काटेगी।

‘‘इस बार बहुत दिनों बाद...!’’ विक्की की षिकायत।

‘‘हां यार! नौकरी और बाल-बच्चों के कारण इधर आना नहीं हो पाता।’’

‘‘तो इसी तरफ ट्रांसफर क्यों नहीं करवा लेते?’’

प्रष्न तो अतिसाधारण था।

लेकिन क्या ये सम्भव है?

पत्नी इस छोटे से क़स्बे में रहना नहीं मांगती। बच्चों के लिए यहां वैसा स्कूल कहां, जैसा कि रायपुर में है। उसने मन ही मन सोचा कि यहां कोई लाईफ़ है।

सब कुछ वैसा ही ठहरा-ठहरा सा।

कहीं कोई परिवर्तन नहीं।

कोई मनोरंजन का साधन नहीं।

पैसा कमाए भी तो कहां खर्च करे आदमी।

ऊपर से बूढ़े माता-पिता की मान्यताएं...

बहू नौकरी न करे।

सिर्फ घर सम्भाले और अस्तित्वहीन बन कर जीवन गुज़ारे।

वो तो जब ख़बर मिली कि अम्मा का पैर फिसला है और वह गिर पड़ी हैं तो उसे आना पड़ गया।

अम्मा के कंधे की हड्डी उखड़ गई थी।

बाबूजी ने नीचे वाले मुहल्ले के एक पुराने पहलवान को बुलाकर उसे बिठवा दिया था।

अम्मा को अब आराम है।

लेकिन मोतियाबिंद और मधुमेह के कारण उन्हें अब दिखलाई कम देता है।

जब मुकेष घर पहंुचा तो अम्मा उसे देखते ही रो पड़ीं।

बाबूजी ने बतलाया कि अब इसे तेज़ रोषनी ही में ठीक दिखलाई देता है। थोड़ा भी अंधेरा हो तो कुछ नहीं दिखता।

उसने कहा कि अम्मा को रायपुर ले जाता हूं। वहां आंख के अच्छे-अच्छे डाॅक्टर हैं।

नई-नई मषीनें आ गई हैं आजकल जिनसे बिना किसी चीर-फाड़ के आंख का आपरेषन हो जाता है।

लेकिन बाबूजी तैयार नहीं हुए।

बोले अब इसे और कितना देखना है।

दोनों आंख में मोतियाबिंद का आपरेषन हो चुका है।

जब नगर में कांटेक्ट-लैंस नहीं आया था, तब आपरेषन हुआ था।

परिणामतः आंखों पर मोटे-मोटे कांच का भारी चष्मा लगाना पड़ता है।

चष्मा आंख पर न रहे तो फिर सब कुछ अंधेरा ही अंधेरा रहता है।

बाबूजी ने बतलाया है कि मधुमेह पर नियंत्रण हो नहीं पाता, इसीलिए निगाह की रोषनी घटती जा रही है।

डाॅक्टर ने बताया है कि मधुमेह पर नियंत्रण रखा जाए और चावल-आलू-चीनी से परहेज़ किया जाए।

लेकिन तुम्हारी अम्मा मानती कहां है।

नौकरानी आई नहीं कि चुपके से एक मुट्ठी चावल दुपहर मे बनवा ही लेती है।

मैं क्या करूं।

अब इसी तरह बुढ़ापा कटेगा।

अम्मा बिस्तर पर बड़ी देर तक पड़ी रहीं और बाबूजी की षिकायत सुनती रहीं।

फिर उन्होंने बाबूजी के खि़लाफ़ ज़हर उगलना षुरू कर दिया।

‘‘इनकी बातों मे मत आना बाबू। तेरे बाबूजी तो चाहते हैं कि मैं मर जाऊं और इन्हें आराम मिले।’’

अम्मा रोने लगीं।

‘‘देखता नहीं, पूरे घर में ये अंधेरा करके बैठे रहते हैं। कहते हैं कि बिजली का बिल ज्यादा आता है। मेरी आंख लगी नहीं कि ये झट कमरे की लाईट बुझा देते हैं। ऐसा लगता है कि ये घर नहीं भूत-बंगला हो।’’

बाबूजी की ये पुरानी आदत है।

उनके बारे में तो मज़ाक में ये भी कहा जाता है कि घर में मेहमान आएं तो, बात-चीत षुरू होने के बाद एक बार लोग एक-दूजे का चेहरा देख लें, फिर लाईट जलते रहने का क्या लाभ! लाईट बुझा देनी चाहिए।

बात भी सही है।

बचपन से ही बिजली की बचत का जो पाठ बाबूजी ने पढ़ाया था कि वह आज भी अपने आफिस से निकलते समय पंखा और लाईट बंद कर देता है।

अम्मा की हिचकियां बंध गई थीं।

मुकेष ने ग़ौर किया कि कितना दुबला गई हैं अम्मा!

जैसे हड्डियों का ढांचा बन गई हों।

एक ज़माना था कि वह मोटी-ताज़ी हुआ करती थीं।

सिलाई, बुनाई, कढ़ाई और अचार-पापड़-बड़ी आदि कला में पारंगत हुआ करती थीं।

अम्मा उस ज़माने में सरिता, मनोरमा जैसी पत्रिकाओं के बुनाई-कढ़ाई विषेषांक खरीदा करती थीं।

अब मधुमेह जैसी नामुराद बीमारी के कारण उनका जिस्म खोखला हो गया है।

अम्मा के आरोप सुनकर बाबूजी हंसने लगे।

बोले-‘‘बस, ऐसे ही बिना बात ये मुझसे झगड़ते रहती है। जब जीत नहीं पाती तब खामखां रोने लगती है।’’

फिर अम्मा से बोले-‘‘अपने बेटवा से और षिकायत बतिया ले ताकि तेरा कलेजा ठंडा हो जाए।’’

बाबूजी ने टेबिल पर रखा पान का पिटारा उठाया और पान बनाने की तैयारी करने लगे।

उन्होंने अम्मा से पूछा-‘‘तेरे लिए भी पान बना दूं?’’

अम्मा ने चिढ़कर सुबकते हुए कहा-काहे, ज़हर नहीं खिला देते।’’

बाबूजी दो पान बनाने लगे।

पान खाकर अम्मा कुछ सामान्य हुईं।

मुकेष ने महसूस किया कि घर में कितनी वीरानी है।

दो तल्ले का मकान।

आठ कमरे और एक बड़ा हाॅल।

रहने वाले बस दो लोग।

कितनी बड़ी विडम्बना है।

जब घर भरा-पूरा था, तब इस घर में इतने कमरे न थे।

कितनी मुष्किल से गुज़ारा होता था।

अब सभी भाई-बहिन अपने-अपने घरौंदों में व्यस्त हैं और ये घर भूत-बंगला बन गया है।

पान खाकर अम्मा ने पूछा-‘‘आज सुरसत्ती नहीं आएगी क्या? उसके बारे में पता क्यों नहीं लगाते?’’

बाबूजी ने कहा कि अभी उसके आने में एक घण्टा बचा है।

दस बजे आती है सुरसत्ती, फिर मषीन की तरह घर को साफ-सुथरा करके, रसोई में जाकर दो जन का खाना पका, बर्तन धो-मांज कर कब चली जाती है, पता ही नहीं चलता।

दूसरे टाईम वह षाम पांच बजे आती है और रात का खाना पका कर रसोई साफ कर चली जाती है।

मुकेष ने सोचा कि सुरसत्ती न होती तो इन बुजुर्गों का क्या होता?

सुबह जब वह आॅटो से उतरा तो पड़ोसी गजार्दन भैया अपने कुत्ते को टहला कर वापस लौटे थे।

मुकेष ने उनका अभिवादन किया था।

जब गजार्दन भैया ने कहा था कि चाचा-चाची को आप लोग एकदम भूल गए हैं।

उनकी उम्र अब अकेले रहने की नहीं।

उन्हें अपने साथ ले क्यों नहीं जाते?

मुकेष उन्हें कैसे समझाता कि समस्या क्या है।

साझे के काम में ऐसा ही होता है।

अम्मा-बाबूजी के तीन बेटे हैं।

सभी सोचते हैं कि वे ही इस संसार में सबसे ज्यादा दुखी और व्यस्त हैं।

किसी के पास इन बुजुर्गों के लिए समय नहीं।

 

 

 

     

मुकेष के कानों में अम्मा की आवाज़ गूंज रही थी।

‘‘अब इस घर में तिलचट्टे ही तिलचट्टे रहेंगे?’’

अम्मा की आवाज़ में एक अजीब तरह का डर समाया हुआ था।

चष्मे के अंदर से झांकती अम्मा की आंखें भयानक रूप से बड़ी दिखती हैं कि छोटा बच्चा डर जाए। चष्मा न पहनें तो उन्हें कुछ नज़र नहीं आता।

हां, बाबूजी ने रंगीन टीवी के स्क्रीन का कंट्रास्ट और ब्राईटनेस बढ़ाकर इतनी चमक पैदा कर दी है कि अम्मा बड़े मज़े से टीवी के कार्यक्रमों का आनंद लिया करती हैं।

चूंकि बाबूजी पेंषन की रकम से घर का खर्च चला रहे हैं, इसलिए खर्च मे कटौती के लिए काफी परेषान रहते हैं।

जब से सरकार ने मुई बिजली महंगी कर दी और घर-घर मे इलेक्ट्रानिक मीटर लगा दिए, तब से बाबूजी बिजली के बिल को कम से कम कराने के लिए प्रयासरत रहते हैं।

वह जहां बैठकर अख़बार पढ़ते हैं, वहां बाहर से अच्छी रोषनी आती है और ठीक उनकी नज़र के सामने बिजली का मीटर लगा हुआ है।

वह बार-बार मीटर देखते रहते हैं कि अब लाल बत्ती जली और टूं की आवाज़ आई।

उन्होंने पूरे घर में बिजली बचत वाले कम वोल्ट के महंगे बल्ब लगवा लिए हैं।

उसके बाद भी ये बल्ब बिना ज़रूरत दिन में क़तई नहीं जलाए जा सकते।

हां, अम्मा के लिए रियायत रहती है कि यदि वह सो न रही हों तो पावर-सेवरबल्ब जलाए रख सकती हैं।

बाबूजी देखते रहते हैं।

जैसे ही अम्मा की आंखें बंद हुई नहीं कि टीवी और बल्ब का स्विच आॅफ कर देते हैं।

अम्मा की जब आंख खुलती है तो अंधेरे की भयावह परछाईयां बड़े-बड़े तिलचट्टों में बदल जाती हैं।

और अम्मा डर कर रोने लगती हैं।

 

     

किसानों के लिए खाद-बीज और दवा वाली एक दुकान बस-स्टेंड पर मिल गई।

वहां एक भी ग्राहक न था।

मुकेष ने देखा कि उसका मालिक तो वही पत्रकार है, जो कभी काॅलेज का छात्र-नेता हुआ करता था।

उसने पत्रकार को नमस्कार किया।

लगा पत्रकार ने उसे पहचान लिया-‘‘और कैसे?’’

उसने कहा-‘‘घर में तिलचट्टे बहुत बढ़ गए हैं। मकड़ियों ने जाले डाल लिए हैं। कुछ मकड़ियां तो भयानक रूप से बड़ी हो गई हैं। ऐसी दवा दीजिए कि इनसे मुक्ति मिल जाए।’’

पत्रकार हंस पड़ा-‘‘सब भगवान के बनाए जीव हैं भईया। खैर, मेरे पास कई अच्छी दवाएं हैं, जिनके छिड़काव से तिलचट्टे और अन्य कीड़े-मकोड़े मर जाएंगे। उन्हें नया अड्डा बनाने में सालों लग जाएंगे।’’

फिर उसने कई दवाएं निकालीं और उससे पूछा-‘‘स्प्रे करने के लिए घर में कुछ है?’’

उसने कहा-‘‘है तो वह भी, लेकिन उसे ढूंढना टेढ़ी खीर होगा। आप एक स्प्रे-गनभी दे ही दें।’’

दवाएं और उनके इस्तेमाल का तरीका ध्यानपूर्वक सुना।

फिर पोलीथीन में तमाम सामान डालकर वह घर की तरफ चल पड़ा।

उसके दिमाग में एक प्रष्न रह-रह कर कौंध रहा था कि तिलचट्टे तो मर जाएंगे, लेकिन क्या उसके बाद भी अम्मा का मन उस घर लगेगा ही?

क्या अम्मा को तिलचट्टों के प्रेत नहीं डराया करेंगे?

उसके पास इन प्रष्नों कर कोई जवाब न था।