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Tuesday, March 29, 2016

बेशक, जीतेगा उजाला ही : मनु स्वामी की कविताएँ

विचार और सम्वेदनाएँ घनीभूत होकर कविता के रूप में जितना अभिव्यक्त होती हैं उतना किसी और विधा में नहीं. शायद इसीलिए वर्तमान दौर में आहत भावनाओं की अभिव्यक्ति छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से हो रही है. ये कविता का एक ऐसा फॉर्म विकसित हुआ है जो फेसबुक की वाल के आकार की होती हैं, या ये कहें कि मोबाइल या टेब की स्क्रीन साइज़ में एडजस्ट होने वाली होती हैं. हिंदी जबसे यूनिकोड के ज़रिये बड़ी आसानी से ऑन-स्क्रीन हो गई है तब से कवि और पाठक संख्या में वृद्धि हुई है. उसी रफ्तार में लघु-पत्रिकाएं भी बढ़ीं हैं और इन पत्रिकाओं में कविता के छोटे स्वरूप को स्वीकृति मिलती जा रही है. अब लम्बी कविताएँ कम लिखी जा रही हैं. इसका मतलब ये नहीं कि लम्बी कविताओं की डिमांड नहीं है...होता ये है कि कविता के इस नए स्वरूप को पढ़ते-पढ़ते पाठकों की अभिरुचि और क्षुधा को बेशक लम्बी कविताएँ ही शांत कर सकती हैं, जिनमें विचारों और संवेदनाओं का विस्तार हो, आख्यानिक आस्वाद हो...
आज का समय इसीलिए कविता का समय है, क्योंकि आज कविता प्रतिरोध को स्वर देने का विनम्र प्रयास कर रही है. कवि महसूस कर रहा है कि विचार पर और संवेदनाओं पर पहरे डाले जा रहे हैं और कविता ही है जो एक विरोध या असहमति को सलीके से जन-मानस के समक्ष रख सकती है. सोशल साइट्स में, किताबों-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रमुखता से स्पेस कवर कर रही हैं. ये कविताएँ किसी हारमोनियम-तबले की बाट नहीं जोहतीं...किसी मजबूर के पैर में घुंघरू नहीं बंधवाती हैं. ये कविताएँ झाड-फानूस के नीचे गाव-तकिये में तोंद टिकाये खाए-अघाए लोगों का मनोरंजन करने का दावा भी नहीं करती हैं. हाँ, जब इन कविताओं में पेवस्त शब्द किसी विचार का, भावनाओं का आकार लेते हैं तो पाठक या श्रोता सहज ही इनसे खुद को जोड़ लेता है. यही कनेक्टिविटी आज की कविता की ताकत है जो पाठकों की बौद्धिक या तार्किक समझ का इम्तेहान नहीं लेती बल्कि सीधे-सीधे अपनी बात कहती है. ये सहजपन कविता की कमजोरी नहीं है...कलावादी-रूपवादी मित्र नाक-भौं सिकोडा करें भले से. इसे कविता का लोक से जुड़ाव कहा जा सकता है. कवि का अपना भावलोक होता है, अपना अनुभव-संसार होता है और प्रकृति में व्याप्त लोक-तत्व बिम्ब-प्रतीकों के रूप में अभिव्यक्ति को एक आयाम देते हैं. ये आयाम ही तो प्रथम-दृष्टया कविता को पाठक से जोड़ते हैं.
मनु स्वामी का छठवां कविता संग्रह ‘सफ़र में हूँ’ मेरे समक्ष है और इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हमारे दौर में कविता के इस फॉर्म को जन-स्वीकृति मिल रही है. मनु स्वामी निरंतर कविता लिख रहे हैं...कविता के अतिरिक्त उन्होंने लघु-कथाएं और संस्मरण लिखे हैं. गद्य-लेखन कवि को असीमित करता है, मेरे विचार से कवि जब विधाओं का अतिक्रमण करने का उपक्रम करता है तब उसकी कविताओं की अर्थवत्ता और रेंज बढती है.
मनु स्वामी लोक-धर्मी कवि हैं. उनकी कविता में लोक बोलता है और जैसे उनका मन किसी यात्रा में रहता है. शायद यही कारण है कि उनका नया कविता-संग्रह ‘सफ़र में हूँ’ कवि की चेतना को एक जगह रुकने नहीं देती और नित नये भावलोक से यात्रा को पडाव से कवि दो-चार होता रहता है.
कवि मनु स्वामी के बिम्ब प्रतीक एक नये रूप में नई आभा के साथ प्रदीप्त होते हैं...ऐसे में मैदान की ‘दूब’ संघर्षरत आम-आदमी का आकार लेकर हमारे समक्ष आती है. ‘दूब’ जिसे गुड़ाई या निराई की ज़रूरत नहीं होती, फिर भी ह्मारे लोक में दूब अजर-अमर होती है..
ये संघर्षरत आमजन की जिजीविषा है, जिसे दूब के रूप में कविता में देखा जा सकता है---
“चाहे जब रौंद / उखाड़ दी जाती हो/ हार नहीं मानती / देखते ही देखते / हो जाती हो / हरी भरी..”
‘सर्दी’ कविता में कवि सर्दी को किसी शोषक के रूप में देखता है जो किसी आतताई की तरह डराना चाहती है आमजन को लेकिन वाह रे कवि की आमजन की प्रतिरोधात्मक सहनशीलता के प्रति आस्था...
‘सर्दी/ कितना ही / पैना कर ले / नश्तर/ कोहरे में डूबे / भोपा पुल के नीचे / जमा हो गये / खेस लपेटे / मिस्त्री और मजदूर...”
पर्यावरण से छेड़छाड़ का दुष्प्रभाव है प्रदूषण जिससे नदी अब एक ऐसे नाले में तब्दील होती जा रही है कि मन खिन्न हो उठता है. ‘काली नदी’ कविता में कवि फिर भी नदी की मृतप्राय देह पर आस्था के दीप जलाए बैठा दीखता है---“वो तो / माँ- सा / मन रखती हूँ / इसीलिए / थमी हूँ..”
छोटे-छोटे वाक्य से अद्भुत चित्रात्मक कम्पोजीशन रचते है मनु स्वामी कविताई में...
मुज़फ्फरनगर के शायर मौजुद्दीन ‘बावरा’ को याद करती कविता जैसे गंगा-जमनी तहजीब की विरासत को बचाए रखने का आव्हान करती है...
“ता-उम्र सींचते रहे / कहीं भीतर जमी/ रवायती जड़ें.
ये रवायतें हैं जो कहीं बहुत गहरे से खींच लाती हैं जीवन-रस और हरा-भरा कर देती हैं सारा परिवेश. चाहे लाख जमाना दुश्मन हो...’बावरा’ जैसी शख्सियतें एक चिराग की मानिंद रौशनी फैलाती रहेंगी.. सच है—‘’रंगे महफ़िल / उदास रहता है/ बावरा जब यहाँ / नहीं होता..’’
खेत, किसान, अन्न, श्रम और निराशा को स्वर देती कविता है ‘’अन्नदाता’’
बड़ी विडम्बना है जब पकने लगती हैं बालियाँ किसान कई सवालों से दो-चार होता है—‘’शहर/ आने लगा है/ आजकल / गाँव में/ आँखों-आँखों में / न जाने क्या/ नाप-तौल/ करता रहता है/ देखकर / धक से / रह जाता है राधे/ महज़ दस बीघा है / खेत / उस पर भी/ बदनज़र...!’
और अंत में जैसे आर्तनाद---
‘’राधे की राह/ ताक रही है/ मण्डी की / गिद्ध-दृष्टि!’’
जाने कब उबर पायेगा किसान इन सदियों पुरानी बदनज़रों और गिद्ध-दृष्टियों से...इन प्रश्नों से लोकतंत्र कभी नहीं जूझता और संसद ढीठता के साथ मौन रहती है...फिर भी हर साल किसान बीज बोता है और एक नई जिंदगी के अपने देखता है...
समाज में बुजुर्गों की दयनीय दशा और युवा संतान की बेरुखी से मनु स्वामी का कवि खिन्न रहता है. वाकई बेहया हो गई है युवा पीढ़ी जिसे बुजुर्गों की तनिक भी परवाह नहीं है. ‘रघु’ कविता में मनु स्वामी खीज कर कहते हैं---
‘’शिखंडी की मुद्रा में / यदा-कदा / अकेला आता / बेटा..!’
और व्यथा-कथा का एक आम रूप देखें---
‘’बेटा / इंजीनियर है/ शोहरत है/ माया में / खेलता है/ माँ-बाप के लिए/ नहीं है / उसकी दुनिया में / कोई कोना..’’
एक और कविता जो बड़ी देर तक मन-दिमाग में खलल डाले रहती है. ‘प्रजापति’
वृद्ध दल्मीरा प्रजापति को कविता के लोक में जैसे स्थापित करते हैं मनु स्वामी...’’बूढ़े हो गये / पर देह-मन से / चुस्त-दुरुस्त हैं/ दलमीरा...’’
और यही दलमीरा प्रजापति रचते रहते हैं पात्र...जिनमें समाता है कवि का आलोक...
मनु स्वामी हमारे गाँव-गिरांव के कवि हैं जो विकट निराशा में भी लोकरंग और लोकराग से अपने अस्तित्व को जोड़े रखता है...
ये आशा है, उम्मीदें हैं जो मनु स्वामी को लोक का कवि बनाती हैं—
‘’उजाला / पौ फटने का हो / या दीये का / अँधेरे से / ताकतवर होता है...
जीतेगा / उजाला ही...’’
मनु स्वामी की पाठकों से सम्वाद करती कविताएँ ‘सफर में हूँ’ उनकी काव्य-यात्रा को एक नई ऊंचाइयां प्रदान करती हैं.

सफर में हूँ : मनु स्वामी : २०१५
सहज प्रकाशन, 113, लाल बाग़, गांधी कालोनी, मुज़फ्फरनगर उप्र २५१००१
पृष्ठ : 80 मूल्य : १२० रुपये
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Tuesday, March 1, 2016

बुरे दिनों से निजात दिलाती कविताएँ : अनवर सुहैल




कुछ कविताएँ किसी वाद या विचार की गिरफ्त से आज़ाद होती हैं और अपने परिवेश की ऐसी उपज होती हैं जहाँ पहुंचकर सिर्फ असुविधाएं, अभाव, दुःख-दर्द की इबारतें इंसान को पशुतर बनने पर मजबूर किये रहती हैं और इंसान अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करने के लिए जिस जिजीविषा का परिचय देता है उसे ही कविता मान लेता है. जीने की कला सिखाती कवितायें, संघर्ष के हुनर से पारंगत करती कविताएँ सहज ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं. इन कविताओं को अभी भी मालूम नहीं रहता कि वे वर्ग-संघर्ष के लिए लड़ रहीं हैं हैं या फिर इंसानी हुकूक की बहाली के लिए... एक बात तो तय है कि ये कविताएँ इंसानी समाज को एक बेहतर समाज का विकल्प देने का विनम्र प्रयास करती हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मेरे सामने हैं और उनकी विगत दस-बारह वर्ष की कविताएँ ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ संग्रह के रूप में इकट्ठी संवादरत हैं. इस संग्रह से पूर्व कवि का एक संग्रह आ चूका है—‘पूरा हंसता चेहरा’. रमेश प्रजापति सिर्फ कविताई ही नहीं करते, उनके पास एक सधी आलोचकीय दृष्टि है, कहानी और लघुकथाएं भी लिखते हैं. इस तरह रमेश ये साबित करना चाहते हैं कि उनके अन्दर अभिव्यक्ति की बेचैनी है जो उन्हें विश्यनुकुल विधा चुनने को प्रेरित करती है. कविता की अपनी सीमा होती है और कई बातें लघुकथा या कहानी की शक्ल में ज्यादा मुखर रूप में पाठकों के सम्मुख आते हैं.
रमेश प्रजापति की कविताएँ मुझे इसलिए अच्छी लगती हैं कि इनमें बडबोलापन नहीं है. ये पाठकों को बरगलाती नहीं और सीधे-सीधे अपनी बात कह जाती हैं---
‘अच्छे दिनों की रोटी में
किरकिराते हैं बुरे दिन...”
या
“तू ईश्वर है...
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ?”
और इन प्रतिकूलताओं में भी गज़ब की उम्मीदें---
“फुटपाथ पर बैठा / टांग हिलाता मजदूर
बुरे दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी भर चनों-सा.”
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें सांत्वना देने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है. ‘कौन सा दिल है जिसमें दाग नहीं...? वाकई अधिकाँश आबादी के दुःख-दर्दों की सूची दिनों-दिन बढती ही जाती है. कोई संस्था नहीं, कोई व्यवस्था नहीं जो इस मर्ज़ का उपचार करने का दावा करे...संसार के सारे वाद, विचार और हथकंडे इन लोगों को दुःख-दर्दों से निजात दिलाने में नाकाम रही हैं. असहमति, नफ़रत और युद्ध ही इन व्यवस्थाओं के औज़ार हैं. अपनी बात को तार्किक साबित करने के लिए इनके पास किताबें हैं, क़ानून है, सैनिक हैं, हथियार हैं और निरंकुशता भी है. इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी कवि और कविता अभिशप्त इंसान को उम्मीदों के ख़्वाब दिखलाती रहती है...ये क्या कम है? पाठकों के कुंद हुए दिलो-दिमाग में सहमति की जगह सवाल पैदा करने की हिम्मत कविता ही दे रही है---
“जब बर्फ सा जम गया हो
आदमी के अन्दर डर
दुखों की चट्टान तले
दफ़न हो गई हों जीने की उमंगें
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बडबडाने के अलावा
कुछ न कर पा रहे हों किसान
ऐसे में अंतिम हथियार साबित होती है आग
वक्त-बेवक्त ज़रूरत के वास्ते
जलने दो इसे भीतर के अलाव में..”
यही कविता है जो इंसान को संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहती है. यही कवि की ज़िम्मेदारी है कि अपने समय के सच को पाठक के समक्ष रखे और इस लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करे..वर्ना इतिहास उसे भुला देगा...अपनी बात कहने के लिए ये कविताएँ एक नया सौन्दर्य-शास्त्र खुद ही गढ़ रही हैं, क्योंकि ये कविताएँ किसी भी तरह सत्ताश्रयी या सेठाश्रयी नहीं हैं. कविताई के लिए किसी भी तरह की पारिश्रमिक या पारितोष नहीं मिलता बल्कि अभियक्ति के खतरे उठाने में पहचान लिए जाने का खतरा मंडराता ही रहता है. बहुत आसान है सत्ता या पूँजी के समर्थन में भांड बनकर वीरगाथाएं रचना. इसमें पैसा है, सम्मान है, सुख है लेकिन जब जेनुइन कवि खुद को आने वाली पीढ़ी के साथ खड़ा करता है तो उसे लगता है ये बहुत बड़ी बेईमानी होगी! थोडा पैसा, सम्मान या सुख तात्कालिक राहत तो देगा लेकिन ये समझौता उसे समय की अदालत में नकार देगा.
रमेश प्रजापति की तमाम कवितायेँ अच्छी हैं ये नहीं कहता, लेकिन ये ज़रूर है कि तमाम कविताओं में कवि अपने समय के सच को अलग-अलग एंगल से देखने का विनम्र प्रयास करता है और कविता के एक ऐसे फ़ार्म के साथ अपनी बात कहता है जो आजकल के पाठकों के लिए बहुत सहज है.
इन कविताओं को पढ़ते हुए मैं बड़ी ईमानदारी से ये कह सकता हूँ कि कठिन काव्य का प्रेत बनकर पहेलियों से कविताई के दिन लद गये... ऐसी कविताएँ लिखना कि जिन्हें समझने के लिए शब्दकोष की ज़रुरत पड़े, कोई व्याख्याता या फिर टिप्पणीकार उन कविताओं के मंतव्य से पाठक को अवगत कराये..इसे मैं भाषा की ऐयाशी मानता हूँ...ये कविता का रीतिकालीन या छायायुगीन कलेवर पाठकों को कविता से विलग/विरत करता है.
इससे कविता का ही नुक्सान होता है...न मालूम किस टार्गेट पाठक के लिए लिखी जाती हैं ऐसी क्लिष्ट कविताएँ कि जिन्हें कोई विद्यार्थी कोर्स में होने के कारण ही मजबूरीवश पढ़े...कोई नया पाठक खामखाँ क्यों इन कठिन काव्य के प्रेतों से झाड-फूँक करवाएगा.
रमेश प्रजापति की चिंताओं में शामिल हैं गाँव, घर, खेत-खलिहान, किसान, मजदूर, माँ-पिता, पशु-पक्षी, धनकार, स्त्रियाँ, नदी-नाले, चाँद-सूरज-पृथ्वी-गौरैया और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक-चिन्ह...कवि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता है लेकिन इंसान के शोषण की तमाम तकनीकों से घृणा करता है. कवि के सामाजिक सरोकार उसे पाठकों के साथ जोड़े रखते हैं और उसकी कवितायें, पाठकों के लिए किसी मलहम की तरह लेप लगाती हैं और बुरे दिनों से निजात दिलाने का प्रयास करती हैं....
*शून्यकाल में बजता झुनझुना : कविता संग्रह : रमेश प्रजापति
पृष्ठ : १२० मूल्य : 100.00 संस्करण : 2015
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