ज़ुबैर सैफ़ी की कवितायेँ :
( बेशक, नज़्म कहीं भी हो सकती है। इन पंक्तियों के रचयिता को सलाम। अपनी खुशहाल ज़िंदगी मे पेवस्त दिलो-दिमाग को बड़ी वर्जिश करनी पड़ती है नज़्म को आत्मसात करने मेंऔर हम वाकई इन अहसासात को महसूस कर पाने के काबिल नहीं हैं भाई। ------------अनवर सुहैल )
~ईंट भट्टे का कवि (1)
कवि ईंट भट्टे पर दूर से लाया गया था,
वो सालाना झुंडों में लाये जाते,
कच्चे फूस और चटका ईंटों पर रखी काली पिन्नियों से बने घर में,
कविताएं उगतीं,
कवि माटी घोटता,
ईंट पाथता,
हाथ ठेले पर कच्ची ईंटें ढोकर चिमनियों पर ले जाता,
हाथ रेहड़ी और चिमनी के बीच में कविताएं ईंटों से होकर गुज़रती,
चिमनी में ईंट पकती तो,
कवि बैठकर भूसे की राख से कविता चुनता,
क्रमश: अव्वल, सोयम, दोयम, चटका,
जिसको जितनी आंच, वैसी कविता,
और कविता पक कर निकलती,
...
कवि रात में चांद देखता तो,
चांद ईंट के आकार का दिखाई पड़ता,
फलां ब्रिक फिल्ड का मुहर रूपी बिल्ला प्रेमिका के चेहरे पर चिपका होता,
कवि कच्चे चावल खाता, दाल पीता,
खैनी की थैलियां ख़त्म करता,
और सुबह ईंटों से फिर कविता उपजती,
...
कवि की कलम चिमनी है,
कवि पथेरवा है,
ईंट भट्टे पर कवि भी काम करते हैं,
बंधुआ मज़दूरी में जीवन कविता कहता है,
हर रोज़ एक नई कविता,
एकाकी जीवन में कविता नहीं होती,
ईंट भट्टों की चिमनियां बहुवचन हैं
कविता और चिमनी में क्या समानता है?
दोनों ईंट भट्टे के मज़दूर के सीने में,
सीधी खड़ी हैं!
..
कितने कवि ईंटों के चट्टों में दब कर मारे गये
हर बंधुआ के पेट से कितनी कविताएं बंधी है,
ये किस कविता में लिखा जायेगा,
कवि मज़दूर ही मर जायेगा,
चटका हज़ार ,
सोयम दोयम चौदह सौ,
अव्वल दस हज़ार ,
स्वयं में पूर्ण कविता है!
~तरतीब
मुकद्दर की झील में सदियों से बर्फ़ जमी हैं,
ओस के क़तरे शमशीरों की नोंक पे रखे हाथ आये हैं,
प्यास की कोयल गूंगी हो गई,
शाम की आमद ख़ूंरेज़ी है,
अब्र के टुकड़े छाती के गोश्त से टकराकर
पानी लेते हैं,
वक़्त की बरछी सीने में पैवस्त है लेकिन घूम रही है,
शाइर की नज़्मों की दस्तक गूंज रही है,
मीर ओ ग़ालिब, सौदा-मोमिन भूखे हैं,
रोटी की ज़द में ग़ज़लें तवे पर खौल रही है,
नज़्म उदासी की शलवार का नाड़ा ढीला करके,
मुंह काला करने पर आमादा है,
हातिमताई के जिन्नात की आंखो में मौत का डर है,
....
ऊपर की बकवास को पढ़कर
क्या समझे?
इक नज़्म कभी भी हो सकती है,
सूअर की चर्बी के मिसरों पर,
गाय की खाल लपेटे लफ़्ज़ भेड़ियों के दांतों पर,
नज़्म कहीं भी फंस सकती है,
रक़्कासा के घुंघरू पर वारे नोट का गांधी बिल्कुल असली है,
उस पर भी नज़्म कही जा सकती है,
गौतम-साईं के उपदेशों पर,
मेरी कोरी बकवासों पर,
नज़्म कहीं भी घट सकती है!
~अनकही
आंख आवाज़ की आवाज़ से खुलीं,
"आज फ़ुलां मर गया है,
मरना तो रोज़ की ही घटना है,
घटना से पहले असाधारण तब जुड़ता है,
जब कोई अपना मृत्यु को प्राप्त हो जाये,
..
देश की राजधानी में,
जो मरने वाले के घर से सैकड़ों मील की दूरी पर थी,
उसी रात,
भूकंप के झटके महसूस किये गये,
इस प्रश्न का उत्तर किसके पास है
कि आत्मा किसी का शरीर छोड़ती है तो
झटके और लोगों को महसूस नहीं हो सकते।
...
भूकंप आकर चला गया,
और अर्थी बनाने वाले बुलवाने से आये,
बांस फाड़े और जोड़े जाने जन्म और मृत्यु के मध्य किसी सेतु का संकेत थे,
अर्थी के विमान की आकृति पुष्पक विमान के माॅडल से मेल खाती थी,
ठीक उसी समय कहीं किसी चाय की थड़ी पर कोई नवयुवक प्रेमिका का हाथ पकड़े हुए,
विमान यात्रा का वादा कर रहा था,
"वहां से तुम्हें पूरा शहर दिखाई देगा"
एक नया शहर मृतक के घर में बस गया,
शोक मनाते लोगों का शहर,
...
राजधानी दिल्ली से स्थानांतरित नहीं की जा सकती,
मगर अर्थी स्थानांतरित की जा रही थी,
एक जनपद से दूसरे जनपद,
मृतक का घर एक जनपद की सीमा के अंत पर था,
श्मशान दूसरे जनपद के प्रारंभ में थे,
अर्थी अन्तरजनपदीय थी,
और सीमा को लेकर भी दोनों जिलों की पुलिस में कोई झगड़ा नहीं था,
अर्थी चल दी थी,
उधर प्रेमिका भी,
चाय ठंडी हो रही थी,
अग्नि जलाई जा रही थी,
एक समय में दो अप्रतिम घटनाओं का साक्षी समय था,
...
कहीं भूकंप आये,
लोग मर जायें,
मगर राजधानी से दूर,
किसी घर में फटे कलेजे में उठने वाला भूकंप किसकी दृष्टि में है,
एक समय पर, एक समय में
यद्यपि और हालांकि एक जैसे हो सकते हैं,
अर्थी और भूकंप समानार्थी भी हो सकते हैं,
परंतु अलग समय में,
कहीं किसी के शरीर से जब आत्मा खींची जा रही थी,
ठीक उसी समय दिल्ली में भूकंप के झटके लग रहे थे,
समय हमें एक सूत्र में बांधता है,
हम सब एक हैं!
प्रकाश वर्ष के मध्य के निर्वात में,
भूकंप सदाचारियों के लिये प्रणय निवेदन है,
मृत्यु दूर किसी गांव के साहूकार के लिये मूल और ब्याज दोनों का मर जाना है।
~मृत्यु की लोरी
मृत्यु घात लगाये बैठी होती है,
सर्द रातों में,
गली के नुक्कड़ पर,
उसे सर्दी भी नहीं लगती,
बिना शाॅल ओढ़े,
किसी की खोज में भटकती हुई बिरहन की तरह,
मृत्यु वो अभागी है,
जिसे विवाह की पहली रात त्यागा गया,
...
अपनी काली आंखों में सूरज की रंगत झोंके,
देखती रहती है,
कौन आने वाला है इस रस्ते!
..
मृत्यु पुरातन कथाओं की वही प्रेतनी है,
जो ना जाने कितने लोगों को रतिक्रिया के पश्चात मार देती है,
फिर भी उसको चाहिए होता है,
नया आदमी!
मृत्यु संभोग की प्यासी प्रेतनी,
...
मृत्यु के तीन स्तन हैं,
त्रिस्तनधारिणी!
तीसरे स्तन पर समय का गोल लदा है,
समय स्तन की गोलाई से घूमकर आता है,
....
स्तन तो जीवन स्त्रोत के द्योतक है,
मां के स्तन,
मृत्यु के तीन स्तन,
जैसे बच्चा जग घूमकर मां के पास लौटता है,
वैसे ही हम सब भी मृत्यु के पास ही लौटेंगे,
इस सत्य को ईश्वर ने अज्ञात ही रखा है
कि
मृत्यु हमारी 'मां' भी हो सकती है!
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