ये नज़्म मैंने बीस वर्ष की उम्र में लिखी थी और आज तक मुझे कंठस्थ है.
रात सुनसान व बोझिल सी है
फ़िर मुझे नींद नहीं आयेगी
थक चुके जिस्मो-रुह उनीन्दे
कल्पनाएं भी थकी जाती हैं
कोई चुपके से थपक दे आकर
कोई मां बनके सुला दे मुझको
या बता दे कहां है सहर मेरी
है शबे - गम रौशनी मद्धम
दरो-दीवार पे चिपका चुप है
ज़ुबां भी और हवा भी चुप है
सोचता हूं किसी मकडी की तरह
कोई चुपचाप मकां बुनके कहे
आओ कि बांट लें बराबर हम
हम तुम्हारे व तुम हमारे गम
कि जहां ज़िंदगी की शाम कटे
कि जहां प्यार हो आज़ादी हो
कि जहां तीर भी कलम की तरह
गुनगुनाती हों अमन की नज़्में
आओ कि चीर दें सन्नाटे को
हो गई सुबह खोल लें खिडकी
अब नहीं ख्वाब देखने का सगुन
अब नहीं नींद की ज़ुरुरत है.....
मैंने चाहा कि इसे अपने मित्रों के समक्ष रक्खूं और आप सब कि नजर है ये nazm
जो फैज़ से प्रभावित होकर मैंने कही थी...
फैज़ कि स्मृति को समर्पित नज़्म....
फैज़ अहमद फैज़ |
रात सुनसान व बोझिल सी है
फ़िर मुझे नींद नहीं आयेगी
थक चुके जिस्मो-रुह उनीन्दे
कल्पनाएं भी थकी जाती हैं
कोई चुपके से थपक दे आकर
कोई मां बनके सुला दे मुझको
या बता दे कहां है सहर मेरी
है शबे - गम रौशनी मद्धम
दरो-दीवार पे चिपका चुप है
ज़ुबां भी और हवा भी चुप है
सोचता हूं किसी मकडी की तरह
कोई चुपचाप मकां बुनके कहे
आओ कि बांट लें बराबर हम
हम तुम्हारे व तुम हमारे गम
कि जहां ज़िंदगी की शाम कटे
कि जहां प्यार हो आज़ादी हो
कि जहां तीर भी कलम की तरह
गुनगुनाती हों अमन की नज़्में
आओ कि चीर दें सन्नाटे को
हो गई सुबह खोल लें खिडकी
अब नहीं ख्वाब देखने का सगुन
अब नहीं नींद की ज़ुरुरत है.....
ख़ूबसुरत नज्म......उस उम्र में सारा आलम ख़ूबसुरत लगता है/ होता है......ये रौ...रवानी...ऐसी लय ता-उम्र क्यों नहीं...........
ReplyDeleteअच्छी पेशकश, शुक्रिया....