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Friday, August 30, 2013

परिवर्तन

k ravindra
तुम मेरी बेटी नही 
बल्कि हो बेटा...
इसीलिये मैंने तुम्हे 
दूर रक्खा श्रृंगार मेज से 
दूर रक्खा रसोई से 
दूर रक्खा झाडू-पोंछे से 
दूर रक्खा डर-भय के भाव से 
दूर रक्खा बिना अपराध 
माफ़ी मांगने की आदतों से 
दूर रक्खा दुसरे की आँख से देखने की लत से....
और बार-बार
किसी के भी हुकुम सुन कर 
दौड़ पडने की आदत से भी 
तुम्हे दूर रक्खा...

बेशक तुम बेधड़क जी लोगी 
मर्दों के ज़ालिम संसार में
मुझे यकीन है...

Thursday, August 1, 2013

बेदर्द मौसम में

के रवीन्द्र की पेंटिंग

तुम्हें रोने की आज़ादी
तुम्हें मिल जाएंगे कंधे
तुम्हें घुट-घुट के जीने का
मुद्दत से तजुर्बा है
तुम्हें खामोश रहकर
बात करना अच्छा आता है
गमों का बोझ आ जाए तो
तुम गाते-गुनगुनाते हो
तुम्हारे गीत सुनकर वो
हिलाते सिर देते दाद...

इन्ही आदत के चलते ये
ज़माना बस तुम्हारा है
कि तुम जी लोगे इसी तरह
ऎसे बेदर्द मौसम में
ऎसे बेशर्म लोगों में
इसी तरह की मिट्टी से
बने लोगों की खासखास
ज़रूरत हुक्मरां को है
ज़रूरत अफसरों को है

हमारे जैसे ज़िद्दी-जट्ट
हुरमुठ और चरेरों को
भला कब तक सहे कोई
भला क्योंकर मुआफी दे....