(रचनासंसार ब्लॉग अब तक मैं सिर्फ अपनी रचनाओं के लिए जारी रक्खे हुए था, लेकिन अब लगता है कि इस ब्लॉग का विस्तार किया जाए. काव्यानुवादक चन्द्रबली सिंह पर श्री अनिल जनविजय जी से वाचस्पति जी का एक संस्मरण भी हाथ आया तो सोचा कि शुरुआत का ये अच्छा मौका है. लीजिये पढिये, चन्द्रबली सिंह पर वाचस्पति जी के संस्मरण और चन्द्रबली सिंह द्वारा अनुदित कविताएँ---इन सबके लिए भाई अनिल जनविजय जी का आभार)
प्रसिद्ध आलोचक और हिन्दी में पहली बार नाज़िम हिक़मत की कविताओं का अनुवाद करने वाले कवि चन्द्रबली सिंह को याद करते हुए यह संस्मरणनुमा रेखाचित्र लेखक और सम्पादक वाचस्पति ने लिखा है। हिन्दी में विदेशी कवियों को प्रस्तुत करने वाले चन्द्रबली सिंह अब तक के सबसे बड़े काव्य-अनुवादक हैं। उन्होंने 1100 से ज़्यादा पन्नों का अनुवाद किया है।
वे मशाल और मिसाल बन कर जिए
वाचस्पति
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चन्द्रबली सिंह |
साहित्यिक एवं संस्कृतिकर्मी चंद्रबली सिंह (1924-2011) नहीं रहेµ यह सनातन वाक्य ‘रहना नहिं देस बिराना है’ के कबीर की याद दिलाता है। जाना है। रहना नहीं है। इसी दुनिया में; इसी जन्म में; लेकिन अपनी क्षमताओं के मुताबिक बेहतर समाज-व्यवस्था के लिए कुछ न कुछ करते हुए सकर्मक जीवन जिया कॉमरेड चंद्रबली सिंह ने।
‘पतन से ही उत्थान है’ वाले इस नए दौर में अन्त तक का. चंद्रबली जनवाद की रक्षा और विकास के लिए मशाल बन कर और मिसाल बन कर जिए। हाँ, कैंडिल मार्च (मोमबत्ती जुलूस) और समाधियों पर सुगंधित अगरबत्तियों के कर्मकांडी समय में अब न रहने पर भी चंद्रबली जी अपने कृतित्व से हमारे साथ हैं। निराला जी के शब्दों में -- ‘केवल जलती मशाल -- जिसे जलाए रखने और थामने वाले हाथों में फिलहाल मोमबत्तियाँ थमा दी गई हैं! बाजार की बलिहारी! पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद की अपनी ननिहाल रानीपुर ग्राम में चंद्रबली सिंह का जन्म 20 अप्रैल को हुआ। प्रारम्भिक नाम ‘रामबली’ प्राथमिक प्रधान शिक्षक ने बदल कर ‘चन्द्रबली’ कर दिया। इंटर तक यू.पी.आई.सी. वाराणसी के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजीसाहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि 1944 में पाई। बी.आर. कॉलेज, आगरा और उदय प्रताप पी. जी. कॉलेज वाराणसी में 1984 तक कुल चार दशक अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। आगरा में ही विभागीय सहयोगी डॉ. रामविलास शर्मा से प्रगाढ़ मैत्राी हुई, जिनका संग-साथ छोड़ कर बनारस आए। चंद्रबली जी आगरा से बनारस आने के फैसले को अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल मानते रहे। गाजीपुर शहर से सटे पुश्तैनी गाँव सिकंदरपुर का आकर्षण उन्हें पूरब में ले तो आया पर आगरा में रामविलास जी के सहचर चंद्रबली करीब पाँच वर्ष की अवधि को ‘वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे’ की तरह अपनी यादों में सँजोए रहे।
चंद्रबली जी का विवाह 1946 में हुआ। पत्नी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर की थीं। श्वसुर शिवनाथ सिंह आगरा के दयालबाग में; रेलवे-सेवा से रिटायर होकर दर्शनसाहित्य के अध्येता के बतौर रहस्यमयी वैश्विक चेतना के पक्षधर थे। भौतिकवादी जनचेतना के पक्षधर चंद्रबली जी की उनसे बहसें होती रहीं।
बनारस में रामापुरा मुहल्ले में लोकप्रिय लेखक देवकीनंदन खत्राी की लाल पत्थरों की हवेली है। उसी के नजदीक माकपा के साहित्यिक सुरुचि सम्पन्न नेता का. रुस्तम सैटिन और उनके परिवार द्वारा संचालित विद्यालय रहा। इसमें कभी शमशेर जी भी कार्यरत रहे। यहीं रामापुरा की एक गली में किराए का आवास चंद्रबली जी की रिहाइश रही। यहीं त्रिलोचन जी के सौजन्य से मैं पहली बार उनसे मिला। लंबा सुतवाँ जिस्म, पान-रँगे सुखऱ् होंठों पर सदाबहार मुस्कान के साथ हर आगन्तुक की अगवानी को वे सदा तत्पर रहते रहे। कवि धूमिल वर्षों तक ‘मास्टर साहब’ चंद्रबली सिंह के पास मार्क्स-लेनिन-स्तालिन-माओ की शिक्षाओं की बोधगम्यता के लिए बराबर जाते रहे। बाद में 10, विवेकानंद नगर, जगतगंज का। चंद्रबली जी का प्रशस्त निजी निवास बैठक के खुले मुख्य द्वार के साथ सबके लिए सदा सुलभ रहा। यहीं ज.ले.स. की नियमित गोष्ठियाँ होती रहीं। गीत-गजल-कविता पाठ। केवल पाठ। बहस या संवाद नहीं। कूल्हे के अस्थि-भंग से शय्या तक सीमित चंद्रबली जी प्रायः मौन श्रोता बने रहते। सूट-बूट पहने शिखा सूत्राधारी ‘जनवादी’ और दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करने वाले ‘उत्तर आधुनिक कामरेड’ भी उनके सम्पर्क में बने रहे। कुछ ऐसे भी अनुयायी रहे जो ज.ले. संघ से लेकर धर्मसंघ तक हर मंच के सूत्राधार रहे। चंद्रबली जी के परम आत्मीय विष्णुचंद्र शर्मा का संस्मरण ‘चंद्रबली सिंह या गूंगा लोकतन्त्रा’ इस लिहाज से पठनीय है। दरअसल चंद्रबली जी कई मामलों को निजी मामला मानकर चलने वाले भले मानुस थे। उनकी अपनी दृढ़ वैचारिकी के बावजूद यह भलमनसाहत अंत तक कायम रही। दृढ़ता की तो एक ही मिसाल काफी है। अवसर था 23 मार्च, 2007 को विनोद तिवारी के संपादन में ‘पक्षधर’ पत्रिका के पुनर्प्रकाशन और लोकार्पण का। इस समारोह में मुख्य अतिथि चंद्रबली जी के साथ मंच पर काशीनाथ जी भी मौजूद थे। शहर के प्रगतिशील और जनबुद्धिजीवियों ने बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर एक निन्दा और विरोध प्रस्ताव कार्यक्रम स्थल ‘भारत कला भवन’ के सभागार में हस्ताक्षर के लिए घुमाना शुरू किया। लगभग उपस्थित सभी लोगों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए। परन्तु चंद्रबली सिंह ने इस हस्ताक्षर-अभियान में शरीक होने से इन्कार कर दिया। अपनी पार्टी सीपीएम के प्रति उनकी वफादारी बेमिसाल रही। निधन से चंद रोज पहले 18 मई को उनसे भेंट हुई। बंगाल में वाम मोर्चे की पराजय से वे व्यथित थे। बोलेµ‘किसान अपनी जमीन को संतान जैसा प्यार करता है। तमाम भूमि सुधार लागू करने के बाद भी हार को स्वीकार करते हुए पार्टी को अपनी कार्यनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है...।’
करीब एक दशक तक चंद्रबली जी बिस्तर तक सीमित रहे। बैसाखियों और वाकर से चलते हुए क्रिकेट-हॉकी-बालीबाल जैसे खेलों में रमा उनका खिलाड़ी मन कहीं से टूटा नहीं। मार्क्सवाद अनेक देशों से लुप्त होने के बावजूद उनके लिए संजीवनी बना रहा। देश भर से आए साहित्यिकों का बनारस आने पर उनसे मिलने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। पर आखिरी दौर में स्थानीय मुलाकातियों की संख्या घटती चली गई। पूँजी से जुड़े हृदय बदल गए! केदार बाबू के शब्दों में चंद्रबली जी ने अपने टूटेपन को कविता की ममता से जोड़ा। वे गिरे। टूटे। उठे। विश्व-कविता से प्रख्यात कवियों के पचास साल से ज्यादा समय तक लगातार अनुवादों द्वारा हमारी हिन्दी को उन्होंने समृद्ध किया। इस मशाल को अशोक पाण्डे सरीखे अनेक कुशल काव्यानुवादक बुझने नहीं देंगे।
कविता के अनुवाद के दौरान सही शब्द के लिए चंद्रबली जी बेचैन रहते। भूमिकाओं में उन्होंने शमशेर जी और डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल जैसे मित्रों को कृतज्ञता सहित याद किया भी है। बनारस में सही शब्द की तलाश के लिए वे सिर्फ कवि ज्ञानेन्द्रपति के लिए ही प्रतीक्षारत बने रहे। घंटों तक उपयुक्त शब्द की तलाश के साथ ही अनुवाद की परिपूर्णता के लिए ज्ञानेन्द्रपति से विचार-विमर्श के बाद सन्तुष्टि की आभा से उनका चेहरा आलोकित हो जाता था। उनके शिष्यों में वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह, प्रसिद्ध कथाकार दूधनाथ सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह (पूर्व प्रधानमंत्राी) जैसे मशहूर अनेक नाम थे। मित्रों में समवयस्क प्रगतिशील-जनवादी परम्परा के अनेक प्रसिद्ध नाम रहे। पहले पत्नी, फिर आई०आई०टी० से उच्चतम शिक्षा प्राप्त कनिष्ठ पुत्रा डॉ. प्रमोद कुमार सिंह ‘बब्बू’ के मार्च, 2003 में अचानक देहान्त से चंद्रबली जी पर जैसे वज्रपात हुआ। रीवा, मध्य प्रदेश में चिकित्सक दामाद के निधन की खबर और एक-एक करके अपने अंतरंग दोस्तों के दुनिया से विदा होने की ख़बरों के बीच वे अक्सर पूछतेµ‘सब चले गए! मैं ही क्यों बचा हुआ हूँ?’
चन्द्रबली जी पुराने उदर रोगी थे। बनारस में ‘कार-पान-सेवा’ के लिए विख्यात सहृदय डॉ. गया सिंह ने उनसे कई बार बेहतर जाँच और इलाज के लिए लखनऊµदिल्ली चलने का प्रस्ताव रखा। ऐसा नहीं हो सका। पार्टी के युवा कामरेड अनिल की सपरिवार सेवाओं ने उन्हें बुढ़ापे के दैन्य से भरसक बचाया।
चंद्रबली जी के देहान्त से चंद रोज पहले मैंने उनसे कहा कि ‘जन्मशतियों का मियादी बुख़ार अब उतार पर है। जन्मशती वाले मित्रों पर सामूहिक रूप से ही आप कुछ कहें तो बेहतर रहे।’ कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वे बोले, ‘मेरी पत्नी का स्वभाव शाहखर्ची का था। एक बार नागार्जुन कहीं से आए। कई दिन साथ ठहरे। उन्हें इलाहाबाद जाना था। पाँच रुपए माँगे। संयोग से नहीं थे। नहीं दे सका। इसका आज तक अफसोस है।’ चंद लमहों की खामोशी के बाद उन्होंने कहा -- ‘जल्दी आना। कुछ बातें बोल दूँगा।’ पर यह भी तो न हो सका। अकाल मृत्यु प्राप्त स्वजनों और शमशेर-केदार बाबू-नागार्जुन-डॉ. रामविलास शर्मा-त्रिलोचन सरीखे अनेक दिवंगत मित्रों के क्लब में सोमवार 23 मई, 2011 की सुबह चंद्रबली सिंह भी शामिल हो गए। अपने निधन से पूर्व तक वे विजय गुप्त द्वारा सम्पादित ‘साम्य’ का डॉ. रामविलास शर्मा केंद्रित विशेष अंक पढ़ते रहे।
20 अप्रैल, 2011 को जन्मदिन के बहाने एकत्रित मित्रों-शुभचिन्तकों के आग्रह पर चंद्रबली जी ने एक मार्मिक वक्तव्य दिया, जिसका सार यह है कि वे जितना कर सकते थे कर नहीं पाए। नवसाम्राज्यवाद उर्फ वैश्वीकरण के ख़तरों से भी उन्होंने आगह किया। जनवादी चेतना के लिए एकजुटता का आह्नान तो वे आजीवन करते रहे।
चंद्रबली जी की पहली प्रकाशित कृति ‘लोकदृष्टि और हिन्दी साहित्य’ 1956 में आई। अपने समकालीन कवि-कथाकारों की कुछ कृतियों को केन्द्र में रखते हुए मार्क्सवादी नजरिए से यह एक असमाप्त जिरह है। भूमिका में एक बीज-वाक्य हैµ‘साहित्य की महाप्राणता लोक जीवन में है।’ देवकीनंदन खत्राी की बेहद लोकप्रिय कृति ‘चंद्रकांता संतति’ पर नए दृष्टिकोण से विचार-विश्लेषण का समापन इन शब्दों में किया हैµ‘जैसे-जैसे हम अपने उपेक्षित लेखकों का सही, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और कलात्मक मूल्यांकन करते जाएँगे वैसे-वैसे उसके लेखक के विरुद्ध अनेक अन्धविश्वासों की रूढ़ियाँ भी ख़त्म होती जाएँगी।’
‘आलोचना का जनपक्ष’ 2003 में आई चंद्रबली जी की दूसरी आलोचनात्मक वृहदाकार कृति है। मीमांसा और दस्तावेज शीर्षक से तीन खण्डों में विभाजित यह कृति आलोचक चंद्रबली सिंह की प्रखर मेधा को प्रमाणित करती है। वे जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से एक और अ.भा. स्तर पर उसके अध्यक्ष और महासचिव रहे। चंद्रबली सिंह अपने आलोचनात्मक लेखन में वैचारिक मान्यताओं को लेकर दृढ़ रहे। दिवंगतों की अपेक्षा जीवित रचनाकारों पर उनके कड़े प्रहार निजी रिश्तों में कभी आड़े नहीं आए। उनका आलोचनात्मक और अनूदित कार्य प्रभूत मात्रा में पत्रा-पत्रिकाओं में और निजी फाइलों में है। शायद वह सब असंकलित कभी संकलित हो जाए! या शायद न भी हो पाए!
यथासम्भव समग्र प्रकाशन हो जाने पर चंद्रबली जी की आलोचकीय छवि निश्चय ही और निखरेगी। विश्व कविता से श्रेष्ठ कवियों के चंद्रबली सिंह के अनुवाद हमारी धरोहर हैं। ‘हाथ’ काव्य पुस्तिका-नाजिम हिकमत, 1951, पाब्लो नेरूदा, कविता संचयन, 2004, एमिली डिकिन्सन की कविताएँ --
संचयन, 2011, वाल्ट व्हिटमन, घास की पत्तियाँ, संचयन, 2011 चंद्रबली जी के जीवन काल में ही प्रकाशित हुईं। बर्तोल्त ब्रेख़्त-संचयन और मायकोवस्की, रॉबर्ट फ्रास्ट सहित तुर्की के क्रान्तिकारी कवि नाजिम हिकमत जैसे अनेकानेक कवियों के अनुवाद भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की गति को प्राप्त हों; हम यही उम्मीद करते हैं। ‘पृथ्वी का कवि पाब्लो नेरूदा’ शीर्षक से चंद्रबली जी के अनुवाद कार्य पर नामवर जी की सार्थक टिप्पणी है -- ‘कविता -- वह भी नेरूदा की कविता का अनुवाद चन्द्रबली सिंह के लिए कोई धन्धा नहीं बल्कि गहरी प्रतिबद्धता है।...यह जरूर है कि भाषा उतनी चलती हुई नहीं है बल्कि कुछ-कुछ किताबी-सी हो गई है।’ भाषा के तत्समीकरण के कारण कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत हो सकता है। ग्यारह सौ पृष्ठों में प्रकाशित विश्व के महाकवियों के चन्द्रबली सिंह के अनुवाद-कार्य में उनकी जीवनव्यापी साधना है। ऐसा कोई और उदाहरण हिन्दी में अभी तो विरल ही है।
चंद्रबली जी के परम प्रिय कवि पाब्लो नेरूदा की एक छोटी-सी मशहूर कविता है--‘वी आर नाट फॉर सेल’ (हम बिकाऊ माल नहीं) -- इसका उन्हीं का अनुवाद है --
व्यर्थ हैं घेरे में रखने वाली सीमाएँ
जिन्हें विशाल पशु-फार्मों के भूस्वामियों ने खींचा है;
व्यर्थ हैं व्यापारियों के व्यग्र षड्यन्त्रा जो
अँधेरे में अपने सुनहरे अण्डे सेते हैं;
आत्मा के नियम इसकी अनुमति नहीं देते
कि सिक्कों पर या गणनागृहों में बिका जाए।
'FOR SALE' की तख़्ती गले में लटकाए देस-दुनिया में घूमते बुद्धिजीवी कृपया यह कविता न पढ़ें।
कवि चन्द्रबली सिंह द्वारा अनूदित पाँच कविताएँ
1. वॉल्ट व्हिटमन
(1819-1892 ई.)
उनके लिए जो विफल रहे
उनके लिए जो अपनी महत्वाकांक्षाओं में विफल रहे,
उन अज्ञात नाम सैनिकों के लिए
जो अग्रिम पंक्तियों में धराशायी हुए,
शांत-समर्पित अभियंताओं के लिए
अतिरिक्त उत्साही यात्रियों के लिए,
उन सारे उच्चकोटि के गीतों और चित्रों के लिए
जो नहीं सराहे गए,
मैं विजय-पत्रों से आच्छादित एक स्मारक उठाऊँगा,
ऊँचा अन्यों के ऊपर उन सबके लिए
जो वक्त से पहले ही समाप्त हुए,
किसी विचित्रा अग्नि की आत्मा से अनुप्राणित,
जिसे अकाल मृत्यु ने बुझा दिया।
(To Those Who've Failed, 1888-89)
अनुवाद : चंद्रबली सिंह
2. एमिलि डिकिन्सन
(1830-1886 ई.)
सबसे विषादपूर्ण कोलाहल, सबसे मधुर कोलाहल
सबसे विषादपूर्ण कोलाहल, सबसे मधुर कोलाहल
सबसे उन्मत्त कोलाहल सुनने में जो आता--
वृहग-वृंद उस समय मचाते हैं जब वासंती
निशा का मधुर अंत होने को आता।
फाल्गुन और चैत्रा के बीच जो खिंची रेखा--
जादुई सीमांकन ऐसा
जिसे लाँघने में ग्रीष्म हिचकिचाता रहता,
क्योंकि स्वर्ग के बहुत निकटप्राय वह जा पहुँचा।
ऐसे वे हमें विवश याद आ जाते--
जिन्होंने हमारे साथ चहल-क�दमी की थी यहाँ,
जिन्हें वियोग की ऐंद्रजालिक विद्या ने
क्रूरता के साथ प्रिय से प्रियतर बना दिया।
यह हमें सोचने को बाध्य करता हमारे पास क्या था,
और जिस पर अब हम दुःखी होते।
हमें प्रायः कामना होती है कि वे मायावी कंठ
चले जाएँ और आगे अब वे न गाएँ।
कान मानव के हृदय को दरका सकता है
वेग से वैसे ही जैसे बरछी,
कामना होती है कि कानों की
हृदय से ऐसी सान्निध्यता न होती
(The Saddest noise, the sweetest noise)
अनुवाद : चंद्रबली सिंह
3. बर्टोल्ट ब्रेष्त
(1898-1956)
प्रत्येक नई वस्तु पुरानी वस्तु से बेहतर है
साथी, मैं कैसे जान पाता हूँ
कि वह घर जो आज बना
उसका उद्देश्य है और वह काम आने लगा है?
और वे ताजे नए निर्माण
जो शेष सड़क से मेल नहीं बिठा पाते
और जिनके इरादे मुझे मालूम नहीं
मेरे लिए ऐसे रहस्योद्घाटन हैं?
क्योंकि मैं जानता हूँ
प्रत्येक नई वस्तु
प्रत्येक पुरानी वस्तु से बेहतर है।
क्या तुम मानोगे?
वह आदमी जो स्वच्छ कमीज पहन लेता है
एक नया आदमी है?
वह औरत जिसने अभी-अभी स्नान किया
एक नई औरत है।
वह वक्ता भी जो धुआँ भरे कमरे में रात भर चली
बैठक में
नया भाषण शुरू करता है,
नया है।
प्रत्येक नई वस्तु
प्रत्येक पुरानी वस्तु से बेहतर है।
मैं अपूर्ण सांख्यिकी में
बिना कटे पन्नों की किताबों में, कारखाने से निकली
नई मशीनों में
उन कारणों को देखता हूँ जिनमें तुम रोज तड़के जाग जाते हो
वे आदमी जो एक नए मानचित्रा पर
किसी सफेद हिस्से में एक नई रेखा खींच देते हैं
वे साथी जो किसी किताब के पन्ने काट देते हैं
वे सुखी आदमी
जो किसी मशीन में पहली बार तेल डालते हैं
वे ही ऐसे लोग हैं जो समझते हैं
प्रत्येक नई वस्तु,
प्रत्येक पुरानी वस्तु से बेहतर है।
सतही एक भीड़, नई चीजों के लिए जो दीवानी है
जिसके जूतों में तल्ले कभी नहीं घिस पाते
जो अपनी किताबें अन्त तक नहीं पढ़ती
अपने विचारों को जो भूलती रहती है
यही दुनिया की
सहज आशा है
और अगर वह भी नहीं है तो भी
प्रत्येक नई वस्तु
प्रत्येक पुरानी वस्तु से बेहतर है।
अनुवाद : चंद्रबली सिंह
4. नाजिम हिकमत
(1901-1963 ई.)
हाथ
पत्थरों की तरह गम्भीर हैं तुम्हारे हाथ
कारा में गाए हुए गीतों की तरह उदास
भारवाही पशुओं से विशाल
भूख से मरते हुए बच्चों की क्रुद्ध आकृतियों-से
तुम्हारे हाथ मधुमक्खियों से परिश्रमी और दक्ष
दूध भरे स्तनों से गदराए
प्रकृति से पराक्रमी
रुक्ष चर्म के नीचे सुहृद-सा कोमल स्पर्श छिपाए
यह पृथ्वी वृषभ-शृंगों पर नहीं टिकी है
यह तुम्हारे हाथों पर टिकी है।
आह, साथियो, हमारे साथियो,
तुम्हें वह खाने को झूठ देते हैं
भूख में तड़पते हुए जब तुम्हें रोटी और मांस की जरूरत है।
मेज पर साफ कपड़ा बिछा कर
एक बार भी जी भर खाए बिना
तुम ऐसी दुनिया से कूच कर जाते हो
फलों से जिसकी शाखाएँ झुकी।
आह, साथियो, हमारे साथियो,
सर्वोपरि, एशियाई, अफ्रीकी
मध्यपूर्व, निकट-पूर्व
प्रशांत द्वीप माला के
और मेरे देश के
यानी मानवता के सत्तर फ़ीसदी से भी अधिक
पुरातन हो, ध्यान में खोये, अपने हाथों के सदृश
किन्तु उनके ही सदृश जिज्ञासु, उत्साही युवा हो।
साथियो, आह, हमारे साथियो
योरप या अमरीका के मेरे बन्धु,
तुम जागे हुए हो और तुम में साहस है
और तुम सरलता से अपने हाथों के सदृश मूर्ख बन जाते हो
सरल है तुम्हारा धोखा खा जाना।
साथियो, आह हमारे साथियो,
अगर एरियल बोलते हैं झूठ
अगर छापे की मशीनें बोलती हैं झूठ
अगर किताबें बोलती हैं झूठ
अगर दीवारों के इश्तहार और अखबारों के विज्ञापन बोलते हैं झूठ
अगर लड़कियों की नंगी टाँगें रजतपट पर बोलती हैं झूठ
अगर प्रार्थनाएँ बोलती हैं झूठ
अगर स्वप्न बोलते हैं झूठ
अगर लोरियाँ बोलती हैं झूठ
अगर होलियाँ के वाया लिन की आवाज बोलती है झूठ
अगर निराशा के दिन के बाद चाँदनी बोलती है झूठ
अगर शब्द बोलते हैं झूठ
अगर रंग बोलते हैं झूठ
अगर वाणियाँ बोलती हैं झूठ
अगर तुम्हारे हाथों के श्रम को लूटने वाला बोलता है झूठ
अगर हर चीज और हर आदमी बोलता है झूठ
और झूठ नहीं बोलते हैं केवल तुम्हारे हाथ
तो यह सब इसलिए कि वे लचीले हों गीली मिट्टी की तरह
अंधे हों कालिमा की तरह
मूर्ख हों गड़ेरिए के कुत्तों-से
और इसलिए कि बगावत से दूर रहें तुम्हारे हाथ
और इसलिए कि खत्म न हो
पैसे के लोभी का राज्य,
उसका अत्याचार
क्षणभंगुर
किन्तु ऐसी अद्भुत दुनिया से
जहाँ हम थोड़े ही दिनों का डेरा डालते हैं।
अनुवाद : चंद्रबली सिंह
5. पाब्लो नेरूदा
(1904-1973)
लोग
वह आदमी मुझे अच्छी तरह याद है,
जब मैंने उसे अन्तिम बार देखा था,
तब से कम-से-कम दो सदियाँ गुजर चुकीं;
घोड़े की पीठ पर या किसी वाहन में न वह सफ�र करता था,
हमेशा पैदल ही
खड्ग या अस्त्र नहीं,
बल्कि जाल या कुल्हाड़ी या फावड़ा या हथौड़ा
दूरियाँ
उसने ध्वस्त कर दीं।
उसका स्वजाति के किसी व्यक्ति से द्वन्द्व नहीं हुआµ
जल और भूमि से ही उसका संघर्ष रहा,
गेहूँ से, ताकि वह रोटी बने,
दैत्याकार वृक्ष से, ताकि वह लकड़ी दे,
दीवारों से, ताकि उनमें दरवाजे खुलें,
रेत से, ताकि वह दीवारें बने,
और सागर से, ताकि वह फलने लगे।
मैं उसे जानता था और वह बार-बार मुझे याद आता है।
वाहन खण्ड-खण्ड होकर बिखर गए,
युद्ध ने दरवाजे और दीवारें ध्वस्त कर दीं,
नगर बस मुट्ठी भर राख रहा,
सारे परिधान धूल बन उड़ते हैं,
और वह मेरे लिए क़ायम है,
बालू में अभी तक जीवित सुरक्षित है,
जबकि इसके पहले हर चीज, सिवा उसके,
स्थाई जान पड़ती थी।
परिवारों के निर्माण और लोप के दौरान
कभी वह मेरा पिता या मेरा सम्बन्धी था,
या लगभग ऐसा रहा, या अगर नहीं, तो शायद
वह अन्य व्यक्ति जो न कभी घर लौटा,
क्योंकि जल ने या पृथ्वी ने उसे उदरस्थ किया,
किसी यन्त्रा या वृक्ष ने उसका अन्त किया,
या वह ताबूत बनाने वाला बढ़ई था
जो ताबूत के पीछे अश्रुहीन चलता था,
ऐसा व्यक्ति जो सदा अनाम रहा,
सिवा वैसे जैसे काष्ठ या धातु नामधारी होते हैं,
और जिसे अन्य लोग ऊँचे से देखते थे,
चींटी को नहीं,
सिर्फ़ चींटी की बाँबी को देखते थे;
इसलिए जब उसके पाँवों में गति नहीं शेष रही,
क्योंकि वह निर्धन और श्रांत, दम तोड़ चुका था,
कभी नहीं वे सब वह चीज देख पाये,
जिसे देखने की उनकी आदत नहीं थी।
दूसरे पाँव भी वही आदमी था,
दूसरे हाथ भी था।
क़ायम रहा वह।
जब यह लगा कि वह चुक जाएगा,
फिर से वह वही आदमी बनकर उठा;
उधर वह एक बार फिर जमीन गोड़ता था,
कपड़े काटता हुआ, लेकिन ख़ुद लाक�मीज,
वहाँ वह था भी और नहीं भी था, ठीक वैसा ही,
जैसा वह चले और अपनी जगह
दूसरों को लगा जाने के पहले था
और चूँकि उसे क़ब्रगाह
या मक�बरा या अपना नाम उस पत्थर पर ख़ुदवाना
नसीब नहीं हो पाया, जिसे उसने पसीने में तर, ख़ुद काटा था,
किसी को उसके पहुँचने की ख़बर नहीं हो पाई,
किसी को उसके कूच कर जाने की ख़बर नहीं हो पाई।
इस तरह सिफर्� जब उसके लिए सम्भव हुआ, वह गरीब आदमी,
चुपके से फिर साँस लेने लगा।
बेशक वह वही आदमी था, विरासत के बिना,
पशुधन बिना, वंशगत प्रतीक बिना,
अन्यों से भिन्न वह नहीं था,
अन्य से वह नीचे की मिट्टी की तरह धूसर था,
चाम की तरह आकर्षणहीन,
गेहूँ काटते हुए वह पीतवर्ण रहा,
खान की गहराइयों में वह हब्शी था,
दुर्ग के भीतर प्रस्तर-वर्ण,
मछुआरों की नावों में ट्यूना के रंग का,
घास के जंगलों में अश्व-वर्ण--
कैसे कोई उसे पृथक् कर पाता
जब वह अपने मूलतत्त्व से अभिन्न रहा,
आदमी के वेष में मिट्टी, कोयला या सिंधु?
जहाँ वह रहता था, हर चीज
उसका परस पाकर वृहत्तर हो जाती थी
प्रतिरोधी शिलाओं ने,
जिन्हें उसके हाथों ने
तोड़ा था,
आकार और रेखा ग्रहण की
और एक-एक करके
भवनों के पैने नक्श धारण किये;
उसके हाथों से रोटी बनी,
रेलगाड़ियाँ उसने दौड़ा दीं;
दूरियाँ नगरों से पटीं,
दूसरे आदमी पैदा हुए,
मधुमक्खियाँ आईं,
और उस आदमी की रचना से, बहुलता से
बसंत बाजारों में,
नानबाइयों की दुकानों और कपोतों के बीच
घूमने-फिरने लगा।
रोटियों का जनक बिसराया गया,
वह आदमी जिसने कटाई की ओर थका-माँदा चलता रहा,
बार-बार चलता और नये पथ बनाता रहा, रेत जो ढोता रहा,
हर वस्तु इधर अस्तित्व में आई, उधर वह अस्तित्वहीन हुआ।
बस, उसने अपना अस्तित्व विपरित किया।
वह किसी अन्य जगह काम पर चला गया,
और वह अन्त में,
नदी में लुढ़कते पत्थर की तरह,
मृत्यु की ओर बढ़ा,
मृत्यु उसे धारा के बहाव में लेती गई।
मैं, जो उसे जानता था, नीचे को उसका लुढ़कना देखा किया,
उस क्षण तक जब वह सिफर्� अपने
पीछे छोड़ी वस्तुओं में जीवित रहा,
वे सड़कें जिनके बारे में, शायद ही उसे जानकारी थी,
वे भवन जिनमें उसे कभी नहीं, कभी नहीं रहना है।
और मैं उसे देखने के लिए लौट आया हूँ,
और हर दिन बाट जोहता जाता।
मैं उसे उसके ताबूत में फिर जी उठते देखता हूँ।
उसी के समकक्ष अन्य लोगों से
उसे पृथक् कर लेता हूँ, और मुझे लगता है
कि यह नहीं चल सकता,
कि यह रास्ता हमें कहीं हीं ले जाएगा,
कि इस तरह चलने में कोई यश नहीं।
मेरा विश्वास है कि ठीक से जूते और ताज पहनाकर
स्वर्ग इस आदमी को जगह देगा।
मैं सोचता हूँ कि जिन्होंने इतनी सारी चीजों की रचना की,
उन्हें हर चीज का मालिक होना ही चाहिए है,
कि रोटी जो बनाते हैं,
उन्हें वह खाने के लिए मिलनी ही चाहिए है।
कि वो खदान में हैं उन्हें रोशनी चाहिए है।
बहुत हो चुकाµबूढ़े आदमी जंजीरों में!
बहुत हो चुकाµउदास डूबे लोग!
हर व्यक्ति हाकिम के सिवा और न कुछ समझा जाए।
रानी के ताज बिना कोई औरत न हो।
हर हाथ के लिए सोने के दस्ताने।
सूरज के फल सभी अँधेरेवालों को!
उस आदमी को मैं जानता था और जब मुझसे सम्भव हुआ,
जब मेरी खोपड़ी में अभी आँखें थीं,
जब मेरे गले में अभी आवाज थी,
मैंने उसे समाधियों के बीच ढूँढ़ा,
और उसकी अब तक धूल में न मिली बाँह दबाते हुए,
‘‘हर चीज ख़त्म होगी, फिर भी तुम जिन्दा रह जाओगे।
जिंदगी को आग तुमने दी।
तुमने ही बनाया उसे जो कुछ तुम्हारा है।’’
इसलिए कोई घबराये नहीं जब मैं
अकेला लगता हूँ और अकेले नहीं होता हूँ
बिना साथ मैं नहीं होता हूँ और मैं सबकी बात कहता हूँ।
बिना जाने कोई मुझे सुन रहा है,
लेकिन वे जो मेरे गीतों के विषय हैं, जिन्हें जानकारी है,
जन्म लिए जाते हैं और इस दुनिया को बाढ़ में डुबो देंगे।
(The People) अनुवाद : चंद्रबली सिंह
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अनिल जनविजय |
आभार
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वाचस्पति जी |