हम रौनक हैं बड़े बाज़ार के
जाने कहाँ-कहाँ से चकमक सामान लाते
मुंह अंधेरे सुदूर झुग्गियों से निकलकर आते
पीठ पर गठरियां लादे, गरम चाय सुड़कके
तरह तरह की बाधाएं पारकर, हम आते
चहल पहल होने लगती और हम भूल जाते
भूख प्यास, धूप गर्मी बारिश, बस इस दृश्य के
बन जाते अंग, बड़ी दुकानों के आगे सज जाते
कभी कभी कोई आती जब निगम की गाड़ी
जो भी होती पूंजी अपनी उठा ले जाती तो भी
इस छापे के बाद जाहिर है एक दो हफ्ते हमको
अब कोई नहीं छेड़ेगा, हम फिर से ले आते सामान
और मोलभाव करते ग्राहकों को बेचते खुशी खुशी
उनकी पसंद के सामान, कि दिन अब कैसे आए
लगता नहीं अब इन जगहों पर कभी सजेंगी रेडियाँ
मैंने ऑटो वाले से यूं ही कहा कि शहर में अब कैसी
मनहूसियत है आई तो जैसे फट पड़ा वो बोला साहेब
मज़ा नहीं आ रहा कि जैसे कोई टोना सा कर गया
चारों तरफ़ उदासियों का डेरा, हम जैसे भूत प्रेत कोई
मन नहीं लगता साहेब, लेकिन जाएं तो जाएं कहां???
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