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Wednesday, October 24, 2012

saboot / सबूत

सबूत कर रहा हूं इकट्ठा
वो सारे सबूत
वो सारे आंकडे
जो सरासर झूटे हैं
और
जिसे बडी खूबसूरती से
तुमने सच का जामा पहनाया है
कितना बडा छलावा है
मेरे भोले-भाले मासूम जन
ब-आसानी आ जाते हैं झांसे में

ओ जादूगरों
ओ हाथ की सफाई के माहिर लोगों
तुम्हारा तिलस्म है ऎसा
कि सम्मोहित से लोग
कर लेते यकीन
अपने मौजूदा हालात के लिए
खुद को मान लेते कुसूरवार
खुद को भाग्यहीन......

3 comments:

  1. मित्र,एक विचार पैदा करने वाली कविता,जो सोचने पर मजबूर करती है,कि,क्या आज का इन्सान भूल गया है उसके अपने खून के रंग के बारे में?
    जब दिल जलता है तो ऐसी ही कविता मजबूर होकर कवी लिखने लगता है !
    बकरीद के इस पाक दिन पर आप इस दोस्त का मुबारक कुबूल करे !
    आदाब

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