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Thursday, November 14, 2013

कुछ सामयिक कवितायें : अनवर सुहैल


1-

बताया जा रहा हमें
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण
लोकतंत्र के इस महा-पर्व में
कितनी महती भूमिका है हमारी
ईवीएम के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत
कि हमें ही लिखनी है
किस्मत उनकी
इसका मतलब
हम भगवान हो गए…
वे बड़ी उम्मीदें लेकर
आते हमारे दरवाज़े
उनके चेहरे पर
तैरती रहती है एक याचक-सी
क्षुद्र दीनता…
वो झिझकते हैं
सकुचाते हैं
गिड़गिडाते हैं
रिरियाते हैं
एकदम मासूम और मजबूर दिखने का
सफल अभिनय करते हैं
हम उनके फरेब को समझते हैं
और एक दिन उनकी झोली में
डाल आते हैं…
एक अदद वोट…
फिर उसके बाद वे कृतघ्न भक्त
अपने भाग्य-निर्माताओं को
अपने भगवानों को
भूल जाते हैं….

2-

उनकी न सुनो तो
पिनक जाते हैं वो
उनको न पढो तो
रहता है खतरा
अनपढ़-गंवार कहलाने का
नज़र-अंदाज़ करो
तो चिढ़ जाते हैं वो
बार-बार तोड़ते हैं नाते
बार-बार जोड़ते हैं रिश्ते
और उनकी इस अदा से
झुंझला गए जब लोग
तो एक दिन
वो छितरा कर
पड़ गए अलग-थलग
रहने को अभिशप्त
उनकी अपनी चिडचिड़ी दुनिया में…


3-

उन अधखुली
ख्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने
सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए
चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे
सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ
आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख
शायद
वो चाहती नहीं थी
ख्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख्वाब तो पूरी
ईमानदारी से देखा
बेशक
वो ख्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन ख़्वाबों के सहारे
काट लेगी वो
ज़िन्दगी के चार दिन…

4-

वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएँ करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ सिर्फ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर…
उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला…
वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और मेरा
धुंधला मटियाला स्वरूप एकरस है
मैं उसे भूलना चाहता हूँ
जबकि उसकी यादें मेरी ताकत हैं
ये एक कडवी हकीकत है
यदि वो न होता तो
मेरी आँखें तरस जातीं
खुशनुमा ख्वाब देखने के लिए
और ख्वाब के बिना कैसा जीवन…
इंसान और मशीन में यही तो फर्क है……

5-

जिनके पास पद-प्रतिष्ठा
धन-दौलत, रुआब-रुतबा
है कलम-कलाम का हुनर
अदब-आदाब उनके चूमे कदम
और उन्हें मिलती ढेरों शोहरत…
लिखना-पढ़ना कबीराई करना
फकीरी के लक्षण हुआ करते थे
शबो-रोज़ की उलझनों से निपटना
बेजुबानों की जुबान बनना
धन्यवाद-हीन जाने कितने ही ऐसे
जाने-अनजाने काम कर जाना
तभी कोई खुद को कहला सकता था
कि जिम्मेदारियों के बोझ से दबा
वह एक लेखक है हिंदी का
कि देश-काल की सीमाओं से परे
वह एक विश्‍व-नागरिक है
लिंग-नस्ल भेद वो मानता नहीं है
जात-पात-धर्म वो जानता नहीं ही
बिना किसी लालच के
नोन-तेल-कपडे का जुगाड़ करते-करते
असुविधाओं को झेलकर हंसते-हंसते
लिख रहा लगातार पन्ने-दर-पन्ने
प्रकाशक के पास अपने स्टार लेखक हैं
सम्पादक के पास पूर्व स्वीकृत रचनायें अटी पड़ी हैं
लिख-लिख के पन्ने सहेजे-सहेजे
वो लिखे जा रहा है…
लिखता चला जा रहां है…

2 comments:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति है इन कविताओं में...

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  2. बहुत सुंदर रचनाएँ .
    -नित्या , हैदराबाद

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