सोमवार, 18 अगस्त 2025

गुम चुके शब्द


यह किसी बालर की गेंद नहीं है
जो लक्ष्य को भेदने फेंकी गई हो
मेरे दिल और दिमाग में अचानक
अनगढ़, बेमेल विचारों की आंधी है
ऐसा पहले कभी कभी होता था
अब अक्सर इन अंधड़ों से होता हूँ परेशान
तो तेज़ी से बदलती भावनाओं को
बेबस हुए जाते शब्द आकार नहीं दे पाते हैं
मैंने जब यह बात झिझकते हुए उससे कही
तो वह भी बोल उठा, हाँ भाई, ऐसा ही हो रहा है
पुराने टॉकीज़ के पीछे जोड़ा तालाब के बीच
पगडंडी पर हम चल रहे थे, मस्जिद से मग़रीब की अज़ान गूंजी
शाम के रहस्य का जादू बिखर रहा था कि अचानक
हम सुरमई अंधेरों में किन्हीं सूखे पेड़ की तरह
खड़े हो गए चित्रवत कि इस पगडंडी पर अब सिर्फ
हम ही थे और कवि मित्र की जेब में शब्द गुम चुके थे।

मंगलवार, 5 अगस्त 2025

जाएँ तो जाएँ कहाँ



हम रौनक हैं बड़े बाज़ार के
जाने कहाँ-कहाँ से चकमक सामान लाते
मुंह अंधेरे सुदूर झुग्गियों से निकलकर आते
पीठ पर गठरियां लादे, गरम चाय सुड़कके
तरह तरह की बाधाएं पारकर, हम आते
टूटता मनहूसी का आलम, झट जादू सा होता
चहल पहल होने लगती और हम भूल जाते
भूख प्यास, धूप गर्मी बारिश, बस इस दृश्य के
बन जाते अंग, बड़ी दुकानों के आगे सज जाते
कभी कभी कोई आती जब निगम की गाड़ी
जो भी होती पूंजी अपनी उठा ले जाती तो भी
इस छापे के बाद जाहिर है एक दो हफ्ते हमको
अब कोई नहीं छेड़ेगा, हम फिर से ले आते सामान
और मोलभाव करते ग्राहकों को बेचते खुशी खुशी
उनकी पसंद के सामान, कि दिन अब कैसे आए
लगता नहीं अब इन जगहों पर कभी सजेंगी रेडियाँ
मैंने ऑटो वाले से यूं ही कहा कि शहर में अब कैसी
मनहूसियत है आई तो जैसे फट पड़ा वो बोला साहेब
मज़ा नहीं आ रहा कि जैसे कोई टोना सा कर गया
चारों तरफ़ उदासियों का डेरा, हम जैसे भूत प्रेत कोई
मन नहीं लगता साहेब, लेकिन जाएं तो जाएं कहां???