मूल तत्व से
ज्यादा थीं व्याख्याएं
व्याख्यायों से
ज्यादा थीं पाद-टिप्पणियाँ
ग्रन्थ के आधे से ज्यादा पृष्ठ
भरे थे सन्दर्भ ग्रथ-सूचि से
महा-ग्रन्थ का मूल्य था
एक सामान्य मजदूर की
दिहाड़ी पचास गुना....
इस ग्रन्थ को
सबसे पहले पढ़ा लेखक ने
फिर कोम्पोजीटर ने
फिर प्रूफ-रीडर ने
ग्रन्थ के विमोचन-कर्ता
विद्वान लेखक ने फिर पढ़ा ग्रन्थ
उसके बाद पुस्तकालयों में
एक सन्दर्भ संख्या के साथ
सुशोभित रहा महा-ग्रन्थ
इस उम्मीद से
कि शायद किसी महा-विनाश के बाद
बचा रह जायेगा ग्रन्थ
तो फिर उसे बांचेंगे पुरातत्व-वेत्ता...
और कयास लगायेंगे
कि गुज़री हुई पीढ़ी
थी कितने समृद्ध सोच वाली.....
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