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Saturday, April 23, 2011

ग़ज़ल २

नजमा सालेह विशाखापत्तनम की पेंटिंग 
शहर में आज फिर क्या हो गया है 
हवा  में  कौन  नफरत  बो गया है 

तिरी  खुशबु   समेटे  बाजुओं   में 
मिऱा  कमरा  अकेला  सो गया है 

हज़ारों  शख्स  भागे  जा  रहा  हैं
 नहीं कुछ जानते क्या हो गया है 

न जाने कौन सी बस्ती उधर है 
न आना चाहता है,   जो गया है 

वो आया था घटा का भेस धरकर 
गया तो  आसमा  भी  धो गया है  
                                         ---अनवर सुहैल

Friday, April 22, 2011

ग़ज़ल

सबा शाहीन की पेंटिंग 

ग़ज़ल के कुछ अश'आर : अनवर सुहैल 

उनके संयम का संभाषण याद आया
अपने लोगों को भोलापन याद आया

सरकारी धन  का    बँटवारा होते देख 
चोर- लुटेरों का अनुशासन याद आया 

चारों ओर पडा है सूखा लेकिन आज 
स्वीमिंग पुल का है उदघाटन याद आया 

जिस दिन भूखे लोग इकट्ठे जोर किये 
कैसे डोला था  सिंहासन याद आया


Friday, April 1, 2011

nazm

 ये नज़्म मैंने बीस वर्ष की उम्र में लिखी थी और आज तक मुझे कंठस्थ है.
मैंने चाहा कि इसे अपने मित्रों के समक्ष रक्खूं और आप सब कि नजर है ये nazm
जो फैज़ से प्रभावित होकर मैंने कही थी...
फैज़ कि स्मृति को समर्पित नज़्म....
फैज़ अहमद फैज़



रात सुनसान व बोझिल सी है
फ़िर मुझे नींद नहीं आयेगी
थक चुके जिस्मो-रुह उनीन्दे
कल्पनाएं भी थकी जाती हैं
कोई चुपके से थपक दे आकर
कोई मां बनके सुला दे मुझको
या बता दे कहां है सहर मेरी

है  शबे - गम  रौशनी  मद्धम
दरो-दीवार पे चिपका चुप है
ज़ुबां भी और हवा भी चुप है
सोचता हूं किसी मकडी की तरह
कोई चुपचाप मकां बुनके कहे
आओ कि बांट लें बराबर हम
हम तुम्हारे व तुम हमारे गम
कि जहां ज़िंदगी की शाम कटे
कि जहां प्यार हो आज़ादी हो
कि जहां तीर भी कलम की तरह
गुनगुनाती हों अमन की नज़्में

आओ कि चीर दें सन्नाटे को
हो गई सुबह खोल लें खिडकी
अब नहीं ख्वाब देखने का सगुन
अब नहीं नींद की ज़ुरुरत है.....