prakashak :
Kashyap Publication
B-48/UG-4, Dilshad Extn-II
DLF, Ghaziabad, 201005
pages : 80 Price : 125
Email : kashyppublication@gmail.com
website : kashyappublication.in
phone : 9313282945, 9868778438
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Saturday, March 31, 2012
Thursday, March 29, 2012
mujhe bigada
जीवन संघर्श
अब्बा रेल्वे स्कूल में षिक्षक थे, जो अब अवकाष प्राप्त कर चुके हैं। वह एक अनुषासन प्रिय, अध्यव्यवसायी, गम्भीर एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। उन्हें किसी से कोर्इ षिकायत नहीं रहती। वह अपने जीवन से इतने संतुश्ट रहते हैं कि उन्हीं से प्रेरणा पाकर मेरे अंदर अनुषासनप्रियता और संतोश का भाव गहराया है। अब्बा कहते हैं कि ‘साहेब से सब होत है, बंदे से कुछ नाहिं’।
अब्बा का एक और ध्येय-सूत्र है कि आराम करने के लिए क़ब्र ही बेहतर जगह है। यह जीवन लगातार कुछ नया रचने के लिए है। मैं भी भूमिगत कोयला खदान में काम करने के बावजूद नया रचने या नया पढ़ने की ललक का मारा रहता हूं। बाबा कबीर की उक्ति अक्सर बच्चों को सुनाया करता हूं-’’सुखिया सब संसार खावै अरू सोवै / दुखिया दास कबीर जागे अरू रोवै।’’
जो चेतनासम्पन्न होगा यानी कि बाबा कबीर के “ाब्दों में जो ‘जागा’ होगा वह सांसारिक दु:ख देख कर चिंतित रहेगा। जो तबका स्वार्थ, लिप्सा और भोगविलास में डूबा रहता है उसे कबीर दास सुखिया कहते हैं। मेरे विचार से तमाम “ाायर, लेखक बिरादरी कबीर दास की दुखिया कैटगरी में आती है।
मेरी अम्मी उर्दू, फ़ारसी और अरबी की जानकार थीं। वह इतने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ लिखती थीं कि ऐसा लगता जैसे कहीं कोर्इ छपी हुर्इ स्क्रिप्ट हो। हम बच्चों को हिन्दी लिखते-पढ़ते देख उन्होंने भी हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था। उनकी संदूक में चंद किताबें ज़रूर रहा करती थीं। जैसे, हफ़ीज़ जालन्धरी की ‘षाहनामा ए इस्लाम’ चार भाग, अल्लामा इक़बाल की किताब ‘बांगे दरा’, स्मिथ की ‘दि स्पिरिट ऑफ इस्लाम’, कृष्न चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’। उर्दू माहनामा ‘बीसवीं सदी’ के सैकड़ों अंक उनके कलेक्षन में थे। वह इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया भी ज़रूर पढ़ा करती थीं। मुझे उर्दू पढ़ने की ललक इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया पढ़ने से जागी।
अम्मी एक चलता-फिरता “ाब्दकोष हुआ करती थीं। “ोरो-षायरी, से उनकी गहरी वाबस्तगी थी। वह कठिन से कठिन अष्आर कहतीं और फिर उनकी तफ़सील बताया करती थीं। अक्सर वह एक “ोर कहती थीं-’’सामां है सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।’’
मेरे विचार से मेरे अंदर कवि या लेखक बनने का ज़ज़्बा अम्मी के कारण पैदा हुआ क्योंकि अम्मी अक्सर अकेले में मौका पाकर कॉपी के पिछले पन्ने पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। मुझे अफ़सोस है कि उन पन्नों को मैं सम्भाल कर रख न पाया वरना तत्कालीन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति स्वरूप वे तहरीरें आज मेरे कितने काम आतीं।
मेरे मुहल्ले में गिरीष भइया रहते थे। वह पुराने उपन्यासों के उदात्त नायकों की तरह मुझे नज़र आया करते थे। वह व्यंग्य लिखा करते थे। उस समय उत्तर प्रदेष से एक हास्य व्यंग्य की पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ निकला करती थी। गिरीष भइया उसके नियमित लेखक थे। मैं उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उनसे मिलने उनके घर गया। उन्होंने ठलुआ का पुराना अंक देकर मुझे कहा कि इसके लिए मैं भी कुछ लिखूं। तब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था। मैंने सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र प्रकाषित हुआ और लेखकीय प्रति के रूप में ठलुआ का अंक जब मेरे नाम से पोस्टमैन घर दे गया तो अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक बन गया हूं।
“ााम के समय राम मंदिर के प्रांगण में गिरीष भइया, आर एस एस की “ााखा में अवष्य उपस्थित हुआ करते। मैं तब बालक ही था। राजनीति की कोर्इ समझ तो थी नहीं। “ााखा में झण्डा-वन्दन, प्रार्थना के बाद सभी लोग खेल खेला करते थे। मुझे वहां अच्छा लगता। इसलिए भी अच्छा लगता कि मेरे समय का एक लेखक गिरीष भइया भी वहां खूब आनन्द लेते थे। ठलुआ में मैंने नगर की सड़कों की दुर्दषा पर, एकमात्र छविगृह पर, पगार की पहली तारीख पर व्यंग्य लिखे। मैं जो भी लिखता थोड़े-बहुत संषोधन के साथ वह ठलुआ में छप जाया करता था। गिरीष भइया अर्थात गिरीष पंकज बाद में एक बड़े लेखक बने। वर्तमान में वह साहित्य अकादमी के सदस्य हैं। गिरीष पंकज ने सद्भावना दर्पण के नाम से एक त्रैमासिक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।
विद्यालय में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन होने वाले काय्रक्रमों में मैं भाग लिया करता था। देषभक्ति से प्रेरित कविताएं तुकबंदी के साथ लिखा करता था। कविता पाठ करने पर बच्चे तालियां बजाते और षिक्षकों उत्साह वर्धन करती निगाहें मुझे अन्य बच्चों से हटके बना दिया करती थीं। हिन्दी के अध्यापक श्री अमर लाल सोनी ‘अमर’ मेरी कवितार्इ देखकर मुझे ‘बूढ़ा बालक’ कहा करते थे। वह हमारे घर के सामने रहा करते थे। अक्सर मुझे अपने पास बुलाते और अपनी ताज़ा कविताएं सुनाया करते। उनकी कविताएं अतुकांत होतीं साथ ही उनमें आदर्ष होता। वह षिक्षक के नज़रिए से संसार को देखा करते थे और हर खराब को अच्छा बनाने की ज़िद पाले बैठे थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगतीं लेकिन मेरे मित्र उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। वास्तव में उस समय का समाज भी लेखक या कवि को अनुत्पादक काम में लिप्त मानता था। लेकिन मेरे मन में तो जयषंकर प्रसाद, प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ टैगोर बनने की ललक थी। मैं खूब कविताएं लिखा करता था। अम्मी के सम्पर्क में रहने के कारण मेरी कविताओं में उर्दू के “ाब्दों की अधिकता होती थी। अम्मी मेरी कविताओं की सराहना किया करतीं। वह मुझे इस्लाह भी किया करती थीं।
नगर में किराए से किताब मिलने की एक दुकान थी। मैं वहां से दस पैसे रोज पर एक किताब लाया करता था। वहां नंदन, पराग, चंदामामा और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मुझे बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ अत्यंत प्रिय थी। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना उसके सम्पादक हुआ करते थे। खूबसूरत सजी-धजी पत्रिका थी ‘पराग’। उस समय के तमाम मषहूर लेखकों की बाल रचनाएं ‘पराग’ में प्रकाषित हुआ करती थीं। आज हिन्दी में ऐसी बाल-पत्रिका का नितान्त अभाव है। जाने क्यों ‘पराग’ पढ़ते-पढ़ते एक दिन मैंने सोचा कि अपने मन से मैं भी तो कहानी बना कर लिख सकता हूं।
छोटी बहिन “ामॉं को रात के वक्त कहानी सुनने की आदत थी। मैं तब दसवीं का छात्र था। मैंने उस दिन सुनी-सुनार्इ कहानी न सुना कर उसे एक कहानी गढ़ कर सुनार्इ। वह कहानी बहन को बहुत पसंद आर्इ। मैंने रजिस्टर के पन्ने फाड़े और उस पर कहानी को दर्ज किया। नाम दिया ‘नन्हा “ोर’।
कहानी भेज दी ‘पराग’ के पते पर। ‘पराग’ जिसके अंकों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। ‘पराग’ जिसके नए अंक मेरे सपने में आते तो ज़रूर थे लेकिन इतने अस्पश्ट होते कि मैं मुखपृश्ठ भी देख न पाता और नींद खुल जाती। ‘पराग’ जिसके दिल्ली स्थित सम्पादकीय कार्यालय में मैं न जाने कितनी बार सपने में गया था, जहां चारों तरफ ‘पराग’ के पुराने अंकों के बंडल पड़े दिखते थे लेकिन वह अंक न दिखता था जो अभी छपा न था।
‘पराग’ में कहानी भेजने के एक सप्ताह के बाद प्रतिदिन पोस्टआफिस जाने लगा कि कहानी स्वीकृत हुर्इ या नहीं। एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब डाकिए ने एक प्रिंटेड पोस्टकार्ड मुझे पकड़ाया जिसमें छपा हुआ था कि आपकी कहानी ‘नन्हा “ोर’ स्वीकृत कर ली गर्इ है जिसे यथासमय ‘पराग’ में प्रकाषित किया जाएगा। मैंने वह पत्र माननीय गिरीष भइया को दिखलाया। वह भी खुष हुए। अम्मी ने अल्लाह का “ाुक्रिया अदा करते हुए फातिहा पढ़ी। इस तरह से मैं एक लेखक बन गया।
नगर में एक साहित्यिक संस्था थी ‘संबोधन साहित्य एवम् कला परिशद’ जिसके अध्यक्ष थे श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव ‘विºवल’। वह समय अपने नाम के साथ उपनाम लगाने का था। जैसे अमर लाल सोनी ‘अमर’, कासिम इलाहाबादी, जगदीष पाठक ने तो अपना नाम ही बदल लिया था - भतीजा मनेंद्रगढ़ी। जब मैंने संबोधन की सदस्यता ली तो उनकी तर्ज पर मैंने अपना
मैंने अपना नाम रखा अनवर सुहैल ‘अनवर’। मैंने इस नाम की एक सील भी बनवार्इ। मैं अब संस्था की परम्परानुसार कविता और ग़ज़लें कहनी “ाुरू कर दी। कविताएं और ग़ज़लें ऐसी कि हर लार्इन पर लोग ‘वाह-वाह’ कहें। मैं तब तुकों की खोज में रहा करता था। एक बार मैंने ‘हो गया है’ की तुक को पकड़ कर ग़ज़ल लिखी और उसके लिए मैंने ‘खो गया है’ ‘सो गया है’ ‘बो गया है’ ‘धो गया है’ आदि तुकों पर काम करते हुए ग़ज़ल बनार्इ थी जिसपर संस्था की गोश्ठी में बहुत दाद मिली थी। मेरे लिए तुक तलाषना और गीत-कविता गढना एक आसान काम बन गया। मैंने कर्इ गीत लिखे जिनमें एक गीत मैं गोश्ठियों में सस्वर पढ़ा करता था-’’घूम आर्इ अंखियां नगर घर देस
आया न कहीं से प्यार का संदेस’। मंचीय कविता मंच में तो खूब दाद दिलवा देती थीं लेकिन जिन्हें सम्पादक खेद सहित वापस कर देते थे। सम्बोधन संस्था में एक नर्इ बात ये थी कि वहां पहल, सम्बोधन जैसी लघुपत्रिकाएं आया करती थीं। मैंने पहलेपहल ‘पहल’ वीरेंद्र श्रीवास्तव के घर देखी थी। मुझे उसकी कविता और कहानियां बहुत पसंद आर्इ थीं। अब मेरा मन भी ऐसी ही कविताएं लिखने को करने लगा।
नगर में बैंक है, स्कूल है, कॉलेज है सो इनमें स्थानान्तरित होकर नए लोग भी आते। जो साहित्यिक मिजाज़ के होते उन्हें सम्बोधन संस्था से जोड़ लिया जाता था। इसी तारतम्य में कर्इ ऐसे कवि भी देखने सुनने में आए जिनकी कविताएं सिर के उपर से निकल जाया करतीं लेकिन जिन्हें सुनकर लगता कि इनमें वह बात है जो कि गीत-ग़ज़लों में हो नहीं सकती। जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, माताचरण मिश्र, एम एल कुरील की कविताएं मन को बेचैन कर दिया करती थीं। संबोधन से एक लघुपत्रिका ‘षुरूआत’ निकला करती थी। वह एक साइक्लोस्टार्इल पत्रिका थी। उसमें मेरी कविता और लघुकथा प्रकाषित हुर्इ। धीरे-धीरे मैं अपने को स्थापित लेखक समझने लगा।
बेरोजगारी के दिनों में मैंने सम्बोधन संस्था द्वारा संचालित वाचनालय और पुस्तकालय का कार्यभार सम्भाला। केयर-टेकर के अभाव में वह पुस्तकालय अक्सर बंद रहता और सम्बोधन की गोश्ठियों, सभाओं के काम आता था। वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सहर्श मेरी बात मानकर पुस्तकालय का जिम्मा मुझे सौंप दिया। मैं और मेरा मित्र राजीव सोनी उस पुस्तकालय को नियमित खोलने लगे। “ााम को छ: से नौ बजे तक हम पुस्तकालय खोलकर बैठा करते। वहां की सारी किताबें हमने चाट डालीं। तब धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान निकला करती थीं। हमने पुराने अंक पलट डाले। राजीव सोनी की इस बीच “ाादी हो गर्इ। वह अमृता प्रीतम की लेखनी का मुरीद था। इस चक्कर में हमने अमृता प्रीतम का समग्र साहित्य खोज-खोज कर पढ़ डाला। इमरोज़ और अमृता के सम्बंध हमें एक रूमानी दुनिया की सैर कराया करते। मैं तो इतना ज्यादा उनके जीवन से प्रभावित हुआ कि अपने एक भांजे का नाम ही रख दिया ‘इमरोज़’। मुझसे किसी मित्र ने अपनी बिटिया के लिए नाम पूछा तो तत्काल मेरे मुंह से निकलता ‘अमृता’।
अमृता प्रीतम के अलावा मुझे निर्मल वर्मा, रमेष बक्षी, “ौलेश मटियानी, मण्टो, इस्मत चुग़तार्इ, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, फैज़, सामरसेट माम, चेखव, उग्र, मोहन राकेष, अज्ञेय, रेणु और मुक्तिबोध की लेखनी ने अत्यधिक प्रभावित किया। जाने क्यों टॉलस्टाय की अन्ना-केरेनिना के आठ भाग खरीद लेने के बावजूद मैं उसे पढ़ नहीं पाया। बेस्ट-सेलर होने के बावजूद मैंने धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ पसंद नहीं की। जबकि राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाष’ ने ज़रूर उद्वेलित किया था। ठीक इसी तरह मुंषी प्रेमचंद की गबन और मानसरोवर की कहानियों के अलावा अन्य कोर्इ उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया। हां, अमृतलाल नागर की लेखकीय प्रतिभा का ज़रूर मैं मुरीद रहा। पात्रानुकूल भाशा का सृजन करने में उन्हें महारत थी।
मुझे यथार्थ की ज़मीन से उपजे पात्र और उनके मनोविज्ञान पर आधारित कथानक प्रभावित करते हैं।
अब्बा रेल्वे स्कूल में षिक्षक थे, जो अब अवकाष प्राप्त कर चुके हैं। वह एक अनुषासन प्रिय, अध्यव्यवसायी, गम्भीर एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। उन्हें किसी से कोर्इ षिकायत नहीं रहती। वह अपने जीवन से इतने संतुश्ट रहते हैं कि उन्हीं से प्रेरणा पाकर मेरे अंदर अनुषासनप्रियता और संतोश का भाव गहराया है। अब्बा कहते हैं कि ‘साहेब से सब होत है, बंदे से कुछ नाहिं’।
अब्बा का एक और ध्येय-सूत्र है कि आराम करने के लिए क़ब्र ही बेहतर जगह है। यह जीवन लगातार कुछ नया रचने के लिए है। मैं भी भूमिगत कोयला खदान में काम करने के बावजूद नया रचने या नया पढ़ने की ललक का मारा रहता हूं। बाबा कबीर की उक्ति अक्सर बच्चों को सुनाया करता हूं-’’सुखिया सब संसार खावै अरू सोवै / दुखिया दास कबीर जागे अरू रोवै।’’
जो चेतनासम्पन्न होगा यानी कि बाबा कबीर के “ाब्दों में जो ‘जागा’ होगा वह सांसारिक दु:ख देख कर चिंतित रहेगा। जो तबका स्वार्थ, लिप्सा और भोगविलास में डूबा रहता है उसे कबीर दास सुखिया कहते हैं। मेरे विचार से तमाम “ाायर, लेखक बिरादरी कबीर दास की दुखिया कैटगरी में आती है।
मेरी अम्मी उर्दू, फ़ारसी और अरबी की जानकार थीं। वह इतने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ लिखती थीं कि ऐसा लगता जैसे कहीं कोर्इ छपी हुर्इ स्क्रिप्ट हो। हम बच्चों को हिन्दी लिखते-पढ़ते देख उन्होंने भी हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था। उनकी संदूक में चंद किताबें ज़रूर रहा करती थीं। जैसे, हफ़ीज़ जालन्धरी की ‘षाहनामा ए इस्लाम’ चार भाग, अल्लामा इक़बाल की किताब ‘बांगे दरा’, स्मिथ की ‘दि स्पिरिट ऑफ इस्लाम’, कृष्न चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’। उर्दू माहनामा ‘बीसवीं सदी’ के सैकड़ों अंक उनके कलेक्षन में थे। वह इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया भी ज़रूर पढ़ा करती थीं। मुझे उर्दू पढ़ने की ललक इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया पढ़ने से जागी।
अम्मी एक चलता-फिरता “ाब्दकोष हुआ करती थीं। “ोरो-षायरी, से उनकी गहरी वाबस्तगी थी। वह कठिन से कठिन अष्आर कहतीं और फिर उनकी तफ़सील बताया करती थीं। अक्सर वह एक “ोर कहती थीं-’’सामां है सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।’’
मेरे विचार से मेरे अंदर कवि या लेखक बनने का ज़ज़्बा अम्मी के कारण पैदा हुआ क्योंकि अम्मी अक्सर अकेले में मौका पाकर कॉपी के पिछले पन्ने पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। मुझे अफ़सोस है कि उन पन्नों को मैं सम्भाल कर रख न पाया वरना तत्कालीन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति स्वरूप वे तहरीरें आज मेरे कितने काम आतीं।
मेरे मुहल्ले में गिरीष भइया रहते थे। वह पुराने उपन्यासों के उदात्त नायकों की तरह मुझे नज़र आया करते थे। वह व्यंग्य लिखा करते थे। उस समय उत्तर प्रदेष से एक हास्य व्यंग्य की पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ निकला करती थी। गिरीष भइया उसके नियमित लेखक थे। मैं उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उनसे मिलने उनके घर गया। उन्होंने ठलुआ का पुराना अंक देकर मुझे कहा कि इसके लिए मैं भी कुछ लिखूं। तब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था। मैंने सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र प्रकाषित हुआ और लेखकीय प्रति के रूप में ठलुआ का अंक जब मेरे नाम से पोस्टमैन घर दे गया तो अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक बन गया हूं।
“ााम के समय राम मंदिर के प्रांगण में गिरीष भइया, आर एस एस की “ााखा में अवष्य उपस्थित हुआ करते। मैं तब बालक ही था। राजनीति की कोर्इ समझ तो थी नहीं। “ााखा में झण्डा-वन्दन, प्रार्थना के बाद सभी लोग खेल खेला करते थे। मुझे वहां अच्छा लगता। इसलिए भी अच्छा लगता कि मेरे समय का एक लेखक गिरीष भइया भी वहां खूब आनन्द लेते थे। ठलुआ में मैंने नगर की सड़कों की दुर्दषा पर, एकमात्र छविगृह पर, पगार की पहली तारीख पर व्यंग्य लिखे। मैं जो भी लिखता थोड़े-बहुत संषोधन के साथ वह ठलुआ में छप जाया करता था। गिरीष भइया अर्थात गिरीष पंकज बाद में एक बड़े लेखक बने। वर्तमान में वह साहित्य अकादमी के सदस्य हैं। गिरीष पंकज ने सद्भावना दर्पण के नाम से एक त्रैमासिक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।
विद्यालय में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन होने वाले काय्रक्रमों में मैं भाग लिया करता था। देषभक्ति से प्रेरित कविताएं तुकबंदी के साथ लिखा करता था। कविता पाठ करने पर बच्चे तालियां बजाते और षिक्षकों उत्साह वर्धन करती निगाहें मुझे अन्य बच्चों से हटके बना दिया करती थीं। हिन्दी के अध्यापक श्री अमर लाल सोनी ‘अमर’ मेरी कवितार्इ देखकर मुझे ‘बूढ़ा बालक’ कहा करते थे। वह हमारे घर के सामने रहा करते थे। अक्सर मुझे अपने पास बुलाते और अपनी ताज़ा कविताएं सुनाया करते। उनकी कविताएं अतुकांत होतीं साथ ही उनमें आदर्ष होता। वह षिक्षक के नज़रिए से संसार को देखा करते थे और हर खराब को अच्छा बनाने की ज़िद पाले बैठे थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगतीं लेकिन मेरे मित्र उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। वास्तव में उस समय का समाज भी लेखक या कवि को अनुत्पादक काम में लिप्त मानता था। लेकिन मेरे मन में तो जयषंकर प्रसाद, प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ टैगोर बनने की ललक थी। मैं खूब कविताएं लिखा करता था। अम्मी के सम्पर्क में रहने के कारण मेरी कविताओं में उर्दू के “ाब्दों की अधिकता होती थी। अम्मी मेरी कविताओं की सराहना किया करतीं। वह मुझे इस्लाह भी किया करती थीं।
नगर में किराए से किताब मिलने की एक दुकान थी। मैं वहां से दस पैसे रोज पर एक किताब लाया करता था। वहां नंदन, पराग, चंदामामा और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मुझे बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ अत्यंत प्रिय थी। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना उसके सम्पादक हुआ करते थे। खूबसूरत सजी-धजी पत्रिका थी ‘पराग’। उस समय के तमाम मषहूर लेखकों की बाल रचनाएं ‘पराग’ में प्रकाषित हुआ करती थीं। आज हिन्दी में ऐसी बाल-पत्रिका का नितान्त अभाव है। जाने क्यों ‘पराग’ पढ़ते-पढ़ते एक दिन मैंने सोचा कि अपने मन से मैं भी तो कहानी बना कर लिख सकता हूं।
छोटी बहिन “ामॉं को रात के वक्त कहानी सुनने की आदत थी। मैं तब दसवीं का छात्र था। मैंने उस दिन सुनी-सुनार्इ कहानी न सुना कर उसे एक कहानी गढ़ कर सुनार्इ। वह कहानी बहन को बहुत पसंद आर्इ। मैंने रजिस्टर के पन्ने फाड़े और उस पर कहानी को दर्ज किया। नाम दिया ‘नन्हा “ोर’।
कहानी भेज दी ‘पराग’ के पते पर। ‘पराग’ जिसके अंकों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। ‘पराग’ जिसके नए अंक मेरे सपने में आते तो ज़रूर थे लेकिन इतने अस्पश्ट होते कि मैं मुखपृश्ठ भी देख न पाता और नींद खुल जाती। ‘पराग’ जिसके दिल्ली स्थित सम्पादकीय कार्यालय में मैं न जाने कितनी बार सपने में गया था, जहां चारों तरफ ‘पराग’ के पुराने अंकों के बंडल पड़े दिखते थे लेकिन वह अंक न दिखता था जो अभी छपा न था।
‘पराग’ में कहानी भेजने के एक सप्ताह के बाद प्रतिदिन पोस्टआफिस जाने लगा कि कहानी स्वीकृत हुर्इ या नहीं। एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब डाकिए ने एक प्रिंटेड पोस्टकार्ड मुझे पकड़ाया जिसमें छपा हुआ था कि आपकी कहानी ‘नन्हा “ोर’ स्वीकृत कर ली गर्इ है जिसे यथासमय ‘पराग’ में प्रकाषित किया जाएगा। मैंने वह पत्र माननीय गिरीष भइया को दिखलाया। वह भी खुष हुए। अम्मी ने अल्लाह का “ाुक्रिया अदा करते हुए फातिहा पढ़ी। इस तरह से मैं एक लेखक बन गया।
नगर में एक साहित्यिक संस्था थी ‘संबोधन साहित्य एवम् कला परिशद’ जिसके अध्यक्ष थे श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव ‘विºवल’। वह समय अपने नाम के साथ उपनाम लगाने का था। जैसे अमर लाल सोनी ‘अमर’, कासिम इलाहाबादी, जगदीष पाठक ने तो अपना नाम ही बदल लिया था - भतीजा मनेंद्रगढ़ी। जब मैंने संबोधन की सदस्यता ली तो उनकी तर्ज पर मैंने अपना
मैंने अपना नाम रखा अनवर सुहैल ‘अनवर’। मैंने इस नाम की एक सील भी बनवार्इ। मैं अब संस्था की परम्परानुसार कविता और ग़ज़लें कहनी “ाुरू कर दी। कविताएं और ग़ज़लें ऐसी कि हर लार्इन पर लोग ‘वाह-वाह’ कहें। मैं तब तुकों की खोज में रहा करता था। एक बार मैंने ‘हो गया है’ की तुक को पकड़ कर ग़ज़ल लिखी और उसके लिए मैंने ‘खो गया है’ ‘सो गया है’ ‘बो गया है’ ‘धो गया है’ आदि तुकों पर काम करते हुए ग़ज़ल बनार्इ थी जिसपर संस्था की गोश्ठी में बहुत दाद मिली थी। मेरे लिए तुक तलाषना और गीत-कविता गढना एक आसान काम बन गया। मैंने कर्इ गीत लिखे जिनमें एक गीत मैं गोश्ठियों में सस्वर पढ़ा करता था-’’घूम आर्इ अंखियां नगर घर देस
आया न कहीं से प्यार का संदेस’। मंचीय कविता मंच में तो खूब दाद दिलवा देती थीं लेकिन जिन्हें सम्पादक खेद सहित वापस कर देते थे। सम्बोधन संस्था में एक नर्इ बात ये थी कि वहां पहल, सम्बोधन जैसी लघुपत्रिकाएं आया करती थीं। मैंने पहलेपहल ‘पहल’ वीरेंद्र श्रीवास्तव के घर देखी थी। मुझे उसकी कविता और कहानियां बहुत पसंद आर्इ थीं। अब मेरा मन भी ऐसी ही कविताएं लिखने को करने लगा।
नगर में बैंक है, स्कूल है, कॉलेज है सो इनमें स्थानान्तरित होकर नए लोग भी आते। जो साहित्यिक मिजाज़ के होते उन्हें सम्बोधन संस्था से जोड़ लिया जाता था। इसी तारतम्य में कर्इ ऐसे कवि भी देखने सुनने में आए जिनकी कविताएं सिर के उपर से निकल जाया करतीं लेकिन जिन्हें सुनकर लगता कि इनमें वह बात है जो कि गीत-ग़ज़लों में हो नहीं सकती। जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, माताचरण मिश्र, एम एल कुरील की कविताएं मन को बेचैन कर दिया करती थीं। संबोधन से एक लघुपत्रिका ‘षुरूआत’ निकला करती थी। वह एक साइक्लोस्टार्इल पत्रिका थी। उसमें मेरी कविता और लघुकथा प्रकाषित हुर्इ। धीरे-धीरे मैं अपने को स्थापित लेखक समझने लगा।
बेरोजगारी के दिनों में मैंने सम्बोधन संस्था द्वारा संचालित वाचनालय और पुस्तकालय का कार्यभार सम्भाला। केयर-टेकर के अभाव में वह पुस्तकालय अक्सर बंद रहता और सम्बोधन की गोश्ठियों, सभाओं के काम आता था। वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सहर्श मेरी बात मानकर पुस्तकालय का जिम्मा मुझे सौंप दिया। मैं और मेरा मित्र राजीव सोनी उस पुस्तकालय को नियमित खोलने लगे। “ााम को छ: से नौ बजे तक हम पुस्तकालय खोलकर बैठा करते। वहां की सारी किताबें हमने चाट डालीं। तब धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान निकला करती थीं। हमने पुराने अंक पलट डाले। राजीव सोनी की इस बीच “ाादी हो गर्इ। वह अमृता प्रीतम की लेखनी का मुरीद था। इस चक्कर में हमने अमृता प्रीतम का समग्र साहित्य खोज-खोज कर पढ़ डाला। इमरोज़ और अमृता के सम्बंध हमें एक रूमानी दुनिया की सैर कराया करते। मैं तो इतना ज्यादा उनके जीवन से प्रभावित हुआ कि अपने एक भांजे का नाम ही रख दिया ‘इमरोज़’। मुझसे किसी मित्र ने अपनी बिटिया के लिए नाम पूछा तो तत्काल मेरे मुंह से निकलता ‘अमृता’।
अमृता प्रीतम के अलावा मुझे निर्मल वर्मा, रमेष बक्षी, “ौलेश मटियानी, मण्टो, इस्मत चुग़तार्इ, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, फैज़, सामरसेट माम, चेखव, उग्र, मोहन राकेष, अज्ञेय, रेणु और मुक्तिबोध की लेखनी ने अत्यधिक प्रभावित किया। जाने क्यों टॉलस्टाय की अन्ना-केरेनिना के आठ भाग खरीद लेने के बावजूद मैं उसे पढ़ नहीं पाया। बेस्ट-सेलर होने के बावजूद मैंने धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ पसंद नहीं की। जबकि राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाष’ ने ज़रूर उद्वेलित किया था। ठीक इसी तरह मुंषी प्रेमचंद की गबन और मानसरोवर की कहानियों के अलावा अन्य कोर्इ उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया। हां, अमृतलाल नागर की लेखकीय प्रतिभा का ज़रूर मैं मुरीद रहा। पात्रानुकूल भाशा का सृजन करने में उन्हें महारत थी।
मुझे यथार्थ की ज़मीन से उपजे पात्र और उनके मनोविज्ञान पर आधारित कथानक प्रभावित करते हैं।
Sunday, March 18, 2012
kavita sangrah : anwar suhail
कश्यप पुब्लिकेशन नयी दिल्ली से मेरा कविता संग्रह "संतो काहे की बेचैनी" प्रकाशित हुई है...
कश्यप पब्लिकेशन का संपर्क नम्बर है
९८६८७७८४३८, ९३१३२८२९४५
कृपया किताब के लिए संपर्क करें
Wednesday, March 7, 2012
‘पहचान’ पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए पोस्टकार्ड
पत्र 1. 3/10/2011
प्रिय अनवर,
आप सोचते होंगे, मैं पोस्टकार्ड पर पार्ट बार्इ पार्ट अपने विचार लिखकर क्यों भेज रहा हूं? तो सुनो:-
‘पहचान’ के पन्ने पलटते ही लगा, इस पुस्तक में कुछ है। जब पूरा पढ़ा तो पाया इस उपन्यास में इतना कुछ है, लेखक, के भाव-रंग कर्इ रूपों में मेरे सामने आने लगे, इसमें प्रेमिका, पत्नी के अलावा औरतों / आदमियों की एक पूरी बसाहट है, पूरी एक नर्इ कॉलरी की दुनिया मौजूद दिखी। मैं चकित हो गया आपकी लेखनी में। एक आग, एक सषक्त भाव है, पैनी धार है तथा भावुक हृदय है। काफी दिनों के बाद कॉलरी (कोयला खदान) क्या है, इसकी जानकारी मिली।
पत्र 2. 3/10/2011
तुम्हारा उपन्यास ‘पहचान’ कल से “ाुरू किया और आज खत्म कर लिया। कहीं पढ़ा था कि आदमियों की भीड़ में, जिसकी रूह पाक होती है, वही कथाकार, “ाायर, कवि या कलाकार होता है। मुझे खुषी है मैंने तुम्हें इसमें हर रूप में देखा। इस पुस्तक को एक आदर्ष के रूप में लिया जाए। हृदय के अतल गहरार्इयों में डूबकर भावों की अभिव्यक्ति को अनुभूति के समन्दर से कहानी रूपी मोती निकालने की कला सीखनी हो तो अनवर सुहैल, अजय “ार्मा, सैली बलजीत, व यषपाल “ार्मा को पढ़ना चाहिए। इ्रन्हें पग-पग पर सम्मानित किया जाना चाहिए। अनवर, मुझे तुम पर गर्व है।
पत्र 3. 4/10/2011
पुस्तक राजकमल प्रकाषन ने सुन्दर ढंग से छापा है। कवर पेज पर विचारों की उठती सुनामी लहर आदमी की पहचान, उसका धर्म, उसका पेषा हृदय? इसका उत्तर क्या है? जनाब “ाम्षुर्रहमान फारूकी ने कुछ कहा। उनकी बात अपनी जगह सही है। विवाद का विशय है। हर आदमी अपनी नज़र से देखेगा। जिसके चष्में का रंग, जो होगा वही दिखेगा।
लेखक अनवर सुहैल, अपना उपन्यास आने वाली पीढ़ी को देता है और आषा करता है कि पिछलग्गू वर्ग नहीं होगा यानी ‘भोंपू’ की तरह किसी के बटन दबाने पर, चीखेगा नहीं और न ‘टूल्स’ जो बेजान होता है चाहे जो चाहे, उसे उठाए, उपयोग करे, फेंक दे। सकारात्मक आषा लेकर चला है लेखक। कवर के पीछे लेखक का परिचय है, फोटो न होना अच्छा नहीं लगा।
पत्र 4. 5/10/2011
फोटो न देने की वजह हो सकती है, आत्म प्रचार से दूर या संकोच या प्रकाषन के वक्त कुछ असुविधा, पर हर पाठक अपने लेखक को देखना चाहता हे। भविश्य में याद रक्खें।
‘पहचान’ पढ़ते हुए जैसे टीवी में सीरियल “ाुरू होता है, उसी प्रकार का दृष्य देने की कोषिष है। ठण्ड में चाय /षराब/षबाब/कबाब, सब याद आना ज़रूरी है। जब आदमी अकेला होता है पुरानी यादें आ घेरती हैं तथा अच्छे-बुरे ख्याल उलझाए रहते है। जहां पर नए निर्माण चलते हैं, वहां पेज नं 14 के आखिरी पैरा में बताए अड्डे भी होते हैं। (उद्योगों के आसपास जो स्लम उगते हैं और जहां कुषल, अर्द्धकुषल श्रमिक, बाज़ारू स्त्रियां और दारू के अड्डे स्वमेव उग आते हैं)। एक किस्म का बफर-ज़ोन है। “ौतान को रोकने के लिए, वरना अपराध पर अंकुष नहीं लगाया जा सकता। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद आदमी की कुछ और ज़रूरतें होती हैं...........
पत्र 5. 5/10/2011
‘साहित्य मस्तिश्क की वस्तु नही, हृदय की वस्तु है। जहां ज्ञान और उपदेष असफल होते हैं, वहीं साहित्य बाजी ले जाता है।’’ -प्रेमचंद
बहुत सुन्दर...
नए “ाब्द जो सीखे- परसटोला, महुआर टोला, अम्माडांड, इमलिया, बरटोला, मोरवा, भनौती, ताजिया, झींगुरदहा सीम, बैढ़न।
मुहर्रम का दृष्य, तरीका, रीति-रिवाज़ व हिन्दू-मुस्लिम एकता, गहरवार राज्य के महलों का बांध में डूबना तथा नेहरू व समाजवाद का तालमेल। बड़े सुन्दर व रोचक ढंग से लिखा गया है। ताजिया के साथ मातम मनाते पुरूश, “ोरों का नाच तथा ताजिया के नीचे से निकलते हिन्दू-मुस्लिम भार्इ। झांसी व दीगर जगहों पर देखा है मैंने भी।
अनवर, आप पूर्ण रूप् से सफल रहे हैं अपनी बात कहने में --’’डीजल चोरी का ढंग प्राय: हर जगह एक सा है। दंतेवाड़ा में पेलोडर / पोकलेन चलते देखा है।
पत्र 6. 6/10/2011
उपन्यास मानव-मन की गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। उपन्यास लेखक,उस व्यवस्था पर प्रहार करता है जो वह देखता/ भोगता/ सुनता है, जहां जरूरी समझता है, वहां प्रहार करता है। पहचान में अनवर सुहैल की क़लम कुछ इन्हीं बातों के बारे में चर्चा कर रही है।
उपन्यास के प्लाट को ढूंढने में ज्यादा मषक्कत नहीं करनी पड़ी है। सब कुछ अपने ही आसपास लेखक को मिल गया है। जिसकी वजह से “ाब्दों में ढालने के लिए संवेदना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं पड़ी। दर्रा नाला, आज़ाद नगर, यूनुस और जमीला प्रकरण। सनूबर की हंसी, सभी के वजूद को हर सांचे में ढालते हुए एक ऐसी तस्वीर पेष करते हैं जो रह व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा है। लेखक ने मानव-मन को एक संदेष देने के साथ-साथ एक उत्कृश्ट साहित्य को जन्म दिया है। जो जिन्दगी के विभिन्न आयामों को परिभाशित करती है।
पत्र 7. 6/10/2011
मेरी राय में किसी उपन्यास की सार्थकता उसकी संवेदना और प्रासंगिकता में ही निहीत है। पहचान में लेखक ने अपने आस-पास के वातावरण तािा सामाजिक सन्दर्भो को केंद्र बिन्दुओं से जोड़कर सत्य को उजागर किया हे। यहां पर पूरा वर्णन विसंगतियों और विद्रूपताओं पर केंद्रित है, समाज के असली मुखौटों को नाना रूप में पेष किया है। जो पाठकों को कुछ सोचने के लिए विवष करती है। कथानक, पाठक व श्रोता दोनों को मंत्र-मुग्ध कर लेता है। यूनुस का कल्लू के वेष्या-गमन हेतु जाना और वहां से पलायन/ रोचक लगा। सबसे बढ़िया लगा -’’तुम अपने अल्ला को क्या मुंह दिखाओग यूनुस जब वो पूछेगा कि ये सब बिना किए कैसे आ गए?’’
बस यहीं अटक गया हूं। क्या जवाब दूंगा मैं????
पत्र 8. 6/10/2011
‘पहचान’ का कथानक आगे बढ़ता है। यूनुस के मार्फत, लेखक पूरे समय के चरित्रों को अपने ढंग से बताने का प्रयास करता है। यूनुस किस तरह अपने समाज से, समय से किस तरह जूझता है, उसके मन में किस तरह के संकल्प-विकल्प हैं, किस तरह वह वापस फिर अपनी मेहबूबा के पास लौटना चाहता है। यह पूरी गाथा विस्तार से इसमें वर्णित है। पूरे उपन्यास में बहुत साधारण लोग हैं, जिन्होंने बाहरी दुनिया को देखा नहीं है, सहज रूप में देखें तो, एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जिसका एक परिवार है, सनूबर नाम की मेहबूबा है, चारों तरफ उसके आस-पास जो कुछ हो रहा है, वही कथा है। एक “ाब्द में, यह आम कथा है जिसमें एक नौजवान सतरंगी सपना लेकर परदेष चला है।
पत्र 9. 7/10/2011
उपन्यास को रोचक बनाने के लिए यूनुस की अम्मी से बात करवाया गया है। जहां हर चरित्र को अलग-अलग ढंग से पेष कर उपन्यास में रोचकता, आकर्शण पैदा किया गया है। सोचने को हर एक को मजबूर करता है कि जिन्दगी की चढ़ार्इ कितनी मुष्किल है, हर आदमी थक कर हांफने के बाद, रूकने की सहूलियत की कोषिष करता है, सांस व्यवस्थित करने के वास्ते कुछ कुरबानियां हैं, अच्छी या बुरी, अनवर साहब आपने हर किरदार को खूब मांजा है, चमकाया है व पीतल से सोना बनाकर पेष किया है। पढ़ने में रूचि बढ़ती जाती है।
पत्र 10. 8/10/2011
अजनबी लोग भी देने लगे इलज़म मुझे
कहां ले जाएगी मेरी (सनूबर) पहचान मुझे
भुलाना चाहूं भी तो भुलाऊं कैसे,
लोग ले ले बुलाते हैं तेरा नाम मुझे।। -’अनाम’
ममदू पहलवान की दश से, एक परी धरती पर आ गर्इ। कहीं खुषी, कहीं ग़म। बेचारी, सनूबर की मां का दोश नहीं, क्योंकि ‘यौवन, जीवन, धन, परछार्इं, मन और स्वामित्व- ये छहों चंचल हैं, स्थिर होकर नहीं रह सकते।’’ इसी सूत्र को लेखक ने चटपटी व मसालेदार बनाकर कहानी के रूप में पाठकों की थाली में परोसा है।
अब नया चेहरा जमाल साहब ने इन्ट्री उपन्यास में लिया है। क्या गुल खिलाते हैं जमाल साहब। अभी तो पड़ोसियों में “ाान बढ़ी है। नर्इ रिष्तेदारी बनी है। बेचारा यूनुस- सनूबर से, बिछुड़ने का सुन, परेषान है!
पत्र 11. 8/10/2011
प्हचान पर दो “ाब्द--
‘‘चन्द्रमा की चांदनी से भी नरम
और रवि के भाल से ज्यादा गरम
है, नहीं कुछ और केवल (सनूबर) का प्यार।।
यूनुस क्या करता। जमाल साहब सांप की तरह कुण्डली मार कर बैठ गए और उसे दामाद बनाने की तैयारियां होने लगीं। बेचारा यूनुस? स्त्री व पुरूश की दोस्ती बन्द मुट्ठी में पारे के समान होती है ज़रा खुली - ‘पारा’ ढलक जाता है।
उपन्यास पहचान एक सुरंग है जिसके भीतर लेखक अपने पाठकों को लेकर अपने पात्रों के साथ प्रवेष करा देता है। फिर पाठक, एक विष्व को छोड़कर दूसरे विष्व में घुसता चला जाता है। यही कलाबाजी इन पात्रों में वह खूबसूरती से खेल रहा है। किसी ने कहा है कि ‘‘औरत को समझने के लिए हजार साल की जिन्दगी चाहिए।’’ अनवर सुहैल आपने नारी जीवन के विभिन्न रूपों और पक्षों को इतनी गहरार्इ से और ठहराव के साथ उजागर किया किया है। कमाल है! संवेदनषील / सारगर्भित रचना हेतु साधुवाद। मज़ा आ गया।
पत्र 12. 9/10/2011
ऊर्जा तीर्थ सिंगरौली, नर्इ कथा, नर्इ जानकारी, कार्य करने का तरीका, यूनुस का पलायन -’’दुनिया में कुछ इंसान स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती।’’ लार्इनें अच्छी लगीं। जमाल साहब का जादू चलते देखा। सनूबन की बगावत--पर-सब कुछ जहां का तहां।
‘नर्इ पहचान’ में यूनुस एक नए मंजिल की तलाष में चल देता है। वह सफल होगा या नहीं, कुछ नहीं जानता। पर लेखकर आज की युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ और सकारात्मक सोच देने में सफल होता है। ‘सफलता’ अपने मनपसंद काम में संतुश्टि है। यूनुस उसी की तलाष में निकला है। अनवर सुहैल ‘पहचान’ में जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य का रहस्योद्घाटन करने में सफल है।
तीन पत्र उपन्यास की पात्र ‘सनूबर’ के नाम :
पत्र 1. दिनांक : 14/11/2011
प्रिय सनूबर,
‘‘कैसे इस ज़माने में / जिन्दा खुद को रक्खूं मैं
मेरी सच्ची बातें भी / आज सबको खलती हैं’’
एक मंज़र यह भी-
‘‘जैसे मौजें साहिल से / मारती है सर अपना
आरजू़एं दिल में यूं / करवटें बदलतीं हैं ‘‘
इन पंक्तियों को लिखने के बाद सनूबर का चेहरा याद आया। “ाायद महबूब के जाने के बाद यही सब खयाल तुम्हारे मन में उठते होंगे सनूबर। इस प्रकार की मनोदषा व घर का वातावरण तथा गिद्ध की तरह तीखी नज़र वालों से सनूबर अपने को बचा पाओगी कैसे?
पत्र 2. दिनांक 15/11/2011
प्रिय सनूबर,
मेरी बच्ची ‘पहचान’ में मजबूर लेखक तुम्हें छोड़ गया। कुछ मजबूरियां रहीं होंगी उसकी। पर तुझे पता नहीं कि प्यार और प्यार की राह बड़ी कठिन व संघर्शों से पूरी लबा-लब भरी है। “ाायद किसी ने तुम्हें गुमराह किया होगा। क्योंकि इस खेल में अब ‘प्रेम’ की परिभाशा बदल गर्इ है, उसका रूप भी बदल गया है। आपसे कौन प्रेम कर रहा है और कौन आपको प्रेम में धोखा दे रहा है, समझना कठिन है। “ाायद यहीं आकर लेखक रूका होगा, सोचने को। क्योंकि वह तो अब तक सिर्फ परिचित रहा है कि यह “ाब्द, बड़ा कोमल, मधुर और विराट है। पहले प्रेमी के दर्षन मात्र से माषूका का चेहरा लहलहा उठता था क्योंकि उसमें उसको खुदा का अक्स नज़र आता था। अब तो प्यार की खुष्बू उसका रंग, मुहब्बत का जादू, सिनेमा/टीवी स्तर से देखा जा रहा है। काष, तुम्हें किसी ने समझाया होता?
पत्र 3. दिनांक 16/11/2011
प्रिय बेटी सनूबर,
‘पहचान’ में लेखक ने तुम्हारे वर्ग की स्त्रियों की व्यथा-कथा बड़ी षिद्दत से लिखा है, जिस वर्ग से तुम आती हो, वहां की बहू-बेटियों की अस्मिता, साहूकारों, ठेकेदारों, व जो अपना होने का दम भरते, नए रिष्तेदारी बनाते व अपने अहसानों से दबाते हैं, उनके सामने कोर्इ मायने नहीं रखती। बेचारा लेखक, तुम्हें, कहां तक अपनी क़लम से बचाता। तुम्हारा महबूब भी रोजी-रोटी की तलाष में मेहनत-मजदूरी करने निकल गया है। अब सारा दारो-मदार तुम्हारे ऊपर है, उन सब की दृश्टि भांप कर तुम कैसे अपने आपको बचाने में सफल हो पाती हो। ‘चौकस’ तुम्हें रहना है। अस्मिता बचाए रखने के वास्ते, कुछ सोचो? बस फिर कभी...........
तुम्हारा “ाुभचिन्तक / एक पाठक बस्स.
(श्री यू एस तिवारी उम्र के इस पड़ाव में भी देष भर में लेखकों से पत्राचार करते हैं और साल में एक-दो बार विभिन्न “ाहर जाकर लेखकों से आत्मीय मुलाकात करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हैं। अपनी स्वर्गीय बहू की याद में ‘षैव्या तिवारी ट्रस्ट’ का संचालन करते हैं। इस संस्था के माध्यम से तिवारी साहब स्लम्स / गांव जाकर लोगों को वस्त्र, किताबें और भोजन आदि का निषुल्क वितरण करते हैं। तिवारी साहब भोपाल और झांसी से निकलने वाले कर्इ पत्रों में कालम भी लिखते हैं। ‘पहचान’ उपन्यास उन्होंने वीपीपी से मंगवा कर पढ़ा और लेखक को “ााबाषियां तो दीं ही, लगभग पंद्रह पोस्टकार्ड भी लिखे। सारे पत्र मेरे पर सुरक्षित हैं। उन पत्रों को मैं लिपिबद्ध कर प्रस्तुत कर रहा हूं।)
संकलनकर्ता :
अनवर सुहैल
टार्इप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
जिला अनूपपुर मप्र 484440
9907978108 / sanketpatrika@gmail.com
प्रिय अनवर,
आप सोचते होंगे, मैं पोस्टकार्ड पर पार्ट बार्इ पार्ट अपने विचार लिखकर क्यों भेज रहा हूं? तो सुनो:-
‘पहचान’ के पन्ने पलटते ही लगा, इस पुस्तक में कुछ है। जब पूरा पढ़ा तो पाया इस उपन्यास में इतना कुछ है, लेखक, के भाव-रंग कर्इ रूपों में मेरे सामने आने लगे, इसमें प्रेमिका, पत्नी के अलावा औरतों / आदमियों की एक पूरी बसाहट है, पूरी एक नर्इ कॉलरी की दुनिया मौजूद दिखी। मैं चकित हो गया आपकी लेखनी में। एक आग, एक सषक्त भाव है, पैनी धार है तथा भावुक हृदय है। काफी दिनों के बाद कॉलरी (कोयला खदान) क्या है, इसकी जानकारी मिली।
पत्र 2. 3/10/2011
तुम्हारा उपन्यास ‘पहचान’ कल से “ाुरू किया और आज खत्म कर लिया। कहीं पढ़ा था कि आदमियों की भीड़ में, जिसकी रूह पाक होती है, वही कथाकार, “ाायर, कवि या कलाकार होता है। मुझे खुषी है मैंने तुम्हें इसमें हर रूप में देखा। इस पुस्तक को एक आदर्ष के रूप में लिया जाए। हृदय के अतल गहरार्इयों में डूबकर भावों की अभिव्यक्ति को अनुभूति के समन्दर से कहानी रूपी मोती निकालने की कला सीखनी हो तो अनवर सुहैल, अजय “ार्मा, सैली बलजीत, व यषपाल “ार्मा को पढ़ना चाहिए। इ्रन्हें पग-पग पर सम्मानित किया जाना चाहिए। अनवर, मुझे तुम पर गर्व है।
पत्र 3. 4/10/2011
पुस्तक राजकमल प्रकाषन ने सुन्दर ढंग से छापा है। कवर पेज पर विचारों की उठती सुनामी लहर आदमी की पहचान, उसका धर्म, उसका पेषा हृदय? इसका उत्तर क्या है? जनाब “ाम्षुर्रहमान फारूकी ने कुछ कहा। उनकी बात अपनी जगह सही है। विवाद का विशय है। हर आदमी अपनी नज़र से देखेगा। जिसके चष्में का रंग, जो होगा वही दिखेगा।
लेखक अनवर सुहैल, अपना उपन्यास आने वाली पीढ़ी को देता है और आषा करता है कि पिछलग्गू वर्ग नहीं होगा यानी ‘भोंपू’ की तरह किसी के बटन दबाने पर, चीखेगा नहीं और न ‘टूल्स’ जो बेजान होता है चाहे जो चाहे, उसे उठाए, उपयोग करे, फेंक दे। सकारात्मक आषा लेकर चला है लेखक। कवर के पीछे लेखक का परिचय है, फोटो न होना अच्छा नहीं लगा।
पत्र 4. 5/10/2011
फोटो न देने की वजह हो सकती है, आत्म प्रचार से दूर या संकोच या प्रकाषन के वक्त कुछ असुविधा, पर हर पाठक अपने लेखक को देखना चाहता हे। भविश्य में याद रक्खें।
‘पहचान’ पढ़ते हुए जैसे टीवी में सीरियल “ाुरू होता है, उसी प्रकार का दृष्य देने की कोषिष है। ठण्ड में चाय /षराब/षबाब/कबाब, सब याद आना ज़रूरी है। जब आदमी अकेला होता है पुरानी यादें आ घेरती हैं तथा अच्छे-बुरे ख्याल उलझाए रहते है। जहां पर नए निर्माण चलते हैं, वहां पेज नं 14 के आखिरी पैरा में बताए अड्डे भी होते हैं। (उद्योगों के आसपास जो स्लम उगते हैं और जहां कुषल, अर्द्धकुषल श्रमिक, बाज़ारू स्त्रियां और दारू के अड्डे स्वमेव उग आते हैं)। एक किस्म का बफर-ज़ोन है। “ौतान को रोकने के लिए, वरना अपराध पर अंकुष नहीं लगाया जा सकता। रोटी, कपड़ा और मकान के बाद आदमी की कुछ और ज़रूरतें होती हैं...........
पत्र 5. 5/10/2011
‘साहित्य मस्तिश्क की वस्तु नही, हृदय की वस्तु है। जहां ज्ञान और उपदेष असफल होते हैं, वहीं साहित्य बाजी ले जाता है।’’ -प्रेमचंद
बहुत सुन्दर...
नए “ाब्द जो सीखे- परसटोला, महुआर टोला, अम्माडांड, इमलिया, बरटोला, मोरवा, भनौती, ताजिया, झींगुरदहा सीम, बैढ़न।
मुहर्रम का दृष्य, तरीका, रीति-रिवाज़ व हिन्दू-मुस्लिम एकता, गहरवार राज्य के महलों का बांध में डूबना तथा नेहरू व समाजवाद का तालमेल। बड़े सुन्दर व रोचक ढंग से लिखा गया है। ताजिया के साथ मातम मनाते पुरूश, “ोरों का नाच तथा ताजिया के नीचे से निकलते हिन्दू-मुस्लिम भार्इ। झांसी व दीगर जगहों पर देखा है मैंने भी।
अनवर, आप पूर्ण रूप् से सफल रहे हैं अपनी बात कहने में --’’डीजल चोरी का ढंग प्राय: हर जगह एक सा है। दंतेवाड़ा में पेलोडर / पोकलेन चलते देखा है।
पत्र 6. 6/10/2011
उपन्यास मानव-मन की गहन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। उपन्यास लेखक,उस व्यवस्था पर प्रहार करता है जो वह देखता/ भोगता/ सुनता है, जहां जरूरी समझता है, वहां प्रहार करता है। पहचान में अनवर सुहैल की क़लम कुछ इन्हीं बातों के बारे में चर्चा कर रही है।
उपन्यास के प्लाट को ढूंढने में ज्यादा मषक्कत नहीं करनी पड़ी है। सब कुछ अपने ही आसपास लेखक को मिल गया है। जिसकी वजह से “ाब्दों में ढालने के लिए संवेदना के घोड़े दौड़ाने की जरूरत नहीं पड़ी। दर्रा नाला, आज़ाद नगर, यूनुस और जमीला प्रकरण। सनूबर की हंसी, सभी के वजूद को हर सांचे में ढालते हुए एक ऐसी तस्वीर पेष करते हैं जो रह व्यक्ति के जीवन का एक हिस्सा है। लेखक ने मानव-मन को एक संदेष देने के साथ-साथ एक उत्कृश्ट साहित्य को जन्म दिया है। जो जिन्दगी के विभिन्न आयामों को परिभाशित करती है।
पत्र 7. 6/10/2011
मेरी राय में किसी उपन्यास की सार्थकता उसकी संवेदना और प्रासंगिकता में ही निहीत है। पहचान में लेखक ने अपने आस-पास के वातावरण तािा सामाजिक सन्दर्भो को केंद्र बिन्दुओं से जोड़कर सत्य को उजागर किया हे। यहां पर पूरा वर्णन विसंगतियों और विद्रूपताओं पर केंद्रित है, समाज के असली मुखौटों को नाना रूप में पेष किया है। जो पाठकों को कुछ सोचने के लिए विवष करती है। कथानक, पाठक व श्रोता दोनों को मंत्र-मुग्ध कर लेता है। यूनुस का कल्लू के वेष्या-गमन हेतु जाना और वहां से पलायन/ रोचक लगा। सबसे बढ़िया लगा -’’तुम अपने अल्ला को क्या मुंह दिखाओग यूनुस जब वो पूछेगा कि ये सब बिना किए कैसे आ गए?’’
बस यहीं अटक गया हूं। क्या जवाब दूंगा मैं????
पत्र 8. 6/10/2011
‘पहचान’ का कथानक आगे बढ़ता है। यूनुस के मार्फत, लेखक पूरे समय के चरित्रों को अपने ढंग से बताने का प्रयास करता है। यूनुस किस तरह अपने समाज से, समय से किस तरह जूझता है, उसके मन में किस तरह के संकल्प-विकल्प हैं, किस तरह वह वापस फिर अपनी मेहबूबा के पास लौटना चाहता है। यह पूरी गाथा विस्तार से इसमें वर्णित है। पूरे उपन्यास में बहुत साधारण लोग हैं, जिन्होंने बाहरी दुनिया को देखा नहीं है, सहज रूप में देखें तो, एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जिसका एक परिवार है, सनूबर नाम की मेहबूबा है, चारों तरफ उसके आस-पास जो कुछ हो रहा है, वही कथा है। एक “ाब्द में, यह आम कथा है जिसमें एक नौजवान सतरंगी सपना लेकर परदेष चला है।
पत्र 9. 7/10/2011
उपन्यास को रोचक बनाने के लिए यूनुस की अम्मी से बात करवाया गया है। जहां हर चरित्र को अलग-अलग ढंग से पेष कर उपन्यास में रोचकता, आकर्शण पैदा किया गया है। सोचने को हर एक को मजबूर करता है कि जिन्दगी की चढ़ार्इ कितनी मुष्किल है, हर आदमी थक कर हांफने के बाद, रूकने की सहूलियत की कोषिष करता है, सांस व्यवस्थित करने के वास्ते कुछ कुरबानियां हैं, अच्छी या बुरी, अनवर साहब आपने हर किरदार को खूब मांजा है, चमकाया है व पीतल से सोना बनाकर पेष किया है। पढ़ने में रूचि बढ़ती जाती है।
पत्र 10. 8/10/2011
अजनबी लोग भी देने लगे इलज़म मुझे
कहां ले जाएगी मेरी (सनूबर) पहचान मुझे
भुलाना चाहूं भी तो भुलाऊं कैसे,
लोग ले ले बुलाते हैं तेरा नाम मुझे।। -’अनाम’
ममदू पहलवान की दश से, एक परी धरती पर आ गर्इ। कहीं खुषी, कहीं ग़म। बेचारी, सनूबर की मां का दोश नहीं, क्योंकि ‘यौवन, जीवन, धन, परछार्इं, मन और स्वामित्व- ये छहों चंचल हैं, स्थिर होकर नहीं रह सकते।’’ इसी सूत्र को लेखक ने चटपटी व मसालेदार बनाकर कहानी के रूप में पाठकों की थाली में परोसा है।
अब नया चेहरा जमाल साहब ने इन्ट्री उपन्यास में लिया है। क्या गुल खिलाते हैं जमाल साहब। अभी तो पड़ोसियों में “ाान बढ़ी है। नर्इ रिष्तेदारी बनी है। बेचारा यूनुस- सनूबर से, बिछुड़ने का सुन, परेषान है!
पत्र 11. 8/10/2011
प्हचान पर दो “ाब्द--
‘‘चन्द्रमा की चांदनी से भी नरम
और रवि के भाल से ज्यादा गरम
है, नहीं कुछ और केवल (सनूबर) का प्यार।।
यूनुस क्या करता। जमाल साहब सांप की तरह कुण्डली मार कर बैठ गए और उसे दामाद बनाने की तैयारियां होने लगीं। बेचारा यूनुस? स्त्री व पुरूश की दोस्ती बन्द मुट्ठी में पारे के समान होती है ज़रा खुली - ‘पारा’ ढलक जाता है।
उपन्यास पहचान एक सुरंग है जिसके भीतर लेखक अपने पाठकों को लेकर अपने पात्रों के साथ प्रवेष करा देता है। फिर पाठक, एक विष्व को छोड़कर दूसरे विष्व में घुसता चला जाता है। यही कलाबाजी इन पात्रों में वह खूबसूरती से खेल रहा है। किसी ने कहा है कि ‘‘औरत को समझने के लिए हजार साल की जिन्दगी चाहिए।’’ अनवर सुहैल आपने नारी जीवन के विभिन्न रूपों और पक्षों को इतनी गहरार्इ से और ठहराव के साथ उजागर किया किया है। कमाल है! संवेदनषील / सारगर्भित रचना हेतु साधुवाद। मज़ा आ गया।
पत्र 12. 9/10/2011
ऊर्जा तीर्थ सिंगरौली, नर्इ कथा, नर्इ जानकारी, कार्य करने का तरीका, यूनुस का पलायन -’’दुनिया में कुछ इंसान स्वर्ग के सुख भोगते हैं और कुछ इंसानों के छोटे-छोटे स्वप्न, तुच्छ इच्छाएं भी पूरी नहीं हो पाती।’’ लार्इनें अच्छी लगीं। जमाल साहब का जादू चलते देखा। सनूबन की बगावत--पर-सब कुछ जहां का तहां।
‘नर्इ पहचान’ में यूनुस एक नए मंजिल की तलाष में चल देता है। वह सफल होगा या नहीं, कुछ नहीं जानता। पर लेखकर आज की युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ और सकारात्मक सोच देने में सफल होता है। ‘सफलता’ अपने मनपसंद काम में संतुश्टि है। यूनुस उसी की तलाष में निकला है। अनवर सुहैल ‘पहचान’ में जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य का रहस्योद्घाटन करने में सफल है।
तीन पत्र उपन्यास की पात्र ‘सनूबर’ के नाम :
पत्र 1. दिनांक : 14/11/2011
प्रिय सनूबर,
‘‘कैसे इस ज़माने में / जिन्दा खुद को रक्खूं मैं
मेरी सच्ची बातें भी / आज सबको खलती हैं’’
एक मंज़र यह भी-
‘‘जैसे मौजें साहिल से / मारती है सर अपना
आरजू़एं दिल में यूं / करवटें बदलतीं हैं ‘‘
इन पंक्तियों को लिखने के बाद सनूबर का चेहरा याद आया। “ाायद महबूब के जाने के बाद यही सब खयाल तुम्हारे मन में उठते होंगे सनूबर। इस प्रकार की मनोदषा व घर का वातावरण तथा गिद्ध की तरह तीखी नज़र वालों से सनूबर अपने को बचा पाओगी कैसे?
पत्र 2. दिनांक 15/11/2011
प्रिय सनूबर,
मेरी बच्ची ‘पहचान’ में मजबूर लेखक तुम्हें छोड़ गया। कुछ मजबूरियां रहीं होंगी उसकी। पर तुझे पता नहीं कि प्यार और प्यार की राह बड़ी कठिन व संघर्शों से पूरी लबा-लब भरी है। “ाायद किसी ने तुम्हें गुमराह किया होगा। क्योंकि इस खेल में अब ‘प्रेम’ की परिभाशा बदल गर्इ है, उसका रूप भी बदल गया है। आपसे कौन प्रेम कर रहा है और कौन आपको प्रेम में धोखा दे रहा है, समझना कठिन है। “ाायद यहीं आकर लेखक रूका होगा, सोचने को। क्योंकि वह तो अब तक सिर्फ परिचित रहा है कि यह “ाब्द, बड़ा कोमल, मधुर और विराट है। पहले प्रेमी के दर्षन मात्र से माषूका का चेहरा लहलहा उठता था क्योंकि उसमें उसको खुदा का अक्स नज़र आता था। अब तो प्यार की खुष्बू उसका रंग, मुहब्बत का जादू, सिनेमा/टीवी स्तर से देखा जा रहा है। काष, तुम्हें किसी ने समझाया होता?
पत्र 3. दिनांक 16/11/2011
प्रिय बेटी सनूबर,
‘पहचान’ में लेखक ने तुम्हारे वर्ग की स्त्रियों की व्यथा-कथा बड़ी षिद्दत से लिखा है, जिस वर्ग से तुम आती हो, वहां की बहू-बेटियों की अस्मिता, साहूकारों, ठेकेदारों, व जो अपना होने का दम भरते, नए रिष्तेदारी बनाते व अपने अहसानों से दबाते हैं, उनके सामने कोर्इ मायने नहीं रखती। बेचारा लेखक, तुम्हें, कहां तक अपनी क़लम से बचाता। तुम्हारा महबूब भी रोजी-रोटी की तलाष में मेहनत-मजदूरी करने निकल गया है। अब सारा दारो-मदार तुम्हारे ऊपर है, उन सब की दृश्टि भांप कर तुम कैसे अपने आपको बचाने में सफल हो पाती हो। ‘चौकस’ तुम्हें रहना है। अस्मिता बचाए रखने के वास्ते, कुछ सोचो? बस फिर कभी...........
तुम्हारा “ाुभचिन्तक / एक पाठक बस्स.
(श्री यू एस तिवारी उम्र के इस पड़ाव में भी देष भर में लेखकों से पत्राचार करते हैं और साल में एक-दो बार विभिन्न “ाहर जाकर लेखकों से आत्मीय मुलाकात करते हैं। उनकी पीठ थपथपाते हैं। अपनी स्वर्गीय बहू की याद में ‘षैव्या तिवारी ट्रस्ट’ का संचालन करते हैं। इस संस्था के माध्यम से तिवारी साहब स्लम्स / गांव जाकर लोगों को वस्त्र, किताबें और भोजन आदि का निषुल्क वितरण करते हैं। तिवारी साहब भोपाल और झांसी से निकलने वाले कर्इ पत्रों में कालम भी लिखते हैं। ‘पहचान’ उपन्यास उन्होंने वीपीपी से मंगवा कर पढ़ा और लेखक को “ााबाषियां तो दीं ही, लगभग पंद्रह पोस्टकार्ड भी लिखे। सारे पत्र मेरे पर सुरक्षित हैं। उन पत्रों को मैं लिपिबद्ध कर प्रस्तुत कर रहा हूं।)
संकलनकर्ता :
अनवर सुहैल
टार्इप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
जिला अनूपपुर मप्र 484440
9907978108 / sanketpatrika@gmail.com
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