शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

पहचान एक ज़रूरी उपन्यास : ज़रीन हलीम

ज़रीन हलीम जी की कलम से मेरे लेखन पर टिपण्णी :






 इस वर्ष जब मैं पुस्तक मेले में अपनी पुस्तक के विमोचन में अपने स्टाल पर पहुंची जहां से मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई थी यानी कि नींव वर्ल्ड पब्लिकेशन पर तोअन्य पुस्तकों का मुआयना कर‌ते समय कुछ पुस्तकें मुझे बहुत ही भाईं और मैंने उन्हें ख़रीद लिया।घर आकर जब पढ़ना आरम्भ किया तो लगा‌ वास्तव मे मैने सही चयन किया। क्या पता था कि पुस्तक के लेखक से फेसबुक पर मुलाकात हो जाएगी। लेखक सुहेल अनवर की दो किताबें एक तो कथा संग्रह थी जिसका नाम "बिलौटी" था और दूसरी एक उपन्यास "मेरे दुख की दवा करे कोई" इनके साथ अन्य पुस्तकें भी‌ ख़रीदी‌थीं जैसे मनीष आज़ाद की "अब्बू की नज़र में जेल" और श्री कौशल किशोर जी की "समय समाज और साहित्य" थीं।

अनवर सुहैल साहब को जैसे ही पता चला कि मुझे उनकी दोनों किताबें बहुत ई अच्छी लगीं तो उन्होंने मुझे अपना नया उपन्यास "पहचान "भेजा परंतु रमज़ान की वजह से चाहकर भी मैं उसे पढ़ नहीं पाई।
आज ही मैंने उनका लिखा यह उपन्यास "पहचान" समाप्त किया तो मैं पढ़ कर इतना प्रभावित हुई कि आज ही समीक्षा देने का मन हुआ और मैं जब लिखने बैठी तो शब्दों की कमी पड़ने लगी कि कहां से और किस प्रकार आरंभ करें।
उनके उपन्यास को पढ़कर ऐसा‌लगा ही नहीं कि यह उपन्यास है ऐसा लगा कि यह मेरे आस पास घटित हो रहा है। उनके लेखन में अधिकतर निम्न वर्ग और कारखानों विशेष रूप से कोयला खदानों से संबंधित समस्याओं का उल्लेख है शायद लेखक का वहां से संबंध है इसीलिए वहां की एक एक बारीकी बखूबी विस्तार से बताई गई है जो उपन्यास के किरदारों से संबंधित हैं।
मेरे दुख की दवा करे कोई एक बहुत ही मार्मिक एवं निम्न वर्ग की औरतों के चरित्र तथा मजबूरी और उनके सपनों के बिखरने का मार्मिक चित्रण है मैं तो रो पड़ी अंत में लगा इसके किरदारों से हम बखूबी परिचित हैं मगर यह परिचय केवल सुहैल अनवर ने करवाया वरना उनके जीवन की वास्तविकता तक पहुंचना असंभव था।लेखक की भाषा शैली बहुत ही सरल व सहज है। कुछ भी बनावटी नहीं लगता बस ऐसा‌ लगता है कि हमें अपने समाज की औरतों और निम्न वर्ग के नौजवानों को और अधिक जानने तथा समझने की आवश्यकता है।
उनकी पुस्तक" पहचान " हमें मध्य प्रदेश के कोयला खदानों के आसपास रह रहे उस निम्न वर्ग से परिचित कराती है जहां के नौजवान धर्म के नाम पर बहुत ही कंफ्यूज हैं क्योंकि उनके मार्गदर्शन के लिए उनके परिजनों के पास ना तो समय है ना ही प्राथमिकता वह भी जो कुछ बचपन से देखते आ रहे हैं वह उनके मन मस्तिष्क में अंकित होकर मार्ग अवरूद्ध कर देता है। सुहैल साहब की हर पुस्तक में औरतों की बेबाकी और निडरता तथा हालात से निपटने की क्षमता का सजीव चित्रण है जिसका कारण उनका बचपन से ही बड़ा बन जाना और पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ कुछ इस, प्रकार बयान किया है लगता है हमने इस पहलू को क्यों नहीं जाना।
पहचान में निम्न वर्ग का नौजवान जो कट्टर धार्मिकता से परे अपने उज्जवल भविष्य को लेकर चिंतित है अनेकों समस्याओं से जूझ कर सामाजिक विषमताओं से निकल कर जीना सीख जाता है और अपनी पहचान को ज़िंदा रखने के लिए घर से भागकर कहीं दूर जहां वह अपने सपने को साकार करके अपनी पहचान अपनी कर्मठता से बना सके। इसके लिए उसे अपनी सबसे प्रिय सनोबर जो उसका प्यार थी और प्रेरणा भी ,को भी छोड़ना पड़ जाता है परन्तु वह अपनी पहचान बना कर ही अपने आत्मसम्मान के साथ यह सबकुछ वापस पाने के लिए स्वयं से वचनबद्ध है।
सुहैल अनवर साहब को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं जो उन्होंने हम लोगों को इतनी उच्च कोटि की पुस्तकें प्रदान कीं जिसे पढ़कर हम एक अलग ही समाज में विचरण कर वहां की समस्याओं में इतना खो जाते हैं कि लगता है अपने देश के इस हिस्से को जानना और समझना भी हमारा कर्तव्य है जिसे हम इन पुस्तकों के माध्यम से जी लेते हैं और सोचने पर मजबूर हो जाते हैं उन सभी पात्रों के विषय में जो एक पहचान के लिए भी इतनी जद्दोजहद कर रहे हैं।
यह सभी पुस्तकें आपको अमेज़न पर उपलब्ध हो जाएंगी अवश्य पढ़ें और कुछ नया सीखें जो हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है।एक अलग समाज जो हमारे देश का ही हिस्सा है आज भी कितनी विकट समस्याओं से जूझ रहा है।

सोमवार, 3 नवंबर 2025

सार्थक संघर्ष और विवेक की पक्षधरता का निबाह करती कहानियाँ "गहरी जड़ें" - मनोज पाण्डेय


मनोज पांडेय: समीक्षक 



अनवर सुहैल समकालीन हिंदी कथा जगत में एक जाने पहचाने कहानीकार हैं. ‘गहरी जड़ें’ उनका कहानी संग्रह है जिसमें भारतीय मुस्लिम परिवेश पर आधारित कहानियां संग्रहित है. इस बात को आधिकारिक बनाने के लिए इस संग्रह के मुखपृष्ठ पर स्पष्ट रूप से इत्तला भी दिया गया है.हिंदी पाठकों के लिए इस कहानी संग्रह का परिचय देते हुए भूमिका में ‘अपरिचित संसार का अनावरण’ का शीर्षक भी दिया गया है जिसे हिंदी कथा जगत के चर्चित कथाकार अजय नावरिया ने लिखा है. यह मान कर चला गया है कि ‘मुस्लिम परिवेश’ एक अपरिचित दुनिया ही साबित होता रहा है.जबकि ऐसा नही है कि अनवर सुहैल पहली बार मुस्लिम परिवेश की कहानियां लिख रहे है. हिंदी कथा-साहित्य में शानी, राही मासूम रजा, बदी उज्जमाँ, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, हसन जमाल, हबीब कैफ़ी अलग-अलग कद के रचनाकार रह चुके हैं और आज भी लिख रहे है. इतने लोगों के लिखने और उनको पढ़े जाने के बाद भी परिवेश का अपरिचित बने रहना हिंदी कहानियों के संवेदनशील पाठक के लिए किसी धक्के से कम नही हो सकता. इन ‘मुस्लिम’ कहानीकारों से पहले प्रेमचंद की कहानियों में वह भारतीय जीवन उभरता है जिसमे ‘मुस्लिम परिवेश’ के रंग भी साफ़ पहचाने जा सकते है. प्रेमचंद के कथा-साहित्य में यह परिवेश किसी विशेष हिस्से के रूप में आने की जगह भारतीय जीवन के पहलू के तौर पर ही सामने आता है.       

  बिम्ब प्रतिबिंब प्रकाशन 
   प्रेमचंद ने जिस समय में अपनी कहानियां लिखी उस समय तक न धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा हुआ था और न ही उस समय तक ‘पाकिस्तान’ का विचार ही अपनी जड़े जमा पाया था. 1947 के बाद बंटवारे के बाद से भारत में ही रह गये भारतीय मुस्लिमों के साथ एक खास किस्म की मानसिकता ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी. मुसलमानों को किसी एक दूसरे देश के साथ जोड़ कर पहचाने जाने की पीड़ा से नही गुजरना पड़ता था. उस समय तक उसके खाने-गाने पर दो देशों के नाम नही चिपके हुए थे.जितनी मात्रा में हिन्दू अंग्रेजपरस्त थे उतनी ही मात्रा में मुस्लिमों के मामले में भी संभावना थी. शहर-गाँव की बसावट में धर्म की  रेखाएं दीवार में नही बदली थी. शायद यही कारण रहा होगा कि अलगू और जुम्मन एक दूसरे की पंचायत करते थे और उन के निर्णय भी दोनों सहजता से स्वीकार भी करते थे. संग्रह के शीर्षक ‘गहरी जड़ें’ नामक कहानी का मुस्लिम पिता का मनोसंसार ‘बाबरी’,‘गोधरा’ और ‘ग्यारह सितम्बर’ होने से पहले ही पुख्ता तौर पर निर्मित हो चुका था. अपने मनोसंसार में ‘पंच-परमेश्वर’ वाले खाद-पानी के कारण ही उनके भीतर अपने पुराने मुहल्ले में ‘बसे’ रहने की जिद ने गहरी जड़ें जमा ली हैं. उनकी यह जिद अपने समय के अधेरों के खिलाफ रौशनी की जिद बन पाठक को भारतीय समाज के प्रति आश्वस्त करती है. अपनी इस आश्वासन की बिना पर यह कहानी इस संग्रह की विशिष्ट कहानी का दर्जा पाती है.

      एक अच्छी कहानी अपनी पूरी बुनावट में अपने लिखे जाने के कारण की ओर साफ़ इशारा करती है. अनवर की अधिकांश कहानियों में ये इशारे इतने साफ़ तौर पर आते है कि उन इशारों को हम ब्यौरे की तरह देखने लगते है.’नीला हाथी’,’ग्यारह सितंबर के बाद’ और ‘दहशतगर्द’ नामक कहानियों में हमे इसकी तफ्शील मिलती है. दहशतगर्द कहानी के मूसा के आतंकवादी में तब्दील होने की प्रक्रिया को इन्ही ब्योरों के साथ देखा-समझा जा सकता है.”पहले-पहल इस नगर में एक ही मन्दिर था, देवी माँ का मन्दिर,फिर जब यहाँ मारवाड़ी आकर बसे तब नगर के मध्य में भव्य ‘राम-मन्दिर’ बना,जिसके प्रांगण में सुबह-शाम शाखाएं लगने लगीं. पहले यहाँ एक छोटे कमरे में मस्जिद बनी, फिर देखते-देखते इस नगर में तीन मस्जिदें, दो ईदगाह, एक कब्रस्तान, एक मजार बन गई.  ...आर्थिक उन्नति के साथ  धर्म, आस्था, विचार, आदर्श, संवेदना और शिक्षा का व्यवसायीकरण किस तेजी से होता है, इसकी प्रत्यक्ष मिसाल यहाँ देखी जा सकती है.” इन ब्योरों की बानगी हमे हर शहर और कस्बों के साथ इतनी ही शिद्दत के साथ घटती दिखाई देती है.यह कहानी हर शहर-कस्बें की कहानी बन जाती है. मूसा के आतंकवादी बन जाने या बना दिए जाने  के बाद भी गनीमत है कि  हमारे आसपास ईसा मियां और पहले वाले मूसा कम नही हुए हैं. यह कहानी मूसा को बदलने में भागीदार लोगों की साजिशों को बेपर्दा करने वाली कहानी है.यह बेपर्दा करने वाली कहानियां हमे किसी अगले मूसा को आतंकवादी बनने और बनाने की प्रक्रिया से जूझने की ताकत से भरने का काम भी करती जाती हैं. जबकि ‘ग्यारह सितंबर के बाद’ का अहमद इससे पहले ‘छह दिसंबर’ भी झेल चुकने की निरन्तरता को सह नही पाता और ‘घनघोर-नमाजी’ बन जाता है. उसके इस बदलाव के पीछे इन दोनों घटनाओं के असर से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका इन दोनों घटनाओं के बीच उसके साथ रोजमर्रा के जीवन में होने वाली घटनाएँ और व्यवहारों ने निभाई हैं. अयोध्या और अमेरिका दोनों अहमद से दूर है पर उसके आसपास के लोग हमेशा उसके आसपास हैं. “मुझे एक मुसलमान क्यों समझा जाता है,जबकि मैंने कभी भी तुमको हिन्दू वगैरा नही माना. मुझे एक सामान्य भारतीय शहरी कब समझा जायेगा?” अहमद का यही ‘दर्द’ उसको भीतर तक डरा देता है. एक ‘मुसलमान’ में बदलते अहमद के रूप में भारतीय समाज-संस्कृति का ‘डरा-सहमा और कमजोर’ होता चेहरा हमारे सामने आ खड़ा होता है.
         अनवर परिवार और उसके संबंधों की भी कहानियां लिखते हैं और अच्छी लिखते हैं.’नसीबन’,’चहल्लुम’ शीर्षक कहानी तो पूरी तरह परिवार के भीतर की कहानी हैं.’पुरानी रस्सी’ को भी इस दायरे में शामिल माना जा सकता है. इन कहानियों के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों के तनावों से रूबरू होता है. इन कहानियों के पात्रों का नाम आप जिस परिवेश की छाह देने वाले रखगें यह कहानियां भी उसी परिवेश की हो जाएँगी. इस तरह की कहानियां हमारे पारिवारिक ढांचे को ढकने वाले धार्मिक आवरण को उघाड़ कर पूरे भारतीय सामाजिक ताने बाने की विसंगतियों को सामने लाती है. ‘हमारे यहाँ ऐसा नही होता या होता है’ के दावों की भुरभुरी नीवं को खोद कर नेस्तनाबूद कर देती हैं. रिश्तों के भीतर मार्मिक स्थितियों को पहचानने और उन्हें प्रभावी कलेवर में प्रस्तुत करने में भी अनवर सुहैल सफल रहे है. इस लिहाज से ’नसीबन’ एक बेहद सफल कहानी है.नसीबन एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो स्त्री-जीवन की विपरीत और त्रासद स्थितियों के खिलाफ मजबूती से खड़ी होती है, लडती है, अपने दायरे में जीतती भी है. वह पाती है कि  एक उस जैसी एक दूसरी स्त्री उन्ही विपरीत और त्रासद स्थितियों के चंगुल में फंसी हुयी है और उस दूसरी स्त्री के व्यवहार में उसका एहसास दूर–दूर तक दिखाई नही देता. इस सच से नसीबन को गहरा धक्का लगता है. कहानी का अंतिम अंश है “नसीबन की आँखें बंद थीं./एक बम सा फटा उसके कानों के पास! ‘जुम्मन’/काश! उसने अपने कान भी बंद कर लिए होते.” इस तरह नसीबन दूसरी स्त्री के जीवन-स्थितियों के त्रासद सच से अपने आप को एकाकार महसूस करती है. नसीबन के साथ कहानी का पाठक भी भीतर तक हिल जाता है.
        ‘नीला हाथी’ और ‘पीरू हज्जाम उर्फ़ हजरतजी’ कहानी धर्म के आडम्बर औरविसंगतियों का कथात्मक रूप प्रस्तुत करती है. अपनी विषयवस्तु में प्रभावी होने के बाद भी इन कहानी का पूरा ढांचा बहुत हद तक तय फार्मूले और टूल के इस्तेमाल से खड़ा किया हुआ लगता है. इन दोनों कहानियों में धर्म का आडम्बर रचने और उसे अपने लिए फायदेमंद बना लेने का काम करने वाले पात्र मुस्लिम समुदाय के अशराफ या पसमांदा तबके से ताल्लुक रखने वाले हैं. कहानीकार इस तथ्य को दोनों कहानियों में दर्ज भी करता है. एक कहानी के शीर्षक से ही इस बात की पुष्टि हो जाती है. अब मामला ये बनता है कि धर्म के पूरे जालताल पर किस तबके का वर्चस्व बना रहता है, उस ओर न तो इशारा करती है और न ही इन पात्रों के व्यक्तित्व को इस तरह से विकसित होने में उस तबके की मानसिकता का असर ही पकड़ा गया है. इसके बावजूद दोनों कहानियों को पढने में  पाठक कहानी का पूरा रस ले सकते है.
        ‘फिरकापरस्त’, ’कुंजड-कसाई’, और ‘फत्ते भाई’ इन तीन कहानियों में मुस्लिम परिवेश के परत दर परत खांचों के दबावों और विषमता-बोध को केंद्र में रखा गया है. इन कहानियों में दर्ज हुआ ‘मुस्लिम परिवेश’ अपने ही धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ साबित होता है फिर भी मजबूती से अपना वजूद कायम रखे है. यह भारतीय परिवेश का कारुणिक प्रभाव है जिससे कोई भी धर्म नही बचा हुआ है. कहानी संग्रह की भूमिका में जिस ‘अपरिचित संसार का अनावरण’ करने की बात की गई है वह इन्ही तीन काहनियों से मुख्यतः जुडती हैं. इन तीनों कहानियों का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि इन तीनों कहानियों के पात्र अपने जीवन पर थोपी त्रासदी और विषमताबोध के खिलाफ सार्थक संघर्ष के रास्ते पर चलते है. एक कहानीकार के तौर पर अनवर सुहैल ने अपनी सभी कहानियों में संवेदनशील और सचेत रूप में सार्थक संघर्ष के प्रति अपनी गहरी आस्था और विवेक की पक्षधरता का निबाह किया है और यही निबाह किसी भी रचनाकार का अंतिम देय साबित होती है.