हमख़याल (फेसबुक से )
एक : असगर मेहंदी साहब की वाल से
ग़ालिब को याद करते हुए
15, फरवरी 1869 को, उर्दू के सबसे मशहूर शायर, ज़बान और लहजे के चाबुकदसत फ़नकार, इस्तिदलाली अंदाज़-ए-बयाँ, तशकक पसंदी, रम्ज़-ओ-ईमाईयत, जिद्दत अदा और उर्दू फ़ारसी के मुमताज़-ओ-अज़ीम शायर मिर्ज़ा असदउल्लाह ख़ां ग़ालिब का यौम वफ़ात है,
ग़ालिब अपने ज़माने से काफ़ी आगे थे, उन्होंने ‘रुके’ हुए समाज को आगे बढ़ने की तलक़ीन की, जदीद तालीम की अहमियत को समझा और मशरिक़ और मग़रिब में तता’बक़ (समन्वय) की बात की। अवाम को सवाल करने की सिम्त मुताहरिक किया, क्या है, कैसे, क्यों है,, जैसे मौज़ू रखे.
ग़ालिब से जब सर सैयद ने आइन ए अकबरी के उर्दू इशा’त के लिये दीबाचा लिखने को कहा तो ग़ालिब ने इस रविश को ‘मुर्दा परवरी’ कहा, और दीबाचा में फ़ारसी में शेर कहे जिसमें मग़रिब से सबक़ लेने की हिदायत दी कि किस तरह वह भाप से इंजन बना रहे हैं, लगातार नयी-नयी दरयाफ़्तें सामने आ रही हैं,
वह कहते हैं,
मुर्दा परवर दुन मुबारक कार नीस्त
ख़ुद बगू काँ नीस्त जुज़ गुफ़तार नीस्त
यानी,
मुर्दे पालते रहना अच्छा काम नहीं है, ख़ुद बताओ कि वह (आइन ए अकबरी) सिर्फ़ कहानी के सिवा किया है?
इसका असर यह हुआ कि सर सैयद ने मुसलमानों को जदीद तालीम से लैस करने का अहद कर लिया। सच्चाई यह है कि सर सैयद की तहरीक मिर्ज़ा ग़ालिब की मरहून ए मिन्नत है।
ग़ालिब ने मुग़ल दौर का ज़वाल देखा, 1857 देखा,, तो बर्बादी की वजह जदीद तालीम को नज़रअन्दाज़ करने में तलाश किया, माज़ी के अफ़सानों में नहीं। उन्होंने कहा कि आज भाप से इंजन चलाए जा रहे हैं,, हम कहाँ हैं?
बहरहाल
“ख़ुशम कि गुम्बदे-चर्ख़े-कुहन फ़ुरू रीज़द
अगरचे ख़ुद हमा बर फ़र्क़े-मन फ़ुरू रीज़द”
–
यानि
अच्छा है कि पुराने-धुराने आसमान की छत, यह सड़ी-गली व्यवस्था, गिर जाएगी
भले ही वह सारी मेरे सर के ऊपर ही क्यों न गिर पड़े
असग़र मेहदी
15 फ़रवरी 2025
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