बुधवार, 24 दिसंबर 2025


एक 

 बेहतर कल की उम्मीद


हम सोचते हैं कि कल शायद

सब ठीक हो जाए

उम्मीद बांधे रखते हैं

कि कल आज से बेहतर ही होगा

इस बेहतर कल की

उम्मीद का दामन थामे

खप गई जाने कितनी पीढ़ियां

यह तो अच्छा है कि इंसान

थोपे हुए हमलों को

ठेंगा दिखाकर भी

देख लेता है सपने

एक बेहतर कल के सपने

मज़बूत किलों के बंद कमरों में

ज़मीनी-खुदा इस निष्कर्ष पर

पहुंच ही जाते हैं कि बहुत जब्बर है

इंसान की जिजीविषा

बहुत चिम्मड़ है इंसान की खाल

और किले की हिफ़ाज़त के लिए

ख़ामोश और मुस्तैद इंसानों की

ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी।





दो 

कोई नहीं खड़ा है साथ 



कौन खड़ा है साथ 

क्या किसी ने बढ़ाया हाथ 

या, इस  बार भी बे-यारो-मददगार 

मायूस छोड़ दिया जाऊँगा 

नुकीले दांतों, तीखे नाखूनों वाले 

सर्द धमकियों वाले भेड़ियों के बीच 


कोई नहीं खडा है साथ 

लोग अब भूल से भी देखते नहीं 

कि कहीं सुहानुभूति के कीटाणु जाग न जाए 

इंसानियत की सुप्त चेतना झकझोर न दे 

यह ऐसा वक़्त है जब 

सिर्फ उतना ही देखने की इजाज़त है 

जिससे अपना कोई नुकसान न हो 


कोई नहीं खडा है साथ 

यह तो होना था एक दिन 

कोई क्यों देगा साथ 

जब हम भी तो किसी के लिए 

खड़े होने से करते थे परहेज़ 

बहुत सरल तर्क था कि 

जिसकी फटी है वही सिलेगा....


सोमवार, 22 दिसंबर 2025

‘हस्सा-हुस्सैन….हस्सा-हुस्सैन’


 

पहचान: मुहर्रम प्रसंग

कल्लू नाम था उसका। वह बीना की खुली कोयला खदान में काम करता था।
यूनुस तब वहां कोयला-डिपो में पेलोडर चलाया करता था। वह प्राइवेट कम्पनी में बारह घण्टे की ड्यूटी करता था। तनख्वाह नहीं के बराबर थी। शुरू में यूनुस डरता था, इसलिए ईमानदारी से तनख्वाह पर दिन गुजारता था।
तब यदि खाला-खालू का आसरा न होता तो वह भूखों मर गया होता।
फिर धीरे-धीरे साथियों से उसने मालिक-मैनेजर-मुंशी की निगाह से बच कर पैसे कमाने की कला सीखी। वह पेलोडर या पोकलेन से डीजल चुरा कर बेचने लगा। अन्य साथियों की तुलना मंे यूनुस कम डीजल चोरी करता, क्योंकि वह दारू नहीं पीता था।
कल्लू उससे डीजल खरीदता था।
खदान की सीमा पर बसे गांव में कल्लू की एक आटा-चक्की थी। वहां बिजली न थी। चोरी के डीजल से वह चक्की चलाया करता।
धीरे-धीरे उनमें दोस्ती हो गई।
अक्सर कल्लू उससे प्रति लीटर कम दाम लेने का आग्रह करता कि किसके लिए कमाना भाई। जोरू न जाता फिर क्यूं इत्ता कमाता। उनमें खूब बनती।
फुर्सत के समय यूनुस टहलते-टहलते कल्लू के गांव चला जाता।
कालोनी के दक्खिनी तरफ, हाईवे के दूसरी ओर टीले पर जो गांव दिखता है, वह कल्लू का गांव परसटोला था।
परसटोला यानी गांव के किनारे यहां पलाश के पेड़ों का एक झुण्ड हुआ करता था। इसी तरह के कई गांव इलाके में हैं जो कि अपनी हद में कुछ ख़ास पेड़ों के कारण नामकरण पाते हैं, जैसे कि महुआर टोला, आमाडांड़, इमलिया, बरटोला आदि। परसटोला गांव में फागुन के स्वागत में पलाश का पेड़ लाल-लाल फूलों का श्रृंगार करता तो परसटोला दूर से पहचान में आ जाता।
परसटोला के पश्चिमी ओर रिहन्द बांध की पानी हिलोरें मारता। सावन-भादों में तो ऐसा लगता कि बांध का पानी गांव को लील लेगा। कुवार-कार्तिक में जब पानी गांव की मिट्टी को अच्छी तरह भिगोकर वापस लौटता तो परसटोला के निवासी उस ज़मीन पर खेती करते। धान की अच्छी फ़सल हुआ करती। फिर जब धान कट जाता तो उस नम जगह पर किसान अरहर छींट दिया करते।
रिहन्द बांध को गोविन्द वल्लभ पंत सागर के नाम से भी जाना जाता है। रिहन्द बांध तक आकर रेंड़ नदी का पानी रूका और फिर विस्तार में चारों तरफ फैलने लगा। शुरू में लोगों को यकीन नहीं था कि पानी इस तरह से फैलेगा कि जल-थल बराबर हो जाएगा।
इस इलाके में वैसे भी सांमती व्यवस्था के कारण लोकतांत्रिक नेतृत्व का अभाव था। जन-संचार माध्यमों की ऐसी कमी थी कि लोग आज़ादी मिलने के बाद भी कई बरस नहीं जान पाए थे कि अंग्रेज़ी राज कब ख़त्म हुआ। गहरवार राजाओं के वैभव के कि़स्से उन ग्रामवासियों की जुगाली का सामान थे।
फिर स्वतंत्र भारत का एक बड़ा पुरस्कार उन लोगांे को ये मिला कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ा। वे ताम-झाम लेकर दर-दर के भिखारी हो गए। ऐसी जगह भाग जाना चाहते थे कि जहां महा-प्रलय आने तक डूब का ख़तरा न हो। ऐसे में मोरवा, बैढ़न, रेणूकूट, म्योरपुर, बभनी, चपकी आदि पहाड़ी स्थानों की तरफ वे अपना साजो-सामान लेकर भागे। अभी वे कुछ राहत की सांस लेना ही चाहते थे कि कोयला निकालने के लिए कोयला कम्पनियांे ने उनसे उस जगह को खाली कराना चाहा। ताप-विद्युत कारखाना वालों ने उनसे ज़मीनें मांगी। वे बार-बार उजड़ते-बसते रहे।
कल्लू के बूढ़े दादा डूब के आतंक से आज भी भयभीत हो उठते थे। उनके दिमाग से बाढ़ और डूब के दृश्य हटाए नहीं हटते थे। हटते भी कैसे? उनके गांव को, उनकी जन्म-भूमि को, उनके पुरखों की क़ब्रगाहों-समाधियों को इस नामुराद बांध ने लील लिया था।
ये विस्थापन ऐसा था जैसे किसी बड़े जड़ जमाए पेड़ को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह रोपा जाए…
क्या अब वे लोग कहीं भी जम पाएंगे?
कल्लू के दादा की आंखें पनिया जातीं जब वह अपने विस्थापन की व्यथा का जि़क्र करते थे। जाने कितनी बार उसी एक कथा को अलग-अलग प्रसंगों पर उनके मुख से यूनुस को सुन चुका था।
दादा एक सामान्य से देहाती थे। खाली न बैठते। कभी क्यारी खोदते, कभी घास-पात उखाड़ते या फिर झाड़ू उठाकर आंगन बुहारने लगते।
दुबली-पतली काया, झुकी कमर, चेहरे पर झुर्रियों का इंद्रजाल, आंखों पर मोटे शीशे का चश्मा, बदन पर एक बंडी, लट्ठे की परधनी, कंधे पर या फिर सिर पर पड़ा एक गमछा और चलते-फिरते समय हाथों में एक लाठी।
वह बताते कि उस साल बरस बरसात इतनी अधिक हुई कि लगा इंद्र देव कुपित हो गए हों। आसमान में काले-पनीले बादलों का आतंक कहर बरसाता रहा। बादल गरजते तो पूरा इलाका थर्रा जाता।
यूनुस भी जब सिंगरौली इलाके में आया था तब पहली बार उसने बादलों की इतनी तेज़ गड़गड़ाहट सुनी थी। शहडोल जि़ले में पानी बरसता है लेकिन बादल इतनी तेज़ नहीं गड़गड़ाया करते। शहडोल जिले में बारिश अनायास नहीं होती। मानसून की अवधि में निश्चित अंतराल पर पानी बरसता है। जबकि सिंगरौली क्षेत्र में इस तरह से बारिश नहीं होती। वहां अक्सर ऐसा लगता है कि शायद इस बरस भी बारिश नहीं होगी। एक-एक कर सारे नक्षत्र निकलते जाते हैं और अचानक कोई नक्षत्र ऐसा बरसता है कि सारी सम्भावनाएं ध्वस्त हो जाती हैं। लगता है कि बादल फट पड़ेंगे। अचानक आसमान काला-अंधेरा हो जाता है। फिर बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक के साथ ऐसी भीषण बरसात होती कि लगे जल-थल बराबर हो जाएगा।
वैसे इधर-उधर से आते जाते लोगों से सूचना मिलती रहती कि पानी धीरे-धीरे फैल रहा है। लेकिन किसे पता था कि अनपरा, बीजपुर, म्योरपुर, बैढ़न, कोटा, बभनी, चपकी, बीजपुर तक पानी के विस्तार की सम्भावना होगी।
तब देश में कहां थी संचार-क्रांति? कहां था सूचना का महाविस्फोट? तब कहां था मानवाधिकार आयोग? तब कहां थीं पर्यावरण-संरक्षण की अवधारणा? तब कहां थे सर्वेक्षण करते-कराते परजीवी एन जी ओ? तब कहां थे विस्थापितों को हक़ और न्याय दिलाते कानून?
नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व का दौर था। देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य। नए-नए लोकतंत्र में बिना शिक्षित-दीक्षित हुए, ग़रीबी और भूख, बेकारी, बीमारी और अंधविश्वास से जूझते देश के अस्सी प्रतिशत ग्रामवासियों को मतदान का झुनझुना पकड़ा दिया गया। उनके उत्थान के लिए राजधानियों में एक से बढ़कर एक योजनाएं बन रही थीं। आत्म-प्रशंसा के शिलालेख लिखे जो रहे थे।
अंग्रजी राज से आतंकित भारतीय जनता ने नेहरू सरकार को पूरा अवसर दिया था कि वह स्वतंत्र भारत को स्वावलंबी और संप्रभुता सम्पन्न बनाने में मनचाहा निर्णय लें।
देश में लोकतंत्र तो था लेकिन बिना किसी सशक्त विपक्ष के।
इसीलिए एक ओर जहां बड़े-बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठान आकार ले रहे थे वहीं दूसरी तरफ बड़े पूंजीपतियों को पूंजी-निवेश का जुगाड़ मिल रहा था।
यानी नेहरू का समाजवादी और पूंजीवादी विकास के घालमेल का माॅडल।
आगे चलकर ऐसे कई सार्वजनिक प्रतिष्ठानांे को बाद की सरकारों ने कतिपय कारणों से अपने चहेते पूंजीपतियों को कौड़ी के भाव बेचने का षडयंत्र किया।
पुराने लोग बताते हैं कि जहां आज बांध है वहां एक उन्नत नगर था। गहरवार राजा की रियासत थी। केवट लोग बताते हैं कि अभी भी उनके महल का गुम्बद दिखलाई पड़ता है।
गहरवार राजा भी होशियार नहीं थे। कहते हैं कि उनके पुरखों का गड़ा धन डूब गया है।
असल सिंगरौली तो बांध में समा चुकी है।
आज जिसे लोग सिंगरौली नाम से पुकारते हैं वह वास्तव में मोरवा है।
तभी तो जहां सिंगरौली का बस-स्टेंड है उसे स्थानीय लोग पंजरेह बाजार नाम से पुकारते हैं।
कल्लू के दादा से खूब गप्पें लड़ाया करता था यूनुस।
वे बताया करते कि जलमग्न-सिंगरौली रियासत में सभी धर्म-जाति के लोग बसते थे।
सिंगरौली रियासत धन-धान्य से परिपूर्ण थी।
तीज-त्योहार, हाट-बाज़ार और मेला-ठेला हुआ करता था। तब इस क्षेत्र में बड़ी खुशहाली थी। लोगों की आवश्यकताएं सीमित थीं। फिर कल्लू के दादा राजकपूर का एक गीत गुनगुनाते-‘‘जादा की लालच हमको नहीं, थोड़ा से गुजारा होता है।’’
मिजऱ्ापुर, बनारस, रीवा, सीधी और अम्बिकापुर से यहां के लोगों का सम्पर्क बना हुआ था।
यूनुस मुस्लिम था इसलिए एक बात वह विशेष तौर बताते कि सिंगरौली में मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था।
सभी लोग मिल-जुल कर ताजिया सजाते थे।
खूब ढोल-ताशे बजाए जाते।
तैंयक तक्कड़ धम्मक तक्कड़
सैंयक सक्कर सैंयक सक्कर
दूध मलीदा दूध मलिद्दा…
खिचड़ा बंटता, दूध-चीनी का शर्बत पिलाया जाता।
सिंगरौली के गहरवार राजा का भी मनौती ताजिया निकलता था। मुसलमानों के साथ हिन्दू भाई भी शहीदाने-कर्बला की याद में अपनी नंगी-छाती पर हथेली का प्रहार कर लयबद्ध मातम करते।
‘हस्सा-हुस्सैन….हस्सा-हुस्सैन’
कल्लू के दादा बताते कि उस मातम के कारण स्वयं उनकी छाती लहू-लुहान हो जाया करती थी। वह लाठी भांजने की कला के माहिर थे। ताजिया-मिलन और कर्बला ले जाने से पहले अच्छा अखाड़ा जमता था। सैकड़ों लोग आ जुटते थे। थके नहीं कि सबील-शर्बत पी लेते, खिचड़ा खा लेते। रेवडि़यांें और इलाइची दाने का प्रसाद खाते-खाते अघा जाते थे।
यूनुस ने भी बचपन में एक बार दम-भर कर मातम किया था, जब वह अम्मा के साथ उमरिया का ताजिया देखने गया था। सलीम भाई तो ताजिया को मानता न था। उसके अनुसार ये जहालत की निशानी है। एक तरह का शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी दूसरी ज़ात को पूजनीय बनाना) है। ख़ैर, ताजिया की प्रतीकात्मक पूजा ही तो करते हैं मुजाविर वगैरा…
यूनुस ने सोचा कि अगर लोग उस ताजिया को सिर झुका कर नमन करते हैं तो कहां मना करते हैं मुजाविर! उनका तो धन्धा चलना चाहिए। उनका ईमान तो चढ़ौती में मिलने वाली रक़म, फ़ातिहा के लिए आई सामग्री और लोगों की भावनाओं का व्यवसायिक उपयोग करना ही तो होता है। साल भर इस परब का वे बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। हिन्दू-मुसलमान सभी मुहर्रम के ताजिए के लिए चंदा देते हैं।
उमरिया में तो एक से बढ़कर एक खूबसूरत ताजिया बनाए जाते हैं। लाखों की भीड़ जमा होती है। औरतों और मर्दों का हुजूम। खूब खेल-तमाशे हुआ करते हैं। जैसे-जैसे रात घिरती जाती है, मातम और मर्सिया का परब अपना रंग जमाता जाता है। कई हिन्दू भाईयों पर सवारी आती है। लोग अंगुलियों के बीच ब्लेड के टुकड़े दबा कर नंगी छातियों पर प्रहार करते हैं, जिससे जिस्म लहू-लुहान हो जाता है।
ईरानी लोग जो चाकू-छूरी, चश्मा आदि की फेरी लगाकर बेचा करते हैं, उनका मातम देख तो दिल दहल जाता है। वे लोग लोहे की ज़जी़रों पर कांटे लगा कर अपने जिस्म पर प्रहार कर मातम करते हैं।
कुछ लोग शेर बनते हैं।
शेर का नाच यूनुस को बहुत पसंद आया था।
रंग-बिरंगी पन्नियों और काग़ज़ों की कतरनों से सुसज्जित ताजिया के नीचे से लोग पार होते। हिन्दू और मुस्लिम औरतें, बच्चे और आदमी सभी बड़ी अक़ीदत के साथ ताजिया के नीचे से निकलते।
यूनुस ने देखा था कि एक जगह एक महिला ताजिया के सामने अपने बाल छितराए झूम रही है। कभी-कभी वह चीख़-चीख़ कर रोने भी लगती है। उसकी साड़ी मैली-कुचैली हो चुकी है। जब वह अपनी छाती पर हाथ मार-मार कर रोती तो लगता कि जैसे उसके घर में किसी की मौत हो गई हो।
नन्हा यूनुस उस औरत के रोने से भयभीत हो गया था।
डूब में बसे कस्बे में मुहर्रम के मनाए जाने का कुछ ऐसा ही दृश्य कल्लू के दादा बताया करते थे।
लोगों का जीवन खुशहाल था।
रबी और खरीफ़ की अच्छी खेती हुआ करती थी।
उस इलाके की खुशहाली पर अचानक ग्रहण लग गया।
लोगों ने सुना कि अब ये इलाका जलमग्न हो जाएगा।
किसी ने उस बात पर विश्वास नहीं किया।
सरकारी मुनादी हुई तो बड़े-बुज़ुर्गों ने बात को हंस कर भुला दिया। अभी तो देश आज़ाद हुआ है। अंग्रेज भी ऐसा काम न करते, जैसा आजाद भारत के कर्णधार करने वाले थे।
इस बात पर कौन यकीन कर सकता था कि गांव के गांव, घर-बार, कार्य-व्यापार, देव-स्थल, मस्जिदें, क़ब्रगाहें सब जलमग्न हो जाएंगी। और तो और गहरवार राजा का महल भी डूब जाएगा।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

एक अल्प-परिचित संसार का अनावरण : अजय नावरिया

 भारत में कई संस्कृतियाँ, हमेशा से दृश्य पर उपस्थित रहीं और कालांतर में उनका विलय भी समाज में होता रहा; अनेक विदेशी संस्कृतियाँ आईं और घुल-मिल कर एक-से हो गईं- एक मुहावरे में ही सही; उनका एक रूप बन गया. हालांकि, आज भी उनके अपने तीज-त्यौहार, रीति, रस्मो-रिवाज़, मान्यताएं, बंदिशें हैं परन्तु इस सांस्कृतिक बहुलता के बावजूद, उन सभी संस्कृतियों में ‘हिन्दूपन’ पैठ गया है.

       जाति की सत्ता, हिन्दूपन की पहचान है.

अनवर सुहैल, लम्बे समय से साहित्य क्षेत्र में सक्रिय हैं. उनका उपन्यास ‘पहचान’ छप चुका है. देश की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपती रही हैं. हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में चार कहानियों का छपना, उनकी कथा-योग्यता का प्रमाण ही कहा जा सकता है.

       ऐसा नही है कि अनवर सुहैल, पहली बार मुस्लिम परिवेश की कहानियां लिख रहे हैं, हिंदी कथा-साहित्य में शानी, राही मासूम राजा, बदिउज्जमा, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, हसन जमाल, हबीब कैफ़ी तक अलग-अलग कद के रचनाकार रह चुके हैं और आज भी लिख रहे हैं. इनमे असगर वजाहत ने कथा-शिल्प में अनूठे प्रयोग तो किये ही हैं, इस परिवेश से बाहर भी खूब लिखा है.

अनवर सुहैल, हालांकि वैसे मकबूल न हुए, जैसे अन्य रचनाकार हैं, लेकिन उनकी कहानियों में उन सबसे अलग; कहना चाहिए कि अनूठापन यह है कि इन्होने अपनी इन छोटी-छोटी कहानियों में मुस्लिम समाज में जाति की पैठ को पकड़ा है.

       अल्पसंख्यक होने की पीड़ा, दंश और अपमान का अनुभव, हिंदी कथा-साहित्य में पहले भी आता रहा है. गरीब मुसलमान चाहे वे अशराफ़ हों या पसमांदा; का चित्रण भी, उनके रीति-रिवाजों, जीवनचर्या और असुरक्षा बोध के साथ होता रहा है. ऐसा नही है कि अनवर सुहैल ने ऐसी कहानियां नही लिखी हैं…लिखी हैं और खूब लिखी हैं.

       इस संग्रह में भी ‘ग्यारह सितम्बर के बाद’ ‘गहरी जड़ें’ आदि सभी कहानियां इस प्रवृत्ति को चित्रित करती हैं परन्तु जब हम उनकी कहानियां -‘कुंजड-कसाई’ ‘फत्ते-भाई’ ‘पीरु हजाम उर्फ़ हज़रत जी’ पढ़ते हैं, तब एक मुस्लिम परिवेश की इस अल्प-परिचित दुनिया का दरवाज़ा खुलता है. यहाँ पता चलता है कि हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था, जैसे ज्यों-की-त्यों उठकर पहुँच गई है.

       ‘कुंजड-कसाई’ कहानी के मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी, जो एक बैंक मैनेजर हैं, उसी तरह ‘निचले पायदान’ पर हैं, जिस तरह कोई हिन्दू समाज का तथाकथित निचली जाति का व्यक्ति माना जाता है. जिस ‘कुरैशी’ उपनाम पर उन्हें अपने बचपन में फख्र होता था, वही परेशानी का सबब बन जाता है. कथाकार ने इस मनोभाव को बखूबी पकड़ा है—‘एम. लतीफ़ साहब को अच्छी तरह पता था कि मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी के बदन को दफनाया तो जा सकता है परन्तु उनके नाम के साथ लगे ‘कुरैशी’ को वह कतई नही दफना सकते हैं…’

       इसमें सैयद, शेख, पठानों की अकड़ और भेद-भाव को भी उभरा गया है. विडम्बना देखिये कि जो मुस्लिम समाज हिन्दुओं की बुतपरस्ती को सख्त नापसंद करता है, वही उनकी जाति-व्यवस्था को अपने दिल में जगह दिए बैठा है. दोहरे मापदंडों को भी छिलती हैं अनवर सुहैल की कहानियां…

       एक और कहानी है—‘फत्ते भाई’ फत्ते भाई, साइकिल मिस्त्री, धार्मिक कामों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले, ताजिया निकालने के अगुआ परन्तु लोग उन्हें उनकी जात याद दिला ही देते हैं. वे जात के साईं थे..यानी फकीर. हिन्दू समाज में इससे मिलती-जुलती जाति जोगी है. उनकी पत्नी हमीदा ‘नाइ’ जाति की है, जिसका उपहास करते हुए उसे ‘छत्तीसा’ कहा जाता है. इनता व्यंग्य, उपहास, विद्रूप.

       मुहम्मद लतीफ़ कुरैशी की जबानी कहें तो—‘वे तो बस इतना जानते थे कि ‘एक ही सफ में खड़े महमूदो-अयाज़’ वाला दुनिया का एकमात्र मज़हब है इस्लाम. एक नई सामाजिक व्यवस्था है इस्लाम. जहां उंच-नीच, गोरा-काला, स्त्री-पुरुष, जात-पात का कोई झमेला नही है…”

       परन्तु सच यह है कि भारतीय परिवेश का कोई धर्म इससे बचा नही है.

       अनवर सुहैल, धर्म के भीतरी सच्चाइयों को गहराई से जानते हैं. उन्हें इंसानियत और इंसान-दोस्ती की फ़िक्र है. उन्हें इस देश की खुशहाली और अमन की चिंता है. ‘गहरी जड़ें’ कहानी के असगर और ज़फर तथा उनके पिटा के माध्यम से वे इसे रेखांकित करते हैं.

       अनवर सुहैल जानते हैं और न केवल जानते हैं बल्कि उनका विल्श्वास है कि इंसान जब तक भीड़ की शक्ल में न हों, तब तक अच्छा और अम्न-पसंद होता है; परन्तु –“भीड़ के हाथ में जब हुकूमत आ जाति है, तब क़ानून गूंगा-बहरा हो जाता है.” वह ये भी जानते हैं.

       मिडिया की भूमिका और बुद्धिजीवियों की गाल-बजाई पर भी वे तंज़ करने से नही चूकते.

       साथ ही, यह भी, कहना चाहिए कि उनकी नज़र पर्याप्त पैनी है. धर्म और बाज़ार का रिश्ता, वे परत-दर-परत खोलते चलते हैं. कहानी ‘नीला हाथी’ बेहद संवेदनशील कहानी है. कल्लू एक ऐसा बच्चा है जिसे मूर्तिकला का गुण नैसर्गिक रूप से मिला है. परन्तु वह मुसलमान है और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाने के कारण वह अपने पिता से मार खाता है. समाज उनके परिवार का सामाजिक बहिस्कार कर देता है. वह एक हिन्दू बंगाली लड़की से खुदा को हाज़िर-नाजिर मानकर विवाह कर लेता है क्योंकि कोई उसके साथ नही आता. वही कल्लू बड़ा होकर एक ‘फ़कीर’ के रूप में अपने को प्रस्तुत करता है और धार्मिक लोगों की भावनाओं को ‘कैश’ करता है. कहानी का नैरेटर, उस मज़ार के बाहर की दुकानदारी और एक चाय की गुमटी की व्यवसायिकता का बहुत ही व्यंग्यात्मक ढंग से चित्रण करता है. “मैंने देखा कि वहां ‘व्यस्को के लिए’ शीर्षक लिए कई रंग-बिरंगी पत्रिकाएं प्रदर्शित थीं. एक तरफ बाबा रामदेव की किताबें और हनुमान-चालीसा, गीता आरी अन्य धार्मिक किताबें थीं.”

       यही हमारे समाज की सच्चाई है. यहाँ पाखण्ड का बोलबाला है. पारदर्शी और ईमानदार जेवण जीने की अघोषित पाबंदी है. पूरी ज़िन्दगी गुज़र जानी है, दूसरों की नज़रों में ‘अच्छे-भले और इज्ज़तदार’ बने रहने में, और हासिल होता है एक रिक्तता-बोध, बहुत कुछ चूक जाने का अफ़सोस.

       अनवर सुहैल कहानी में बहुत बनावट और आडम्बर में नही पड़ते. वे किसी कुशल किस्सागो की तरह अपने मजमून को दिलचस्प अंदाज़ में पेश करते हैं. यह रोचकता, पाठक को बांधे रहती है. साथ ही, भाषा में प्रादेशिक लहजे और शब्दों की छौंक एक लोक-गंध उत्पन्न करती है.

       हाँ, नीला हाथी कहानी का अप्रत्याशित अंत कुछ अखरता है.

       मेरे गुजारिश है कि वे इसी अल्प-परिचितदुनिया के दरवाज़े पूरे खोलें ताकि वहां ही बदली हुई फिजा की हवा पहुंचे, वहां भी सुगबुगाहटें हों, तब्दीलियाँ हों और लोकतंत्र का सुंदर सपना, भीड़ में बदलने से बच सके.

       शायद उनका लिखना भी तभी सार्थक होगा…

                                                                                   (ajay navaria : 12 jan 2014) http://dl.flipkart.com/dl/gahari-zaden/p/itm87b781527df10?pid=9788194977964&marketplace=FLIPKART&cmpid=product.share.pp&lid=LSTBOK97881949779645ONCW