Total Pageviews

Thursday, January 22, 2015

अंधकार में धँसीं जड़ें ‘गहरी जड़ें’ / मोहसिन खान



















भारतीय मुस्लिम परिवेश की पृष्ठभूमि पर ग्यारह कहानियों का संग्रह ‘गहरी जड़ें’ अनवर सुहैल का सद्य प्रकाशित कहानी-संग्रह है, जो कि भारतीय मुस्लिम समाज की परम्पराओं में समायोजित अवस्थाओं, आस्थाओं, अंधविश्वासों और विडंबनाओं का बेलौस खुला चित्रण प्रस्तुत करता है । कहानियाँ मुस्लिम समाज के ऐसे लोक को संप्रेषित करती हैं, जो हमारे सम्मुख तो है,परंतु हम उसकी वास्तविकता को या तो नज़रअंदाज़ करते हैं या फिर अनभिज्ञ ही बने रहना चाहते हैं । ‘गहरी जड़ें’ आस्था-अनास्था,अवसरवाद,सांप्रदायिकता,सांस्कृतिक समन्वय,धर्म की ठेकेदारी,धार्मिक व्यावसायीकरण,ऊँच-नीच, भेद-भाव, खंडवाद,बाज़ारवाद, जातिवाद, पाखंड, विभेदीकरण और मानसिक यंत्रणा केयथार्थ का वह रूप है, जिसे समाज की धरती पर सतही तौर पर नहीं, बल्कि गहरे में उतरकर देखा जा सकता है । अनवर सुहैल की दृष्टि समाज के गहरे अंधरे की ओर गई है, जहाँ केवल शोषण, उत्पीड़न और जकड़न है ।
कहानी संग्रह मुस्लिम समाज के अंतर्गत फैली विकृतियों, विडंबनाओं,असंगतियों और अतिरंजनाओं के शिकंजे में क़ैद ऐसे पात्रों को घटनाओं में बांधकर लाता है, जिसमें जीवन शैली की घोषित-अघोषित नियम पद्धति का सूक्ष्म अन्वेषण और सांस्कृतिक कमजोरियों का ब्योरा है । ‘नीला हाथी’कहानी वास्तव में मज़ारों की स्थापना,उनकी स्थिति, वहाँ उपजी व्यावसायिकता को रेखांकित करती है । लेखक की आस्था वैसे मज़ारों पर है, लेकिन वह सबके समक्ष वहाँ की वास्तविकता को उघाड़कर रखा देता है । कहानी में एक ओर सुन्नी मुस्लिमों का अंधविश्वास व्यक्त हुआ है, तो दूसरी तरफ़ मुस्लिमों की गुमराइयों की ओर इशारा व्यक्त हुआ है । यह कहानी बेहतर संवेदना के साथ कथात्मकता में रोचकता लिए हुए है ।
हिन्दू-मुस्लिम मानसिकता का अध्ययन और सांप्रदायिक मानसिकता के परिवर्तनों को यदि मापा जाए, तो  ‘ग्यारह सितंबर के बाद’ कहानी एक सामाजिक-सांप्रदायिक कटुता का यथार्थ रूप समक्ष उपस्थित करेगी ।  गुटनिर्माण और गुटनिरपेक्षता के बीच उपेक्षित व्यक्तित्त्व और उनका मानसिक हनन दो चरित्रों हनीफ़ और अहमद बख़ूबी दर्शा रहे हैं । विश्व में अमेरिकी घटना का प्रभाव, उसका टूटा हुआ वर्ल्ड ट्रेड टावर चरित्रों के मलबे में परिवर्तित होता हुआ नज़र आता है । यह कहानी यथार्थवादी सांप्रदायिक परिवर्तन की परछाईं है । अहमद तटस्थ होकर किसी भी ख़ैमे से दूर था, लेकिन तंज़ और गंदी मानसिकता के लोगों से तंग आकार अंततरू वह मुस्लिम ख़ैमे में शामिल होना स्वीकारता है । सान्वय की दूरस्थता कहानी की त्रासदी व्यक्त कर रही है ।
‘गहरी जड़ें’ इस कहानी-संग्रह की प्रतिनिधि काहनी है,जो एक ओर लोकविश्वास की जड़ें तलाशती है, तो दूसरी ओर सांप्रदायिक दंगों के माहौल में लोकविश्वास के खो जाने को एक घबराहट के साथ व्यक्त करती है। असगर नामक पात्र सांप्रदायिक दंगों से पीड़ित, आहात औरशंकाकुल होकर मुस्लिम मोहल्ले की शरण में जा पहुंचता है, परंतु उसी का पिता अपनी जड़ें इतनी गहरी लिए हुए है कि हिंदुओं के मोहल्ले में अपने पुश्तेनी मकान में तनकर खड़ा हुआ है और लोकविश्वास के बल पर लहरा रहा है । यह कहानी मानसिकता के विभेद को दर्शाती है और शंकाओं के आवृत्त में सांप्रदायिकता में उपजी बोखलाहट वैयक्तिक रूप में संप्रेषित करती है ।
अम्मा का निर्णायक किरदार ‘चहल्लुम’ कहानी का प्राण है । घर के मुखिया के अंत के पश्चात उपजी बेटों की लालची निगाहों और स्वार्थ की प्रवृत्ति कहानी का केंद्र है । कहानी जहाँ बेटों की स्वार्थवृत्ति को दर्शाती है, वहीं बेटियों कि फिक्रोमंदी को दर्शाते हुए उनके वास्तविक रूप को और भी निखारती है । कहानी में बहू बेटों की सांठगांठ और चालबाज़ियों का नक्शा खींचा गया है, जो हर घर की कहानी का बयान पेश करती नज़र आ रही है । कहानी की नायिका अम्मा है, जो अंत में ठोंस निर्णय लेते हुए, आत्मनिर्भरता को अपना हथियार बनाती है और बेवा होने के बाद मुस्लिम धर्म की इद्दत की अवस्था के सारे नियमों को नज़रअंदाज़ कर देती है । कहानी का अंत विद्रोह और आत्मनिर्भरता को प्रदर्शित करता है ।
‘दहशतगर्द’कहानी का आधे से अधिक भाग जितनी रोचकता लिए हुए है,जितना दिलचस्प है, उतना दिलचस्प उसका अंत नहीं है । देश के सांप्रदायिक हालात किस प्रकार लोगों के भीतर उत्पात मचाते हैं और लोग किस प्रकार विकृत होकर अंधी खाई में कूद पड़ते हैं, मुसुआ पात्र इसका एक सशक्त उदाहरण कहा जा सकता है । कहानीकार अनवर सुहैल ने बड़े करीने से मुस्लिम मानसिकता के तनाव, बदलाव और अंतहीन असुरक्षा को मापने की कोशिश की है । मुस्लिमों पर लगाए लांछनों , आरोपों को समाज के सामने प्रश्नात्मक रूप में कहानी में उभारा गया है ।
‘फिरकापरस्त’कहानी घटना विहीन सी नज़र आती है । कहानी में केवल मुस्लिम समाज में फिरकापरस्त लोगों की कट्टरता का यथार्थ वर्णन है । इस कहानी का झुकाव इस ओर ही नज़र आता है कि मुस्लिम समाज किस प्रकार धर्म की मूल भावना को दरकिनार करके केवल फिरकों में बंट रहा है । फिरकों में बंटे मुस्लिम दल आपस में एक-दूसरे को हराम और दुश्मन समझकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं । कहानी मानस पर कोई खास प्रभाव नहीं जमा पाती है, यह केवल एक वर्णन सी अथवा चिंताशील विषय को सामने लाती है । कोई घटना या पत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह इसमें नहीं हो पाया है । यह कहानी का बोध जगाने में असफल मानी जा सकती है, कोई विशेष आकर्षण इसमें दिखाई नहीं देता ।
प्रेम के एक छोर पर श्यामा और दूसरे छोर पर सुलेमान खड़े हैं,‘पुरानी रस्सी’इन्हीं दोनों के प्रेम की प्रतीकात्मक  खामोश कहानी है । एक अदृश्य रस्सी है, जिसने अब तक सुलेमान को अपने जादूई प्रेम में बाँधे रखा है । वक़्त-बेवक्त सुलेमान-श्यामा के अप्रतिम और निरूस्वार्थ प्रेम को याद करता रहा है । करीब पंद्रह वर्षों बाद सुलेमान-श्यामा से मिलता है । श्यामा आदिवासी महिला है, जो अब पहले की तरह रूपवान ओर लावण्ययुक्त नहीं रही, बल्कि जीवन की निर्धनता से टकरा-टकराकर वह कुरूप और बदरंग हो गई । सुलेमान उसकी ऐसी दुर्दशा देखकर हतोत्त्साहित हो जाता है और जाने कैसी बेचैनी उसके भीतर उमड़ आती है । श्यामा के खो गए रूप सौन्दर्य से वह आहत होता है और पश्चाताप भी करता है । सुलेमान कुर्बानी के बकरे की ख़रीदारी के बहाने श्यामा को देखने इतनी दूर आदिवासी इलाके में आता है और एक गहरा अफसोस पाता है । श्यामा अपने प्रिय बकरे शेरु को किसी को भी नहीं बेचती है, परंतु सुलेमान को वह माना नहीं कर पाती है । सुलेमान शेरु को अगले दिन कुर्बानी के लिए ले आता है, लेकिन श्यामा की रस्सी जो शेरु के गले में आदिवासियों से मंत्रबिद्द करके डाली थी, वह श्यामा वापस निकालना भूल जाती है । यह पुरानी रस्सी ही कहानी में प्रेम का सफल प्रतीक बनकर उभरी है और गहरी संवेदनशीलता व्यक्त कर रही है । यह एक खामोश प्रेम कहानी है, जो रोचकता के साथ पाठक को एक अलग ही लोक में ले जाती है ।
तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधितत्व करती ‘नसीबन’महिलाओं की सामाजिक दुर्दशा,आश्रितता,संघर्ष और आरोपों की कहानी है । नसीबन की तलाक़ अपने पहले पति से इस बिनाह पर हो जाती है,कि उसके कोई औलाद नहीं होती है । नसीबन पर बांझ होने का आरोप लगाया जाता है और उसे तलाक़ की पीड़ा झेलनी पड़ती है । कुछ वर्षों बाद एक अच्छे परिवार में उसका फिर निकाह हो जाता है और उसका एक बेटा भी होता है । शहडोल (मध्य प्रदेश) की यात्रा के दौरान बस में उसकी मुलाक़ात एक महिला से होती है, उसके साथ उसके तीन बच्चे है। कहानी के अंत में वह महिला उसके पहले पति की दूसरी पत्नी निकलती है । एक घटना के माध्यम से तलाक़शुदा औरत की संघर्षात्मक अवस्था का वर्णन किया गया है, जो अत्यंत साधारण और नाटकीय प्रतीत होता है ।
मज़ारों की स्थापना से लेकर वहाँ पर चल रहे ढोंग ढकोसलों, अंधविश्वासों, व्यावसायिकता,अय्याशी और पाखंड के बोलबाले को अपने यथार्थ रूप में यदि देखना हो, तो ‘पीरू हज्जाम उर्फ़ हजरतजी’के माध्यम से देखा जा सकता है। कहानी ऐसी वास्तविकता लिए हुए है,जिससे आँख ही नहीं, बल्कि अक्ल भी खुल जाएगी । कहानी में मुस्लिमों-हिंदुओं की आध्यात्मिमकता की झूठी छवि को एक चालबाजी के तहत दर्शाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि धर्म के ठेकेदार केवल ढोंग की चादर ओढ़े हुए हैंतथा उस चादर के भीतर वे कितनेस्वार्थी ,पतित और कमीने हैं । लोभ, लालच और अवसरवाद का पर्दाफाश करते हुए झूठे रिश्तों को बड़ी व्यापकता के साथ घटनात्मक रूप में कहानी में अंजाम दिया गया है । कहानी मन पर प्रभाव स्थापित करने में अत्यंत सफल सिद्ध हुई है ।   
‘कुंजड़ क़साई’मुस्लिमों के बीच पनप रही जाति व्यवस्था पर केन्द्रित कहानी है,जिसमें प्रमुख पात्र एम.एल.कुरैशी निम्न जाति के दंश को सहता हुआ, पीड़ादायक परिस्थितियों से गुज़रता है । उच्च जाति- निम्न जाति के व्यक्ति को ताउम्र किस प्रकार ग्लानिआपुरित रखते हुए, अपने लिए आनंद और फ़ख्र की बात समझती है, कहानी बेहतर रूप में खुलासा करती है । एम.एल. कुरैशी को अपना सरनेम तब और भी चुभता है, जब उसका निकाह सय्यदों में होता है । वह सय्यदों की जाति व्यवस्था की ऐंठन और उच्चदंभता से आहात होता है और अंततरू विचार करता है कि व्यक्ति पढ़-लिखकर चाहे कितने बड़े ओहदे पर क्यूँ न पहुँच जाए, लेकिन जाति व्यवस्था उसे पिछड़ा ही बनाए रखेगी । एम.एल. कुरैशी जातिवाद की त्रासदी को सहता है और मानता है कि अपनी  जाति को कभी दफनाया नहीं जा सकता है, व्यक्ति को अवश्य दफ़न किया जा सकता है ।
कहानी संग्रह की अंतिम कहानी ‘फत्ते भाई’धर्म के शिकंजे में व्यक्ति की छटपटाहट और आस्था-अनास्था के बीच जीवन की बाध्यता की कहानी है । यह एक ऐसे चरित्र की कहानी है, जो मुस्लिम तो है, परंतु अपनी धार्मिक आस्था से डिगने पर समाज के समक्ष अपराधी सिद्ध हो जाता है । जब उसे  लकवा मार जाता है, तब बावजूद सारे इलाजों के ठीक न होने की दशा में अपने मित्र बलदेव के कहने पर वह अपनी पत्नी हमीदा के साथ मध्य प्रदेश के शहर कटनी में चमत्कारी हनुमान जी का प्रसाद ग्रहण करने छुपते-छुपाते जाता है, लेकिन इस बात की खबर मुस्लिम समाज में फैल जाती है । फत्ते भाई की पेशी मादरेसे में होती है और वह अपना जुर्म कुबूल कर लेते हैं कि उनसे एक अज़ीम गुनाह हुआ है । कमेटी निर्णय करती है कि फत्ते भाई हराम हो गए हैं, काफ़िर हो गए हैं । इनको फिर से कलमा पढ़ाया जाए और फिर से निकाह पढ़ाया जाए । यह कहानी एक खामोश मुस्लिम चरित्र का असमय आई शारीरिक विपत्ति के साथ मुस्लिम समाज के कड़े शिकंजे की कहानी है ।
इस संग्रह की समस्त कहानियाँ मध्यप्रदेश के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्र से संबन्धित हैं, जो कि बघेलखंड और छत्तीसगढ़ का सीमावर्ती क्षेत्र है। इस क्षेत्र में मुस्लिम संस्कृति में काफ़ी बदलाव आया है और वे एक साथ कई दृष्टिकोणों से परिवर्तित हुए हैं, फिर भी मुस्लिमों की मूल संस्कृति कीतमाम जड़ों की रक्षा उनमें नज़र आती है। लेखक ने मुस्लिमों की सामाजिक, धार्मिक और मानसिक दशा-दुर्दशा का गहरे तौर पर आकलन किया है । जहाँ कहानियों में कथ्य की दीर्घता, संवेदनशीलता, घटनाओं का ब्योरा है, वहीं शिल्प की दृष्टि से सपाट और सहज नज़र आती हैं और यही समस्त कहानियों की विशेषता बन गई है । लेखक ने कहानी के परिवेश में कई कटाक्ष भी किए हैं, चाहे मुस्लिमों का पिछड़ापन हो, चाहे मुस्लिमों की मानसिकता या फिर मीडिया की चालबाज़ियाँ हों । मूल रूप से कहानियों में दृश्य-विधान को सफलता के साथ उकेरा गया है, जो आँखों के समक्ष एक चित्र खींच देता है । लेखक ने नए बिम्बों को बड़ी ही खूसूरती के साथ उठाया है,जैसे- “लकड़ी से जलाने वाला मिट्टी का दोमुंहा चूल्हा जलता और उसकी लाल आँच में खाना पकाती अम्मी की आकृति कल्लू को किसी परी सी लगती थी ।”बहरहाल संग्रह की समस्त कहानियों में खास तौर पर प्रगतिशीलता की जड़ें नज़र आती हैं और यह जड़ें इस संग्रह के माध्यम से समाज के गहरे अंधकार में मूसलाजड़ की तरह धँसीं हुई हैं ।   


समीक्षक-
डॉ मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक
जे एस एम महाविद्यालय अलीबाग ज़िला रायगढ़ (महाराष्ट्र)
पिन- 402 201  मोबाइल- 09860657970 


कहानी-संग्रह --- गहरी जड़ें
लेखक-अनवर सुहैल
प्रकाशन-यथार्थ प्रकाशन
2604@213 द्वितीय तल श्री बालाजी मार्किट,
नई सड़क दिल्ली-110 006
मूल्य-275 रुपये मात्र



  

  

Sunday, January 18, 2015

सार्थक संघर्ष और विवेक की पक्षधरता का निबाह करती कहानियाँ "गहरी जड़ें" - मनोज पाण्डेय

अनवर सुहैल समकालीन हिंदी कथा जगत में एक जाने पहचाने कहानीकार हैं. ‘गहरी जड़ें’ उनका कहानी संग्रह है जिसमें भारतीय मुस्लिम परिवेश पर आधारित कहानियां संग्रहित है. इस बात को आधिकारिक बनाने के लिए इस संग्रह के मुखपृष्ठ पर स्पष्ट रूप से इत्तला भी दिया गया है.हिंदी पाठकों के लिए इस कहानी संग्रह का परिचय देते हुए भूमिका में ‘अपरिचित संसार का अनावरण’ का शीर्षक भी दिया गया है जिसे हिंदी कथा जगत के चर्चित कथाकार अजय नावरिया ने लिखा है. यह मान कर चला गया है कि ‘मुस्लिम परिवेश’ एक अपरिचित दुनिया ही साबित होता रहा है.जबकि ऐसा नही है कि अनवर सुहैल पहली बार मुस्लिम परिवेश की कहानियां लिख रहे है. हिंदी कथा-साहित्य में शानी, राही मासूम रजा, बदी उज्जमाँ, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, हसन जमाल, हबीब कैफ़ी अलग-अलग कद के रचनाकार रह चुके हैं और आज भी लिख रहे है. इतने लोगों के लिखने और उनको पढ़े जाने के बाद भी परिवेश का अपरिचित बने रहना हिंदी कहानियों के संवेदनशील पाठक के लिए किसी धक्के से कम नही हो सकता. इन ‘मुस्लिम’ कहानीकारों से पहले प्रेमचंद की कहानियों में वह भारतीय जीवन उभरता है जिसमे ‘मुस्लिम परिवेश’ के रंग भी साफ़ पहचाने जा सकते है. प्रेमचंद के कथा-साहित्य में यह परिवेश किसी विशेष हिस्से के रूप में आने की जगह भारतीय जीवन के पहलू के तौर पर ही सामने आता है.       

पृष्ठ-१४४, मूल्य- २७५ रूपये मात्र, प्रकाशक- "यथार्थ प्रकाशन"  
   प्रेमचंद ने जिस समय में अपनी कहानियां लिखी उस समय तक न धर्म के आधार पर
 भारत का बंटवारा हुआ था और न ही उस समय तक ‘पाकिस्तान’ का विचार ही अपनी जड़े जमा पाया था. 1947 के बाद बंटवारे के बाद से भारत में ही रह गये भारतीय मुस्लिमों के साथ एक खास किस्म की मानसिकता ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी. मुसलमानों को किसी एक दूसरे देश के साथ जोड़ कर पहचाने जाने की पीड़ा से नही गुजरना पड़ता था. उस समय तक उसके खाने-गाने पर दो देशों के नाम नही चिपके हुए थे.जितनी मात्रा में हिन्दू अंग्रेजपरस्त थे उतनी ही मात्रा में मुस्लिमों के मामले में भी संभावना थी. शहर-गाँव की बसावट में धर्म की  रेखाएं दीवार में नही बदली थी. शायद यही कारण रहा होगा कि अलगू और जुम्मन एक दूसरे की पंचायत करते थे और उन के निर्णय भी दोनों सहजता से स्वीकार भी करते थे. संग्रह के शीर्षक ‘गहरी जड़ें’ नामक कहानी का मुस्लिम पिता का मनोसंसार ‘बाबरी’,‘गोधरा’ और ‘ग्यारह सितम्बर’ होने से पहले ही पुख्ता तौर पर निर्मित हो चुका था. अपने मनोसंसार में ‘पंच-परमेश्वर’ वाले खाद-पानी के कारण ही उनके भीतर अपने पुराने मुहल्ले में ‘बसे’ रहने की जिद ने गहरी जड़ें जमा ली हैं. उनकी यह जिद अपने समय के अधेरों के खिलाफ रौशनी की जिद बन पाठक को भारतीय समाज के प्रति आश्वस्त करती है. अपनी इस आश्वासन की बिना पर यह कहानी इस संग्रह की विशिष्ट कहानी का दर्जा पाती है.

      एक अच्छी कहानी अपनी पूरी बुनावट में अपने लिखे जाने के कारण की ओर साफ़ इशारा करती है. अनवर की अधिकांश कहानियों में ये इशारे इतने साफ़ तौर पर आते है कि उन इशारों को हम ब्यौरे की तरह देखने लगते है.’नीला हाथी’,’ग्यारह सितंबर के बाद’ और ‘दहशतगर्द’ नामक कहानियों में हमे इसकी तफ्शील मिलती है. दहशतगर्द कहानी के मूसा के आतंकवादी में तब्दील होने की प्रक्रिया को इन्ही ब्योरों के साथ देखा-समझा जा सकता है.”पहले-पहल इस नगर में एक ही मन्दिर था, देवी माँ का मन्दिर,फिर जब यहाँ मारवाड़ी आकर बसे तब नगर के मध्य में भव्य ‘राम-मन्दिर’ बना,जिसके प्रांगण में सुबह-शाम शाखाएं लगने लगीं. पहले यहाँ एक छोटे कमरे में मस्जिद बनी, फिर देखते-देखते इस नगर में तीन मस्जिदें, दो ईदगाह, एक कब्रस्तान, एक मजार बन गई.  ...आर्थिक उन्नति के साथ  धर्म, आस्था, विचार, आदर्श, संवेदना और शिक्षा का व्यवसायीकरण किस तेजी से होता है, इसकी प्रत्यक्ष मिसाल यहाँ देखी जा सकती है.” इन ब्योरों की बानगी हमे हर शहर और कस्बों के साथ इतनी ही शिद्दत के साथ घटती दिखाई देती है.यह कहानी हर शहर-कस्बें की कहानी बन जाती है. मूसा के आतंकवादी बन जाने या बना दिए जाने  के बाद भी गनीमत है कि  हमारे आसपास ईसा मियां और पहले वाले मूसा कम नही हुए हैं. यह कहानी मूसा को बदलने में भागीदार लोगों की साजिशों को बेपर्दा करने वाली कहानी है.यह बेपर्दा करने वाली कहानियां हमे किसी अगले मूसा को आतंकवादी बनने और बनाने की प्रक्रिया से जूझने की ताकत से भरने का काम भी करती जाती हैं. जबकि ‘ग्यारह सितंबर के बाद’ का अहमद इससे पहले ‘छह दिसंबर’ भी झेल चुकने की निरन्तरता को सह नही पाता और ‘घनघोर-नमाजी’ बन जाता है. उसके इस बदलाव के पीछे इन दोनों घटनाओं के असर से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका इन दोनों घटनाओं के बीच उसके साथ रोजमर्रा के जीवन में होने वाली घटनाएँ और व्यवहारों ने निभाई हैं. अयोध्या और अमेरिका दोनों अहमद से दूर है पर उसके आसपास के लोग हमेशा उसके आसपास हैं. “मुझे एक मुसलमान क्यों समझा जाता है,जबकि मैंने कभी भी तुमको हिन्दू वगैरा नही माना. मुझे एक सामान्य भारतीय शहरी कब समझा जायेगा?” अहमद का यही ‘दर्द’ उसको भीतर तक डरा देता है. एक ‘मुसलमान’ में बदलते अहमद के रूप में भारतीय समाज-संस्कृति का ‘डरा-सहमा और कमजोर’ होता चेहरा हमारे सामने आ खड़ा होता है.
         अनवर परिवार और उसके संबंधों की भी कहानियां लिखते हैं और अच्छी लिखते हैं.’नसीबन’,’चहल्लुम’ शीर्षक कहानी तो पूरी तरह परिवार के भीतर की कहानी हैं.’पुरानी रस्सी’ को भी इस दायरे में शामिल माना जा सकता है. इन कहानियों के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों के तनावों से रूबरू होता है. इन कहानियों के पात्रों का नाम आप जिस परिवेश की छाह देने वाले रखगें यह कहानियां भी उसी परिवेश की हो जाएँगी. इस तरह की कहानियां हमारे पारिवारिक ढांचे को ढकने वाले धार्मिक आवरण को उघाड़ कर पूरे भारतीय सामाजिक ताने बाने की विसंगतियों को सामने लाती है. ‘हमारे यहाँ ऐसा नही होता या होता है’ के दावों की भुरभुरी नीवं को खोद कर नेस्तनाबूद कर देती हैं. रिश्तों के भीतर मार्मिक स्थितियों को पहचानने और उन्हें प्रभावी कलेवर में प्रस्तुत करने में भी अनवर सुहैल सफल रहे है. इस लिहाज से ’नसीबन’ एक बेहद सफल कहानी है.नसीबन एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो स्त्री-जीवन की विपरीत और त्रासद स्थितियों के खिलाफ मजबूती से खड़ी होती है, लडती है, अपने दायरे में जीतती भी है. वह पाती है कि  एक उस जैसी एक दूसरी स्त्री उन्ही विपरीत और त्रासद स्थितियों के चंगुल में फंसी हुयी है और उस दूसरी स्त्री के व्यवहार में उसका एहसास दूर–दूर तक दिखाई नही देता. इस सच से नसीबन को गहरा धक्का लगता है. कहानी का अंतिम अंश है “नसीबन की आँखें बंद थीं./एक बम सा फटा उसके कानों के पास! ‘जुम्मन’/काश! उसने अपने कान भी बंद कर लिए होते.” इस तरह नसीबन दूसरी स्त्री के जीवन-स्थितियों के त्रासद सच से अपने आप को एकाकार महसूस करती है. नसीबन के साथ कहानी का पाठक भी भीतर तक हिल जाता है.
        ‘नीला हाथी’ और ‘पीरू हज्जाम उर्फ़ हजरतजी’ कहानी धर्म के आडम्बर औरविसंगतियों का कथात्मक रूप प्रस्तुत करती है. अपनी विषयवस्तु में प्रभावी होने के बाद भी इन कहानी का पूरा ढांचा बहुत हद तक तय फार्मूले और टूल के इस्तेमाल से खड़ा किया हुआ लगता है. इन दोनों कहानियों में धर्म का आडम्बर रचने और उसे अपने लिए फायदेमंद बना लेने का काम करने वाले पात्र मुस्लिम समुदाय के अशराफ या पसमांदा तबके से ताल्लुक रखने वाले हैं. कहानीकार इस तथ्य को दोनों कहानियों में दर्ज भी करता है. एक कहानी के शीर्षक से ही इस बात की पुष्टि हो जाती है. अब मामला ये बनता है कि धर्म के पूरे जालताल पर किस तबके का वर्चस्व बना रहता है, उस ओर न तो इशारा करती है और न ही इन पात्रों के व्यक्तित्व को इस तरह से विकसित होने में उस तबके की मानसिकता का असर ही पकड़ा गया है. इसके बावजूद दोनों कहानियों को पढने में  पाठक कहानी का पूरा रस ले सकते है.
        ‘फिरकापरस्त’, ’कुंजड-कसाई’, और ‘फत्ते भाई’ इन तीन कहानियों में मुस्लिम परिवेश के परत दर परत खांचों के दबावों और विषमता-बोध को केंद्र में रखा गया है. इन कहानियों में दर्ज हुआ ‘मुस्लिम परिवेश’ अपने ही धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ साबित होता है फिर भी मजबूती से अपना वजूद कायम रखे है. यह भारतीय परिवेश का कारुणिक प्रभाव है जिससे कोई भी धर्म नही बचा हुआ है. कहानी संग्रह की भूमिका में जिस ‘अपरिचित संसार का अनावरण’ करने की बात की गई है वह इन्ही तीन काहनियों से मुख्यतः जुडती हैं. इन तीनों कहानियों का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि इन तीनों कहानियों के पात्र अपने जीवन पर थोपी त्रासदी और विषमताबोध के खिलाफ सार्थक संघर्ष के रास्ते पर चलते है. एक कहानीकार के तौर पर अनवर सुहैल ने अपनी सभी कहानियों में संवेदनशील और सचेत रूप में सार्थक संघर्ष के प्रति अपनी गहरी आस्था और विवेक की पक्षधरता का निबाह किया है और यही निबाह किसी भी रचनाकार का अंतिम देय साबित होती है.