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Saturday, January 30, 2016

मेहनतकश के सीने में


कितना कम सो पाते हैं वे
यही कोई पांच-छः घंटे ही तो
यदि हुई नही बरसात
पड़ा नही कडाके का जाड़ा
तो उतने कम समय में वे
सो लेते भरपूर नींद
बरखा और शीत में ही
अधसोए गुजारते रात
उनसे पहले उठती घरवालियाँ
चूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँ
अचार या नून-मिरिच के साथ
पोटली में गठियातीं तब तक
छोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तरह
फ़टाफ़ट होते तैयार
और निकल पड़ते मुंह-अँधेरे ही
खदान की तरफ
आखिर बीस कोस साइकिल चलाना है
जुड़े रहते तार उनके इस तरह
कि पहले मोड पर मिल जाते कई संगी
एक राऊण्ड तम्बाखू-चून की चुटकी
होंठ और मसूढ़ों के बीच दबा
पिच-पिच थूकते, जो नागा किया उसके बारे में
अंट-शंट बतियाते, पैडल मारते तय करते दूरियां
उन्हें नही मालूम कि प्रधान-मंत्री सडक योजना क्या है
वर्ना इन पथरीली पगडंडियों पर आदिकाल से
यूँ ही नही चलना पड़ता उन्हें
छोटे नाले-नदी, जंगल-टीले पार करते-करते उग आता सूरज
और उन्हें तब तक दिखलाई देने लगता कोयला-खदान के चिन्ह
रात पल्ली से लौटते श्रमिक मिलते तो राम-राम हो जाती
एक तसल्ली भी मिलती कि खदान चालू है
काम मिल ही जाएगा,
बिना कामनही लौटना पड़ेगा उन्हें…
वे खदान पहुँचते हैं तो
बड़ी आसानी से कोयले के ढेर में घुल-मिल जाते हैं
ऐसे दीखते हैं जैसे हों कोयला की तराशी हुई चट्टानें
जो ये जानते ही नही कि उनमे छुपी हुई है बिकट आग
कि उनमे छुपा है बिजली बनाने का तिलस्म
कि उनमे पेवस्त है स्टील बनने का रसायन
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि इस जनम यही लिखा उनके भाग में
और भाग के लिखे को कौन मिटा सकता है…
वे नही जानते कुछ भी
सिवाय इसके कि भगवान जिसे चाहे देता दुःख-पीड़ा
और जिसे चाहे देता सुख-सुविधाएं अपार
लेकिन मुंह अँधेरे इन साइकिल चालकों में
एक भोले है, एक भूपत है, एक गंगा है
जिनके पास सवाल ही सवाल हैं
और बुज़ुर्ग मजदूर सुमारु उन्हें समझाता रहता
भर-रास्ता उन्हें डांटता और सबर करने को कहता
लेकिन भोले, भूपत और गंगा के सवाल
पूरब में उगते सूर्य की आभा में दमक उठते
और एक नया रास्ता सूझता उन्हें
उस रास्ते में दीखते अनगिन ठोकर, अंतहीन यातनाएं
और फिर दूर-दूर तक अँधेरा ही अँधेरा…
क्या इसका मतलब ये समझा जाए
कि खदान पहुंचते ही
उनके मन में उठे सवालात दफ़न हो गए
वे नहीं जानते कि सवाल जो उठा है मन में
ये पहली बार नही आया है
इससे पहले जाने कितनी पीढियां
खत्म हो गईं इन सवालों से टकराते-जूझते
इसी प्रयास में कि इस लड़ाई को
जल्द ही जीत लेंगे वे
और सूरज आसमान पर उगता रहा
चाँद निकलता रहा
धरती घूमती रही
पेड़-पौधे-फूल उगते-कटते रहे
और हर बार मेहनतकश के सीनों में
यूँ ही सवाल पनपते और दफ़न होते रहे….
.

Thursday, January 28, 2016

पहचान की सृजन यात्रा

से उन बच्चों के अन्दर स्कूली पढाई के प्रति उदासीनता आती जाती है और एक-दो बार फ़ैल हो जाने के बाद वे पढाई छोड़ देते हैं हैं बहुधा ये आरोप लगाकर---'अरे भाई, मीम लोगों को जानबूझकर फ़ैल कर देते हैं ई मस्टरवा लोग..चाहते नहीं हैं न कि मीम के लइका लिखे-पढ़ें-तरक्की करें...!'
तो मदरसा की हिज्जेवाली अरबी-उर्दू की तालीम, प्राथमिक विद्यालय की अक्षर-ज्ञान के बाद उनके पास तीसरा विकल्प बचता है माँ-बाप के पुश्तैनी कारोबार या हुनरमंदी के गुर सीखना और विराट सामजिक ताने-बाने से कटकर एक ऐसे समाज का अपने इर्द-गिर्द बनते देखना जहां असहमति/ विरोध/ बहस की गुंजाइश एकदम नहीं रहती...
यूनुस उस समाज से खुद को अलग करेगा...ऐसा मेरा विश्वास है और यही विश्वास उपन्यास पहचान की मुख्य सोच है...
औपचारिक स्कूली शिक्षा में मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या आज भी उत्साह वर्धक नहीं हैं और सीनियर सेकंडरी तक आते-आते ये संख्या काफी निराशाजनक हो जाती है. इस शिक्षा-प्रणाली की दुरुहता के कारण मुस्लिम ही नहीं आदिवासी, दलित और स्त्रियाँ भी आगे की पढाई नहीं पढ़ पाते हैं...
यूनुस को मैंने विकल्प के रूप में मज़हबी यूनुस की जगह हुनरमंद यूनुस के रूप में तरजीह देने का प्रयास किया है...

Thursday, January 21, 2016

बचपन के दिन : एक

      
डॉ लाल रत्नाकर की पेंटिंग 
           कुछ भी विलक्षण नहीं है बाल-जीवन में सिवाय सृजन के स्वप्न के...
ये एक ऐसा स्वप्न है जो अब भी बेचैन किये रहता है..और यही बेचैनी कुछ नया करने को प्रेरित करती है. एकदम बच्चा था जब तब चार आने में कापी आती थी और चार आने की पेन्सिल. नानी आतीं तो वो बच्चों को अपनी आमद पर खुश होकर आठ आने दिया करतीं. भाई-बहन उन पैसों का क्या करते मुझे याद नहीं लेकिन मैं दौड़ा-दौड़ा मुल्लाजी की किताब दूकान जा पहुँचता. उनकी दुकान से एक कापी और पेन्सिल खरीद लाता...
ये मेरे अक्षर-ज्ञान से पहले के दिन थे...जब बेशक मैं छः साल का नहीं हुआ था. क्योंकि तब छः साल होने पर ही स्कूल में दाखिला मिलता था. तो उस कापी पर पेन्सिल से मैं बड़ी रवानी से गोलम-गुल्लम लिखा करता..बीच-बीच में कुछ आकृतियों को काट भी दिया करता और कुछ आकृतियों के ऊपर लाइन खींचा करता...
छोटा भाई बड़ी उत्सुकता से मेरी हरकत देखा करता और पूछता—‘का कर रहे हो भईया?’
तो मैं गर्व से बताता—‘वकीलों की तरह लिख रहा हूँ...!’
मेरा गृह-नगर तहसील था सो वहां तहसील दफ्तर के बाहर मैं कई बाबुओं को कागज़ पर कलम घिसते देखा करता था.
मुझे लगता कि संसार का सारा ज्ञान इन बाबुओं के पास होगा तभी तो सेठ-महाजन, अधिकारी और अन्य लोग इन बाबुओं के पास बैठकर बड़ी तल्लीनता से उन्हें काम करते देखा करते हैं. ये बाबू कोई सूट-बूट वाले नहीं होते थे बल्कि धोती-कुरता, पजामा-कमीज़ वाले हुआ करते थे. इनके चेहरे पर ज़माने भर की गंभीरता आसानी से दिखलाई देती थी.
फिर जब दाहिने हाथ से बांया कान पकड़ में आने लगा तब अब्बा ने कहा कि अब पहली में नाम लिख जाएगा.
मेरा दोस्त था बगल के लाज में काम करने वाले का बेटा..उसके साथ मैंने अब्बा के रेलवे प्रायमरी स्कूल में नाम लिखवा लिया और अचानक से इतना गंभीर हो गया कि जैसे किसी बड़ी क्लास में पढने वाला बच्चा हो गया हूँ. मेरे कक्षा शिक्षक मिश्रा गुरूजी सफ़ेद धोती और लम्बा कुरता पहनते थे. वे मुझे बहुत मानते थे, क्योंकि मैंने तब तक गुपचुप रूप से अपनी दीदी लोगों की संगत में अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया था. एक से सौ तक की गिनती लिखनी मुझे आती थी. हाँ, पहाडा स्कूल में जाकर रटने लगा था. मिश्रा गुरूजी कुर्सी पर बैठकर खैनी खाते फिर ऊंघने लगते और मुझे बच्चों को अक्षर-ज्ञान का काम सौंप देते थे.
उस जमाने में हम सिर्फ हिंदी भाषा ही पढ़ते थे. अंग्रेजी का औपचारिक ज्ञान हमें छठवीं कक्षा से मिला था.
स्कूल में बिना पैसे के खेल हम खेला करते. जैसे आमा-डंडी, छुपा-छुपौवल, पिट्टुल और लडकियों के खेल जैसे खो-खो, लंगड़ी-घोड़ी, धुप-छाँह आदि.
घर में तब अध्यापक अब्बा का प्रशासन बहुत कड़ा था. क्या मजाल कि उनकी मर्ज़ी के बिना परिंदा भी पर मार ले. उनकी नज़र जैसे कि ख़ुदा की नज़र हो, जिससे बचना नामुमकिन होता था. बचने को तो बचा जा सकता था लेकिन पकड़े जाने पर जहन्नुम के बारे में बयान किये जाने वाले अज़ाब (दंड) से भी जियादा का खौफ हमें मारे डालता था. जहन्नुम के अज़ाब तो मरने के बाद मिलेंगे लेकिन जीते-जी अब्बा की डांट-मार का ज़िक्र किसी धर्म-ग्रन्थ में नहीं मिल सकता है, जितना डर हम बच्चों के दिल में रहता था.
पिन-ड्राप साइलेंस का मतलब यदि जानना हो तो मेरे बचपन के दिनों में अब्बा की मौजूदगी में हमारा घर इसकी बड़ी मिसाल होगा.
अब्बा की दबंग उपस्थिति के ठीक उलट अम्मी की अंधी ममता..वे भरसक अब्बा के कोप और क्रोध से हम बच्चों को बचातीं..हमने कभी ये अलफ़ाज़ नहीं सुने उनके मुंह से—‘आने दे तुम्हारे अब्बा को, उन्हें सब कुछ बता दूंगी..!’ अब्बा की गैर-मौजूदगी में हमारी गलतियों, शरारतों और बदमाशियों को अम्मी इंज्वॉय किया करतीं...वे हमारे साथ थोड़ी-बहुत मस्ती भी कर लिया करती थीं और हमारी बड़ी राजदार थीं..ऐसी माएं अब कहाँ होती हैं...
तो बचपन में पढाई-लिखाई, खेल-कूद, शरारतें ही याद आती हैं. हाँ, हम दोनों भाई मोहल्ले के बच्चों के साथ नहीं खेलते थे क्योंकि अब्बा का ये मानना था कि मोहल्ले के लडकों के साथ मिलने-जुलने से गाली बकना और उत्पाती बनना ही हम सीखेंगे. वैसे भी मोहल्ले के लडके आये दिन कंचे खेला करते या सिक्का-जीत जैसे खेल खेलते, बीच-बीच में हल्ला करते और एक-दुसरे को गालियाँ बकते...हमारे घर में ‘अबे’ या  ‘रे’ भी गाली  के  तुल्य हुआ करता था. हम जब बहुत गुस्सा होते तो एक-दूजे को कुत्ता-कुत्ती जैसे शब्द कहके गाली बकने की क्षुधा शांत किया करते थे. दीवाली में बिकने वाले हरामी बम को हम तब घर में ‘गाली बम’ कहा करते थे.
हम दोनों भाई अपनी बहनों की सहेलियों के साथ लडकियों के खेल खेलते...इसी कारण कपड़े की तुरपाई करना, बटन-काज का काम, स्वेटर बुनने का हुनर और खाना बनाने में पारंगत हो गया था मैं..इसका लाभ ये हुआ कि आज भी कपड़े की रिपेयर खुद कर लेता हूँ. कालेज में मैं खुद ही खाना पका कर खाता था.

अम्मी को चाय पीने का शौक था और मैं उनका चायवाला बेटा था..उनकी फरमाईश पर तत्काल चूल्हे में लकड़ी सुलगा कर चाय बना लाता था. तब उस जमाने में घरों में मिटटी तेल के स्टोव भी हुआ करते थे, लेकिन हमारे घर में तीन मुंह वाला मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था. अम्मी अलस्सुबह उस चूल्हे की टूट-फूट रिपेयर करतीं, फिर छूही माटी से रसोई की लिपाई करती थीं. 

Saturday, January 16, 2016

मेले में अकेले


वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जो खुद को कभी भी, कहीं भी नहीं करा पाते आमंत्रित 
खुद्दार इतने कि बिना निमंत्रण जाएँ न यमराज के पास भी 
ऐसा कहकर हंसते हैं कि हंसते हर हाल में हैं वे
हंसने की नामालूम वजह को जानने का कभी प्रयास भी नहीं करते
वे ये भी जानते हैं कि उनकी ये हंसी कालांतर में
गलती से भी नहीं बनेगी किसी शोध-पत्र का बीज-वाक्य
कि उनकी इस हंसी-ठिठोली को लोग लोक-हास्य कह देते हैं
जैसे किसी मजबूरी के तहत हँसते रहे हैं वे
उड़ा देते हैं अफवाह कि ये अपने ही में मस्त रहने के अभ्यस्त हैं
अपनी राजनीतिक समझ और कूटनीतिक चालों में डूबे
कोई कैसे जाने कि उनकी फक्कडपन और दीवानगी के पीछे
नहीं है किसी विपक्षी का हाथ या ये नहीं हैं वामपंथी या नक्सली
ये नहीं हैं कोई दरवेश या पीरो-मुर्शिद या कोई ऋषि-मुनि या कोई अतीन्द्रिय...

वे लोग जो चाहकर भी नहीं पहुँच सकते मेले में
वे लोग जिनके पहुँचने से बदल सकता था मेले का स्वरूप
क्योंकि वे जहाँ जाते हैं वहां तमाम अभावों-असुविधाओं के बीच
गूंजती है बिरहा की धुनें, कबीर की निरगुन और बुल्ले शाह के काफिये
वे पंच-तारा अस्पतालों की अट्टालिकाओं की परछाइयों के पीछे
जहां बस्तियां उग आती हैं फेंके गये मेडिकल कचरे के साथ
मगन होकर गुनगुनाते रहते हैं गीत
और अस्पतालों की मार्चरी में दिन-ब-दिन बढती जाती हैं लाशें.. खाए-पीये-अघाए लोगों की.....
ऐसे नहीं कि वे अजर-अमर हैं लेकिन एक अच्छी बात है कि
मरने से पहले नहीं चिंता होती उन्हें वसीयत की
और नहीं होता कोई षड्यंत्र उनके जीते जी या मरने के बाद
किसी संपत्ति या बैंक बैलेंस के लिए नहीं होती कोई लड़ाई...