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Sunday, July 30, 2017

कितनी बारिशों में : सतीश जायसवाल

(यायावर कवि-कथाकार सतीश जायसवाल की रूमानी नज़र से बारिश के कई रूप इस ब्लॉग पर आप सभी के समक्ष शेयर करते हुए बरसात की अनुभूति से दो-चार कर रहा हूँ)
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, खड़े रहना और बाहर

सतीश जायसवाल 

निर्मल वर्मा के संस्मरणों का एक संकलन है -- हर बारिश में। '
इस ''हर बारिश में'' उनके यूरोपिय देशों के संस्मरण संकलित हैं। उनके ये संस्मरण बार-बार पढ़ने के लिए हैं।
उनकी इस बारिश ने बारिश को किसी एक मौसम या किसी एक मन के लिए नहीं छोड़ा। बल्कि अनुभूतियों में व्याप गयी। उसमें रूमान भी हो सकता है और कोई उदास स्मृति भी धीरे से साथ हो सकती है।
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शिमला की किसी बरसती शाम का, कृष्णा सोबती का संस्मरण है -- और घण्टी बजती रही।''
उनके इस संस्मरण में मैं गिनती करता रहा कि कृष्णा सोबती ने उस शाम में कितनी बार चाय पी ?
उनकी वह चाय शिमला की उस बरसती शाम को हद दर्ज़े तक रूमानी बना रही थी। लेकिन आखीर में उस संस्मरण ने रूमान को उदासी में अकेला छोड़ दिया।
वहाँ, जहां घण्टी बजती रही लेकिन उस तरफ से किसी ने फोन नहीं उठाया। क्योंकि वहाँ पर अब वो था ही
नहीं, उस तरफ जिसे फोन उठाना था।
उदासी भी रूमान का एक रंग है। और वह भी बारिश में घुला हुआ मिलता है।
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मुम्बई की बारिश रूमानी होती है। हिन्दी फिल्मों की, शायद सबसे रूमानी जोड़ी -- नरगिस और राजकपूर
ने मिलकर इस रूमान को सजाया है।
राजकपूर की फिल्म -- श्री ४२० -- ने एक ऐसा रूमान रचा जिसकी छुअन अभी तक बनी हुयी है। ''श्री ४२०'' का
वह कोमल प्रसंग ! वैसे का वैसा अभी तक अनुभूतियों में भीग रहा है जैसा उस बारिश में भीग रहा था। किसी
पुल के कोने पर दुअन्नी वाली चाय की अपनी केतली और सिगड़ी लेकर बैठा हुआ वह, मूछों वाला भैय्या। और
उस बरस रही बारिश में नरगिस-राजकपूर के बीच एक छाते की साझेदारी में कितना कुछ पनप गया --प्यार
हुआ, इकरार हुआ...
एक छाते की वह भीगती हुयी साझेदारी पीढ़ियों का सपना रचने लगी -- मैं ना रहूंगी, तुम ना रहोगे: फिर भी
रहेंगी निशानियां..."
छतरियों का सौंदर्य तो मुम्बई में खिलता है। बारिश की एक बौछार पड़ते ही रंग बिरंगी छतरियों के शामियाने
सा फ़ैल जाता है। मुम्बई की बारिश धूप-छाँव का खेल खेलती है। छतरियां उसके साथ संगत करती हैं। मुझे जब भी मुम्बई की कोई बरसात मिलती है, मैं दादर के उस रेल-पुल तक जरूर जाता हूँ, जो दादर ईस्ट और वेस्ट को जोड़ता है।
शायद मैं दुअन्नी की चाय वाले उस भैय्या को वहाँ ढूंढता हूँ, पुल के इस या उस कोने में बैठा हुआ मिल जाए !
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कथाकार कमलेश्वर को मुम्बई पसन्द थी। क्योंकि मुम्बई में समुद्र है। और समुद्र की बारिश खूबसूरत होती है। वह देखने की होती है। भीगने की होती है। बार-बार भीगने की। वह सुनने की होती है। लय में बंधकर उतरती है और धुन बाँधकर बजती है।
कमलेश्वर ने मुम्बई की बारिश को उसकी स्वर लिपि में लिखा। खूब लम्बी आलाप की तरह लम्बे शीर्षक में बाँधकर -- उस रात ब्रीच कैन्डी की बरसात में वह मेरे साथ थी और ताज्जुब की बात कि दूसरी सुबह सूरज
पश्चिम से निकला...।''
यह कमलेश्वर की एक कहानी का शीर्षक है, जिसमें मुम्बई की बारिश लगातार बरस रही है। भिगा रही है। यह कहानी रात का रहस्य रचती है। एक बार वह ब्रीच कैन्डी पर रात का रहस्य है। और अगली बार वह बारिश का रहस्य हो जाता है। ब्रीच कैन्डी उसमें विलीन हो जाता है।
मैंने अभी तक ब्रीच कैन्डी पर बरसात नहीं देखी है। फिर भी लगता है कि मैं उसे जानता हूँ। बारिश को या उसे
जो उस रात वहाँ साथ थी ? क्या मालूम ! लेकिन मुम्बई तो बारिश में ही होती है।
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कमलेश्वर की इस कहानी का शीर्षक असाधारण रूप से लम्बा है। और एक अलग से शिल्प की रचना करता है। इससे प्रभावित कुछ ऐसा ही शिल्प मुझे अपनी एक कहानी के लिए सुझा -- बारिश में साथ घूमती हुयी आवारा लड़की किसी यायावर के लिए एक घर से कम क्या होगी !''
उसमें भोपाल की बारिश है। मुम्बई की बारिश समुद्री होती है। भोपाल की बारिश मैदानी। लेकिन उसमें, गिर्द
के पठार से चलकर आ रही ठण्डी हवा के तीखे झोंके होते हैं। तब न्यू मार्केट में किसी ठेले पर खड़े होकर भुट्टे खाना भोपाल की बारिश को हद दर्ज़े का रूमानी बना देता है। ऐसे में कोई आवारा लड़की साथ हो तो ?
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बारिश के कितने मौसमों से झारखण्ड का पूर्वी सिंगभूम अंचल अपनी हरियाली में बुला रहा था।
सिंगभूम संथाल आदिवासियों का सघन वनांचल है। जंगल की बारिश बीहड़ होती है। वह आवाज़ दे रही थी।
उसकी और कितनी अनसुनी की जा सकती थी ? तय हुआ कि इधर, छत्तीसगढ़ के कुछ कवि मित्र और उधर, बंगाल के कुछ कवि मित्र घाटशिला में मिलें -- कोलकता से नवल जी,राहुल राजेश, राकेश श्रीमाल और उनके
एक छात्र रजनीश, बर्दवान से श्यामाश्री। चक्रधरपुर से उमरचन्द जायसवाल,रायगढ़ से रामावतार अग्रवाल,
रायपुर से कुंवर रविन्द्र। बिलासपुर से मेरे साथ तनवीर हसन। और दिल्ली से उनके एक मित्र डॉ० धीरेन्द्र बहादुर।
शायद वहाँ सुवर्णरेखा नदी बारिश में नहाती हुयी मिले !
सुवर्णरेखा सुन्दर नदी है। और बांग्ला उपन्यासकार बिभूति भूषण बंद्योपाद्याय के उपन्यास में रहती है।
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बारिश में नहाती हुयी नदी कैसी दिखती है ? मैं जानता हूँ।
मैंने अपने यहां की अरपा को बारिश में नहाते हुए देखा है।
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मायापुर की मायाविनी बरसात में गंगा नदी को भीगते देखा है। और वहाँ डेल्टा पर बरसती उन्मादिनी बारिश
का निर्लज्ज होकर नाचना भी देखा है। हवा में कपडे उड़ाती हुयी। पारदर्शी होती हुयी।
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घाटशिला में बारिश नहीं मिली। फिर भी बारिश हमारे भीतर थी। और बाहर,कल बरस चुकी की बारिश का पता था। एक दिन पहले बारिश बरसी थी। और घरों की चारदीवारियों से लटक कर झांकते हुए कनेर की पत्तियां अभी तक भीगी हुयी थीं। हवा के साथ हिलती-डुलतीं तो कल की बारिश की बची हुयी बूंदें भी टपक जातीं। मैं वहाँ किसी आंगन में कदम्ब ढूँढ रहा था। नहीं मिला --
कभी था / पेड़ के नीचे / पड़ोस का मन,
बारिश में भीगती / सामने वाली आँगन,
काले गझिन जूड़े में / पीले फूलों का चलन,
अब ना पड़ोस / ना पड़ोस का मन / ना सामने वाली आंगन,
फिर भी याद हैं / कदम्ब को / सावन के दिन...
कनेर और कदम्ब बारिश के फूल हैं। वैसे ही जैसे पलाश और सेमल गर्मियों के फूल हैं।
संथाल स्त्रियों के बाल काले और घने होते हैं। और उनके बालों के जूड़े गझिन होते हैं। गझिन जुड़े में कदम्ब फूल का सौंदर्य खिलता है। लेकिन यहां बारिश सूनी थी।
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कदम्ब हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रिय है। कदम्ब के साथ शायद उनके, शान्तिनिकेतन के दिनों की अनुभूतियाँ जुड़ी होंगी।
शान्ति निकेतन की बारिश कदम्ब वृक्ष का अभिषेक करती है। और कदम्ब का फूल वहाँ उत्सव के रंग में खिलता है। वहाँ बाईसवें श्रावण का उत्सव मैंने भीगती बारिश में देखा है। उस उत्सव की सजावट कदम्ब के फूलों से थी। हरी भरी बरसात में पीला रंग उत्सव मना रहा था। तब, बांकुड़ा की एक बाउल गायिका -- आरती सिकदार कोपाई नदी के किनारे कदम्ब वृक्ष के साथ बैठी हुयी ध्यान कर रही थी। बारिश हो रही थी। बारिश में बाउल गायिका भीग रही थी। बारिश में कोपाई नदी भीग रही थी। और एक चमत्कार घटित हो रहा था --
देखो तो चमत्कार / सिद्ध मन्त्र की शक्ति का / गायिका कर रही है ध्यान / और नदी गा रही है / बाउल गान....
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