जीवन संघर्श
अब्बा रेल्वे स्कूल में षिक्षक थे, जो अब अवकाष प्राप्त कर चुके हैं। वह एक अनुषासन प्रिय, अध्यव्यवसायी, गम्भीर एवं धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। उन्हें किसी से कोर्इ षिकायत नहीं रहती। वह अपने जीवन से इतने संतुश्ट रहते हैं कि उन्हीं से प्रेरणा पाकर मेरे अंदर अनुषासनप्रियता और संतोश का भाव गहराया है। अब्बा कहते हैं कि ‘साहेब से सब होत है, बंदे से कुछ नाहिं’।
अब्बा का एक और ध्येय-सूत्र है कि आराम करने के लिए क़ब्र ही बेहतर जगह है। यह जीवन लगातार कुछ नया रचने के लिए है। मैं भी भूमिगत कोयला खदान में काम करने के बावजूद नया रचने या नया पढ़ने की ललक का मारा रहता हूं। बाबा कबीर की उक्ति अक्सर बच्चों को सुनाया करता हूं-’’सुखिया सब संसार खावै अरू सोवै / दुखिया दास कबीर जागे अरू रोवै।’’
जो चेतनासम्पन्न होगा यानी कि बाबा कबीर के “ाब्दों में जो ‘जागा’ होगा वह सांसारिक दु:ख देख कर चिंतित रहेगा। जो तबका स्वार्थ, लिप्सा और भोगविलास में डूबा रहता है उसे कबीर दास सुखिया कहते हैं। मेरे विचार से तमाम “ाायर, लेखक बिरादरी कबीर दास की दुखिया कैटगरी में आती है।
मेरी अम्मी उर्दू, फ़ारसी और अरबी की जानकार थीं। वह इतने ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ लिखती थीं कि ऐसा लगता जैसे कहीं कोर्इ छपी हुर्इ स्क्रिप्ट हो। हम बच्चों को हिन्दी लिखते-पढ़ते देख उन्होंने भी हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था। उनकी संदूक में चंद किताबें ज़रूर रहा करती थीं। जैसे, हफ़ीज़ जालन्धरी की ‘षाहनामा ए इस्लाम’ चार भाग, अल्लामा इक़बाल की किताब ‘बांगे दरा’, स्मिथ की ‘दि स्पिरिट ऑफ इस्लाम’, कृष्न चंदर की ‘एक गधे की आत्मकथा’। उर्दू माहनामा ‘बीसवीं सदी’ के सैकड़ों अंक उनके कलेक्षन में थे। वह इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया भी ज़रूर पढ़ा करती थीं। मुझे उर्दू पढ़ने की ललक इब्ने सफी बीए की जासूसी दुनिया पढ़ने से जागी।
अम्मी एक चलता-फिरता “ाब्दकोष हुआ करती थीं। “ोरो-षायरी, से उनकी गहरी वाबस्तगी थी। वह कठिन से कठिन अष्आर कहतीं और फिर उनकी तफ़सील बताया करती थीं। अक्सर वह एक “ोर कहती थीं-’’सामां है सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।’’
मेरे विचार से मेरे अंदर कवि या लेखक बनने का ज़ज़्बा अम्मी के कारण पैदा हुआ क्योंकि अम्मी अक्सर अकेले में मौका पाकर कॉपी के पिछले पन्ने पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी। मुझे अफ़सोस है कि उन पन्नों को मैं सम्भाल कर रख न पाया वरना तत्कालीन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति स्वरूप वे तहरीरें आज मेरे कितने काम आतीं।
मेरे मुहल्ले में गिरीष भइया रहते थे। वह पुराने उपन्यासों के उदात्त नायकों की तरह मुझे नज़र आया करते थे। वह व्यंग्य लिखा करते थे। उस समय उत्तर प्रदेष से एक हास्य व्यंग्य की पाक्षिक पत्रिका ‘ठलुआ’ निकला करती थी। गिरीष भइया उसके नियमित लेखक थे। मैं उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उनसे मिलने उनके घर गया। उन्होंने ठलुआ का पुराना अंक देकर मुझे कहा कि इसके लिए मैं भी कुछ लिखूं। तब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था। मैंने सम्पादक के नाम पत्र लिखा। वह पत्र प्रकाषित हुआ और लेखकीय प्रति के रूप में ठलुआ का अंक जब मेरे नाम से पोस्टमैन घर दे गया तो अचानक मुझे महसूस हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक बन गया हूं।
“ााम के समय राम मंदिर के प्रांगण में गिरीष भइया, आर एस एस की “ााखा में अवष्य उपस्थित हुआ करते। मैं तब बालक ही था। राजनीति की कोर्इ समझ तो थी नहीं। “ााखा में झण्डा-वन्दन, प्रार्थना के बाद सभी लोग खेल खेला करते थे। मुझे वहां अच्छा लगता। इसलिए भी अच्छा लगता कि मेरे समय का एक लेखक गिरीष भइया भी वहां खूब आनन्द लेते थे। ठलुआ में मैंने नगर की सड़कों की दुर्दषा पर, एकमात्र छविगृह पर, पगार की पहली तारीख पर व्यंग्य लिखे। मैं जो भी लिखता थोड़े-बहुत संषोधन के साथ वह ठलुआ में छप जाया करता था। गिरीष भइया अर्थात गिरीष पंकज बाद में एक बड़े लेखक बने। वर्तमान में वह साहित्य अकादमी के सदस्य हैं। गिरीष पंकज ने सद्भावना दर्पण के नाम से एक त्रैमासिक लघुपत्रिका का सम्पादन भी कर रहे हैं।
विद्यालय में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन होने वाले काय्रक्रमों में मैं भाग लिया करता था। देषभक्ति से प्रेरित कविताएं तुकबंदी के साथ लिखा करता था। कविता पाठ करने पर बच्चे तालियां बजाते और षिक्षकों उत्साह वर्धन करती निगाहें मुझे अन्य बच्चों से हटके बना दिया करती थीं। हिन्दी के अध्यापक श्री अमर लाल सोनी ‘अमर’ मेरी कवितार्इ देखकर मुझे ‘बूढ़ा बालक’ कहा करते थे। वह हमारे घर के सामने रहा करते थे। अक्सर मुझे अपने पास बुलाते और अपनी ताज़ा कविताएं सुनाया करते। उनकी कविताएं अतुकांत होतीं साथ ही उनमें आदर्ष होता। वह षिक्षक के नज़रिए से संसार को देखा करते थे और हर खराब को अच्छा बनाने की ज़िद पाले बैठे थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगतीं लेकिन मेरे मित्र उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। वास्तव में उस समय का समाज भी लेखक या कवि को अनुत्पादक काम में लिप्त मानता था। लेकिन मेरे मन में तो जयषंकर प्रसाद, प्रेमचंद या रवीन्द्र नाथ टैगोर बनने की ललक थी। मैं खूब कविताएं लिखा करता था। अम्मी के सम्पर्क में रहने के कारण मेरी कविताओं में उर्दू के “ाब्दों की अधिकता होती थी। अम्मी मेरी कविताओं की सराहना किया करतीं। वह मुझे इस्लाह भी किया करती थीं।
नगर में किराए से किताब मिलने की एक दुकान थी। मैं वहां से दस पैसे रोज पर एक किताब लाया करता था। वहां नंदन, पराग, चंदामामा और धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं किराए पर मिलती थीं। मुझे बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ अत्यंत प्रिय थी। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना उसके सम्पादक हुआ करते थे। खूबसूरत सजी-धजी पत्रिका थी ‘पराग’। उस समय के तमाम मषहूर लेखकों की बाल रचनाएं ‘पराग’ में प्रकाषित हुआ करती थीं। आज हिन्दी में ऐसी बाल-पत्रिका का नितान्त अभाव है। जाने क्यों ‘पराग’ पढ़ते-पढ़ते एक दिन मैंने सोचा कि अपने मन से मैं भी तो कहानी बना कर लिख सकता हूं।
छोटी बहिन “ामॉं को रात के वक्त कहानी सुनने की आदत थी। मैं तब दसवीं का छात्र था। मैंने उस दिन सुनी-सुनार्इ कहानी न सुना कर उसे एक कहानी गढ़ कर सुनार्इ। वह कहानी बहन को बहुत पसंद आर्इ। मैंने रजिस्टर के पन्ने फाड़े और उस पर कहानी को दर्ज किया। नाम दिया ‘नन्हा “ोर’।
कहानी भेज दी ‘पराग’ के पते पर। ‘पराग’ जिसके अंकों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। ‘पराग’ जिसके नए अंक मेरे सपने में आते तो ज़रूर थे लेकिन इतने अस्पश्ट होते कि मैं मुखपृश्ठ भी देख न पाता और नींद खुल जाती। ‘पराग’ जिसके दिल्ली स्थित सम्पादकीय कार्यालय में मैं न जाने कितनी बार सपने में गया था, जहां चारों तरफ ‘पराग’ के पुराने अंकों के बंडल पड़े दिखते थे लेकिन वह अंक न दिखता था जो अभी छपा न था।
‘पराग’ में कहानी भेजने के एक सप्ताह के बाद प्रतिदिन पोस्टआफिस जाने लगा कि कहानी स्वीकृत हुर्इ या नहीं। एक दिन मेरे आनंद का ठिकाना न रहा, जब डाकिए ने एक प्रिंटेड पोस्टकार्ड मुझे पकड़ाया जिसमें छपा हुआ था कि आपकी कहानी ‘नन्हा “ोर’ स्वीकृत कर ली गर्इ है जिसे यथासमय ‘पराग’ में प्रकाषित किया जाएगा। मैंने वह पत्र माननीय गिरीष भइया को दिखलाया। वह भी खुष हुए। अम्मी ने अल्लाह का “ाुक्रिया अदा करते हुए फातिहा पढ़ी। इस तरह से मैं एक लेखक बन गया।
नगर में एक साहित्यिक संस्था थी ‘संबोधन साहित्य एवम् कला परिशद’ जिसके अध्यक्ष थे श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव ‘विºवल’। वह समय अपने नाम के साथ उपनाम लगाने का था। जैसे अमर लाल सोनी ‘अमर’, कासिम इलाहाबादी, जगदीष पाठक ने तो अपना नाम ही बदल लिया था - भतीजा मनेंद्रगढ़ी। जब मैंने संबोधन की सदस्यता ली तो उनकी तर्ज पर मैंने अपना
मैंने अपना नाम रखा अनवर सुहैल ‘अनवर’। मैंने इस नाम की एक सील भी बनवार्इ। मैं अब संस्था की परम्परानुसार कविता और ग़ज़लें कहनी “ाुरू कर दी। कविताएं और ग़ज़लें ऐसी कि हर लार्इन पर लोग ‘वाह-वाह’ कहें। मैं तब तुकों की खोज में रहा करता था। एक बार मैंने ‘हो गया है’ की तुक को पकड़ कर ग़ज़ल लिखी और उसके लिए मैंने ‘खो गया है’ ‘सो गया है’ ‘बो गया है’ ‘धो गया है’ आदि तुकों पर काम करते हुए ग़ज़ल बनार्इ थी जिसपर संस्था की गोश्ठी में बहुत दाद मिली थी। मेरे लिए तुक तलाषना और गीत-कविता गढना एक आसान काम बन गया। मैंने कर्इ गीत लिखे जिनमें एक गीत मैं गोश्ठियों में सस्वर पढ़ा करता था-’’घूम आर्इ अंखियां नगर घर देस
आया न कहीं से प्यार का संदेस’। मंचीय कविता मंच में तो खूब दाद दिलवा देती थीं लेकिन जिन्हें सम्पादक खेद सहित वापस कर देते थे। सम्बोधन संस्था में एक नर्इ बात ये थी कि वहां पहल, सम्बोधन जैसी लघुपत्रिकाएं आया करती थीं। मैंने पहलेपहल ‘पहल’ वीरेंद्र श्रीवास्तव के घर देखी थी। मुझे उसकी कविता और कहानियां बहुत पसंद आर्इ थीं। अब मेरा मन भी ऐसी ही कविताएं लिखने को करने लगा।
नगर में बैंक है, स्कूल है, कॉलेज है सो इनमें स्थानान्तरित होकर नए लोग भी आते। जो साहित्यिक मिजाज़ के होते उन्हें सम्बोधन संस्था से जोड़ लिया जाता था। इसी तारतम्य में कर्इ ऐसे कवि भी देखने सुनने में आए जिनकी कविताएं सिर के उपर से निकल जाया करतीं लेकिन जिन्हें सुनकर लगता कि इनमें वह बात है जो कि गीत-ग़ज़लों में हो नहीं सकती। जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, माताचरण मिश्र, एम एल कुरील की कविताएं मन को बेचैन कर दिया करती थीं। संबोधन से एक लघुपत्रिका ‘षुरूआत’ निकला करती थी। वह एक साइक्लोस्टार्इल पत्रिका थी। उसमें मेरी कविता और लघुकथा प्रकाषित हुर्इ। धीरे-धीरे मैं अपने को स्थापित लेखक समझने लगा।
बेरोजगारी के दिनों में मैंने सम्बोधन संस्था द्वारा संचालित वाचनालय और पुस्तकालय का कार्यभार सम्भाला। केयर-टेकर के अभाव में वह पुस्तकालय अक्सर बंद रहता और सम्बोधन की गोश्ठियों, सभाओं के काम आता था। वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सहर्श मेरी बात मानकर पुस्तकालय का जिम्मा मुझे सौंप दिया। मैं और मेरा मित्र राजीव सोनी उस पुस्तकालय को नियमित खोलने लगे। “ााम को छ: से नौ बजे तक हम पुस्तकालय खोलकर बैठा करते। वहां की सारी किताबें हमने चाट डालीं। तब धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान निकला करती थीं। हमने पुराने अंक पलट डाले। राजीव सोनी की इस बीच “ाादी हो गर्इ। वह अमृता प्रीतम की लेखनी का मुरीद था। इस चक्कर में हमने अमृता प्रीतम का समग्र साहित्य खोज-खोज कर पढ़ डाला। इमरोज़ और अमृता के सम्बंध हमें एक रूमानी दुनिया की सैर कराया करते। मैं तो इतना ज्यादा उनके जीवन से प्रभावित हुआ कि अपने एक भांजे का नाम ही रख दिया ‘इमरोज़’। मुझसे किसी मित्र ने अपनी बिटिया के लिए नाम पूछा तो तत्काल मेरे मुंह से निकलता ‘अमृता’।
अमृता प्रीतम के अलावा मुझे निर्मल वर्मा, रमेष बक्षी, “ौलेश मटियानी, मण्टो, इस्मत चुग़तार्इ, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, फैज़, सामरसेट माम, चेखव, उग्र, मोहन राकेष, अज्ञेय, रेणु और मुक्तिबोध की लेखनी ने अत्यधिक प्रभावित किया। जाने क्यों टॉलस्टाय की अन्ना-केरेनिना के आठ भाग खरीद लेने के बावजूद मैं उसे पढ़ नहीं पाया। बेस्ट-सेलर होने के बावजूद मैंने धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ पसंद नहीं की। जबकि राजेंद्र यादव की ‘सारा आकाष’ ने ज़रूर उद्वेलित किया था। ठीक इसी तरह मुंषी प्रेमचंद की गबन और मानसरोवर की कहानियों के अलावा अन्य कोर्इ उपन्यास पूरा पढ़ नहीं पाया। हां, अमृतलाल नागर की लेखकीय प्रतिभा का ज़रूर मैं मुरीद रहा। पात्रानुकूल भाशा का सृजन करने में उन्हें महारत थी।
मुझे यथार्थ की ज़मीन से उपजे पात्र और उनके मनोविज्ञान पर आधारित कथानक प्रभावित करते हैं।
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Thursday, March 29, 2012
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