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Saturday, July 27, 2013

उसके गुनाह...


उसके कहने पर
हमने किये गुनाह
खुद फंस जाने का
जोखिम उठाते हुए

उसकी खुशी के लिये
हमने किये अत्याचार
बेज़ुबानों पर
निहत्थों पर
मासूमों पर..

उसकी नज़दीकी पाने के लिये
हमने की चुगलियां
ऎसे लोगों की
जो जेनुईन थे
जो प्रतिबद्ध थे
जो उसके निज़ाम के खिलाफ़ थे...

उसने हमारी प्रतिभा का
भरपूर किया दोहन
और हम खुशी-खुशी
बने रहे उसके औज़ार
बजते रहे झुनझुनों की तरह
लगातार....बार-बार...

एक दिन ऎसा भी आया
जब करके हमारा इस्तेमाल
वो चला गया
एक नये द्वीप में
एक नई चारागाह की तलाश में
छोड़ कर हमें
दुश्मनों के बीच
जो कभी हमारे अपने थे...

और हम अपनों की निगाह में
बन गये बौने
टूटे खिलौने
हो गया हमारा वजूद औने-पौने....

Monday, July 22, 2013

pehchan


पहचान पर प्रतिक्रिया दें कृपया



राजकमल प्रकाशन से
प्रकाशित
मेरे उपन्यास
पहचान पर
आपकी प्रतिक्रियाएं
अपेक्षित हैं...'


सादर
अनवर सुहैल 

Saturday, July 20, 2013

चील-गिद्ध-कौवे


बेशक तुमने देखी नही दुनिया 
बेशक तुम अभी नादान हो 
बेशक तुम आसानी से
हो जाती हो प्रभावित अनजानों से भी 
बेशक तुम कर लेती हो विश्वास किसी पर भी 
बेशक तुम भोली हो...मासूम हो 
लेकिन मेरी बिटिया 
होशियार रहना 
ये दुनिया ईतनी अच्छी नहीं है 
ये दुनिया इतनी भरोसे लायक नहीं रह गई है 
जहां उडती  हैं गौरैयाँ खुले आकाश में 
वहीं उड़ते हैं चील-कौवे-गिद्ध भी 
तुम्हे होशियार रहना है गिद्धों से 
और पहचानना है गौरैया के भेष में गिद्धों को...
तभी तुम जी पाओगी
उड़ पाओगी अपनी उडान...
बिना व्यवधान....

Wednesday, July 3, 2013

’पहचान’: वर्चस्व की राजनीति में पहचान की लड़ाई

Dr Rohini Aggrawal
पहचान: अनवर सुहैल
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
 प्रथम संस्करण 2009
मूल्य दो सौ रुपए



’पहचान’: वर्चस्व की राजनीति में पहचान की लड़ाई


 अनवर सुहैल का ताजा उपन्यास ’पहचान’ इस अर्थ में विशिष्ट रचना है कि यह बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों को नए कोण  और नई संवेदना से देखने का विवेक प्रस्तुत करता है। परिवर्तन यानी एक लय में चलती आ रही जिंदगी में कुछ नया अदेख अबूझा घटित हो जाना। एक ही लीक पर चलने का आदी मन इस परिवर्तन पर सहम कर नास्टेल्जिक हो जाता है ताकि भीतरी असुरक्षा बोध को सार्वजनिक हाय-हाय के तुमुल नाद के साथ कम किया जा सके। औद्योगिक एवं तकनीकी विकास के साथ आए परिवर्तन हमारी सभ्यता और संस्कृति, भूगोल और राजनीति से बहुत सी परंपरागत चीजें बेदखल कर बहुत कुछ नया जोड़ते हैं। सही-गलत की त्वरित प्रतिक्रियाओं से दूर ये परिवर्तन मूल्यांकन हेतु एक निश्चित समय के साथ जुड़ी निस्संग तटस्थता की मांग करते हैं और यथास्थितिवादी जनमानस में पलती इस ग्रंथि को निकालने का आग्रह करते हैं कि तुलना करते समय नए की बुराइयों के बरक्स पुराने वक्त की अच्छाइयों को तराजू पर न रखा जाए। समग्र आकलन के लिए नए-पुराने दोनों वक्तों के अंधेरे-उजाले चेहरे सामने लाकर ही क्यों न बात की जाए? अनवर सुहैल ’डूब’ उपन्यास का विलोम रचते हुए बड़े-बड़े बांधों से होने वाले विस्थापन पर छाती कूट स्यापा नहीं करते, रिहंद बांध के बाद उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे सिंगरौली क्षेत्रा में बने ताप-विद्युत केन्द्र के कारण उस समूचे क्षेत्रा में आए सकारात्मक बदलाव को चीन्हते हैं जो सिंगरौली को एक ’ऊर्जा तीर्थ’ में बदलने के बाद उस समूचे क्षेत्रा को नव उद्यमियों, तकनीशियनों, पूंजीपतियों, पब्लिक स्कूलों, गैर सरकारी संगठनों, धार्मिक-आध्यात्मिक व्यवसायियों के लिए स्वर्ग बना देता है अन्यथा पहले किसी को काला पानी का शाप देना होता था तो दादा-पुरखे कहा करते थे - ’जा बैढ़न को।’
    अपनी मुट्ठी भर जमीन पर तमाम शोषण और गरीबी के बीच फसल उगा कर शोषण-गरीबी के दुष्चक्र में सदियों से पिसते लाखों लोगों का बांध और औद्योगीकरण के कारण विस्थापित होकर नष्ट हो जाना अपने आप में किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के माथे पर कलंक है। लेखक सिंगरौली के कायांतरण और विस्थापन की हृदयहीन नृशंसता को आमने-सामने नहीं रखते, लेकिन सस्टेनेबल ग्रोथ की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगा कर विस्थापितों के मानवाधिकारों के लिए लड़ती ताकतों का विरोध विकास और विस्थापन दोनों को दो प्रतिपक्षों में बांट कर आमने-सामने ले ही आता है। ’डूब’ (विस्थापन) की भावुक पुनरावृत्तियों से बचते हुए अनवर सुहैल सिंगरौली ’ऊर्जा तीर्थ’ के कारण इस क्षेत्रा के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक जीवन में आए परिवर्तनों को लक्षित करते हैं। गांव युवा पीढ़ी के साथ धीरे-धीरे नगरों में आकर बसने लगे हैं - पहले ’परदेस’ जाकर कमाने की ललक/मजबूरी में, फिर ’परदेस’ (शहरों) में मिलने वाली सुविधाओं और वैचारिक संकीर्णता से मुक्ति के आकर्षण में। परदेस उन्हें यदि अस्पृश्यता और सामंती व्यवस्था के शिकंजे से मुक्त कर अपनी मानवीय पहचान की लड़ाई का अवसर देता है तो वे उससे विमुख क्यों हांे? अनवर सुहैल एक बार फिर नास्टेल्जिक समकालीन कथाकारों के विपरीत जाकर  गांवों के ’नष्ट’ होने और महानगरों के फैलने पर क्रंदन नहीं करते, अपने भीतर बैठे उस तथाकथित आत्मकेन्द्रित युवक को देखते हैं जिसके लिए गांव की सीमाओं में बंध कर कूपमंडूकीय भविष्य जीने की अपेक्षा जिंदगी की इबारत को अपने हाथ से लिखने की तमन्ना है -
    ’’पता नहीं, शहर उन्हें पकड़ लेता है या कि वे शहर को पकड़ लेते हैं। यही है वह संसार जहां उनकी नई पहचान बन पाई है। यही है वह जगह जहां उन्हें ’फलनवा का बेटा’ या कि ’अरे अबे तबे’ आदि सम्बोधनों से पुकारा नहीं जाएगा....  यही है वह स्थल जहां वे होटल में, बस-रेल में, नाई की दुकान में, सभी के बराबर की हैसियत से बैठ-उठ सकेंगे। यहीं है वह मंजिल जहां उनकी जात-बिरादरी और सामाजिक हैसियत पर कोई टिप्पणी नहीं होगी, ....जहां वे एकदम स्वतंत्रा होंगे। अपने दिन और रात के पूरे-पूरे मालिक। .....कितने मामूली होते हैं ख्वाब उनके। एक-डेढ़ घंटे की लोकल बस या रेल यात्रा दूरी पर मिले अस्थायी काम। एक छोटी सी खोली। करिश्मा कपूर सा भ्रम देती पत्नी। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते बच्चे। टी वी, फ्रिज, कूलर। छोटा सा बैंक बैलेंस कि हारी-बीमारी में किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े।.......विडम्बना देखिए कि उन्हें पता भी नहीं चलता और एक दिन यथार्थ वाली दुनिया बिखर जाती।  ........खबरें बतातीं कि ....बच्चों के लौट आने की आस लिए मर गए बूढ़े मां-बाप .....जवान बहनें तन-मन की जरूरतें पूरी न होने के कारण सामंतों की हवस का सामान बन चुकी हैं.......छोटे भाई लोग जमींदार की बेकारी खटते हैं और फिर सांझ ढले गांजा-शराब में खुद को गर्क कर लेते हैं......’’ (पहचान, पृ0 64)

    अनवर सुहैल जब निजी मुक्ति की पटकथा में पीछे छूट गए अपनों के नरक को बुनते हैं तो गांव से शहर में पलायन कर आए हर उस बुद्धिजीवी के दोगलेपन को उद्घाटित करते हैं जिसके लिए गांव नास्टेल्जिया से ज्यादा एक अपराध ग्रंथि बन गया है। इसलिए चेतन स्तर पर वह गांवों को सहेजे जाने की बात करता है, लेकिन स्वयं गांव जाने को तैयार नहीं। महानगरों की समृद्धि और चकाचैंध को पांचों इंद्रियों समेत भोग लेना चाहता है, लेकिन गांव-जंगल और वहां की व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं चाहता। दरअसल यही इस उपन्यास की शक्ति है कि लेखक में सच का सामना करने और अपनी दुर्बलताओं को स्वीकारने का साहस है।
    ’पहचान’ उपन्यास डिकेन्स के उपन्यासों की तरह एक विशाल चित्रा वीथी को हमारे सामने परत दर परत उघाड़ता चलता है। फर्क यह है कि डिकेन्स की तरह इनके यहां हर पात्रा अपने अंतर्मन की जटिल संरचना के साथ उपस्थित नहीं होता, बल्कि एक आउटलाइन की तरह आता है। निम्नवर्गीय जीवन यथार्थ को भोग कर अपनी लड़ाई के लिए औजार जुटाते ये किरदार जीवन मूल्यों और आदर्शों की बात नहीं करते, खड़े होने के लिए जरा सी जमीन जुटाने की हौंस में सही-गलत को गड्डमड्ड कर ब्राह्मणवादी संस्कृति को अंगूठा दिखाते चलते हैं। जीवन की क्रूर पाठशाला में विकृतियों और अभावों के बीच इन्होंने बहुत छोटी उम्र में ही भूख, सैक्स, सम्बन्ध और जिजीविषा की जद्दोजहद के अंतर्सम्बन्ध को पढ़ लिया है। इसलिए धूर्त व्यावहारिकता के साथ मिल जुल कर जीने की कला इन्हें अनायास हासिल हो जाती है। लेडीज टेलर बन्ने उस्ताद, मैकेनिक मन्नू उस्ताद, डोजर आपरेटर शमशेर सिंह उर्फ डाक्टर, खाला, बड़की आपा, कल्लू - निम्नमध्यवर्गीय समाज में प्रविष्ट होते मध्यवर्गीय किरदार हैं जिनके बाहरी भदेसपन के नीचे एक खालिस इंसानी दिल धड़कता है। क्या वे स्वयं इसे पहचानते हैं? अनवर सुहैल के सामने अहम सवाल यही है कि अपनी असली पहचान से रू ब रू हुए बिना हम क्यों दूसरों द्वारा लगाए गए ठप्पों को अपनी पहचान बना लेते हैं? अपनी पहचान के लिए उदासीन होना क्या उतना ही संगीन जुर्म नहीं जितना दूसरों पर मनमानी पचान का ठप्पा लगा देना? यह उदासीनता क्या उसे फिर से पहचान की उसी सामंती व्यवस्था में नहीं जकड़ देगी जिससे मुक्ति पाने के लिए वह गांव से शहर में आया और अपने वजूद को आकाश में तिरती पतंग की तरह उड़ाने के सपने देखने लगा? पहचान के लिए जितना जरूरी सपने देखना है, उतना ही जरूरी है उन सपनों को साकार करने का जज्बा, लड़ने की ताकत और बढ़ने की दिशा तय करना। पतंग बन कर उड़ने से ज्यादा जरूरी है डोर को मजबूती से अपने हाथों में थामे रहना वरना प्रतिक्रियावादी कठमुल्ला ताकतें अपने स्वार्थों के लिए पतंगों को लूटने और मनमानी दिशा में उड़ाने के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं। लेखक कथानायक यूनुस और उसके भाई सलीम के जरिए पहचान की इस अनिवार्य मानवीय लड़ाई की दो भिन्न परिणतियों का आकलन कर मानवीय पहचान को दो शब्दों के सम्मिश्रण में गूंथ देता है - संवेदनात्मक विवेक। सलीम के पास संवेदनात्मक विवेक नहीं है। है तो सिर्फ आक्रोश और आवेश। लक्ष्य नहीं, दिशा भी नहीं; किंतु तेजी से चलने की स्फूर्ति और ललक बेलगाम है। बड़की आपा का सिंधी फलवाले के साथ भाग जाना सेकुलर सलीम (उल्लेखनीय है कि यही सलीम ताजिए को जहालत की निशानी मानता रहा है) को कट्टर तबलीगी बना देता है - विचार से लेकर वेशभूषा तक। कमीज-पैंट की जगह कुर्ता-शलवार, सिर पर गोल टोपी। दिन-दिन नफरत की आग में झुलसता सलीम गुजरात के दंगों में झुलस कर अपनी जान गंवा बैठता है। निजी पहचान उसने बनाई नहीं, इसलिए उसकी शिनाख्त हुई एक मुसलमान लाश के रूप में। अनवर सुहैल मनुष्यता का अतिक्रमण करने वाली हर वैचारिक-धार्मिक संकीर्णता के विरोधी हैं। यूनुस को अपना प्रवक्ता बना कर वह कहते हैं कि जब ’’हिंदुस्तान में रहना है तो बंदे मातरम’’ कहना ही होगा। इसलिए वह धार्मिक पहचान को लादने की बजाय धर्म के मर्म को समझने का विवेक विकसित करता है। मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की अथाह घृणा से वह परिचित है तो मुसलमानों के ही दो गुटों - देवबंदियों और बरेलियों में आपसी रंजिश और नफरत को भी भलीभांति जानता है। हालांकि उपन्यासकार ने यूनुस के व्यक्तित्व को ज्यादा फैलने का अवसर नहीं दिया, लेकिन उसकी लोचशीलता और वैचारिक उदारता उसे विश्लेषक की गहनता अवश्य देती है जिस कारण वह अनायास जान जाता है कि वर्ग-वर्ण-जाति-धर्म के स्थूल भेद के कारण व्यक्ति व्यक्ति की जान का प्यासा नहीं बन बैठता, बल्कि उसकी मूल प्रवृत्ति में राग और द्वेष की उत्कट मनोवृत्तियां उसे व्यक्ति और समाज को वर्गों और टुकड़ों में बांटने का वर्चस्व्वादी अहंकार देती हैं। मानवीय पहचान हासिल करने के लिए यूनुस की लड़ाई अपने अंतरतम में पैठी इसी विभाजनकारी मानसिकता से है। इसलिए हिंदू बहुसंख्यक राष्ट्र में शांतिपूर्वक रहने के लिए वह हिंदुओं सा आचरण करने में कहीं भी धार्मिक पहचान या जातीय अस्मिता पर चोट होते नहीं देखता।
    ’पहचान’ उपन्यास यूनुस की पहचान के बहाने मनुष्य की पहचान के बृहद् लक्ष्य के सामने रखता है। अनवर सुहैल अन्य समकालीनों की तरह पर्दाफाश करके सनसनी फैलाने की पापुलर युक्तियों का सहारा नहीं लेते। कहीं-कहीं पत्राकारिता की तर्ज पर गुजरात में हुए नरसंहार के दौरान मीडिया, सत्तापक्ष और विपक्ष की नकारात्मक भूमिका की सपाटबयानी जरूर कर जाते हैं,  लेकिन चतुर्दिक् परिवेश के विघटन पर घडि़याली आंसू नहीं बहाते। चूंकि परिवेश और परिस्थितियां मनुष्य की ही उपज हैं, इसलिए निस्पृहता और निष्क्रिय आलोचना दोनों ही बेहतर भविष्य के आकांक्षी समाज के लिए घातक हैं। औपचारिक शिक्षा तंत्रा का हिस्सा बन कर यूनुस ने भी यदि अकादमिक शिक्षा पाई होती तो शायद वह भी बुद्धिजीवी की भंगिमाओं के साथ अपनी कायरता, निष्क्रियता और अंतर्दृष्टिहीनता को ढांपने की चालाकियां सीख जाता। लेकिन उसने फुटपाथी विश्वविद्यालय में ’लढ़ाई (सहज अंतज्र्ञान से पाई पढ़ाई और अस्तित्व रक्षण के लिए की गई लड़ाई का मिलाजुला रूप) की है। ’लढ़ाई’ ने उसे जीने के कुछ गुरु मंत्रा दिए हैं जैसे -
ऽ    ’’इस दुनिया में जीना है तो फिर खाली हाथ न बैठै कोई। तन्हा बैठ आंसू बहानेवालों के लिए इस नश्वर संसार में कोई जगह नहीं।’’
ऽ    ’’अपने अस्तित्व केा बचाए रखने के लिए इंसान को परिवर्तनकामी होना चाहिए।’’
ऽ    ’’लकीर का फकीर आदमी का जीना मुश्किल है।’’
ऽ    ’’जैसा देस वैसा भेस’’
ऽ    ’’कठिन से कठिन परिस्थिति में भी इंसान को घबराना नहीं चाहिए। कोई न कोई राह अवश्य निकल आएगी।’’ पृ0104
    इस गुरुमंत्र को पाने के बाद सत्ता, राजनीति, धर्म, जाति और पूंजी के रूप में बैठी दमनकारी ताकतों के शिकंजे से स्वयं को मुक्त करना कठिन नहीं रहता। अनवर सुहैल और यूनुस दोनों मौजूदा शिकंजों को अंगूठा दिखा कर अपनी राह पर आगे बढ़ने को बेचैन हैं। ’पहचान’ का अर्थ प्रतीक या आइकान बन जाना नहीं, मानवीय मूल्यों से अंतर्दृष्टि, प्रेरणा और शक्ति पाकर उन्हीं की रक्षा में जुट जाना है। जाहिर है उपन्यास का पाठ कथा से बाहर अपने भीतर बैठे यूनुस और सलीम को आमने-सामने खड़ा कर अपना रास्ता चुनने का विवेक भी है।


डा0 रोहिणी अग्रवाल
(प्रोफेसर, हिंदी विभाग, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय)
258 हाउसिंग बोर्ड काॅलोनी, रोहतक 124001
हरियाणा