अनवर सुहैल विदा ले रही सदी के अंतिम दशक में उभरे अल्पसंख्यक समुदाय के उन गिने-चुने सम्भावनाशील रचनाकारों में से एक है जो मूल रूप से हिन्दी में लिख रहे हैं। रचनाकारों को लिंग, समुदाय और क्षेत्र के आधार पर चिन्हित करने से असहमति जताई जाती रही है पर भारतीय समाज में ये कारक रचनाकार की अनुभूतियों को विशिष्टता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसलिए इसकी उपेक्षा सम्भव नहीं। अनवर सुहैल का एक कविता संग्रह 1995 में आ चुका है। अब उनका कहानी संग्रह ‘कुंजड़ कसाई’ प्रकाशित हुआ है। कुंजड़ कसाई’ की कुल नौ कहानियांे के अध्ययन के बाद यह एहसास होता है अनवर सुहैल ऐसे कथाकारों में से हैं जो बहुुत ख़ामोशी से रचनाकर्म करते रहते हैं और अचानक हम पाते हैं कि प्रायोजित चर्चाओं की धुंध फाड़कर ऐसे रचनाकार पहचान बनाने में सफल हो जाते हैं।
समीक्ष्य संग्रह कुंजड़ कसाई’ में शीर्षक कहानी तथा ‘फत्ते भाई’ दो कहानियां मुस्लिम समाज से सम्बंधित हैं और मेरी दृष्टि में संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘बिलौटी’ है जिसमें दो निम्नवर्गीय चरित्र पगलिया और उसकी बेटी बिलौटी के जीवन संघर्ष को लेखक ने कलात्मक कौशल से कथाशिल्प में ढाला है। मेरे मत की पुष्टि वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बलदेव वैद की ब्लर्ब में बिलौटी कहानी की प्रशंसा से भी होती है। ‘बिलौटी’ की अर्द्ध विक्षिप्तता, उसके वात्सल्य और अभिभाकत्व की चेतना को लील नहीं पाती। बलात्कार से जन्मी बेटी बिलौटी के लालन-पालन में वह खासी सजग दिखती है। बिलौटी भी अपनी जीवन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए तेजी से सांसारिक ऊंच-नीच को समझती है और अपना रास्ता बनाते हुए एक आत्म निर्भर स्त्री बन जाती है। लेखक ने ‘बिलौटी’ के चरित्र का चित्रण काफी कलात्मक दक्षता के साथ किया है। ‘बिलौटी’ हमारे औद्योगिक क्षेत्रों विशेषकर कोयला उद्योग से जुड़े क्षेत्र की संस्कृति के यथार्थवादी अंकन की दृष्टि से उल्लेखनीय कहानी बन पड़ी है। संग्रह की दूसरी प्रभावशाली कहानी है ‘काश मैं तुम्हारे साथ रहती’। इसे प्रेम कहानी की संज्ञा दी जा सकती है पर इसमें निश्चिंत एवं दायित्वहीन युगल का प्रेम नहीं है। राजीव और उर्मि के शहर में बैंक में सहकर्मी हैं। दोनों की पृष्ठभूमि में काफी समानता है। राजीव के पिता एक ईमानदार और सिद्धांतवादी शिक्षक थे। उनकी अकाल मृत्यु के उपरांत उनके भाई ने पिता की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। राजीव की मां भी पति के सदमेे से जाती रहीं। संघर्ष करते हुए राजीव ने बैंक में क्लर्की पाई। उर्मि की मां भी बे्रस्ट कैंसर से असमय चली गईं। पिता ने बेटी उर्मि और बेटे बीनू के लिए दूसरा विवाह न किया। पिता एक मिल में यूनियन नेता थे विरोधियों ने उनकी हत्या करवा दी। संरक्षणहीन उर्मि ने संघर्ष कर नौकरी पाई। राजीव और उर्मि में सहकर्मियों जैसी मित्रता शुरू हुई और दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं। यह उन्हें तब पता चलता है जब राजीव के चाचा अपने स्वार्थ के लिए राजीव पर अपने क्षेत्र के विधायक के भाई की बेटी से विवाह के लिए दबाव बनाने लगे। इन सारी परिस्थितियों का लेखक ने स्वाभाविक घटनाक्रमों में प्रवाहपूर्ण भाषा में अंकन किया है। ?
शीर्षक कहानी ‘कुंजड़-कसाई’ भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों पर आधारित है। भारतीय मुस्लिम समाज के इस अंतर्विरोध का स्वरूप जटिल है। भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम समाज में जिसका नब्बे प्रतिशत से अधिक भाग हिन्दुओं से धर्मांतरित है, हिन्दू संस्कार अंतव्र्याप्त है। इसलिए इस्लाम में सैद्धांतिक रूप से जातिगत भेदभाव नहीं होने के बसवजूद भारतीय मुस्लिम शादी ब्याह में हिन्दुओं की भांति ‘जात-पात’ का विचार करते हैं। चूंकि मुसलमानों के यहां सैद्धांतिक वर्जना नहीं है इसलिए अंतर्जातीय विवाह भी प्रायः सामान्य रूप में प्रायः होते रहते हैं विशेषकर कथित रूप से ऊंची जाति की लड़की की तथाकथित निम्न जाति के लड़के से। ‘कुंजड़-कसाई’ में ऐसे ही अंतर्जातीय विवाह सूत्र में बंध्े एक युगल को मुख्यपात्रों के रूप में लिया गया है। लतीफ़ कुरैशी जो निम्न माने जाने वाली जाति से हैं की पत्नी जुलेख़ा सैयद जाति की है। जुलेखा के विवाह के समय निमन जाति के लतीफ से जुलेखा के वालिद ने समझौता कर लिया पर इकलौते बेटे के विवाह के समय, लड़की वाले अपनी जाति ढंूढने लगे। लतीफ के चाचा की एक लड़की के विेवाह का प्रस्ताव जुलेखा के वालिद ने ठुकरा दिया। लतीफ को उचित ही यह नागवार गुज़रा और जैसा कि होता है पुरूष अपने मन का गुबार औरतों पर निकालता है। लतीफ भी जुलेखा को उसकी जाति के हवाले से व्यंग्य बाण से छलनी करता रहता है--‘‘ जुलेखा रो पड़ी और किचन की ओर चली गई। मुहम्मद लतीफ कुरैशी साहब बेंत की आराम कुर्सी पर निढाल पसर गए। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे जंग जीत गए हों। सैयद वंशीय पत्नी को दुख पहुंचा कर वे इसी तरह रिलैक्स अनुभव किया करते थे।’’
अनवर सुहैल ने भारतीय मुस्लिम समाज के इस अंतर्विरोध पर एक गंभीर कथात्मक व्यंग्य किया है। ‘फत्ते भाई’ मुस्लिम समाज में व्याप्त कठमुल्लावाद पर आधारित कहानी है। एक सीधे-सादे अनपढ़ फत्ते भाई द्वारा पक्षाघात के इलाज के लिए एक हिन्दू मित्र के कहने पर बजरंग बली का प्रसाद ग्रहण कर लेने के कारण कठमुल्लाओं की जमात उन्हें धर्म से बहिष्कृत घोषित कर देती है और मीटिंग बुलाकर फिर से कलमा पढ़ कर मुसलमान बनने का फैसला सुनाती है। कहानी में चरित्रों और घटनाक्रमों का विकास स्वाभाविक है। फ्लैप पर दर्ज लेखक के परिचय में कहा गया हं --‘‘भारतीय मुस्लिम समाज में व्याप्त मध्यवर्गीय वैचारिक प्रदूषण, आस्था संकट और धर्म के व्यवासायीकरण के विरूद्ध जेहाद इनकी रचनाओं की विशेषता है। ‘कपड़े के पीछे’ बाहर से जिम्मेदार और अच्छे पद पर कार्य करने वाले व्यक्ति की हरकतों की कहानी है जो अंदर से विकृतियों का शिकार है। ‘अनुकम्पा नियुक्ति’ कहानी में एक स्वाभिमानी युवा की पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है जो अनुकम्पा नियुक्ति स्वीकार तो लेता है परन्तु इसे अपनी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह के समान झेलता है। ‘शोक पर्व’ कहानी एक शिक्षित युवा के सरकारी नौकरी पकड़ पाने की उम्र समाप्त होने के दुखों की व्यथा है। ‘सन आफ बुधन’ दलित वर्ग के एक पदाधिकारी की कहानी है जिसमें उच्चवर्गीय संस्कार से उग आए हैं और अ बवह अपने पिता के नाम को प्रमाण-पत्र पर देखकर परेशान होतां है। अभावग्रस्तता मनुष्य को कैसी मजबूरियो ंऔर हास्यास्पद परिस्थितियों में उलझा देती है इसकी सुंदर अभिव्यंजना कथाशिल्प में ‘स्वेटरनामा’ में हुई है।
अनवर सुहैल से उम्मीद करनी चाहिए कि अपनी प्रतिबद्धताओं को अपनी कहानियों के माध्यम से लगातार शिल्पबद्ध करते रहेंगे।
(युद्धरत आम आदमी, अंक 47 में प्रकाशित शकील की समीक्षा)


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