रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कोयला खदान के पात्र

कविता: अनवर सुहैल

1.चमरू

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता हे चमरू
उतरती है चैन साईकिल की
इस बीच कई बार
फुलपैंट का पांयचा
फंस कर चैन में
    हो चुका चीथड़ा
चमरू की त्वचा की तरह
दूसरी पेंट भी तो
नहीं पास उसके!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
मुंह अंधेरे छोड़ता घर-परिवार
रांधती है बीवी अलस्सुबह भात
अमरू की तीखी-खट्टी चटनी
या कभी खोंटनी साग
पोलीथीन में बांध कर खाना
भगाता साईकिल तेज़-तेज़ चमरू
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क तक पहुंचने में
नाकने पड़ते नाले तीन
इन नालों के कारण
बारिश में करना पड़ता ड्यूटी नागा उसे
चमरू नहीं जानता
कि राजधानी में मेट्रो का बिछाया जा रहा जाल
कि चार दिन के खेल के लिए
फूंके जाते हैं हज़ारों करोड़ रूपए
ऐसे समय में जब अनाज भंडारन के लिए
नहीं है अभी भी गोदाम देश में...

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
जब खदान के मुहाड़े
मुंशी महराज हड़काता है
-‘‘आज फिर लेट आया बे चमरू!’’
पतली दुबली काया में
सांस के उतार-चढ़ाव को सहेजे
दांत निकाल देता सफाई चमरू-
‘‘का करूं महराज.... अब से गल्ती न होई!
भले से शाम देर तक ले लेना काम
लउटईहा मत महराज!’’

चमरू खदान में
करता हर तरह के काम
जानता खदान का चप्पा-चप्पा
मधुमक्खी के छत्ते की तरह तो
सुरंगें हैं कोयला खदान की
या कहें अंतड़ियों के जाल सी हैं सुरंगें खदान की
अपने संग मजूरों की जुट्टी बना
दौड़ता-निपटाता सारे काम चमरू
इसीलिए महराज मुंशी उसे
    ज्यादा नहीं धमका पाता है.....

चमरू खदान का
सबसे पुराना ठीकेदारी-मजूर है
महराज मुंशी जानता है
यदि चमरू रूठा
तो लपक लेगा दूसरा ठीकेदार उसे
इसलिए प्यार से गरियाकर
लगा देता उसे ड्यूटी पर....

थोड़ी देर बाद चमरू
हेलमेट में केप-लैम्प बांधे
मजूरों की जुट्टी संग उतरता
कोयला खदान के अंतहीन गलियारों में
महराज मुंशी मजूरों को उतार
देता मोबाईल पर ठीकेदार को रिपोर्ट
और भाग जाता महराजिन के पास!

बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू काम पर
इसी तरह आते हैं
सैकड़ों चमरू कोयला खदानों में
अपनी-अपनी साईकिलों पर होके सवार
इस तरह
कि न जी पाते हैं क़ायदे से
और न मर ही पाते हैं सलीके से!


2. मनोहरा

महुए की दारू
पिए मनोहरा
करता ड्यूटी नागा

पी-पी करके
छलनी हुआ कलेजा उसका
जान नहीं अब उसमें इतनी
कर पाए काम खदान का
कोयले की खदान
जहां आना-जाना भी
होता है एक श्रमसाध्य कार्य

महुए की दारू
पिए मनोहरा
करता खूब उधारी
काॅलरी कर्मचारी को
मिल भी जाता आसानी से उधार
क्योंकि पाते हैं वे अच्छी पगार

मनोहरा की पासबुक
गिरवी है महाजन के पास
इस उसके पैरों गिरकर
करता नैया पार
आदत से लाचार!

महुए की दारू
पिए मनोहरा
पीट रहा घरवाली को
मार रहा है बच्चों को
हांफ-हांफ कर बर्राता है
गिरता औंधे मुंह
और फिर इक दिन
ऐसा गिरा कि उठ न पाया
महुए की दारू का
मनोहरा बना शिकार
इस तरह से
बाल-बच्चों पर
खत्म हुआ उसका अत्याचार...


3. ललिया

परदेसी की घरवाली ललिया
परदेसी के रहते
जान नहीं पाई दुनियादारी
लेकिन विधवा होते ही
उसने सीख ली
चील-गिद्धों के बीच
    जीने की कला!

वैसे भी कहां जान पाती हैं
संसार को महिलाएं
जब तक रहती हैं
बेटी, पत्नी, मां
होने पर विधवा ही
उन्हें पता चलता है
कि कितना पराश्रित जीवन था उनका

विधवा ललिया को
जेठ, देवर और ससुर ने
समझाया भी
और फिर धमकाया बहुत
कि अकेली नार
अनपढ़ गंवार
कैसे कर पाएगी
कोयला खदान में नौकरी

ललिया नहीं थी कमज़ोर
जानती थी वह
यदि उसने मानी हार
बन जाएगी
दर-दर की भिखारन और लाचार
अनाथ बच्चों का मुंह देख
पति परदेसी की जगह
ललिया ने ली
खदान में अनुकम्पा-नियुक्ति!

लम्बा सा घूंघट लिए
ललिया ने सम्भाला
बड़े साहब का आॅफिस में काम
बाबुओं, चपरासियों, कामगारों के
इशारों, चुहलबाजियों से परेशान
एक दिन उसने घूंघट को दी तिलांजलि
और एक नई ललिया ने लिया जन्म

अब ललिया किसी से नहीं शर्माती
किसी से नहीं घबराती
एक दिन उसने की बड़े साहब से बात
और सीखने लगी वर्कशाप में
ग्राइंडिंग मशीन का काम
अब ललिया नहीं है चपरासन
ललिया है एक मेकेनिक
उसने खरीद ली है एक स्कूटी
और ज़माने को ठेंगे पर रख
स्वावलम्बी ललिया
काम निपटाकर
अपने बाल-बच्चों के पास
स्कूटी से उड़ जाती है फुर्र....

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